मंगलवार, 23 फ़रवरी 2010

खबरों की रसोई

खबरों की रसोई
आज की खबरें एक आम आदमी की जद्दोजहद से दूर भागने लगी हैं। इसका कारण यह है कि एक आम आदमी उन चीजों या बातों के बारे में सोचने से भी परहेज़ करने लगा है जो कि पहले उसे उद्वेलित करती थी। उसकी जागरूकता में ज़ंग लगनी शुरू हो गयी है.
इसलिए खबरों की रसोई में जनमानस को जागरूक बनाने का अब कोई प्रयास नहीं किया जाता बल्कि गंभीर विषयों को भी हल्का बनाकर पेश किया जाता है और हल्की चीजों को ‘हलकान’ बनाकर परोसने का खेल मुसल्सल जारी है। यही वजह है कि कई टीवी चैनल अरुणा राय या मेधा पाटकर से जुड़ी खबरें दिखाने में परहेज़ करते हैं मगर पेरिस हिल्टन या राखी सावंत की शारीरिक चौहद्दी- के बारे में लोगों के सामान्य ज्ञान की बढ़ोतरी करतीं हैं।
रातों रात स्टार बन जाने वाले लोगों के बारे में जिस तरह की चीजें अखबारों के पन्ने पर उत्तेजक या अश्लील ढंग से छापी जाती हैं उन्हें देखकर लगता है कि सिरदर्द बेचने वाली दवाई कंपनियों का भविष्य निश्चय ही उज्ज्वल है।
मीडिया एक जमाने में सच के साथ जाता था। आज वही मीडिया एक मायावीं संस्कृति की रचना का खेल खेलने लगा है। जिस तरह लोकतंत्र में राजनीतिक दलों को "पैसा पूँजीपतियों का और वोट गरीबों का" चाहिए होता है उसी तरह मीडिया को भी विज्ञापन औध्योगिक घराने से और पाठक या दर्शक मध्यम वर्ग से मिल जाता है। इसलिए मीडिया अब प्रजातंत्र को चौथा खम्बा बनाने के बजाय सत्ता का दलाल बनाना ज्यादा पसंद करता है क्योंकि इससे उसके आर्थिक लक्ष्य की पूर्ति तो होती है। फिर जनता जाये जहन्नुम में।
पिछले चंद सालों में समाज का एक तबका अब ये बात संजीदगी से सोचने लगा है कि खबरों के बाज़ार और रसोई का भविष्य क्या होगा। कभी देश की बड़ी से बड़ी खबर के साथ आम आदमी की जिंदगी के मसलों की फेहरिस्त भी शामिल होती थी जिसके चलते समाचार सूचना के साथ ज्ञानवर्धन का भी काम करता था। मगर आज कई समाचार ज्यादातर नौटंकी से लबरेज होते हैं जिनमें दर्शकों को चौंकाने, रिझाने या फिर लुभाने की क्षमता हो या फिर 'श्मसान सिद्धियां' कराने वाले बाबाओं की हरकतों जैसी सनसनीखेज घटनाएँ, जो किसी भी आम दर्शक के विवेक का कबाड़ा भी कर सकती हैं।
लब्बोलुबाब ये है कि मीडिया द्वारा मायावी संस्कृति की रचना का खेल जारी है और ‘ज्ञानोदय का भ्रम’ बनाये रखना ही समाचार चैनलों की यूसपी है। वर्तमान सन्दर्भ में मीडिया की महारथ " चमत्कार से चुतियापा" तक परोसने में है ओर इसमें उसे काफी सफलता भी मिली है। आज उसके पास करोड़ों ऐसे दर्शक हैं जिनके लिए कई चैनल अपने गले में रुद्राक्ष डालते हैं या बाँह पर ताबीज बाँधकर दर्शकों को बताते हैं कि पत्थर के गणेश जी बाल्टी भर दूध पीते हैं। इस किस्म के दर्शकों को रमोला की साँप से सादी मजेदार लगती है और यही दर्शक कारोबारी मीडिया के लिए बेहूदा से बेहूदा खबरों को भकोसने के लिए आदर्श 'कूड़ेदान ' का काम करता है।

आज का मीडिया कभी नहीं चाहेगा कि उसे पढ़ें लिखे दर्शक मिलें जो सूचना के अधिकार को समझते हों और सूचना की राजनीति पर सीधा सवाल उठाने को तैयार हो जाये। इससे तो उनक़ी वास्तविक छबि और मंशा की कलई खुल जायेगी। इसलिए हर दिन एक हौवा खड़ा किया जाता है कि कौन सी फिल्मी हस्तियाँ किस के साथ प्रेम कर रही हैं, कौन सा खिलाड़ी किस फुलझड़ी के साथ चल रहा है वगैरह वगैरह। फिर उसपे आधे घंटे का 'विशेष' या 'स्पेशल' होगा जिसमें विशेषज्ञों की एक ऐसी फौज खड़ी कर दी- जायेगी जिनके पास प्रेम करने का अपना अनुभव कभी नही होगा.
शायद यही वजह है कि मीडिया अपने द्वारा बनाये या बुने हुऐ जाल में कहीं ना कहीं ख़ुद फंसता सा दिखाई दे रहा है। खबरों की दुनिया महज एक मंडी बनकर रह गयी है जहाँ हर तरह की खबरें सब्जी की तरह बिकती हैं। खबरें चैनलों की रसोई में तलती, सिंकती तथा उबलती हैं तथा एडिटर जैसे रसोइऐ की इच्छानुसार दर्शकों के टेस्ट तथा क्लास को ध्यान में रखकर परोसी जाती हैं.
ये बात कितनी भी हंसी वाली क्यों ना लगे मगर सच्चाई ये है कि ख़बर मीडिया बाज़ार में 'आलू' की तरह बन गया है जिसकी हर न्यूज़ चैनल अपनी इच्छानुसार काटकर, तलकर , छीलकर , उबालकर या फिर पीसकर उसकी ऐसी तैसी कर अपने दर्शकों को परोसता है और जनता उसको चटखारे लेकर भकोसती है। याद रहे कि आलू वही होता है, मगर जब तक उसकी रसोई या सब्जी बनती है तब तक उसका अपना अस्तित्व शायद गायब हो चुका होता है।
आजकल हर दिन मंत्रियों और नेताओं की प्रेस कॉन्फेंस ऐर प्रेस नोट उस आलू की तरह होते हैं जो प्रतिदन के हिसाब से हर जैनल या अखबार को उपलब्ध कराए जाते हैं। अब यह टैनल वह उस अखबार विशेश पर निर्भर करता है कि उस खहर को कैसे पकाया, सैंका, तला जाए या उबालकर जनता को खिलाया जाए। मिसाल के तौर पर रक्षा मंत्रि एके एंटनी ने सियाचिन के माममले पर एक वकत्व्य जारी कर कहा कि कि सियाचिन से फौज नहीं हटाई जाएगी। यही खबर अलग-अलग चैनलों में इस तरह चली जैसे एक ही आलू के नौ अलग-अलग व्यंजनपर एक बड़ा सा पैकेज बन गए हों।
एनडीटीवी के अंग्रेजी चैनल ने उस खबर पर एक बड़ा सा पैकेज बना दिया जैसे उसे सियाचिन पर रक्षा मंत्री की बाइट का इंतजार है। बाकी चाशनी तो पहले से ही तैयार थी
एनडीटीवी इंडिया ने इस खबर के साथ थोड़ा अलग सलूक किया। इसके संपादक महोदय बोले ‘अरे मटियाओ ये बुढवा कुछ अल्लर-बल्लर बोलता ही रहता है’, मगर प्रोड्यूसर ने रक्षामंत्री के इस वक्तव्य को महज एक वीओवीटी अनकट बनाकर चलाया और पूरे प्रकरण से निजात पा ली
आज तक जैसे चैनल के लिए यह महज एक साधारण सी बात बन कर रह गई क्योंकि उनकी नजरों में रक्षामंत्री का यह बयान नया नहीं था, और दरअसल आजतक के दर्शकों के मन में सियाचिन जैसी चीज से खास दिलचस्पी भी नहीं रहती हैं। इसलिए रक्षामंत्री का बयान न्यूजरूम में ही दफन हो गया।
ज़ी न्यूज के लिए सियाचिन जैसा मसला बिल्कुल बेकार है। भले ही डिफेंस बीट कवर करने वाला रिपोर्टर कितना ही सर फोड़ ले कि रक्षामंत्री का बयान कितना महत्वपूर्ण है लेकिन समाचार संपादक उसकी बात नहीं सुनेगा। काफी बक-बक के बाद उसकी यही दलील होगी कि लालाजी से बात हो गई है औऱ इस खबर में कोई दम नहीं और तुम भी अपना दिमाग खराब मत करो।
दूसरी तरफ स्टार न्यूज को एंथनी के बयान में कुछ न कुछ सनसनी अवश्य दिखाई देगी। न्यूज रूम में लोग रिपोर्टर को फौरन लाइव की सूली पर चढ़ाकर उसकी मूर्खता का नज़ारा और उसके मुंह से निकले ब्रह्मवाक्य पर एसएमएस का खेल शुरू कर देंगे।
सहारा समय में सियाचिन का महत्व तकरीबन न के बराबर होगा, और अमूमन समाचार संपादक की यही दलील होती है कि “यार जो जमीन की खबर है उसे तुम संभाल नहीं पाते हो अब चौदह हजार फुट ऊंची खबर पर कहां से खेलोगे।”
रही बात और चैनलों की तो एक खास खबरिया चैनल के प्रबंध संपादक हमेशा हर कोई खबरों के पीछे की ख़बर बताने के लिए न्यूज़ रूम में ही क़ैमरे के सामने प्रवचन देने लगते हैं। विषय कोई भी हो, उनको ही सबसे पहले खड़ा कर दिया जाता है कि जितनी देर में मोहतरम अपने साथियों को अपना आशीर्वाद देते रहेंगे उससे कहीं अच्छा है कि वे कैमरे के सामने आकर अपने दर्शकों का ही भेजा खाए या खून पीए।
एक और चैनल की महारथ 'विशेष ' करने में माहिर है क्योंकि उसके संपादक अदना से मसले पर भी आधे घंटे से कम बोलना अपनी शान के खिलाफ समझते हैं। सुबह हुई और ब्लूलाइन ने एक और को कुचला तो 'विशेष ' दोपहर में शास्त्री भवन में चंद बंदरों ने उत्पात मचाया तो 'विशेष ' और शाम को अगर मल्लिका शेरावत की चुनरी सरक गयी तब तो और भी विशेष। मीडिया बाज़ार की चुनिंदा रतौंधी वाली बीमारी ऐसे ही पनपती और परवान चढ़ती है।
रही बात रीजनल चैनल की तो वहां के न्यूजरूम में ऐसी ख़बरों का वैसे भी कोई महत्व नहीं होता क्योंकि उनके दर्शकों को उनके इलाके की खबर से मतलब है, जिसमें वो सुबह से ही नहाना शुरू कर देते और शाम तक पूरी तरह डूब जाते हैं।
दुर्भाग्य यह है कि हर खबरिया चैनलों के साथ ही समाचारपत्रों के चंडूखाने में इस किस्म की कसरत हर रोज और कई बार हुआ करती है और खबर की अहमियत औऱ उपयोगिता को उस दिन की मंडी में आलू और प्याज की तरह ही तौला और इस्तेमाल किया जाता है।
खबरों की अहमियत इस बात से होती है कि किस अमुक विषय पर खेलने और तानने की गुंजाइश हो। इसमें घटना विशेष से ज्यादा ध्यान दूरी पर दिया जाता है क्योंकि खबरों के खेल में लाइव एलिमेंट तथा उससे जुड़ी तड़क-भड़क औऱ साज सज्जा का बड़ा ही महत्व होता है।
पत्रकार कितना भी प्रखर और तेजस्वी क्यों न हो और उसका सूचना तंत्र कितना भी विश्वसनीय क्यों न हो। मगर जब बड़ी खबरों की बात आती तो उसकी स्थिति कोल्हू के बैल की तरह हो जाती है, क्योंकि उसका संपादक यह कबूल करने को तैयार ही नहीं होता है कि उसका रिपोर्टर उससे कहीं ज्यादा विश्वसनीय है और शायद यही वजह है कि कई बार बड़ी खबरें संपादक के मिथ्या दम औऱ अंहकार की बलि चढ़ जाती। ऐसे ही पत्रकार ने जब अपने संपादक को ये खबर दी कि वामपंथी नेता सोनिया गांधी की बजाए मनमोहन सिंह को प्रधानमंत्री बनाने की तैयारी कर रहे हैं तो संपादक ने पत्रकार को पूरी तरह से मूर्ख करार देने में कोई कसर बाकी नहीं छोड़ी। लेकिन 5 दिन बाद जब मनमोहन सिंह राष्ट्रपति भवन में स्वयं को प्रधानमंत्री घोषित किए जाने के बाद मीडिया से बात कर रहे थे तो उस समय वही संपादक पिटा हुआ मुंह लेकर अपने उसी पत्रकार से पूरी खबर का विस्तृत ब्यौरा पेश करने का आदेश दे रहे थे। लेकिन पत्रकार ने उन्हें बस इतना कह कर चुप करा दिया की वो खबर अब मर चुकी है।
दुर्भाग्य ये है कि आजकल के संपादक अपनी बुद्दि का पैमाना अपने पके हुए बाल से मापते हैं मगर अपने अनुभव और विवेक से नहीं। अकसर ऐसा देखा गया है कि सच बोलने या लिखने वाले पत्रकार को तमगा या शाबासी की बजाए मुफलिशी या बदनसीबी ही हाथ लगती है। यही वजह है की बड़ी खबरें फोड़ने वाले पत्रकारों को ही सूली पर चढ़ा दिया जाता है क्योंकि चैनलों के मालिक और संपादक लक्ष्मी पुत्रों के पांव पर ही गिरते हैं। उन्हें कभी माता सरस्वती की वीणा उठाते नहीं देखा जाता।
खबरिया चैनलों की खबरों की रसोई में इस बात का कोई ध्यान नहीं रखता की खबरों की अहमियत और उसका जनमानस पर क्या असर पड़ेगा बल्कि इस बात की हरदम कोशिश की जाती हैं कि किस दिन, किस मौसम में तथा किस रंग और अदा में खास खबर परोसी जाए जो दर्शकों को बांध कर रखने में कामयाब हो।
न्यूज रूम के चंडू खाने में खींचने और तानने लायक बिंदुओं पर जमकर बहस होती है फिर एक्शन प्लान तैयार होता है और फौरन उसका कार्यान्वयन होता है।
जिस रोज पकाने वाली खबरों का अभाव होता है। उस दिन एक नई रेसिपी बनती है। और पिद्दी के टांग को शुतुर्मुग का अंडा बना कर पेश किया जाता है। वैसे भी भारत जैसे देश में सालाना पर्व की तरह हैजा, डेंगू, बाढ़, सूखा तथा रेल दुर्घटना जैसे कई अन्य विषयों पर मसाले हर दम तैयार रहते हैं जिन पर न्यूज रूम के महारथी खुलकर खेलते हैं। हर रोज खबरों की रसोई में नए व्यंजन पकते हैं खबरो की तोड़-मरोड़ और सच्चाई के साथ बलात्कार के नए तरीके इज़ाद होते हैं और खबरों के कारोबार का सिलसिला बदस्तूर चलता रहता है।
आखिर में यही लगता है
ये नहीं थी बात की मेरा कद घट गया
थी छोटी सी चादर और मैं सिमट गया।
खबरिया चैनलों की रसोई का यही सच है।

1 टिप्पणी:

  1. Well said :)
    The truth that lies behind the camera & glamour of media can be explained by a jounalist
    (Who understood how d real news dies in race of TRP)
    (Who knew the unfortunate case of "jo dikhta hai, vo bikta hai")
    (Who had witnessed that the STAND that should be taken by the 4th pillor of democracy is decided by the big daddies of corporates & politics)
    .......... u r true to ur words :)

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