सोमवार, 26 अप्रैल 2010

मीडिया और मोमबत्ती बिग्रेड

मीडिया और मोमबत्ती बिग्रेड

कहा जाता है कि आवश्कता ही अविष्कार की जननी है। और जहालत की तिरगी में इल्म और तालीम की कंदील ही रास्ता रोशन करती है। आदमी अपनी जरुरियात के लिए हर तरह के प्रयोग व प्रयास करता है और आसपास की चीजों से ही अपने ऐशोआराम का सामान जुटा लेता है।

कंदील या मोमवत्ती की कहानी भी कुछ इसी तरह शुरू होती है। पाषाण युग से ही मोमवत्ती के प्रयोग का किस्सा सामने आता है मिश्र ऐसा पहला देश था जिसमें कंदील का प्रयोग ईशा पूर्व 400 साल पहले से ही शुरू हो गया था। उसके बाद चीन तथा जापान में कीड़ों और कुछ फसलों के बीज से मोम निकाल कर उसको कागज के ट्यूब में डालकर मोमबत्ती बनाया जाता था।

भारत में मोमबत्ती की शुरुआत पहली सदी के आगाज़ से मंदिर में दीप जलाने के लिए दालचीनी के पेड़ से उसकी छाल पिघलाकर निकाले गए मोम से हुई थी।
अमेरिका में लोगों ने एक खास प्रजाति की मछली की चर्बी से पहली बार मोमबत्ती बनाई। उसमें लकड़ी का एक टुकड़ा घुसेड़ दिया जाता था ताकि वो सीधी तरह खड़ी रह सके। उसके बाद पहली सदी के अंत में सेरिओ नामक वृक्ष की छाल को पिघलाकर और उसमें से मोम निकाल कर मोमबत्ती बनाने की प्रथा शुरू हो गई।

कालान्तर में इंग्लैड में बसे लोगों ने बेबेरिज नामक पेड़ से मोमबत्ती बनाना शुरु कर दिया। लेकिन ये थोड़ा महंगा साबित हुआ। ये दीगर बात है कि आज की तारीख में भी इस पेड़ की छाल से इंग्लैंड में मोमबत्ती बनाई जाती है। लेकिन उसकी मुश्किल ये है कि 8 इंच की मोमबत्ती के लिए एक पूरे पेड़ का छाल पिघलाना पड़ता है।
कुछ समय बाद जानवरों की चर्बी से भी मोमबत्ती बनाने की प्रथा शुरू हुई लेकिन उसकी दुर्गंध लोगों को पसंद नहीं आई।

बड़े पैमाने पर मोमबत्ती बनाने की प्रथा 14वीं सदी के आसपास शुरू हुई जिसमें मधुमक्खी के छत्ते से निकाले गए मोम का प्रयोग हुआ। फ्रांस के पेरिस में इसका आविर्भाव हुआ और 18वीं सदी के आगाज में मोमबत्ती बनाने की कला दुनिया के कई देशों में विकसित हो गई।
मोमबत्ती बनाने की मशीन का निर्माण पहली बार सन 1825 में हुआ। मोमबत्ती में पाराफिन का प्रयोग 1830 में शुरू हुआ। टैलो पदार्थ से बनाई गई मोमबत्ती भी काफी समय तक लोकप्रिय रही।

आज की तारीख में घरों से राजमहलों तक, झाड़-फानूस को सजाने में मोमबत्ती का बड़ा ही अहम रोल रहा है। बिजली आने के बाद भी कई देशों में और खासकर कुछ विशेष मौकों पर सुगंधित और रंग बिरंगी मोमबत्तियां अपनी अलग ही छटा बिखेरती हैं।
मोमबत्ती के इतिहास के संदर्भ में ये भी जानना उचित होगा कि चीन में मोमबत्ती बनाने की अलग ही तकनीक थी। सन 265 से 420 ईबी तक जिंन साम्राज्य में इसका प्रचलन काफी बड़े पैमाने पर रहा। इस पद्धति के तहत कागज के पन्ने पर मधुमक्खी के छत्ते से निकाले गए मोम को चिपका कर मोमबत्ती बनाई जाती थी।बाद में सूंग साम्राज्य के समय मोमबत्ती में धागा डाला जाने लगा था।

भारत के समीप तिब्बत देश में याक जानवर के मख्खन से मोमबत्ती बनाई जाती थी।
1448 में निर्मित दुनिया की सबसे प्रचीन मोमबत्ती बनाने वाली मशीन आज भी दक्षिण अफ्रीका के डबलिन शहर में मौजूद है। साथ ही गाय या भैंस की चर्बी से निर्मित मोमबत्ती के कुछ कारखाने यूरोपिय देशों में देखे जा सकते हैं।

16वीं सदी में यूरोप के कई देशों में महलों और मकानों में रौशनी के अलावा सड़क पर प्रकाश डालने के क्रम में मोमबत्ती का प्रयोग होता था। मगर सन 1830 के बाद से मोमबत्ती बनाने की तकनीक तथा उसके मूल पदार्थों के चयन में भी काफी बदलाव आया।

अमेरिका के जोसेफ सैमसन को सन 1830 में नये तरीके से मोमबत्ती बनाने का पेटेंट दिया गया था। सन 1934 में इस कंपनी ने प्रति घंटे 1500 मोमबत्ती की रफ्तार से मोमबत्ती निर्माण का कार्य शुरू किया जो पूरे देश में बहुत मशहूर हुआ।

सन 1829 में प्रिंस विल्सन नामक एक शख्स ने श्रीलंका के एक 1400 एकड़ वाले नारियल के पेड़ों का जखीरा खरीदा जिसका मूल उद्देश्य नारियल के पेड़ की छाल की मदद से मोमबत्ती बनाना था। मगर उसके बदले वहां ताड़ के पेड़ की छाल से मोमबत्ती बनने लगी।
सन 1879 में थामस एडिसन द्वारा बिजली बल्ब के अविष्कार के बाद से भले ही मोमबत्ती की महत्ता में थोड़ी कमी आई हो। मगर जन्मदिन से लेकर गिरजाघरों में खास दिन पर मोमबत्ती जलाने का चलन आज भी बदस्तूर जारी है।

सोयाबीन से लेकर पेट्रोलियम पदार्थों से भी मोमबत्ती बनाई जाती है और आज की तारीख में पूरी दुनिया में 178 पदार्थों से अलग-अलग किस्म की मोमबत्तियां बनाई जाती रही हैं।

आप सोच रहे होंगे कि हम मोमबत्ती का बखान क्यों कर रहे हैं ? दरअसल आजकल मोमबत्ती का इस्तेमाल एक खास मानसिकता के लोग खास मौकों पर करने लगे हैं और तो और इस खास मानसिकता के लोगों की एक बिग्रेड सहज ही तैयार हो गई है जिसे आप मोमबत्ती बिग्रेड कह सकते हैं। किसी खास मौके पर मोमबत्ती बिग्रेड की चिल्ल पौ का उतना ही महत्व होता है जितना राजनीति की भाषा में आश्वासन का।

मोमबत्ती बिग्रेड का वैभव आपको सिर्फ वैभावशाली दिल्ली, मुंबई जैसे रेशमी महानगरों में ही दिखाई देगा। कुछ लोग सिर्फ हाईप्रोफाइल केस (अमीर परिवार से जुड़ी घटना) में न्याय मांगने के लिए एक खास जगह पर इकट्ठा होकर मोमबत्ती जलाते हैं। अगर किसी अमीर परिवार की बेटी की हत्या हो गई या किसी नामी मॉडर्न परिवार के साथ अन्याय हो गया तो मोमबत्ती बिग्रेड के लोग मोमबत्ती जलाकर, सुंदर-सुंदर रंग बिरंगे पोस्टर बनाकर, लेटेस्ट फैशन की पोशाक पहन कर, अंग्रेजी में नारे लगाते हैं और अंग्रेजी में बयान जारी करते हैं। हिंदी बोलने से उन्हें थोड़ा परहेज होता है। शायद डर हो कि हिंदी बोलने से कई विरोध करने की क्वालिटी न डिग्रेड हो जाए इस लिए स्टाइलिश इंग्लिश में अपनी बात कहते हैं। आप इस ग़फलत में मत रहिएगा की मोमबत्ती बिग्रेड कोई संगठन है और मोमबत्ती जलाने पहुंचने वाले सभी लोग एक दूसरे को जानते हैं। मोमबत्ती ब्रिगेड के लोग कुछ ऐसे ही इकट्ठा होते हैं जैसे कस्तूरी की तलाश में हिरन भटकते-भटकते इकट्ठे हो जाते हैं।

विरोध करने के लिए एकत्र हुए मोमबत्ती बिग्रेड के लोगों के चेहरे पर विरोध का भाव ढूंढना ऐसे ही है जैसे समुद्र में मोती खोजना। हल्की मुस्कान के साथ अपनी बात ऐसे कहते हैं जैसे किसी गेट टू गेदर पार्टी में आए हो। मजे की बात ये है कि हमारी मीडिया मोमबत्ती बिग्रेड को खूब अहमियत देती है। जैसे ही मीडिया को भनक लगती है कि आज मोमबत्ती बिग्रेड का खास शो हो होने जा रहा है तो न्यूज चैनलों की ओबी वैन सीधे मोमबत्ती बिग्रेड की लाइव कवरेज के लिए तैनात कर दी जाती है।
कैमरा, लाइट , और पूरे एक्शन के साथ मोमबत्ती जलाई जाती है और ये अद्भुत विरोध आप घर बैठे टीवी पर देख सकते हैं। या सीधे कहें तो इंज्वाय कर सकते हैं। क्योंकि आपको दुख और विरोध का भाव कहीं भी देखने को नहीं मिलेगा। ये अजीब विरोधाभास और यदि आप मोमबत्ती बिग्रेड के लोगों में विरोध और दुख का भाव देखना चाहते हैं तो फिर आप माडर्न मोमबत्ती बिग्रेड में शामिल होने कि योग्यता नहीं रखते।

मोमबत्ती बिग्रेड के साथ मीडिया की कदम ताल निराली हैं। मोमबत्ती बिग्रेड की पल-पल की खबर देने के लिए न्यूज चैनल लाखों रुपये खर्च करने में नहीं झिझकते। न्यूज चैनलों की रिपोर्टर मोमबत्ती बिग्रेड के लोगों की मोमबत्ती से मोमबत्ती जलाकर बोलतीं है जैसे वो खुद रिपोर्टर कम मोमबत्ती बिग्रेड की मेम्बर ज्यादा हों। और रिपोर्टर महोदया को इसके लिए खूब शाबाशी भी दी जाती हैं उनके इस हुनर की तारीफ सीनियर खूब चटकारा लेकर करते हैं।

मोमबत्ती बिग्रेड का चलन अभी नया है। इसलिए दिल्ली, मुंबई जैसे महानगरों में ज्यादा नजर आता है। पर आपको परेशान होने की जरूरत नहीं। मॉडर्न कहलाने का शौंक बड़ी गजब की चीज़ है। इसलिए जिसे भी खुद को मॉडर्न साबित करना होगा वो जल्द से जल्द मोमबत्ती बिग्रेड में शामिल होगा और वो दिन दूर नहीं जब आपको छोटे शहरों में भी मोमबत्ती बिग्रेड के लोग नजर आने लगेंगे।

आप ये सोच कर परेशान हो सकते हैं की दांतेवाड़ा में नक्सली हिंसा में मारे गए जवानों के लिए मोमबत्ती बिग्रेड ने मोमबत्तियां क्यों नहीं जलाई? आए दिन पश्चिम बंगाल में हो रहे नक्सली हमले का विरोध ये मोमबत्ती बिग्रेड क्यों नहीं करता? किसी गरीब की बेटी की बलात्कार हो जाने पर मोमबत्ती बिग्रेड का मोम जैस दिल क्यों नहीं पिघलता ? विदर्भ में आत्महत्या कर रहे किसानों का दुख मुंबई के मोमबत्ती बिग्रेड को दुखी क्यों नहीं करता ? देश में हो रहे अरबों के घोटलों पर मोमबत्ती बिग्रेड की ज्वाला क्यों नहीं जलती ? महंगाई से पिस रही आम जनता की पीड़ा मोमबत्ती बिग्रेड को क्यों नहीं दिखाई देती?

दरअसल मोमबत्ती बिग्रेड में शामिल पढ़े-लिखे मोटा पैसा कमाने वाले लोगों का ये मानसिक दिवालियापन हैं। ये लोग खुद को बाकी दुनिया से अलग समझते हैं पश्चिमी सभ्यता की नकल करने के लिए पिज्जा हट में बैठकर हजार रुपये का पिज्जा खा कर और पानी की जगह “कोल्ड ड्रिंक” से प्यास बुझा कर ये लोग खुद को माडर्न समझते हैं और पश्चिमी सभ्यता की आंख, कान, दिमाग बंद कर अनुसरण करते हैं। इन्हें लगता है ये ही वर्ल्डक्लास जीवन है।
मोमबत्ती बिग्रेड के लोग क्या ये नहीं जानते की उनके देश भारत ने सदियों से दुनिया को शांति का पाठ पढ़ाया हैं। शांति का अधिष्ठाता रहे भारत के महापुरुष दुनिया को शांति और अहिंसा का मार्ग दिखाते रहे हैं। महात्मा बुद्ध से लेकर महात्मा गांधी तक ये परंपरा निरंतर चली आ रही है।

‘दे दी हमे आजादी बिना खड्ग बिना ढाल
साबरमती के संत तूने कर दिया कमाल’

आज भी हमारे देश के स्कूलों में छात्र ये गीत गाते हैं। सारी दुनिया महात्मा गांधी के सत्य और अहिंसा के मार्ग का लोहा मानती है। महात्मा गांधी बिना मोमबत्ती जलाए, सादगी और अहिंसात्मक तरीके से विरोध करते थे और अंग्रेजों को सोचने पर मजबूर कर देते थे। पर मोमबत्ती बिग्रेड को मोमबत्ती ज्यादा भाती है चाहे किसी को श्रद्धांजलि देना हो, या विरोध प्रगट करना हो। महात्मा गांधी को संसाधनों के दुरुपयोग पर बहुत दुख होता था और वो हमेशा कम से कम चीज़ों का इस्तेमाल कर जीवन जीने की लोगों को सलाह देते थे। एक बार महात्मा गांधी के जन्म दिन पर उनकी पत्नी ने आश्रम में घी का दीपक जलाया था जब गांधी जी ने घी दीपक जलते देखा तो काफी दुखी हुए और कहा कि जिस देश में लाखों लोगों को घी खाने के लिए नहीं मिलता वहां घी का दीपक चलाना संसाधनों का दुरुपयोग करना है। और गांधी जी ने इसके लिए प्रायश्चित किया था।

अगर गांधीजी मोमबत्ती बिग्रेड के फैशनेबल मोमबत्ती शो को देखते तो देश के इन महा शुभचितंकों से शायद हाथ जोड़कर यही निवेदन करते की... हे ! मोमबत्ती बिग्रेड के महानुभावों। जो धन आप मोमबत्ती खरीदने में खर्च करते हैं वहीं धन आप शहीदों के परिवारवालों को दे तो उनकी बड़ी मदद होती।...

मगर ये बात मोमबत्ती बिग्रेड के लोगों के जेहन में न कभी आई और न लगता है कभी आएगी? क्योंकि मोमबत्ती बिग्रेड के ज्यादातर लोग अमीरी और वैभव के उस खेमे से तालुक रखते हैं जहां गरीबी और अभाव का साया कभी रहा ही नहीं। संपन्न परिवार के इन लोगों को पांच रुपये की मोमबत्ती जलाने में मजा आता है, सांधनों का दुरुपयोग करके इनकों आनंद मिलता है। भोग-विलास और आनंद में मदहोश मोमबत्ती बिग्रेड के लोगों से उम्मीद करना कि मोमबत्ती में पैसा खर्च करने की जगह ये देश के लिए शहीद हुए शूरवीरों के असहाय परिवार की मदद करेंगे ऐसे ही है जैसे पत्थर से पिघलने की उम्मीद करना।

मोम तो पिछल जाएगा, मोमबत्ती की बाती जल जाएगी पर मोमबत्ती बिग्रेड के लोगों में ईमानदारी, सत्यनिष्ठा और सादगी की बाती कब जलेगी ? कब मोमबत्ती बिग्रेड देश की आम जनता की भावनाओं का प्रतिनिधित्व करेगा ? मोमबत्ती बिग्रेड जमीन से जुड़े मुद्दे उठाएगा ? कब मोमबत्ती बिग्रेड का दिखावे का चोला वास्तविक ईमानदारी का चोला धारण करेगा ? कब मोमबत्ती बिग्रेड में फैशन की जगह देशभक्ति का भाव दिखेगा ? कब मोमबत्ती जलाने वाला युवा बिग्रेड सही मायने में देश की का शुभचितंक बिग्रेड बनेगा ?

ऐसे सैकड़ों सवाल है जो जिन पर सोचने के लिए समाज के महा महिम मोमबत्ती बिग्रेड के लोगों के पास शायद समय नहीं है। पश्चिमी देशों को जब हम अपना आदर्श मान लेते हैं और उनके बनाए ढर्रे पर लगातार आंख, कान, दिमाग बंद कर चलते चले जाते हैं तो ऐसे ही मोमबत्ती बिग्रेड पैदा होते हैं। जिनकी भावनाएं सिर्फ मोमबत्ती जलाने तक सीमित होती हैं। देश की जमीन से जुड़ी समस्याओं के बारे में सोचने समझने के लिए इनके पास वक्त नहीं होता और गरीबों पर होने वाले अन्याय के खिलाफ आवाज उठाने के लिए लिए इनके पास मोमबत्ती नहीं होती।

कुछ खास घटनाओं पर ही मोमबत्ती बिग्रेड का हुजूम नज़र आता है जो इनकी संकीर्ण मानसिकता और भेदभाव पूर्ण भावनाओं को दिखाता है। 26/11 मुंबई हमले के बाद मुंबई के गेटवे ऑफ इंडिया के सामने मोमबत्तियां लेकर इकट्ठा हुए मोमबत्ती बिग्रेड के लोगों ने अंग्रेजी में अपना रोना रोया। भले ये भाई लोग घरों में हिंदी या मुंबईय्या भाषा बोलते हो लेकिन मोमबत्ती बिग्रेड के शो में अंग्रेज बने बिना इनके पेट का पिज्जा कैसे पचता ? कैसे लोगों को ये पता चलता की ये महान लोग हाईक्लास के हैं और मॉर्डन फैशन की दुनिया के आदर्श मानुष हैं ?

हमारे देश का मीडिया मॉर्डन मानुषों का बड़ा कदरदान हैं हर न्यूज चैनल इनकी कवरेज पर अपनी पूरी ताकत झोंकने में कोई कसर नहीं छोड़ता है। न्यूज चैनलों को इस बात से कोई लेना-देना नहीं है कि मोमबत्ती बिग्रेड के लोगों की भावनाएं ईमानदार भावुकता से भरी हैं या दिखावटी घड़ियाली भावनाओं से ? गुड विजुअल के भूखे खबरिया चैनल, खबर दिखाने के नाम पर, न्यूज चैनल में सुंदर-सुंदर चेहरे दिखाने पर ज्यादा भरोसा रखते हैं। बिल्ली के भाग से टूटा छींका और न्यूज चैनलों की मुराद हुई पूरी। मोमबत्ती बिग्रेड के लोग न्यूज चलनों की मांग पर खरे उतरते हैं। बिल्ली की तरह न्यूज चैनल वाले तक लगाए बैठ रहते हैं कि कब कई मोमबत्ती बिग्रेड के लोग इकट्ठा हों और भाई लोग ओबी वैन तान दें और फिर कहना ही क्या....? चले राग तोरी में ख्याल जौनपुरी और कुछ तो मोहर्रम में भी गाएं होरी।

मोमबत्ती बिग्रेड को पापुलर बनाने में मीडिया की अहम भूमिका हैं। खबरिया चैनल मसाला, तड़का और भावनाओं के रंग भरकर देश की जनता के सामने मोमबत्ती बिग्रेड के शो को ऐसे पेश करते हैं जैसे देश मोमबत्ती बिग्रेड के शो में देशभर का दुख पिघल कर बह चला हो और उसे बांधने का सारा ठेका खबरिया चैनलों को दे दिया गया हो।

ऐसा लगता है मोमबत्ती बिग्रेड वालों की महा असली, महा दुखी भावनाओं की भाषा सिर्फ हमारे खबरिया चैनल ही समझते हैं और जितने दुखी और मोम की तरह पिघलने वाले दयालु मोमबत्ती बिग्रेड के लोग हैं उतने ही दुखी और उतने ही दयालु हमारे खबरिया चैनल के भाई लोग हैं। तभी तो पूरी भक्ति भावना से मीडिया बिग्रेड के शो अपने न्यूज चैनल पर दिखाते हैं।

महादेवी वर्मा की कविता के ये पंक्तियां

“गीत कहीं कोई गाता है,
गूंज किसी दिल में उठती है”

खबरिया चैनलों और मोमबत्ती बिग्रेड की जुगलबंदी में ये पंक्तियां फिट बैठती है गीत मोमबत्ती बिग्रेड के लोग गाते है और उसकी असली गूंज खबरिया चैनलों के संपादकों के दिल में गूंजती हैं और फिर घंटों खबरिया चैनलों में मोमबत्ती बिग्रेड की लीला छाई रहती है।

खबरिया चैनलों के लिए शायद मोमबत्ती बिग्रेड वाले गुन-गुनाते होंगे
जब शाम ढले आना..
जब मोमबत्ती जले आना...

और ये गीत सुनते ही लोकतंत्र के चौथे खंभे के पहरेदार खबरिया चैनल, खबरों की सारी मर्यादा को छोड़कर मोमबत्ती बिग्रेड के शो की तरफ ऐसे भागते हैं जैसे सर्कस देखने के लिए युवाओं की टोली गांव से कस्बों की तरफ भागती है।

सोमवार, 12 अप्रैल 2010

दाढ़ी का दर्प

दाढ़ी शब्द सुनते ही चेहरों पर करोड़ों बालों के जंगल का चित्र मन में उभर आता है। दाढ़ी को परिभाषित करें तो बालों का ऐसा झुंड जिसने गाल को ढक रखा है , कह कर आप मन को सांत्वना दे सकते हैं। लेकिन मन में सवाल उठता है कि ये दाढ़ी आखिर चीज़ क्या है? कुछ लोग दाढ़ी क्यों रखते हैं? सभी लोग दाढ़ी क्यों नहीं रखते? क्या लोग चेहरे की किसी कमी को छुपाने के लिए दाढ़ी रखते है? क्या लोग विद्वान, दार्शनिक, महान दिखने के लिए दाढ़ी रखते है? या लोगों को दढ़ियल कहलाने का शौक होता है? और न जाने कितने सवाल है जो हमारे मन में कौतूहल पैदा करते हैं।
दाढ़ी का अध्ययन pogonology कहा जाता है। इतिहास के पन्ने पलटे तो दाढ़ी को पुरुषों की बुद्धि और ज्ञान, यौन पौरूष, पुरुषत्व, या उच्च सामाजिक स्थिति के प्रतीक के रूप में देखा जाता था।, वहीं दूसरी तरफ दाढ़ी को गंदगी, एक सनकी स्वभाव से भी जोड़ा जाता था।
प्राचीन इजिप्ट के लोगों को दाढ़ी रखने का शौक था वे लाल और सुनहरे रंग की डाई लगाकर अपनी दाढ़ी को सजाते थे। 3000 से 1580 BC तक नकली दाढ़ी पहनने का फैशन था। खास मौकों पर राजा और रानी भी नकली दाढ़ी पहनते थे।


मेसोपोटामिया सभ्यता के लोग अपनी दाढ़ी को तरह-तरह से सजाते संवारते थे और दाढ़ी को नया लुक देने की कोशिश करते थे। फारसी लोग लंबी दाढ़ी रखते थे। राजा लंबी दाढ़ी को देखकर खुश होते थे।
प्राचीन भारत में लंबी दाढ़ी सम्मान और विद्वता का प्रतीक मानी जाती थी। साधु-संत लंबी दाढ़ी रखते थे और उनकी दाढ़ी में तपस्या और त्याग का भाव झलकता था। दाढ़ी वाले संतों के प्रति आम जनमानस में विशेष श्रद्धा होती थी। प्राचीन भारत के कुछ इलाकों में दाढ़ी को लेकर विशेष परंपरा प्रचलित थी लोग अपनी दाढ़ी का विशेष ख्याल रखते थे और कई स्टाइल से उसे संवारते थे। यहां तक की दाढ़ी को अपने आत्म सम्मान से जोड़कर देखते थे। दाढ़ी के महत्व का अंदाज़ा इसी बात से लगाया जा सकता है कि कर्ज़ न चुकाने वाले व्यक्ति की सजा के तौर पर आम जनता के सामने दाढ़ी मुंडा दी जाती थी। और दाढ़ी को बचाने को लेकर लोंगों के मन में इतना भय था कि वे सारा कर्ज चुका देते थे।
सिकंदर महान के समय में क्लीन सेव की परंपरा शुरू हुई और सिकंदर ने अपने सैनिकों को क्लीन सेव रहने का आदेश दिया था।

प्राचीन रोम की कहानी कुछ अलग है कहा जाता है कि 299BC तक रोम में दाढ़ी बनाने का प्रचलन ही नहीं था। पहली बार 299 BC के लगभग एक नाई को रोम बुलाया गया और Scipio Africanus पहले रोमन नागरिक थे जिन्होंने नाई से दाढ़ी बनवाई। और उसके बाद क्लीन सेव की हवा पूरे रोम में ऐसे फैली कि दाढ़ी के जंगल सपरचट्ट मैदान में रातों-रात तबदील हो गए और चिकने चेहरे रोम की पहचान बन गये।
जर्मनी में जंगलों में रहने वाली पिछड़ी जनजाति समाज में ये परंपरा थी कि जब तक नौजवान अपने समाज के एक दुश्मन को मौत के घाट नहीं उतार देता तब तक वो अपनी दाढ़ी नहीं कटवा सकता था। लोग लंबी दाढ़ी रखते थे और अपनी अपनी दाढ़ी की कसमें खाते थे। और दाढ़ी की कसम खाने का विशेष महत्व समझा जाता था।
15वी शताब्दी में ज्यादातर यूरोपवासी क्लीन सेव थे लेकिन 16वीं शताब्दी में यूरोप में लंबी-लंबी और स्टाईलिश दाढ़ी रखने का फैशन था। ऐसे-ऐसे स्टाइल प्रचलित थे कि अगर आप उस जमाने के लोगों की फोटो देखे तो आपकी नजर सबसे पहले दाढ़ी पर ही पड़ेगी और जितना समय आप उस फोटो को देखेंगे ज्यादा से ज्यादा बार आपकी नजर दाढ़ी पर ही टिकी रहेगी। दाढ़ी की कुछ मसहूर स्टाइल Spanish spade beard, English square cut beard, The forked beard और Stiletto beard यूरोप में प्रचलित थी।
नेपोलियन के जमाने में दाढ़ी फिर परवान चढ़ी। राजा और सेना के बड़े अधिकारी भी स्टाइलिश दाढ़ी रखने का शौक रखते थे। 19वीं शताब्दी के दौरान का दाढ़ी फैशन आम जनता के बीच खूब प्रचलित था।
पश्चिमी यूरोप और अमेरिका में सन 1960 में हिप्पी आंदोलन के दौरान लंबी दाढ़ी समाज के उच्चवर्ग में खासी लोकप्रिय थी।
19वीं शताब्दी में अमेरिका में दाढ़ी का प्रचलन ज्यादा नहीं था। अब्राहम लिंकन से पहले किसी अमेरिकी राष्ट्रपति ने दाढ़ी का शौक नहीं पाला था। प्रथम विश्व युद्ध के समय सन 1910 में केमिकल हथियारों के प्रयोग की आशंका के चलते सैनिकों को क्लीन सेव रहने की हिदायत दी थी।
वियतनाम युद्ध के समय दाढ़ी को फिर लौटने का मौका मिला। सन 1970 के दौरान हिप्पियों और व्यापारियों ने स्टाइलिश दाढ़ी रख कर अपने चेहरे की रौनक बढ़ाने में कोई कमी नहीं छोड़ी। संगीतकारों ने स्टाइलिश दाढ़ी को संगीत के सुर से जोड़ कर ऐसा समा बांधा की सारी दुनिया में मशहूर हो गये। The Beatles और Barry White इसमें अग्रणी हैं। 1909 से 1913 के बीच अमेरिका के राष्ट्रपति रहे William Howard अंतिम राष्ट्रपति थे जिन्होंने दाढ़ी रखी थी। इस तरह दाढ़ी की दास्तां निराली हैं।


कई धर्मों में दाढ़ी का विशेष महत्व है।

सिख धर्म में दाढ़ी का विशेष महत्व है ऐसी मान्यता है कि दाढ़ी पुरुष के शरीर का अभिन्न भाग है और उसे सम्मान के साथ अच्छे से रखना चाहिए। गुरु गोविंद सिंह ने दाढ़ी को सिखों की पहचान कहा। केश को सिखों के “5 का” में से एक माना गया।
हिंदू धर्म में तपस्वी, साधु-संत लंबी दाढ़ी रखते हैं। ऋषि-मुनि प्राय: जंगल में तपस्या करते थे। चेहरे पर लंबी-लंबी दाढ़ी और सिर पर जटाएं होती थी। हिंदू धर्म में दाढ़ी रखने वाले संतों को आज भी बहुत सम्मान प्राप्त है।


यहूदी धर्म में रेज़र से दाढ़ी बनाने पर निषेध है। कैची से दाढ़ी के बाल काटे जा सकते हैं। क्लीन सेव रहने के लिए बहुत से यहूदी धर्म के लोग इलेक्ट्रॉनिक रेज़र का इस्तेमाल करते हैं। यहूदी धर्म में दाढ़ी को पवित्रता से जोड़ा जाता है।
चित्र और मूर्तियों में ईशा मसीह को हमेशा दाढ़ी में दिखाया गया है। ईसाई धर्म के संतों में कुछ लंबी दाढ़ी रखते है और कुछ पादरी दाढ़ी नहीं रखते हैं।
मुस्लिम धर्म में दाढ़ी रखने को बढ़ावा दिया जाता है। कुछ लोग दाढ़ी रखते हैं और मूछें नहीं रखते हैं। काज़ी साहब, शाही इमाम ज्यादातर दाढ़ी रखते हैं। इस्लाम धर्म में गहरी आस्था रखने वाले लोग दाढ़ी रखना पसंद करते हैं।
पत्रकार विरादरी में दाढ़ी की दास्तां गजब की है लगता है कि चूसे हुए आम के चेहरे वाले पत्रकारों ने दाढ़ी रखकर अपने चेहरे को सही शक्ल देने की कोशिश की होगी। कुछ पत्रकारों ने खुद को विद्वान, महाज्ञानी और दार्शनिक दिखने की लालसा में दाढ़ी का जंगल उगाने में कोई कसर नहीं रखी। भले ही बड़ी-बड़ी दाढ़ी में वो कार्टून शो के डरावने किरदार से कम न लगते हो। मंत्री का संत्री गेट पर न रोके इसलिए स्टाइलिश दाढ़ी से ऐसा रोबदार चेहरा गढ़ने में कुछ भाई लोगों ने कोई कसर नहीं छोड़ी। इसके चक्कर में भले ही वो तालिबानी कुनबे के सदस्य क्यों न लगते हो? कुछ लोगों को हो सकता है अपनी योग्यता पर इतना गहरा शक हो कि जब तक वो दाढ़ी नहीं रखेंगे तब तक लोग उन्हें पत्रकार मानेंगे ही नहीं। कभी कभी ये सोचकर हैरानी होती है कि अगर दाढ़ी रखने से ही कोई बहुत बड़ा ज्ञानी और विद्वान हो जाता तो शायद दुनिया का पहला दार्शनिक एक बकरा ही होता। खैर आजाद देश के आजाद पत्रकार भाई लंबी-लंबी दाढ़ी रखें पर उसको सैंपू से जरूर धोएं और इत्र लगाना न भूले ताकी उनके अगल-बगल बैठे भले मानुषों को बदबू का दंश न झेलना पड़े।
आज कल के दाढ़ी रखने वाले कुछ लोग खुद को क्या समझते हैं? यो वो खुद की जानते होंगे पर ऐसा लगता है। भाई लोगों को रोब झाड़ने का इतना शोक होता है कि दाढ़ी बढ़ाकर खुद को आम दुनिया से अलग समझने लगते हैं और दाढ़ी में हाथ फेरते हुए रौब दिखाने की पूरी कोशिश करते हैं। दाढ़ी फैलाकर और छाती तान कर ऐसे चलते जैसे दाढ़ी में ही सारा ज्ञान छुपा हो। और जब कभी पहाड़ खोदा जाता है तो चुहिया भी नहीं निकलती। कई लोग तो दाढ़ी बढ़ाकर अपने आपको उसे खेमे में शामिल करना चाहते हैं जिससे उनका दूर-दूर तक वास्ता न करनी में न कथनी में होता है। कोई उनकी उपमा महान दार्शनिक या विद्वान से कर दे तो वो फूल के कुप्पा हो जाते हैं। उन्हें लगते लगता है कि विश्व के महान दार्शनिक भी उनके जैसे ही रहे होंगे।
दाढ़ी का इस्तेमाल लोग दुनिया को उल्लू बनाने में खूब कर रहे हैं। आजकल बाबा बनने की पहली सीढ़ी है आप दाढ़ी बढ़ा ले, लंबी दाढ़ी और लंबे बाल देखकर लोग आपको संत समझने में देर नहीं करेंगे। और फिर आप उपदेश और सतसंग के धंधे में उतर जाएं। मालामाल होने में देर नहीं लगेगी। इतनी तेजी से धन देऊ प्रोफेशन और कोई नहीं है। बाबागीरी के पेशे में आप रातो-रात अपनी झोली भर सकते हैं। और दुनिया के सारे सुख आपको ये दाढ़ी का जंगल दिला सकता है। इसके प्रत्यक्ष उदाहरण आप लोग टीवी में देख रहे होंगे। और आगे भी देखेंगे इसमें कुछ कोई शक नहीं है। इच्छाधारियों की इच्छाओं के बारे में बताने की जरूरत नहीं है। दाढ़ी का असली रहस्य लगता है इन तथाकथित बाबाओं को ही मालूम है बाकी सब फेल हैं।

शनिवार, 3 अप्रैल 2010

धर्म का चश्मा भाग-1

चश्मा बड़ी गजब चीज़ है। आंखों में काला चश्मा लगाकर आप दुनिया को छुपी नजरों से देख लेते हैं और दुनिया की नजरें आपको नहीं देख पाती। लोग पता नहीं लगा पाते की आप असल में क्या और किधर देख रहे थे? आप छुपा क्या रहे है ? क्या आपको डर है आंखे कहीं सच न बोल दें? क्या नाक पर काला चश्मा चढ़ा कर हम आंखों को सच बयां करने से रोकते हैं ?
चश्मा चढ़ा कर आप समाज में सीना तानकर चल सकते हैं और पूरा मुंह छुपाने की जरूरत नहीं पड़ती। बस आंखे में दृश्य या अदृश्य चश्मा चढ़ा रहे। और जब धर्म का चश्मा चढ़ जाए तो फिर बात ही क्या है? धर्म के चश्मे पर बात करने से पहले क्यों न धर्म को थोड़ा बहुत समझ लिया जाए?
धर्म किसी एक या अधिक परलौकिक शक्ति में विश्वास और इसके साथ-साथ उसके साथ जुड़ी रिति, रिवाज़, परम्परा, पूजा-पद्धति और दर्शन का समूह है।
य: धारति सह धर्म:, अर्थात जिंदगी में जो धारण किया जाए वही धर्म है। नैतिक मूल्यों का आचरण ही धर्म है। धर्म वह पवित्र अनुष्ठान है जिससे चेतना का शुद्धिकरण होता है।
किसी समाज या देश की समस्याओं का समाधान कर्म-कौशल, व्यवस्था-परिवर्तन, वैज्ञानिक तथा तकनीकी विकास, परिश्रम तथा निष्ठा से सम्भव है। आज के मनुष्य की रुचि अपने वर्तमान जीवन को सँवारने में अधिक है। उसका ध्यान 'भविष्योन्मुखी' न होकर वर्तमान में है। वह दिव्यताओं को अपनी ही धरती पर उतार लाने के प्रयास में लगा हुआ है।
मनु ने धर्म के दस लक्षण बताये हैं:
धृति क्षमा दमोस्तेयं शौचं इन्द्रियनिग्रहः ।
धीर्विद्या सत्यं अक्रोधो , दसकं धर्म लक्षणम ॥ (मनु स्मृति)
अर्थात धैर्य, क्षमा, संयम, चोरी न करना, शौच ( स्वच्छता ), इन्द्रियों को वश मे रखना, बुद्धि, विद्या, सत्य और क्रोध न करना ; ये दस धर्म के लक्षण हैं।
शास्त्रों में कहा गया है कि जो अपने अनुकूल न हो वैसा व्यवहार दूसरे के साथ नहीं करना चाहिये, यही धर्म की कसौटी है।
श्रूयतां धर्म सर्वस्वं श्रूत्वा चैव अनुवर्त्यताम् ।
आत्मनः प्रतिकूलानि, परेषाम् न समाचरेत् ॥
अर्थात धर्म का सर्वस्व है, सुनों और सुनकर उस पर चलो! स्वयं को जो अच्छा न लगे, वैसा आचरण दूसरे के साथ नहीं करना चाहिये।
हिन्दू धर्म विश्व के सभी धर्मों में सबसे पुराना धर्म है। ये वेदों पर आधारित धर्म है, जो अपने अन्दर कई अलग-अलग उपासना पद्धतियाँ, मत, सम्प्रदाय, और दर्शन समेटे हुए है। हिन्दू एक फ़ारसी शब्द है। हिन्दू लोग अपने धर्म को सनातन धर्म या वैदिक धर्म भी कहते हैं।
ऋग्वेद में कई बार सप्त सिन्धु का उल्लेख मिलता है, संस्कृत में सिन्धु शब्द के दो मुख्य अर्थ हैं पहला, सिन्धु नदी जो मानसरोवर के पास से निकल कर लद्दाख़ और पाकिस्तान से बहती हुई समुद्र मे मिलती है, दूसरा, कोई समुद्र या जलराशि।
ऋग्वेद की नदी स्तुति के अनुसार वे सात नदियाँ हैं सिन्धु, सरस्वती, वितस्ता (झेलम), शुतुद्रि (सतलुज), विपाशा (व्यास), परुषिणी (रावी) और अस्किनी (चेनाब)।
ईरानियों ने सिन्धु नदी के पूर्व में रहने वालों को हिन्दु नाम दिया। जब अरब से मुस्लिम हमलावर भारत में आए, तो उन्होने भारत के मूल धर्मावलम्बियों को हिन्दू कहना शुरू कर दिया।
हिन्दू धर्म के अनुसार संसार के सभी प्राणियों में आत्मा होती है। मनुष्य ही ऐसा प्राणी है जो इस लोक में पाप और पुण्य, दोनों कर्म भोग सकता है, और मोक्ष प्राप्त कर सकता है।
हिन्दू धर्म में चार मुख्य सम्प्रदाय हैं।
1- वैष्णव (जो विष्णु को परमेश्वर मानते हैं)
2- शैव (जो शिव को परमेश्वर मानते हैं)
3- शाक्त (जो देवी को परमशक्ति मानते हैं)
4- स्मार्त (जो परमेश्वर के विभिन्न रूपों को एक ही समान मानते हैं)।
हिंदू धर्म में ॐ (ओम्) ब्रह्मवाक्य माना गया है, जिसे सभी हिन्दू परम पवित्र शब्द मानते हैं। ऐसी मान्यता है कि ओम की ध्वनि पूरे ब्रह्मान्ड में गून्ज रही है। ध्यान में गहरे उतरने पर यह सुनाई देती है। ब्रह्म की परिकल्पना वेदान्त दर्शन का केन्द्रीय स्तम्भ है, और हिन्दू धर्म की विश्व को अनुपम देन है।

श्रीमद भगवतगीता के अनुसार विश्व में नैतिक पतन होने पर भगवान समय-समय पर धरती पर अवतार लेते हैं। ईश्वर के अन्य नाम हैं : परमेश्वर, परमात्मा, विधाता, भगवान। इसी ईश्वर को मुस्लिम अरबी में अल्लाह, फ़ारसी में ख़ुदा, ईसाई अंग्रेज़ी में गॉड, और यहूदी इब्रानी में याह्वेह कहते हैं।
अद्वैत वेदान्त, भगवत गीता, वेद, उपनिषद्, आदि के मुताबिक सभी देवी-देवता एक ही परमेश्वर के विभिन्न रूप हैं। ईश्वर स्वयं ही ब्रह्म का रूप है। निराकार परमेश्वर की भक्ति करने के लिये भक्त अपने मन में भगवान को किसी प्रिय रूप में देखता है।
“एकं सत विप्रा बहुधा वदन्ति” (ऋग्वेद)
अर्थात एक ही परमसत्य को विद्वान कई नामों से बुलाते हैं।
योग, न्याय, वैशेषिक, अधिकांश शैव और वैष्णव मतों के अनुसार देवगण वो परालौकिक शक्तियां हैं जो ईश्वर के अधीन हैं मगर मानवों के भीतर मन पर शासन करती हैं।
योग दर्शन के अनुसार-
ईश्वर ही प्रजापति और इन्द्र जैसे देवताओं और अंगीरा जैसे ऋषियों के पिता और गुरु हैं।
मीमांसा के अनुसार-
सभी देवी-देवता स्वतन्त्र सत्ता रखते हैं, और उनके उपर कोई एक ईश्वर नहीं है। इच्छित कर्म करने के लिये इनमें से एक या कई देवताओं को कर्मकाण्ड और पूजा द्वारा प्रसन्न करना ज़रूरी है। इस प्रकार का मत शुद्ध रूप से बहु-ईश्वरवादी कहा जा सकता है।
ज़्यादातर वैष्णव और शैव दर्शन पहले दो विचारों को सम्मिलित रूप से मानते हैं। जैसे, कृष्ण को परमेश्वर माना जाता है जिनके अधीन बाकी सभी देवी-देवता हैं, और साथ ही साथ, सभी देवी-देवताओं को कृष्ण का ही रूप माना जाता है। ये देवता रंग-बिरंगी हिन्दू संस्कृति के अभिन्न अंग हैं।
वैदिक काल-
वैदिक काल के मुख्य देव थे इन्द्र, अग्नि, सोम, वरुण, रूद्र, विष्णु, प्रजापति, सविता (पुरुष देव), और देवियाँ थीं सरस्वती, ऊषा, पृथ्वी, इत्यादि।
बाद के हिन्दू धर्म में और देवी देवता आये इनमें से कई अवतार के रूप में आए जैसे राम, कृष्ण, हनुमान, गणेश, कार्तिकेय, सूर्य-चन्द्र और ग्रह, और देवियाँ जिनको माता की उपाधि दी जाती है जैसे दुर्गा, पार्वती, लक्ष्मी, शीतला, सीता, राधा, सन्तोषी, काली, इत्यादि। ये सभी देवता पुराणों मे उल्लिखित हैं, और उनकी कुल संख्या 33 करोड़ बतायी जाती है।
महादेव-
पुराणों के अनुसार ब्रह्मा, विष्णु और शिव साधारण देव नहीं, बल्कि महादेव हैं
गाय-
हिन्दु धर्म में गाय को भी माता के रूप में पूजा जाता है। यह माना जाता है कि गाय में सम्पूर्ण ३३ करोड़ देवि-देवता वास करते हैं।
आत्मा-
हिन्दू धर्म के अनुसार हर मनुष्य में एक अभौतिक आत्मा होती है, जो सनातन और अमर है। हिन्दू धर्म के मुताबिक मनुष्य में ही नहीं, बल्कि हर पशु और पेड़-पौधे, यानि कि हर जीव में आत्मा होती है। मानव जन्म में अपनी आज़ादी से किये गये कर्मों के मुताबिक आत्मा अगला शरीर धारण करती है। अच्छे कर्म करने पर आत्मा कुछ समय के लिये स्वर्ग जा सकती है, या कोई गन्धर्व बन सकती है, अथवा नव योनि में अच्छे कुलीन घर में जन्म ले सकती है। बुरे कर्म करने पर आत्मा को कुछ समय के लिये नरक जाना पड़ता है, जिसके बाद आत्मा निकृष्ट पशु-पक्षी योनि में जन्म लेती है। जन्म मरण का सांसारिक चक्र तभी ख़त्म होता है जब व्यक्ति को मोक्ष मिलता है। उसके बाद आत्मा अपने वास्तविक सत्-चित्-आनन्द स्वभाव को सदा के लिये पा लेती है। मानव योनि ही अकेला ऐसा जन्म है जिसमें मानव के पाप और पुण्य दोनों कर्म अपने फल देते हैं और जिसमें मोक्ष की प्राप्ति संभव है। (जारी है)

धर्म का चश्मा भाग-2

धर्म की बात हो और कबीर की चर्चा न हो ऐसा कैसे हो सकता है ।
कबीरदास पढ़े-लिखे नहीं थे। कबीरदास ने खुद कहा...
“मसि कागद छुए नहीं, कलम गही नहीं हाथ”
अर्थात कागज और स्याही कभी छुआ नहीं,कलम को कभी हाथ नहीं लगाया। फिर भी धर्म के बारे में कबीर का दर्शन गजब का था। धर्म में व्याप्त कुरीतियों को लेकर कबीर ने हिंदू-मुस्लिम दोनों को लताड़ा।
हिंदूओं के सिर मुंडा कर लंबी चोटी रखने वाले पंडो और संन्यासियों दोनों को फटकारते हुए कहा
“मुंड मुडाए हरि मिले तो सब कोउ ले मुडाए
बार-बार के मुड मुडाए भेड़ न बैकुंठ जाए”।।
अर्थात यदि सिर मुडा कर और लंबा चंदन लगाने से भगवान मिलने लगे, और भक्त स्वर्ग पहुंचने लगे तो सबसे पहले भेड़ को बैकुंठ मिल जाता। लेकिन बार-बार पूरे बाल मुडाने के बाद भी भेड़ कभी स्वर्ग नहीं जाती।
वहीं दूसरी तरफ मुस्लिमों को लताड़ते हुए कबीर ने कहा कि
“कांकर पाथर जोर कै, मस्जिद लई जुनाए
ता चढ़ मुल्ला बाग दे क्या बहरा हुआ खुदाए”।।
कबीरदास ने कहा की कंकड़, पत्थर जोड़कर मुस्लिम समुदाय के लोग मस्जिद बना लेते हैं, और उसमें बैठकर मुल्ला,मौलवी जोर-जोर से चिल्लाते हैं क्या उनका खुदा बहरा हो गया है ?
पाहन पूजे हरि मिले तो मैं पूजू पहार।
चाकी क्यों नहीं पूजिए, पीस खाए संसार।।
कबीर ने मूर्ति पूजा का विरोध करते हुए करते हुए कहा कि यदि पत्थर पूजने से भगवान मिले तो मैं पहाड़ की पूजा करने के लिए तैयार हूं। यदि पत्थर की पूजा करनी है तो गेहूं पीसने वाले चक्की की पूजा करो जिसमें अनाज पीस कर लोग रोटी खाते हैं।
रोज रखने वाले मुस्लिमों को भी कबीर ने निशाना बनाया और कहा कि....
“दिन को रोज रखत हैं रात हनत हैं गाय”
अर्थात ये मुस्लमान भाई दिन को रोज़ा रखते हैं, थूक तक गले से नहीं निगते पर रात में गाय का मांस खाते हैं ऐसे मुस्लिमों को जन्नत कैसे नसीब होगी ? इतनी ही नहीं कबीर तो यहां तक कह गये कि
“मुसलमान की पीर औरिया मुर्गी मुर्गा खाई।
खाला के घर बेटी ब्याही घर में करे सगाई।।“
कबीर ने कहा कि मुर्गी-मुर्गा खाने वाले मुसलमानों के नाते-रिश्तों की दास्तां निराली है, मौसी की बेटी से शादी कर लेते है अर्थात अपनी मां की सगी बहन की बेटी से शादी करना सीधे बहन से शादी करने जैसा है कबीर ने मुस्लिम धर्म की कुरितियों पर कड़ा प्रहार किया है और हिंदूओं के ढोंग, आडंबर और दिखावटी कर्मकांड के लिए खूब लताड़ा।
कबीर ने धर्म के नाम पर समाज को बहकाने वाले धर्म के ठेकेदारों को ललकारते हुए कहा कि...
“हिंदुन की हिंदुआई देखी, तुर्कन की तुर्काई”
अर्थात हिंदू धर्म और मुस्लिम धर्म दोनों को देखा। दोनों धर्म के लोग ईश्वर की प्राप्ति के सच्चे मार्ग से भटके हुए हैं। इस प्रकार कबीर ने उस जमाने में लोगों के आंख से धर्म का चश्मा उतारने के कोशिश की और जनमानस को सही रास्ता दिखाने का प्रयास किया।
आज धर्म पर बाजार हावी है। सीधे कहा जाए तो धर्म का बाजारीकरण हो गया है आपको भगवान के दर्शन के लिए पैसे चुकाने पड़ेंगे। ये आपकों तय करना है कि कितने रुपये वाला दर्शन करना है। अर्थात प्रसिद्ध मंदिरों अगर आप पास से भगवान का दर्शन करना चाहते हैं तो उसके अलग रेट हैं और अगर दूर से गेट के पास से ही दर्शन कर लेना चाहते हैं तो उसके लिए कम पैसे में काम बन सकता है। आज ईश्वर का दर्शन रुपये-पैसों में तौला जाने लगा है।
हमारे देश में धर्मगुरुओं की लंबी फौज खड़ी हो गई है। सबका अपना अलग तुर्रा है। शंकराचार्य ने 4 पीठों की स्थापना की थी और हर पीठ में एक प्रमुख आचार्य अर्थात शंकराचार्य की नियुक्ति की थी। वर्षो से ये परम्परा चली आ रही थी लेकिन आज आपकों एक दर्जन शंकराचार्य मिल जाएंगे, उनके हाव-भाव देख कर आप हैरान रह जाएंगे। हर शंकराचार्य खुद को असली और दूसर शंकराचार्य को नकली बताता है।
धर्म के नाम पर सतसंग करने वाले बाबाओं का बोलबाला है। इनकी अरबों की संपत्ति है। करोड़ों की गाड़ियों का काफिला है। संयोग से एक ऐसे बाबा के दर्शन हुए जिनकी चरण पादुका(चप्पल) में हीरे लगे हुए थे। एक भक्त ने बड़े उत्साह से बताया की ये महाराज जी की चरण पादुका में 50 लाख के हीरे लेगे है। उन्ही महाराज जी ने भक्तों को प्रवचन में ज्ञान दिया कि ‘माया-मोह से दूर रहकर साधु-संतों की संगत करने से ही इस संसार सागर मुक्ति मिल सकती है’। भक्त बेचारा माया-मोह से दूर रहे और दुनिया भर की सारी माया इन बाबाओं के आश्रम में लाकर दान कर दे ताकि ये धर्म का चश्मा पहले पाखंडी लोग ऐश कर सकें।
आज आपको किसी तीर्थ स्थल तक जाने की जरूरत नहीं है हर शहर, हर गली में आपको को धर्म का चश्मा पहले लुटेरे बाबा बैठे मिल जाएंगे। उनकी वेश-भूष देखकर समाज का साधारण जनमानस ईश्वर के करीब जाने की लालशा में खिंचा चला आता है। और फिर बाबा उसे अपना चेला बनाने में कोई कसर नहीं छोड़ते हैं।
आजकल धर्म के साथ योग जोड़कर कुछ बाबाओं ने योग की मल्टीनेशनल कंपनी खड़ी कर ली है। प्रचीन काल से योग भारत की संस्कृति का अभिन्न हिस्सा रहा है स्वंय श्रीकृष्ण को बहुत बड़ा योगी कहा जाता है। हमारे देश में महान योगी संत हुए है लेकिन योग का जैसा बाजारीकरण आज हो रहा है पहले कभी नहीं हुआ। योग से बीमारी का लाइलाज बीमारी तक का दावा करने में भी लोग नहीं हिचक रहे हैं। बाबा लोग योग को धंधा बनाकर एक-एक आसन को ऐसे बेच रहे हैं जैसे पीजा हट वाले तरह-तरह का पीजा बेचते हैं।
धर्म का चश्मा पहने इन बाबाओं से मिला भी कोई आसन काम नहीं इसके लिए आपको बकायदे पहले से बुकिंग करनी होगी। कुछ बाबाओं की मिलने की फीस 25 हजार रुपये है। पहले फीस जमा कराएं फीर समय लें बाबा मिलते हैं।
धन कुबेर बने बैठे इन बाबाओं के समाज के उत्थान में क्या योगदान है?, समाज के समस्याओं के दूर करने के लिए इन बाबाओं ने क्या प्रयास किए हैं?, धर्म ने नाम पर लोगों को बहकाने के अलावा देश में शांति सद्भाव बढ़ाने के लिए इन बाबाओं ने क्या किया? आज भारत की आबादी में 65% हिस्सा युवा वर्ग का है उनकों सही दिशा देने की इन बाबाओं की क्या योजना है। जिस भारत देश में ये बाबा पैदा हुए उसकी माठी के लिए इन्होंने आज तक क्या किया? ऐसे न जाने कितने सवाल है जिनके जवाब इन धर्म का चश्मा पहने बैठे इन बाबाओं के देना पड़ेगा?
धर्म का चश्मा पहले राजनीति में घुसने की जुगते में बैठे कुछ ढोंगी संतों को आम जनता सही वक्त पर आईन दिखा देगी और जिस दिन युवा पीड़ी इन बाबाओं के असली धंधे को समझ गई उस दिन इनके धर्म के चश्म को उतर कर फेंक देगी। यहां यह स्पष्ट करना जरूरी है सभी संत ऐसे नहीं है पर आज ढोंगी बाबाओं का बाजार ज्यादा गरम है हमारा उद्देश्य उन ढोंगी बाबाओं की तरफ इशारा करना था जिन्होंने धर्म का चश्मा पहन कर समाज के संसाधनों का दुरुपयोग किया है और आम जनमानस को ईश्वर प्राप्ति के सही मार्ग से भटकाया।