गुरुवार, 18 फ़रवरी 2010

मीडिया अपने ही आइने में

एक मीडिया साइट पर जब एक वरिष्ठ पत्रकार द्वारा किसी खास खबर छपने के बावत मार्केटिंग हेड की प्रतिक्रिया ‘हम धंधा करने बैठे हैं अगरबत्ती जलाने नहीं’… पढ़ने को मिला तो मन वाकई विचिलत हो गया।

मैं यही सोचता रहा की क्या पत्रकारिता जैसा पेशा अब वाकई महज एक धंधा बनकर रह गया है?

क्या पत्रकारिता इतनी ओच्छी चीज हो गई जिसे कोई भी मार्केटिंग का मकड़ा भी अपने जाल में पत्रकारों की पूरी फौज को ग्रसित कर ले और उस पर से उन्हें नसीहत भी दे?

क्या एक पत्रकार की हैसियत धंधा करने वाले की सी हो गई है? क्या प्रजातंत्र का चौथा खंभा कहलाने वाला पेशा अब इस हालत में आ पहुंचा कि जो चाहे वही उसे आड़े हाथों ले और जो मन में वो खरी खोटी सुना दे?

हमारे समाज में धंधा शब्द ही अपने आप में कहीं न कहीं नकारात्मक दिखाई देता या लगता है और इसे सीधे कोटे वाले से जोड़ा जाता है। धंधा करने वाले से तात्पर्य ये लिया जाता है मानो इस पेश में वही लोग शामिल होते है जिन्हें और कोई आदरणीय कार्य नहीं आता या वो इतने नाकाम या नक्कारा हो चुके होते हैं कि इसके अलावा उनके पास और कोई विकल्प ही नहीं बचा हो।

इस पीड़ी से पूर्व पत्रकारिता को एक मिशन भी कहा जाता था क्यों कि स्वाधीनता संग्राम की अगुवाई करने से लेकर सरकारी महकमें में बैठे शीर्षस्थ महानुभिवों तक को यही पत्रकार उनकी असली सुरत दिखाया करता था और पत्रकार या वकील होना फक्र की बात मानी जाती थी। आजादी की लड़ाई में शामिल कई शीर्षस्थ नेता इन्हीं दो पेशों से वास्ता रखते थे।

राष्ट्रपिता महात्मा गांधी भी एक पत्रकार थे और हरिजन नामक अखबार में उनके द्वारा लिखे गए सैकड़ों लेख आज भी हमारी पीढ़ी के लिए प्रेरणादायक स्तंभ की तरह है।अब तक भारत में हजारों ऐसे नामचीन पत्रकार पैदा हुए हैं जिन्होंने अपनी कलम की ताकत और अपने पाठकों की प्रतिक्रिया से प्रेरित हो कर समाज के हर एक पहलू को नजदीकी से देखा हर कुरीति और बुराई से लोहा लिया और अंधेरे में भी अलख जगाए रखा।

मगर समाज को सही दिशा दिखाने वाला पेशा और सच कहने और दिखाने की हिम्मत और हौसला रखने वाले पत्रकारों की टोली को यदि धंधा करने वाले गिरोह के ध्वजवाहक की संज्ञा दी गई तो इसके लिए पत्रकार समाज का एक तबका भी जिम्मेवार है

अखबार को समाज का आईना कहने वाले अस्त्र को अगर व्यापार का जरिया बना दिया गया तो इस अधोपतन में धन पशुओं की लालच की आग में हम पत्रकार भी तो समिधा की तरह झोंक दिए गए।और हमें अपनी आवाज उठाने तक की हिम्मत नहीं रही ।

जब संपादक और संवाददाता कलम की ताकत, अपना आत्मसम्मान और अपनी मर्यादा को भूलकर चांदी के चंद सिक्कों के लिए अपने आप को मार्केटिंग के मसीहाओं के सामने नतमस्तक करने लगे तो जाहिर है कि अर्थ का अनर्थ होगा और सरस्वती के हंस की जगह लक्ष्मी का उल्लू सर चढ़कर बोलेगा।

दुर्भाग्य ये है कि हर दिन खबर का अंबार और सामाजिक सच के समंदर का सामना करने वाले सहाफियों ने सच को छिपाना और झूठ पर सच का मुहर लगाना भी कबूल कर लिया। खबरिया चैनलों पर तो नाटकीय और राई को पहाड़ बनाने का लांछन पहले से ही लगना शुरू हो गया था मगर महाराष्ट्र में पिछले विधानसभा चुनाव से उपजी कई नई सेलफोन कंपनी की प्रीपेड सिम कार्ड की तरह खबरों कि खुरकी ने पत्रकारों की अस्मत और ईमानदारी में खाक डाल दिया।और कई नामचीन और जुझारू पत्रकारों की सच से लवरेज और विश्वसनीय रिपोर्ट पर भी संदेह का झाड़ू फेर दिया। जाहिर है एक ही झटके में पत्रकारिता जैसे सबसे पुराने पेशे की सारी सीमाएं और मर्यादाएं तोड़ दी गईं और पत्रकारों को जैसे सड़क पर बिखरे पत्थरों के आड़े तिरछे आकार की तरह पेश किया गया।

इस प्रकरण ने अचानक अखबारों में छपी खबरों कि विश्वसनीयता पर कई सवाल जड़ दिए और सूचना क्रांति के दौर में मीडिया की चाल, चरित्र, चोला और उसकी मजबूरियों का भी पर्दाफाश कर दिया। नतीजा ये हुआ कि इस मिलावट के दौर में एक आम आदमी अखबारों में परोशी गई हर खट्टी मीठी खबर को भी शक की निगाह से देखने लगा है।

लेकिन हमारे सहाफी समाज में अब भी इतनी हिम्मत नहीं बची की वो अपनी रीढ़ की हड्डी सीधी कर मार्केटिंग के महानुभावों को सीधे ये कहें की तुम हमारे ही द्वारा लिखी गई कहानियों को सेकते और तलते हो, उस पर से विज्ञपन का तेल मलते हो, हर साल हजारों करोड़ों का कारोबार करते हो, लाखों रुपये का इन्सेटिव डकारते हो फिर भी हमारे साथ सुदामा जैसा ही सलूक करते हो?

पत्रकारों की फौज को ये भी सोचना और बेखौफ कहना चाहिए कि अगर उनकी उपयोगिता नहीं है तो प्रबंध संपादक और विज्ञापन के विदुषी ही सारी कहानियां लिख ले और अपने बूते पर अखबार या चैनल चला लें।

मगर उससे भी बड़ा सवाल ये है कि अगर पत्रकारिता वाकई महज व्यापार बन कर रह गया है तो सरकार और समाज दोनों उसे उसी नजरिए से देखे। इस व्यापार को भी उन्हीं बंदिशो और विशेषताओं कि गलियारों से गुजरना चाहिए जो और उद्योगों के लिए लागू होते हैं। इस व्यापार को भी उन्हीं सख्तियों और सहुलियतों के दायरे में रहना चाहिए जैसा अन्य उद्योगों के साथ होता है।

फिर ऐसे में समाज को सही रास्ता दिखाने या समाज का सही चेहरा या आईना बनने की दलील क्यों?

अगर ये व्यापार है तो समाजसुधारक या दिशा निर्देशक बनने का ढोंग क्यों?

अगर पत्रकारिता वकई धंधा बन गया है तो फिर इसमें शामिल कलम के सिपाही से लेकर सेनापति तक को सरकारी सुविधाओं का मजा क्यों ?

फिर वो अपने ही वसूलों की चादर से अपना बदन ढकें और अपने ही पैरों पर गिरे।

दरअसल हमारी पत्रकार विरादरी को अब विरोधाभास में जीने की आदत हो गई है

जो लक्ष्मी जी के उल्लू के समाने सरस्वती को समर्पित करने पर मजबूर होने का रोना तो रोते हैं लेकिन अपने सम्मान की लड़ाई लड़ने की हिम्मत नहीं जुटा पाते हैं।

मार्केटिंग के मकड़ों की फौज के सामने घुटने टेकने का दंश उन्हें अंदर से हर दम सालता रहता है लेकिन वो ये मानने को तैयार नहीं कि इस सरिके जुर्म में वो भी मीर जाफर से कहीं कम नहीं। अगर वो अपनी जमीन पे कायम रहते तो आज के हालात काफी अलग रहे होते।

इसका सबसे त्रासदी पूर्ण नजारा पिछले हफ्ते भोपाल यात्रा के दौरान देखने को मिला। एक पत्रकार द्वारा लिखे गए लेख के बारे में पूछने पर उसका तेवर वाणासुर से कहीं कम नहीं था और उसकी धमकी तथा उसके द्वारा बोले गए वाक्यों को सुनने के बाद लगा कि शायद पत्रकारिता के सच को उजागर करने वाला दूसरा ध्वज वाहक पूरे देश में कहीं नहीं होगा। मगर उसके बाद उसके मालिक द्वारा शाम को शालीनता की हद पार कर जाने वाली गालियों के बीच उसकी ममने कि तरह मेमियाने की बात सुनी तो फिर मुकेश द्वारा गाए गए उस गाने की लाइन याद आ गई कि कहता है जोकर सारा जमाना आधी हकीकत आधा फसाना।

दरअसल सहाफत पेशे की नुमाइश या यूं कहें की सहाफत का अज्म और अस्मत इस वक्त उस मुकाम पर नशीन है जहां ये समझ में नहीं आ रहा कि इसकी जलालत झेली जाए या इसकी वकालत की जाए।

होई गति सांप छुछुदर केरी वाली स्थिति में होता यूं है जैसे कोई गरडिया अपनी बांसुरी कि तान के बूते पर भेंड़ों को इकट्ठा तो कर लेत है मगर उसमें चारागाहों की मल्कियत बदलने का खौलता लावा पैदा करने की हिम्मत नहीं होती।

उसकी स्थिति ऐसी होती है जैसे दिन भर गधे की तरह काम करने के बाद और बीस रुपये देहाड़ी मिलने के बाद कोई रात को लंबी लाइन में खड़े हो कर दस रुपये का सिनेमा टिकट खरीदता है और फिर ढ़ाई घंटे तक मायाबी रजतपटल पर दिखाए जा रहे तमाशे में खो जाता है।

सिनेमा घर से अपने घर तक के फसला तय करने के बीच वो उन्हीं कल्पनाओं के समंदर में सौ बार गोते लगा चुका होता है मगर घर में कदम रखते ही उसके ख्वाबों का तिलसम जिंदगी की नंगी हकीकत के सामने टूट जाता है... और वो फिर एक बार उसी टूटी चारपाई पर मैले कुचैले और फटे पुराने चादर में अपना मुंह छुपाकर सो जाता है मानो रात गई बात गई।

मौजूदा पत्रकारिता की सूरते हाल का यही हकीकत और सरमाया है।

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