रविवार, 21 फ़रवरी 2010

मीडिया क़ानून और ज़मीनी हक़ीकत

मीडिया कानून और ज़मीनी हक़ीक़त
तीन दिन पहले जैसे ही सूचना और प्रसारेण मंत्री श्रीमती अंबिका सोनी ने ये घोषणा की कि संसद के इस सत्र में वो ख़बरों के प्रसारण संबंधित एक नए अधिनियम का प्रस्ताव लेकर आएंगी तो हमारी पत्रकार बिरादरी में चिल्ल पौं का बाज़ार फिर से गर्म हो गया। मंत्री साहिबा ने इतना ही कहा था कि प्रेस एवं पुस्तक पंजीकरण अधिनियम 1867 का मसौदा तैयार कर लिया गया है और वैसे भी इस पीआरबी कानून में सन 1873 से लेकर 1993 के बीच कई बार संशोधन हो चुका है फिर भी कुछ नए बिंदुओं पर विचार करने की आवश्यकता है और इन्हीं संशोधनों पर काम किया जा रहा है।
फिर क्या था मीडिया के पितामह, मित्र और दोहित्र सब मैदान में कूद पड़े। एक पितामह ने ताल ठोक कर कहा”ये सारा खेल एक बार फिर से प्रेस की स्वतंत्रता का गला घोंटने के मकसद से किया जा रहा है और इसके लिए फिर से आवाज़ उठाने की ज़रुरत है।” दो दूसरे ने फरमाया कि विरोध के आवाज़ के लिए मीडिया की जगह घटी है। भारत पूंजीपति विदेशी पूंजी का दलाल है और उसी के इशारे पर दमन की कार्रवाई कर रहा है। श्रीमती सोनी के द्वारा इलेक्ट्रानिक मीडिया पर कुछ अंकुश लगाने और ख़बरों के बाबत एक नई कंटेट कोड के विचार पर तो कई पत्रकारों को लगा कि जैसे भरी दोपहर में बीच चोराहे पर उनका वस्त्र हरण हो जाएगा। तो वो भी कूद पड़े इस आग में और फिर शुरु हुआ वही पुराना राग।
सच तो ये है कि किसी भी प्रजातांत्रिक पद्धति में सरकार और मीडिया के बीच किसी न किसी विषय पर तूतू-मैंमैं का खेल तो चलता ही रहता है। जब भी सरकार के कारनामें को मीडिया उजागर करके ले आता है तो सरकार मीडिया पर लगाम लगाने की बात करने लगती है और मीडिया फौरन अपनी बुनियादी स्वतंत्रता और मौलिक अधिकारों पर कुठाराघात का राग अलापने लगता है।
भारत में सरकारी तंत्र तथा मीडिया के बीच ख़बरों की सीमा तथा ख़बरियों के अधिकारों को लेकर खींचतान का इतिहास काफी पुराना रहा है। कम्यूनिस्ट या फासीवाद वाले तंत्र में मीडिया की जगह जूते की बराबरी रही है क्योंकि वहां सरकारी तंत्र अपने ख़िलाफ़ एक भी वाक्य सुनना पसंद नहीं करता। यही हाल अरब देशों का है जहां सल्तनत के खिलाफ़ बोलने की सज़ा फांसी तक हो सकती है।
सिर्फ ब्रिटेन और अमेरिका जैसे लोकतंत्र में मीडिया को सही मायने में आम आदमी की आवाज़ का परिचायक माना गया। प्रजातांत्रिक देशों में लगातार मीडिया का महत्व बढ़ता गया और इसलिए उसे लोकतंत्र का चौथा खंभा कहा जाने लगा।
ये मीडिया की साख और कलम की ताक़त थी जिसकी वजह से अमेरिकी राष्ट्रपति रिचर्ड निक्सन को वाटरगेट कांड की वजह से इस्तीफा देना पड़ा और बिल क्लिंटन भी मोनिका लेविंस्की के चक्कर में बाल-बाल बच गए। दूसरी तरफ भारत जैसे देश में मीडिया को खुले सांड की तरह नहीं छोड़ा गया। मीडिया पर सरकारी तंत्र का प्रभाव और तनाव किस तरह का रहा है इसकी मिसाल सन 1975 में आपातकालीन घोषणा में देखी जा सकती थी।
दरअसल, भारत में मीडिया कानून का इतिहास अंग्रेजी हुकूमत के ज़माने से ही शुरु होता है। सन 1795 में तत्कालीन वायसराय लार्ड वेलेस्ले ने प्रेस रेग्यूलेशन की उदघोषणा की थी जिसके तहत किसी भी नए समाचार पत्र को सरकारी नियमों को सख्ती से पालन करने की हिदायत दी गई थी। उसके बाद सन 1855 में दूसरा प्रेस कानून पास हुआ जिसके तहत समाचार पत्र पर लगाए जाने वाले पाबंदियों की फेहरिस्त थोड़ी और लंबी कर दी गई। उसके बाद आया 18 जून 1857 का गैंगिंग एक्ट जिसके तहत हर नए समाचार पत्र निकालने वाले को सरकार से लाइसेंस प्राप्त करने का प्रावधान जोड़ दिया गया। इस अधिनियम ने सरकार को मीडिया प्रकाशन से लेकर प्रबंधन तक में हस्तक्षेप करने की छूट दे दी। अर्थात सेंसरशिप से लेकर प्रकाशन को स्थगित तथा बंद करने का भी अधिकार दे दिया।
उसके बाद आया प्रेस एंड रजिस्ट्रेशन ऑफ बुक्स एक्ट(पीआरबी एक्ट)। सन 1867 में अस्तित्व में आया ये एक्ट आज भी हमारे मीडिया कानून के साथ जुड़ा हुआ है। इसी कानून के तहत सरकार ने हर पत्र पत्रिकाओं के प्रकाशक को लाइसेंस लेना अनिवार्य कर दिया। साथ ही सरकार को किसी भी प्रकाशन के बंद करने, उस पर पाबंदी लगाने से लेकर समाचार के चयन तक का अधिकार दे दिया। इस प्रकार प्रकाशकों तथा समाचार पत्र के मालिकों ने काफी विरोध जताया।
सन 1878 में वाइसराय लार्ड ल्यूटन ने वर्नाक्यूलर प्रेस एक्ट की घोषणा की जिसके तहत किसी भी समाचार पत्र में छपे राजद्रोही समाचार के खिलाफ़ सरकार को मीडिया के विरुद्ध सख्ती से कार्रवाई करने का अधिकार दे दिया गया । फिर आया लार्ड मिंटो द्वारा प्रतिपादित न्यूज़पेपर एक्ट 1901, इस एक्ट के द्वारा स्थानीय प्रशासन को किसी भी संपादक के खिलाफ़ कार्रवाई करने की छूट थी। अगर उसके द्वारा छपे समाचार या संपादकीय से ब्रिटिश राज के ख़िलाफ बगावत की बू आ रही हो।
स्वाधीनता के बाद 26 जनवरी 1950 को प्रतिपादित मीडिया रिवोल्यूशन एक्ट अब तक का सबसे अहम प्रेस कानून है। यद्यपि हमारे संविधान में प्रेस की स्वतंत्रता एक मौलिक अधिकार के तहत गिनाई जाती है मगर सन 1975 में पहली बार श्रीमती इंदिरा गांधी द्वारा आपातकाल के नाम पर प्रेस की स्वतंत्रता पर वज्र प्रहार के बाद देश में मीडिया के अधिकारों को लेकर काफी बवाल मचा। संजय गांधी और विद्याचरण शुक्ल की मेहरबानियों से परेशान मीडिया समाज बड़ा ही कुपित हुआ और कई अख़बारों ने विरोध स्वरुप संपादकीय कॉलम कुछ लिखने के बजाय कोरा छोड़ दिया।
फिर आया 1980 का दशक जिसने सूचना प्रौद्योगिकी के नए क्षितिज और आविष्कारों के ज़रिए ख़बरों की परिधि और परिभाषा ही नहीं बदली बल्कि उसे एक विश्वव्यापी क्रांति की तरह नई दशा और दिशा भी दे दी। बीबीसी और सीएनएन जैसे न्यूज़ चैनलों द्वारा इरान-इराक युद्ध के सीधे प्रसारण से लेकर अब तक मीडिया की पहुंच और ख़बरों की तेज़ी में बढ़ोतरी हुई है वो अपने आप में बेमिसाल है। आज भारत में 56 से ज़्यादा 24 घंटे के ख़बरिया चैनल हैं जिसकी बदोलत छोटी से छोटी ख़बर भी पल भर में पूरे देश में फैल जाती है।
भारत में सन 1992 में सुभाष चंद्रा के चैनल ज़ी टीवी ने दूरदर्शन का वर्चस्व और एकाधिकार तोड़ा और उसके बाद सोनी, एशिया नेट और सन टीवी जैसे निजी चैनलों का प्रादुर्भाव हुआ। सन 1995 में एनडीटीवी भारत की पहली निजी कंपनी बनी जिसे दूरदर्शन पर न्यूज़ टूनाईट दिखाने का ठेका मिला था। जुलाई 1995 में एस पी सिंह की अगुवाई में आज तक नाम से बीस मिनट का हिंदी समाचार कार्यक्रम अरुण पुरी की लिविंग मीडिया कंपनी को दिया गया था। इसके बाद नलिनी सिंह की आंखों देखी जिसका आक्रामक तेवर दर्शकों के लिए एक नया अनुभव था।
तबसे लेकर अब तक के सफ़र में ख़बरिया चैनलों की तादाद में इज़ाफा हुआ है। उनमें दिखाए जाने वाले कार्यक्रमों की संख्या तो बढ़ी ही है साथ ही मौलिकता और परिपक्वता के अभाव में कई सारी ख़ामियां भी शामिल हो गई हैं। पिछले पांच बरसों में कई ख़बरिया चैनलों द्वारा दिखाई जाने वाली ख़बरों के चयन से संपादन और प्रबंधन की दृष्टि से भी ये लगने लगा कि कहीं न कहीं और कभी-कभार मीडिया के मुंह में लगाम और नाक में नकेल डालने की ज़रुरत है। अन्यथा बेलगाम मीडिया प्रजातंत्र में सबसे बड़ा फोड़ा बन जाएगा।
जब तरुण तेजपाल के तहलका ने कई सनसनीखेज खुलासा करके राजनेताओं का मुखौटा निकालकर फेक दिया था और भाजपा के तत्कालीन अध्यक्ष बंगारु लक्ष्मण की सही कीमत बता दी थी और मजदूरों के मसीहा कहे जाने वाले जॉर्ज फर्नाडीज़ के असली चेहरे को उजागर कर दिया था तभी से, सरकारी तंत्र के तांत्रिकों को लगने लगा था कि अगर यही सिलसिला रहा तो फिर कैमरा मच्छर या मक्खी की तरह किसी भी समय किसी भी मंत्री या बाबू के घर में घुसकर उनके मूल का चूल ही हिला देगा। फिर एक बार मीडिया का आत्मावलोकन, आत्म मूल्यांकन और आत्म अनुशासन के नए-नए सुर और राग शुरु हो गए। मगर कुछ बात बनी नहीं और अंत में देश के निजी प्रसारकों के संघ (भारतीय प्रसारक संघ) ने एक प्राधिकरण की स्थापना कर अपनी ईमानदारी का परिचय तो दिया ही साथ ही ये भी माना कि समाज को आइना दिखाने वाले को कभी कभी अपनी शक्ल भी उसमें देखनी चाहिए। इससे कार्यक्रमों का स्तर सुधरने के साथ उनको भी अपनी छवि के पुनर्मूल्यांकन का मौका मिलेगा।
मगर मीडिया के तेज़ी से बदलते परिप्रेक्ष्य और परिदृश्य के मद्देनज़र प्रसारक संघ की अपनी ज़िम्मेदारियों का पूरी तरह निर्वहन करने में नाक़ाम सा साबित होने लगा है। इस संघ की हालत ठीक वैसे ही है जैसे चार-पांच गड़ेरियों ने करीब पांच सौ भेड़-बकरियों को चराने से लेकर घर लाने तक की ज़िम्मेदारी ले ली हो मगर हर दिन चारागाह से लेकर घर के रास्ते में बीस-पच्चीस भेड़ बकरियां आसपास के खेतों में घुसकर सरसों की फसल खा जाए और इन गड़ेरियों को उन भेड़-बकरियों की हिफाज़त करने के चक्कर में खेत मालिकों से भी दो चार करने को मज़बूर होना पड़े।
इसमें को दो राय नहीं कि भारत में मीडिया कानून में कई किस्म के संशोधनों की आवश्यकता है और ये भी उतना ही बड़ा काम है जितना कई बेलगाम ख़बरिया चैनलों को उनकी अपनी सही ज़िम्मेदारियों का एहसास कराना। ऐसे में निजी प्रसारक संघ को इस नए अधिनियम को तटस्थ रुप में देखकर उसके हर पहलू पर संजीदा से गौर करना चाहिए क्योंकि हर अधिकार के साथ कर्तव्य भी जुड़ा होता है और शाश्वत सत्य ये है कि जब हम किसी की तरफ अपनी एक अंगुली उठाते है तो उसी वक्त तीन अंगुलियां हमारी तरफ भी मुड़ी रहती है।

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