बुधवार, 19 मई 2010

लाइव की लुगाई और फोनो का फितूर

टेलीविज्ञान हमारी जिंदगी का एक महत्वपूर्ण अंग बन गया है। आजकल की भागदौड़ की जिदंगी में सूचना के साथ-साथ मनोरंजन का भी ये सबसे सस्ता और सशक्त कारगर जरिया बन गया है। दुनिया के किसी कोने में घटी कोई भी घटना दर्शकों के सामने इस माध्यम के जरिये मिनटों में सीधे दिखने लगती है। राजनीति से लेकर खेलकूद, मनोरंजन से लेकर विज्ञान और मनोविज्ञान, बच्चों से लेकर बूढ़े तक की जिन्दगी के तकरीबन हरेक हिस्से को ये टेलीविजन नियमित रूप से छूता है और उसकी सोच को भी प्रभावित करता है।

दरअसल टेलीविजन पर आज के समाज की निर्भरता इतनी ज्यादा बढ़ गई है कि ये सोचना मुश्किल सा लगता है कि इस माध्यम के बिना क्या आज का आदमी ठीक तरह से जी पाएगा या नहीं। कहीं एक मिनट के खास दृश्य के प्रसारण से कहीं सरकार गिर जाती है तो कहीं दंगा हो जाता है। तस्वीर और आवाज के मिश्रण से बने इस सशक्त माध्यम ने हमारे समाज को इतनी ज्यादा लत लगा दी है कि लगता है जैसे टेलीविजन बिन घर सूना.....

टेलिविजन इस सदी के सबसे चमत्कारिक अविष्कारों में अग्रणी माना जाता है। मगर हैरानी की बात ये है कि अन्य उपकरणों की तरह इसके अविष्कार के साथ किसी एक वैज्ञानिक या अनुसंधानकर्ता का नाम नहीं जुड़ा है बल्कि इसको विकसित करने में विश्व के कई देशों के वैज्ञानिकों तथा शोधकर्ताओं की टीम ने समय-समय पर उसमें अपना योगदान दिया और आज हम टेवलेस टेप और प्लाज्मा की बात करते हैं।



दरअसल टेलीविजन पर अनुसंधान की प्रक्रिया सन 1907 में शुरू हुई। और सन 1920 तक ब्रिटिश अनुसंधानकर्ता ए कैम्पवेल सुईनटोन तथा रूसी वैज्ञानिक बोरिश रोसिन ने इसमें काफी महत्वपूर्ण भूमिका निभाई। उसके बाद जर्मन वैज्ञानिक पॉल निप्कोह ने दुनिया का पहला टीवी स्कैनर बनाया।



जहां तक टेलीविजन न्यूज का सवाल है तो बीबीसी को इसकी मातामही कहा जा सकता है क्योंकि सन 1932 में बीबीसी ने ही इसकी शुरुआत की थी। 22 अगस्त 1932 को लंदन के ब्रॉडकास्ट हाउस से पहली बार टीवी का प्रायोगिक प्रसारण शुरू हुआ था। और 2 नवंबर 1932 को बीबीसी ने एलेक्जेंडरा राजमहल से दुनिया का पहला नियमित टीवी चैनल का प्रसारण शुरू कर दिया था।



उसके 5 साल बाद यानि 13 मई 1937 को राजा जॉर्ज छठवें ने राज्याभिषेक समारोह को ब्रिटेन की जनता तक सीधे पहुंचाने के लिए पहली बार ओवी वैन का इस्तेमाल किया। उसके बाद 12 जून 1937 को पहली बार विविंल्डन टेनिस का सीधा प्रसारण दिखाया गया था।



9 नवंबर 1947 को टेलीविजन के इतिहास में पहली बार टेली रिकार्डिंग कर उसी कार्यक्रम का रात में प्रसारण किया गया। 27 अगस्त 1950 को बीबीसी ने पूरे यूरोपीय महादेश में लाइव टेलीविजन दिखाने का कीर्तिमान स्थापित किया और सन 1967 में पहली बार बीबीसी टीवी अपने पहले सैटेलाइट कार्यक्रम ‘हमारी दुनिया’ के जरिए पूरे विश्व में प्रसारित होने लगा। साथ ही सितंबर 1976 में आईटीएन नेटवर्क के संवाददाता माइकल निकोल्सन ने पहली बार लाइव टेलीविजन न्यूज बुलेटिन में फोनो का इस्तेमाल किया था।



दूसरी तरफ अमेरिका में भी 1930 के दशक में टेलीविजन सभ्यता जोर पकड़ने लगी और सन 1946 में ABC टेलीविजन नेटवर्क का उदय हुआ। पहली बार रंगीन टेलीविजन का अविर्भाव 17 दिसंबर 1953 को अमेरिका में हुआ। और विश्व का पहला रंगीन विज्ञापन कैप्सूल 6 अगस्त 1953 को न्यूयॉर्क में प्रसारित हुआ था।



अमेरिका में NBC टेलीविजन नेटवर्क ने सन 1954 में मशहूर विदूषक स्टीव एलन द्वारा ‘टू नाइट शो ‘ प्रसारित कर तहलका मचा दिया था। मगर टेलीविजन के क्षेत्र में सन् 1960 में एक नया इतिहास बना और राष्ट्रपति पद के लिए रिपब्लिकन पार्टी के उम्मीदवार रिचर्ड निक्सन और डेमोक्रेटिक पार्टी के उम्मीदवार जॉन एफ कैनेडी के बीच राष्ट्रीय स्तर पर सीधे प्रसारित परिचर्चा को अमेरिकी जनता ने खूब सराहा। 26 सितंबर 1960 को प्रसारित इस ‘लाइव डिवेट’ ने टेलीविजन की पहुंच तथा लोकप्रियता को एक नया मुकाम दिया। और अमेरिका जनता इस उपकरण की दीवानी हो गई।



अमेरिकी टेलीविजन के इतिहास में एक और नया अध्याय जुड़ा 22 नवंबर 1960 को जब NBC चैनल ने डलास में हुए राष्ट्रपति जॉन एफ कैनेडी की हत्या की तस्वीरे प्रसारित की और उसके बाद पूरे चार दिनों तक अमेरिकी जनता इसी शोक लहर में डूबी रही। टेलीविजन पटल पर राष्ट्रपति की शव यात्रा से लेकर कातिल ली. हार्वे ऑस्वर्ड को पुलिस द्वारा हिरासत में लिए जाने का सीधा प्रसारण देखना 33 लाख अमेरिकी जनता के लिए एक नया अनुभव था। NBC के रिपोर्टर जैक रूबी ने ऑस्वॉर्ड की पहली तस्वीर और उसकी हवालात यात्रा का सीधा प्रसारण अपने दर्शकों को दिखाया था।



टेलीविजन के इतिहास में एक और नया इतिहास 20 जुलाई 1967 को जुड़ा जब चांद पर गए अंतरिक्ष यात्री नील आर्मीस्ट्रांग और एडविन आर्डिन ने चांद पर पहला कदम रखा। पूरी दुनिया की करोड़ों जनता ने अमेरिका की नेटवर्क टीवी के जरिए इन दोनों आतंरिक्ष यात्रियों को चांद पर उतरते देखा। सीधा प्रसारण के इतिहास में पृथ्वी से चांद तक की दूरी तय करने की ये पहली मिसाल थी।



उसके बाद सन 1976 में टेड टर्नर ने एटलांटा शहर में अपना सुपर स्टेशन शूरू किया और पहली बार केबल नेटवर्क के जरिए टेलीविजन प्रसारण का इतिहास कायम हुआ। सन 1979 में सिर्फ खेलकूद का विशेष टीवी नेटवर्क ईएसपीएन स्थापित हुआ। और इसी क्रम में सन 1980 में सीएनएन का जन्म हुआ।



सन 1981 में पहली बार दुनिया भर की जनता ने इरान-इराक युद्ध का सीधा प्रसारण अपने बेडरूम तक में देखा। और सीएनएन के रिपोर्टर पीटर आर्रनट रातो-रात दुनिया के सबसे चर्चित पत्रकार बन गये। युद्ध क्षेत्र से खबरों के सीधे प्रसारण की ये पहली मिसाल थी।



टेलीविजन के इतिहास में कुछ खास दिन आज भी इस सुनहरे सफर का आइनादार है। मिसाल के तौर पर पहली बार 1933 में अमेरिकी राष्ट्रपति फ्रेंकलिन रूज्वेल्ट ने देश की जनता को टेलीविजन के जरिए सीधा संबोधित किया था। सीबीएस चैनल ने 1938 में पहली बार वर्ल्ड न्यूज राउंड-अप का प्रसारण किया था। सन 1947 में कांग्रेस की कार्यवाही का सीधा प्रसारण शुरू हुआ था। और सन 1967 में अमेरिका की 94 फीसदी जनता ने अतंरिक्ष यात्री नील आर्मीस्ट्रांग को चांद पर उतरते देखा था। उसी तरह ब्रिटेन में रानी विक्टोरिया द्वारा 1939 में पहली बार क्रिसमस का संदेश राष्ट्र के नाम सीधा प्रसारित किया गया था।



टेलीविजन प्रस्तुतकर्ताओं की श्रेणी में अमेरिका के टोंम ब्रोकाओ एडवार्ड आर मुरौ, सर पीटर जेनिंग्स, मर्लिन सेंडर्स, पाउलिने फ्रेडेरिक और डेन रार्थर से लेकर बीबीसी के मेक्क डोनाल्ड मेकार्मिक तथा निकी मार्कस जैस लोगों को आज भी दुनिया आदरपूर्वक याद करती है।



भारत में टेलीविजन



भारत में टेलीविजन की शुरुआत निहायत ही छोटे स्तर पर 13 सितंबर 1959 को दिल्ली शहर से हुई थी। यहां एक छोटे ट्रांसमीटर और छोटे काम चलाऊ स्टूडियो से पहला प्रसारण शुरू हुआ। नियमित प्रसारण आकाशवाणी के प्रभाग के तौर पर 1965 से शुरू हुआ। इसे मुंबई तथा अमृतसर से सन 1972 में जोड़ा गया था और सन 1975 तक देश के सात शहरों में इसका प्रसारण देखा जाने लगा था।



सन 1980 के दशक में टेलीविजन की दुनिया में विकसित दूरगामी आयामों के मद्देनजर भारत भी अपनी अलग पहचान बनाने की जुगत में लगा रहा। सन 1982 की आखिर में एशियाड खेलकूद प्रतियोगिता के समय भारत में रंगीन टेलीविजन का आगाज हुआ।



कांग्रेस सरकार की खुला आसमान नीति के तहत सीएनएन जैसी विदेशी टेलीविजन संस्थाओं ने स्टार टीवी के जरिए भारत में प्रसारण 1991 में शुरू किया। सन टीवी नेटवर्क 1992 में स्थापित दक्षिण भारत का पहला निजी चैनल बना जबकि उत्तरी भारत की कमान सुभाष चंद गोयल की जीटीवी ने संभाली। सन 1994 तक 12 निजी चैनल सैटेलाइट के जरिए देखे जाने लगे थे। जीटीवी ने 1995 में जीन्यूज नामक 24 घंटे के खबरिया चैनल की शुरुआत की और 1998 में एनडीटीवी तथा रुपर्ट मुर्डाक की स्टार टीवी के साथ मिलकर स्टार न्यूज चैनल की स्थापना की गई।



दूसरी तरफ राघव बहल की टीवी 18 ने सीएनबीसी के साथ मिलकर 1999 में सीएनबीसी इंडिया चैनल बनाया। डीडी-2 पर आजतक जैसे मशहूर कार्यक्रम बनाने वाले टीवीटूडे समूह ने 24 घंटे के हिंदी न्यूज चैनल का प्रसारण दिसंबर 2000 से शुरू किया। 2003 में एनडीटीवी समूह एक साथ 2 खबरिया चैनल लेकर अवतरित हुआ। और दूसरी तरफ 28 मार्च 2003 को सहारा इंडिया परिवार ने भी अपना 24 घंटे का न्यूज चैनल सहारा समय खबरों के बाजार में उतारा। वरिष्ट पत्रकार रजत शर्मा ने 20 मई 2004 को इंडिया टीवी चैनल के जरिए अपनी नई पारी की शुरुआत की।



17 जनवरी 2005 को एनडीटीवी ने अपना विजनेस चैनल एनडीटीवी प्रॉफिट लॉन्च किया और 27 मार्च 2005 को जागरण समूह ने चैनल-7 नामक 24 घंटे वाले खबरिया चैनल की शुरुआत की।



पिछले दस सालों में भारत में टेलीविजन चैनलों की बाढ़ सी आ गई है। आज की तारीख में भारत की सरजमीं से कुल 570 टेलीविजन चैनल अपलिंक किए जाते हैं जिनमें 59 खबरिया चैनल हैं। करीब 200 अन्य चैनलों के लिए सूचना और प्रसारण मंत्रालय के पास लाइसेंस का आवेदन पड़ा है। जाहिर है ऐसे माहौल में हर चैलन खबर के हर टुकड़े पर भी कुछ खास करने की होड़ में क्या-क्या दिखाता है और अपने दर्शकों को लुभाने की हर कोशिश करता है।



आजकल का माहौल ऐसा हो गया है कि बहुत कम चैनल अच्छी स्टोरी का पैकेज बना कर दर्शकों को दिखाते हैं। आधी से ज्यादा खबरें लाइव ही जाती हैं क्योंकि उसी पर टीआरपी से लेकर कई और चीजों की गणित कायम है।



कई महत्वपूर्ण घटनाओं को दर्शकों की जानकारी के लिए सीधे दिखाना आवश्य भी हो जाता है। कोई बड़ा हादसा या बड़ी विभिषिका या राजनीतिक भूस्खलन या फिर खेलकूद.. यहां तक की पर्यावरण और आम जिन्दगी से जुड़े मसलों और मरहलों पर बड़ी खबरों को सीधे दिखाने पर कोई हर्ज नहीं है। मगर परेशानी तब होती है जब सब कुछ ढाक के तीन पात की तरह हो जाता है और सबकुछ ब्रेकिंग न्यूज ही बन जाता है। और उसके बाद जो सिलसिला जो शुरू होता है उसका अंत कहां होता है ये तो रिपोर्टर भी नहीं जान पाता।



आमतौर पर ओवी वैन का इस्तेमाल किसी भी बड़ी घटना की पहली तस्वीर दिखाने के लिए किया जाता था। मगर अब उस तस्वीर से ज्यादा उस घटना विशेष पर संवाददाताओं का प्रवचन और दर्शकों के नाम धारा प्रवाह संदेश ज्यादा वक्त ले जाता है।

आज भारत में न्यूज चैनलों की बाढ़ सी आ गई है, नेशनल न्यूज चैनल से लेकर स्टेट स्तर पर खबरिया चैनलों का मकड़जाल फैला हुआ है। इनकी खबरों की भूख ऐसी है जैसे जंगल में 42 दिन से भूखे शेर को खाना नहीं मिला हो और बेचारा पेड़ की सूखी छाल को ही शिकार समझ कर भक्षण कर रहा हो। ऐसा ही हाल खबरिया चैलनों का हो गया है। खबर न मिलने पर बेतुकी घटनाओं को ही खबर बनाकर उस पर लाइव लेना शुरू कर देते हैं। दिल्ली में बूंदा-बादी शुरू हो जाए। तो फट से ओवी वैन लगाकर भाई लोग लाइव की सेना तैनात कर देते हैं और बारिश पर लाइव चैट। रिपोर्टर बांदू-बांदी होने की जगह यानी घटना स्थल से चैट देने लगता है। हद तो तब हो जाती है जब बारिश की बात कर रहे रिपोर्टर की शर्ट तक नहीं गिली होती और खबरिया चैनल उस पूरा आधा घंटे का लाइव खेल का खेला खेल जाते हैं।



लाइव की लुगाई का मोह ऐसा है कि जिसे ‘लाइव’ करने का मौका मिल जाता है वो उसे बिना ताने नहीं छोड़ता। भाई लोगों को डर होता है कि कहीं दूसरा खबरिया चैनल ज्यादा देर तक लाइव की लुगाई दिखाकर टीआरपी के ज्यादा बच्चे न पैदा कर ले। बारिश की खबर पर अबोध बालक की तरह बिना किसी तैयारी के बोल रहा रिपोर्टर बारिश की तरफ देखकर सोचता है कि काश उसने मौसम विभाग के दफ्तर में कुछ दिन काम किया होता तो बारिश के बारे में ऐसा व्याख्यान देता कि चैनल हेड तुरंत मौसम बीट बना कर उसे मौसम बीट का हेड बना देता। फिर तो बारिश में लाइव और लाइव में बारिश का मज़ा ही कुछ और होता!



लाइव की लुगाई को 24 घंटे जगना पड़ता है पता नहीं कब किसको लाइव की लुगाई की याद आ जाए और किसी महान खबर पर लाइव की लुगाई को नाचना पड़े। लाइव का मोह इतना अंधा है कि अगर किसी खबर पर दूसरे खबरिया चैनल ने ओवी वैन लेकर घटना स्थल से लाइव लेना शुरू कर दिया तो बाकी चैनलों में ज्वालामुखी फट पड़ता है और उससे निकने वाली राख पूरे न्यूजरूम में कोहराम मचा देती है। हर किसी को इंतजार होता होता है कि ओवी वैन की पालकी कब पहुंचे कब, और कब लाइव की लुगाई का नाच शुरू होगा।



सुबह से लेकर शाम तक ओवी वैन दिल्ली, मुंबई जैसे महानगर पर पर लाइव के ताड़ में घूमती रहती हैं और छोटी सी घटना का आड़ मिलते ही लाइव का लुगाई का मुंह दिखाने का पूरा खेल शुरु हो जाता है। और घटना स्थल पर पहुंचा रिपोर्टर घटना का बयान तब तक बिना सांस लिए करता रहता है जब तक उसकी सांस न फूलने लगे। उसे लगता है कि कहीं उससे ज्यादा एंकर न बोल ले और पूरी पारी में उसका रोल कम न रह जाए। कभी-कभी एंकर और रिपोर्टर खुद ज्यादा से ज्यादा ज्ञान देने के चक्कर में लाइव का बेड़ागर्क कर देते हैं। खबर की खिचड़ी बनने कि जगह, पुलाव तैयार हो जाता है।



लेकिन उससे भी ज्यादा त्रासदी पूर्ण घटना तब होती है जब अदना सी बात पर भी चैनल के संपादक रिपोर्टरों की फौज को फौरन ‘फोनों’ देने का फरमान जारी करते हैं। ये दिगर बात है कि खबर में इतनी दम न हो कि राष्ट्र के नाम संदेश प्रसारित किया जा सके। मगर चूकि एक प्रतिस्पर्धी चैनल ने कोई खबर फोड़ दी तो बाकी चैनलों के न्यूज रूम में भी मेढ़क की तरह उछल कूद शुरू हो जाती है और फोनो देने की गुहार भी।



अक्सर ऐसा होता है कि बीट रिपोर्टर तो अपना काम निकाल ले जाता है। और जैसे-तैसे उस खबर के बारे में दस-पांच लाइन ठीक-ठाक बोलकर पतली गली से निकल जाता है। उसको इस खबर के बावत बाइट लेने की चिंता हो जाती है और इस चक्कर में कई घंटे भी लग जाते हैं। मगर चुकि उस खबर को जिंदा रखना है और अन्य चैनलों के मुकाबले हर आधे घंटे पर नए तड़के के साथ अपडेट देना होता है तो बेचारे रिपोर्टर की हालत अजीबोगरीब होती है।



हद तो तब होती है जब वो बेचारा लघु शंका या दीर्घ शंका में भी जाए तो अपना फोन कान पर लटकाए रहने पर मजबूर होता है। ऐसे में पूरानी जानकारी के बलबूते पर ही उसे अपना पैंतरा बदलना पड़ता है और देहाड़ी बचानी पड़ती है। मगर चैनल संचालकों के दिमाग पर फोनो का फितूर इतना हाबी हो चुका होता है कि उसके चक्कर में कई रिपोर्टर भयानक गलतियां कर बैठते हैं और अक्सर अर्थ का अनर्थ हो जाता है। ऐसे में एक रिपोर्टर की गलती पूरे चैनल की इज्जत पर पानी फेर देता है।



फोनो के फितूर का फीता गजब का है। जब तक विजुअल न आ रहे हों या और कोई बात न सूझ रही हो तो फोनो के फीते से खबर को बार-बार नापा जाता है। एक छोटी सी घटना को पांच-पांच मिनट तक सिर से पैर तक बीसों बार रिपोर्टर फोनो के फीते से नापता रहता है। लेकिन एंकर महोदया बार-बार बोलती रहती हैं कि ‘जरा विस्तार से बताइए आखिर हुआ क्या’?



अगर किसी विशेषज्ञ का फोन किसी घटना पर किसी दूसरे चैनल को मिल गया तो न्यूज रूम में हंगामा मच जाता है कि पहले फोनो हमें क्यों नहीं मिला? अब जूठा फोनो लेना पड़ेगा। लेकिन खबरिया चैनल के भाई लोग जूठा फोनो लेने पर कोई परहेज नहीं करते। इसीलिए एक विशेषज्ञ दस चैनलों पर एक घटना को पचास बार दोहराता है। घटना अगर इंसान होती तो अपना इतनी बार बखान सुनकर फोनो देने वालों को 5 स्टार होटल में पार्टी जरूर देती...

शुक्रवार, 14 मई 2010

भेड़चाल में भगदड़

मीडिया पर अचानक लगाए जा रहे कई तरह के आरोपों में भले ही अतिश्योक्ति की बू आ रही हो मगर उन आरोपों के कुछ बिंदुओं में सच्चाई की सुई भी शामिल है। कई लब्ध प्रतिष्टित विद्वानों तथा चितंकों ने मीडिया और खास कर इलेक्ट्रानिक मीडिया के आक्रामक तेवर से लेकर छोटी सी खबर को भी तिल का ताड़ बना देने के बड़ती मनोवृति पर ब्रज प्रहार करना शुरू कर दिया है। कुछ एक लेखों में लेखकों की खीझ साफ दिखाई दे जाती है तो कहीं, किसी लेखक के दिल में उस मीडिय का हिस्सा नहीं बन पाने और दोपहर में भी चौदवी का चांद की तरह नहीं चमक पाने की टीस और दर्द भी दिख जाता है।



मगर इसमें कोई दो राय नहीं कि खबरों की होड़ में अपने आप को हमेशा आगे रखने तथा अपने प्रतिद्वंदियों से एक कदम आगे निकल जाने की ललक में कभी कभार मजे हुए पत्रकार और नामचीन चैनल भी गुड़ गोबर कर देते हैं।



अखबारों की तुलना में खबरिया चैनलों का रवैया और रस्मों रिवाज कुछ मुख्तलिफ है। आमतौर पर अखबारों की सुर्खियां अलग-अलग होती है और उन खबरों पर तफ़सरा और तज़करा का मयार भी काफी अलग दिखता है। कुछ एक अखबार खबरों के पीछे की खबर को भी बड़ी शालीनता और समन्वय भाव से पेश करते हैं क्योंकि उनके लिए पाठकों का विश्वास ही मूल मंत्र और महामंत्र होता है।



मगर खबरिया चैनलों के चंडूखाने में अजीबोगरीब आलम देखने को मिलता है। वहां के तहज़ीबो रवायत से लेकर खबरों की समझी-नसामझी, खबरों को सेकने, पकाने और तानने का अंदाज से लेकर परोसने तक की बारीकी के कई पहलुओं पर गर्मागरम बहस होती है और फिर आखिरी रणनीति बनती है। हर चैनल उसी वक्त में उसी खास खबर पर हर तरह से अपनी विश्वसनीयता से लेकर नीयत और नियामत का झंडा गाड़ने पर आमादा हो जाता है और इसी क्रम में जो तिकड़म से लेकर तिलिस्मानी तीरंदाजी की कवायद शुरू होती है वो कहीं बचकानी सी लगती है तो कहीं बेमानी भी। कभी रिपोर्टर का अति उत्साह और ‘सबसे पहले मैं’ के साथ ‘अहम् ब्रह्मस्मि ‘ का दंभ उसे मजाक का पात्र बना देता है तो कभी खबर की चाशनी पूर तरह तैयार होते होते एसाइनमेंट हेड की हेकड़ी की भेट चढ़ जाती है

खबरचियों की टीम अगर खुदा न खास्ता इंडिया गेट के लॉन या विजय चौक पर बैठी हो तो फिर कहना ही क्या? एसएमएस का एक उल्कापात किसी कोने से आया और पल भर में ही जनवरी में बहती सर्द हवा की तरह सब खबरचियों को सून्न करता चला गया। मानो बिजली कौंधी और उसी गति से चैनलों के सेनापतियों की नींद या फिर उनके विवेक को भी झकझोर गई। उसके बाद जो ‘लाइव’ या फोनों का दौर चलता है, युद्ध स्तर पर ओवी मगाई जाती है और जो अन्य कई हैरतअंगेज करतब देखने को मिलते हैं उससे लगता है मानो धरती आज ही फट जाएगी।



खबरिया चैनलों की फौज में सुबह से शाम तक खबरों के समंदर में गोता खाते रिपोर्टर बेचारे क्या करें ? मगर उस फौज में भी कई ऐसे तुक्का वाले तीरंदाज होते हैं जो आए दिन अपने विरादरी के कई साथियों से मानो बदला निकाल रहे होते हैं। मिसाल के तौर पर स्टार न्यूज के एक ऐसे खबर्ची हैं जो अक्सर नार्थ या साउथ ब्लाक में महारत रखने का दावा करते हैं और गाहे-बगाहे खबरों के बावत एक दो ऐसे शगुफे छोड़ देते हैं जिसके चलते कई अन्य चैनलों के रिपोर्टरों को अपने आकाओं की गालियां सुनने को मिल जाती हैं। अक्सर ऐसी खबरें दस मिनट के बाद स्टार न्यूज से तो बाहर निकल जाती है मगर बाकी चैनलों के रिपोर्टरों के लिए मुसिबत का जंजाल बन जाती हैं और भेड़चाल की इस परंपरा में भगदड़ का बदस्तूर निर्वहन होता है। शायद ऐसे चंद ही पत्रकार हैं जो अपने आकाओं से ये कहने की हिम्मत रखते हों कि जब तक खबर की पुष्टि नहीं हो जाती और उसका किसी मंत्री विशेष या पार्टी प्रवक्ता से बाइट नहीं मिल जाती तब तक उसे नहीं चलाना चाहिए।



मगर अधिकांश खबरचियों को अपने आकाओं की हुक्मउदूली करने की हिम्मत नहीं होती और फरमान मिलते ही वो अपना लाव-लश्कर लेकर मैदाने जंग में कूद पड़ते हैं। मज़ेदार बात ये होती है कि जब तक और खबरिया चैनल इस खबर की पुष्टि करे और उसके लिए बाइट ढुढने निकले तब तक कोई और नया शगूफा छुट चुका होता है और फिर सर मुडाते ही ओले पड़ने की नौबत आ जाती है।



मगर कई ऐसे भी खबरिया चैनल हैं जो उसी शगूफे को ब्रह्म वाक्य मानकर उस पर फोनो या ओवी करने लग जाते हैं और जनता को राष्ट्र के नाम संदेश देने लगते हैं।



दरअसल ज्यादातर खबरिया चैनलों में सुबह के बुलेटिनों में पिछली रात अखबारों में छपी खबरों का ही जिक्र होता है और 80 फीसदी खबरे वहीं से टीप ली जाती हैं। उस पर से तुर्रा ये कि अगर किसी अखबार ने कोई ‘एक्सक्लूसिव’ खबर छाप दी तो ये एसाइनमेंट हेड के लिए अपने बीट रिपोर्टर को जलील करने के लिए एक नया अस्त्र मिल जाता है। ऐसा इसलिए होता है कि चैनल के चालकों और सेनापतियों की तिकड़ी का सक्रिय पत्रकारिता से खुद वास्ता ही नहीं रहा। उनका क्या ? उन्होंने 4 अखबार पढ़ लिया और 5 चैनल देख लिया और फिर उसके बाद जिस रिपोर्टर का जी चाहा, उसकी ही क्लास ले ली। कोई अफलातूनी अंदाज में चीखने लगता है तो कोई बंद केबिन में डांट पिलाता है। चैनल के सेनापति एयरकंडिशन केबिन में बैठकर फ्रूटचाट खा रहे होते हैं और बेचारे रिपोर्टर की नियति ये है कि वो दिल्ली की तपती गर्मी में अपने आकाओं की डांट खाए और उसके साथ अपने प्रतिस्पर्धी चैलनों से भी हमेशा दो कदम आगे रहे।



पिछले दिनों ही एक ऐसा वाक्या देखने को आया। एक खबरिया चैनल ने भरी दोपहर में गोला दागा कि चीन मुद्दे पर प्रधानमंत्री ने पर्यावरण मंत्री जयराम रमेश को फोन पर जमकर डांट पिलाई। फिर क्या था? मिनटों में बाकी चैनलों में भी वही राग अलापना चालू हो गया और संवाददाता गण अपनी बुद्धि और अनुभव के हिसाब से राष्ट्र के नाम संदेश देने लगे। भेड़चाल में ही भगदड़ की एक नई मिसाल थी। कुछ संवाददाताओं ने कसीदे कढ़े तो कुछ ने उनके मंत्रीमंडल से विदाई तक की बात भी कर डाली। मगर सच्चाई ये थी कि प्रधानमंत्री ने श्री जयराम रमेश को घर पर बुलाकर खरी खोटी सुनाई थी और फोन पर तो बात ही नहीं की थी।



कभी-कभार खबरों की तेज रफ्तार में ऐसी गलतियां हो जाती हैं और कई संजीदा चैनल मिनटों में ही अपनी भूल सुधार लेतें हैं मगर अति तब होती है जब किसी एक चैनल ने कोई अविस्मयकारी शगूफा छोड़ा और खबर ‘फोड़ा’ और उसके बाद मिनटों में बाकी चैनलों के सिपाही और सेनापति मीलो चले जाने में इजराइली सेना को भी पीछे छोड़ देते हैं।



एक्सक्लूसिव खबर की होड़ में चमत्कार से चूतियापा तक हर किस्म की खट्टी मीठी ताजी पुरानी और आड़ी तिरछी खबरों का बाजार ऐसे फटता है जैसे आईसलैंड की पहाड़ी से निकली ज्वालामुखी के आग और राख ने पूरे यूरोप के आसमान पर कब्जा कर लिया हो।



इसकी सबसे बड़ी मिसाल थी एक खबरिया चैनल के रिपोर्टर द्वारा श्रीलंका में रावण कब्र खोज निकालना। उस खास चैनल का रिपोर्टर श्रीलंका के उस खास गुफा के सामने खड़ा होकर चिल्ला रहा था की गुफा के अंदर रावण की ममी पड़ी हुई है और उसके दर्शक इसका मजा ले रहे थे।



मगर कई प्रतिद्वंदी चैलनों के न्यूजरूम में अलग ही माहौल था। कुछ एक चैनलों ने फौरन एक रिपोर्टर को कोलंबो उड़ाने की बात की तो कुछ एक ने वहां के स्थानीय चैनल से ‘फीड अपलिंक’ कराने की तैयारी की बात की। मगर सबसे हैरतअंगेज बात ये थी की उस खास चैलन के रिपोर्टर महाशय ने गुफा के अंदर जाने की जहमत नहीं उठाई। और उससे भी बड़ी हैरानी की बात ये थी कि बाकी चैनलों के सेनापति ने ये जानने की कभी कोशिश नहीं की कि रावण क्या मुसलमान या ईसाई था जिसकी क्रब उन्हें दिख गई थी?



हमारे ग्रंथों के अनुसार रावण एक ब्राह्मण था वो भी सतयुग में पैदा हुआ था। हमारी परंपराओं के अनुसार हर एक हिंदू का दाह संस्कार होता है तो फिर रावण का कब्र कैसे बन गया ? उन रिपोर्टर महाशय ने ये भी कह दिया कि उस गुफा के अंदर रावण का ममीकृत शरीर रखा था। सोचने की बात ये है कि क्या रावण मिश्र में पैदा हुआ था जहां के राजा फराओं की मृत्यु के बाद उनकी ममी बनाने की प्रथा थी?



काश, हमारे खबरिया चैलनों के चालक ‘कौआ कान ले गया की’ की प्रवृति को छोड़कर 2 मिनट संजीदा से सोचते और अपनी बुद्धि या विवेक से काम लेते। मगर होता ये है कि खबर की एक ‘चिंगारी’ फूटती है और मिनटों में ही पूर खबरिया चैनल समाज को अपनी लपटों में घेर लेती है।



उससे भी अजीबोगरीब नज़ारा तब होता है जब पर्व त्योहार के समय भी भेड़चाल में भगदड़ का मंज़र दरपेश आता है। अभी हाल में अक्षय तृतिया के अवसर पर सुबह-सुबह एक चैनल ने खबर दिखाई कि आज के दिन सोना खरीदना बड़ा शुभ होता है। फिर क्या था? चंद घंटों में ही कई चैनलों के ओवी बड़े-बड़े ज्वैलर्स के दुकानों के सामने लगा दिए गए और रिपोर्टरों से उस पर लाइव करने की हिदायत दी गई। कोई सोने का भाव बता रहा था तो कोई दुकानों की सुंदरता में कसीदे पढ़ रहा था तो कोई ग्राहक की प्रतिक्रिया ले रहा था तो कोई दुकान में आने वाली भीड़ का हाल बता रहा था।



इतफाक से मैं भी उस जगह से गुजर रहा था। जाने पहचाने रिपोर्टर को देखकर मैं रुक गया और पूछा कि ‘भाई किस खबर पर लाइव हो रहा है?’ उसने अपना दुखड़ा सुनाया, बेड़ागर्क हो इस एसएमएस परिपाटी का जो अच्छेखासे दिन को बिगाड़ देता है। कभी ये कमाल करता है तो कभी ये धमाल करता है और हम तो एक फटे ढोल की तरह हैं बजना हमारी मजबूरी है।‘



मैं हैरान था कि रक्षा और गृह मंत्रालय कवर करने वाले इस बेचारे को अक्षय तृतीया के त्रिकोण में कहा घुसेड़ दिया गया। कौतूहलताबश मैंने पूछ लिया ‘इस तिथि के महत्व के बारे में भी कुछ बता रहे हो क्या ‘ तो वो विफर कर बोला ‘अरे बॉस तिथि गई तेल लेने। आसपास कोई और रिपोर्टर नहीं था तो मुझे झोक दिया गया। अब जब यहां आ ही गया हूं तो 4 ग्राहकों की बाइट पेल दूंगा और दोपहर तक एक बढ़िया सा पैकेज रेल दूंगा फिर छुट्टी।‘



मैं हैरान था कि खबरों की दुनिया में क्या भेड़चाल का ऐसा नज़ारा भी देखने को मिल सकता है मगर यही सच था। और वो भी काफी अफसोसनाक।



खबरिया चैनलों में भेड़चाल की भगदड़ का सिलसिला जारी है। जैसे एक भेड़ गड्डे में गिरती है तो झुंड की सारी भेड़ें उसी गड्डे में जा गिरती है। बेचारी भेड़ों ने सपने में भी नहीं सोचा होगा की उनकी ‘भेड़चाल’ की नकल खबरिया चैनल करेंगे और बदले में रायल्टी भी नहीं देंगे। यदि भेड़ों की कोई ‘खाप महापंचायत’ होती तो इस पर जरूर बड़ा हंगामा होता। या फिर शायद भेड़ों ने सोचा होगा की छोड़ो जाने दो यार बेचारे खबरिया चैनलस टीआरपी के मायाजाल में ऐसे फंसे है कि उन्हें नकल करके ही असली बनने के ख्याली पुलाव में जीने दो।



खबरिया चैनल दूसरे न्यूज चैनल में ब्रेकिंग पट्टा पर उछलता देख बिना जांचे परखे ब्रेकिंग की नाच नाचने लगते हैं चाहे आंगन टेड़ा हो या चौकोना। भाई, जब पड़ोसी नाच रहा है तो पांव तो थिरकेंगे ही। फिर अगर ब्रेकिंग न्यूज की नाच में तुरंत नहीं उतरे तो पता चला टीआरपी की सारी ‘निछावर’ दूसरे न्यूज चैनल वाले मार ले जाएंगे। और टीआरपी न आने पर मालिकों के सामने ‘ब्रेक डांस’ करना पड़ेगा।





टीआरपी का डर अच्छे खासे संपादकों को भी भेड़ों का चरवाहा बना देता है। जैसे चरवाहा चाह कर भी गड्डे में गिर रही भेड़ों को नहीं निकाल पाता है, उसी तरह हमारे खबरिया चैनलों के संपादक अच्छा खासा ज्ञान और अनुभव रखते हुए भी भेड़चाल में मची भगदड़ से खुद को बचा नहीं पाते। जैसे धोबी नदी में कपड़े धोते समय प्यासा मरता रहता है पर नदी का पानी नहीं पीता, उसी तरह खबरों की नदी में खबरिया चैनलों के संपादक इस आस में प्यासे बैठे रहते हैं कि शायद भेड़चाल में मची भगदड़ में से ही कुछ टीआरपी लपकने का सामान निकल आए।

मीडिया में ‘विशेष’ की बारिश

विशेष जैसा कार्यक्रम दिखाने की परंपरा 1955 से प्रारंभ हुई थी और 70 के दशक तक आते आते उसका प्रचलन बीबीसी के अलावा ऑस्ट्रेलिया के एबीसी चैनल और अमेरिका के एनबीसी चैनल में हो गया था। वियतनाम युद्ध के बाद बीबीसी के अलावा एक और ऑस्ट्रेलियाई चैनल ने उस युद्ध से जुड़े विशेष मुद्दों को लेकर 20 मिनट से आधे घंटे तक के कार्यक्रम बनाए थे जिनमें खबरों के भीतर की खबर का विश्लेषण किया गया था। 80 के दशक में सीएनएन ने इस क्षेत्र में अहम भूमिका निभाई। ईरान-इराक युद्ध के समय सीएनएन की विशेष रिपोर्ट दर्शकों में काफी खलबली मचाई और 90 के दशक आते-आते कई न्यूज चैनलों में विशेष कार्यक्रमों को तैयार करने की टीम बनाने की कवायद शुरू हो गई।

भारत में दूरदर्शन पर गाहे-बगाहे कुछ विशेष कार्यक्रम दिख जाते थे जिनका स्तर उस जमाने के ख्याल से काफी ठीक-ठाक होता था। बीबीसी जैसे चैनलों में विशेष कार्यक्रम बनाने वाले संवाददाताओं और प्रस्तुत कर्ताओं की टीम आज भी इतनी ही पुख्ता और संजीदा है जितनी पहले थी। मगर भारत में खबरिया चैनलों की आई बाढ़ के बाद इन विशेष कार्यक्रमों की शक्ल ही नहीं बल्कि उनकी सोच में भी नकल और नक्कारेपन का दीमक लगना शुरू हो गया है।



जब तक वरिष्ठ पत्रकार श्री रजत शर्मा जी न्यूज के प्रमुख रहे तब तक हर दो तीन दिन में किसी महत्वपूर्ण विषय पर कोई न कोई विशेष कार्यक्रम अवश्य दिख जाता था। मगर पिछले 10 सालों में विशेष कार्यक्रम बनाने वाली टीम का न ही सिर्फ ढर्रा बदला है बल्कि उनकी सोच, छायांकन और कथानक में भी भयानक बदलाव आया है।



जिस तरह पिछले दस सालों में खबरिया चैनलों की बाढ़ सी आ गई है उसी तरह विशेष या स्पेशल कार्यक्रम के फेहरिस्त में भी काफी इजाफा हुआ है और आज आलम ये है कि हर खबरिया चैनल एक अदना से विषय पर भी रातो-रातों आधे विशेष खड़ा कर देता है।



विशेष कार्यक्रमों की श्रेणी में श्री सिद्धार्थ काक और रेणुका सहाणे द्वारा प्रस्तुत ‘सुरभि’ नामक कार्यक्रम को निश्चय ही सिरमौर कहा जाएगा। ‘सुरभि’ ने कम समय में ही लोकप्रियता का आसमान छूना शुरू कर दिया था और उसमें पूरे राष्ट्र का परिपेक्ष्य मिलता था।



उसके बाद आई विनोद दुआ की ‘परख’ जिसका अपना अलग ही मुकामों-मयार रहा और श्री दुआ का प्रस्तुती करण और विषयों का चयन भी काफी अलग सा था। मगर उसके बाद कुछ और प्रस्तुतकर्ताओं ने इसी ढर्रे पर विशेष कार्यक्रम बनाने की कोशिश तो जरूर की। मगर वो लोकप्रियता के पायदान पर उनता ऊंचा नहीं पहुंच पाए।



खबरिया चैनलों में आज तक ने सबसे पहले विशेष नामक आधे घंटे के कार्यक्रम की शुरुआत की थी और कई महत्वपूर्ण विषयों पर ईमानदारी से जांच फड़ताल करने की कोशिश की थी। मगर विगत 3 से 4 सालों में उस कार्यक्रम का स्तर भी काफी गिरा है। और विशेष कार्यक्रम की विशेष नकल करने वाले चैनलों की तो बात ही निराली है।





यूं लगने लगा है जैसे हर दिन खबरिया चैनलों में विशेष कार्यक्रमों की बारिश सी होने लगी है। विषय चाहे कोई भी लेकिन जब तक उसकी खींचतान आधे घंटे तक नहीं हो और उसमें विभिन्न किस्मों के लटके झटके या तड़का नहीं लगाया जाए तो कई प्रस्तुत कर्ताओं की नजर में उसका महत्व ही नहीं रह जाता। आलम ये है कि हर खबरिया चैलन में विशेष कार्यक्रम बनने के लिए एक टीम तैनात कर दी जाती है। स्पेशल टास्क फोर्स की तरह ये टीम रोज आधे घंटे का विशेष प्रोग्राम रचने की काम युद्ध स्तर पर करते हैं। जैसे रोज आधे घंटे का खास सर्कस अपने खबरिया चैनल के दर्शकों को ऐसे दिखाने है कि विशेष प्रोग्राम देखने वाला दर्शक बिचकने न पाए और विशेष प्रोग्राम की टीआरपी का ग्राफ रातों-रात उपर चढ़ जाए।



आज हालात ये हो गये है कि हर रोज आधे घंटे के विशेष प्रोग्राम की बारिश जरूर होती है चाहे उसमें दर्शक भीगे या न भीगे। पर विशेष टीम के भाई लोग पसीने जरूर तर हो जाते हैं जब टीआरपी मन मुताबिक नहीं आती। अब भाई हर रोज विशेष के नाम पर बेतुके विषय पर आधे घंटे का प्रोग्राम दर्शकों के गले से नहीं उतरा तो वो क्या करें।



बारिश का भी अपना मौसम होता है। बरसात के दिनों में रोज बारिश हो तो चलता पर बिन मौसम बरसात को झेलना आसान नहीं होता। यहां तो खबरिया चैलनों ने कसम खा रखी है की रोज आपकों आधे घंटे का विशेष जरूर दिखाएंगे और आपकों को देखने पर मजबूर भी कर देंगे। रहस्यवाद का ऐसा तानाबान बुनेंगे की आप 2 घंटा पहले से ही खबरिया चैनलों पर आने वाले विशेष कार्यक्रम का इंतजार करने लगेंगे। भाई लोगो ऐसे-ऐसे प्रोमो बनाएंगे कि आम दर्शक प्रोमो देखकर चौंक पड़ेगा। उसे लगेगा इस धरती का लगता आज ये आखिरी दिन है और खबरिया चैनल का विशेष प्रोग्राम देख ले तो शायद हमारी जान बच जाए।

प्रोमो की लाइन.......

सावधान ! बर्फ पिघल रही है,

धरती जल में समा जाएगा !

अब क्या होगा इस दुनिया का ?

क्या होगा आपका ?

कैसे बच सकती है आपकी जान ?

बताएंगे रात 8 बजे सिर्फ महा ज्ञानी चैनल पर !



अब दफ्तर से थका-हारा का घर लौटा बेचारा आम आदमी सीधे कहिए तो खबरिया चैनलों के लिए टीआरपी का बकरा जब खबरिया चैलनों पर डरावनी आवाज में ऐसे प्रोमो देखता है तो सब काम छोड़कर विशेष देखने की तैयारी करने लगता है। सभी घरवाले सारे काम निपटा कर विशेष प्रोग्राम देखने के लिए इकट्ठा हो जाते हैं। विशेष प्रोग्राम की बर्फ मोन्टाज के साथ पिघलनी शुरू होती और आधे घंटे में तरह-तरह के विजुअल के चमत्कार के साथ पिघल कर पानी हो जाती है। और बेचार दर्शक ठगी का घूट पी कर ऐसे टीवी बंद करके सोचता है कि काश मैने प्रोमो नहीं देखा होता तो खबरिया चैलनों के इस छलावे से बच जाता।



लेकिन वही दर्शक तोते की तरह खबरिया चैलनों के शिकारियों की जाल में बार-बार फंसता है और विशेष प्रोग्राम देखकर अपने आप को छला हुआ महूसस करता है। विशेष प्रोग्राम तानाबाना पहाड़ की तरह होता है और जब आधे घंटे का विशेष प्रोग्राम दर्शक देखता है तो उसे खबर के नाम पर चुहिया भी हाथ नहीं लगती और वो बेचारा हाथ मलता रह जाता है।



लेकिन अब खबरिया चैलनों के दर्शक ‘विशेष’ शब्द से ऐसे बिदक रहे है जैसे विशेष का मतलब ही बदल गया हो। विशेष का मतबल कोई खास प्रोग्राम नहीं, आधे घंटे का ऐसा सर्कस हो जो हर हाल में दर्शक को आधे घंटे तक बांधे रखे चाहे विषय कोई भी हो।



दरअसल विशेष प्रोग्राम का अर्थ खबरिया चैलनों के लिए अलग है। विशेष प्रोग्राम का मतलब सबसे ज्यादा टीआरपी दिलाने वाला प्रोग्राम। जिसे प्रोग्राम से टीआरपी का झोला भर जाए वही खबरिया चैलनों का जीवन दाता है। विषय जाए तेल लेने।



अगर किसी ने अच्छे विषय की गलती से बात भी छेड़ दी तो उसे टीवी की समझ कहां? उसके साथी ही उसको सबसे पहले नोचना शुरू कर देते हैं। असली टीवी के पारखी वही भाई लोग हैं जो आधे घंटे का ऐसा तिलिस्म तैयार करते हैं कि दुनियां भर के जासूस प्रोमों देखकर उसका पार नहीं पा सकते। फिर दर्शक की क्या औकात ?





विशेष की बारिश से चवन्नी छाप प्रोग्रामों की ऐसी बाढ़ आ गई है। और अपनी -अपनी नाव लेकर खबरिया चैनल बाढ़ में दर्शकों को बचाने के लिए उतर पड़े हैं। अब दर्शक पर निर्भर करता है कि वो किस महा ज्ञानी खबरिया चैलने के विशेष की बारिश में नहाएगा और सौ जन्मों का पुण्य प्राप्त करेगा और बदले में टीआरपी का दान ‘विशेष’ बनाने वाले पंडों को देगा।



विशेष की बारिश में लगातार भीग रहा दर्शक अब समझदार होता जा रहा है और हर महा ज्ञानी खबरिया चैनल के विशेष की बारिश में नहीं भीगता। यही वजह है हर खबरिया चैलने के हलवाई टीआरपी की दौड़ में आगे नहीं निकल पाते। जगन्नाथ पुरी के पंडों की तरह चैनल के चालक ताक लगाये बैठे रहते है कि कब दर्शक उनके विशेष के फंदे में फंसे और वो अच्छी टीआरपी का स्वाद चखे। दर्शकों और खबरिया चैनलों के बीच लुका-छिपी का खेर जारी है। और विशेष की बारिश हो रही है छाता लेकर खबरिया चैनल देंखे तो शायद भीगने से बच जाएं......