गुरुवार, 18 फ़रवरी 2010

संपादक या सहपादक ?

संपादक या सह पादक ?

एक मीडिया साइट पर एक लब्ध प्रतिष्ठित पत्रकार द्वारा हिन्दी संपादकों को कोसने तथा पुरस्कार पाने के लिए भीख का कटोरा लेकर कतार में खड़े रहने की बात ने थोड़ा उद्वेलित कर दिया। इस बात में कोई दो राय नहीं कि हिन्दी पत्रकारिता के सरकार तथा व्यवसायी समाज द्वारा अंग्रेजी की अपेक्षा सौतेला व्यवहार का क्रम बदस्तूर जारी है। यह भी एक कटु सत्य है कि कई हिन्दी के लब्ध प्रतिष्ठित पत्रकार अपनी कलम की बोली लगा बैठे और संपादक की जगह प्रबंधन तथा मार्केटिंग के महामहिम के साथ अख़बार के “सह-पादक” हो गए क्योंकि पत्रकारिता को अधोमुख की तरफ इसी तिकड़ी का तिकड़म ले गया।

पहले संपादकीय किसी भी अख़बार और उस प्रतिष्ठान की संयत, संगठित और संतुलित सोच का पैमाना होता था उसमें एक आदमी की पीड़ा झलकती थी और सड़क पर चलते हुए एक शहरी की नब्ज़ के अंदाज़ का अंदाज़े बयां भी शामिल होता है। शायद यही कारण था कि हर संपादकीय पर कहीं बांछे खिलती थी तो कही बवाल होता था। कहीं बाबू की कुर्सी डोल जाती थी तो कहीं सत्ता के गलियारों में शाम तक फाइलों की सफाई भी चलती रहती थी।

सन 1980 के दशक से यह सिलसिला बदलना शुरु हुआ और बाज़ारवाद तथा बाज़ारीकरण “कलम” पर कब्ज़ा जमाना शुरु कर दिया और उसकी जगह “सेंटीमीटर कॉलम” की कवायद ने कमाल दिखाना शुरु कर दिया। फिर क्या था संपादकीय की जगह सिर्फ पांच सौ या सात सौ शब्द और दूसरी तरफ विज्ञापन और इश्तिहार की जगह पच्चीस से पैंतीस पेज हो गई। फिर भला संपादक करे ही क्या। एक कहावत है कि नंगी नहाएगी क्या और निचोड़ेगी क्या।

शायद हिन्दी मीडिया के द्रोणाचार्य और कृपाचार्यों को नहीं मालूम कि हिन्दी मीडिया उनके उदगारों और व्यथाओं से लबरेज बयानबाज़ी से न तो चलती है और न प्रभावित हो रही है। अब तक उपलब्ध आंकड़ों के अनुसार भारत में प्रिंट मीडिया के विकास की गति 7 से 9 फीसदी की दर से है और पूरे भारत में हिन्दी के अख़बार तथा पत्र-पत्रिकारोँ का हिस्सा 39 फीसदी से ज़्यादा है। भारत वर्ष में करीब 67 हज़ार के आस-पास 18 प्रधान भाषाओं के अलावा करीब 101 बोलियों में पत्र-पत्रिकाएं छपती है जो पूरे एशिया में सबसे ज़्यादा है।

ये भी सच है कि हिन्दी में छप रहे करीब पच्चीस हज़ार से ज़्यादा पत्र-पत्रिकाओं में से सबसे ज़्यादा पत्र-पत्रिकाएं छोटे शहरों और कस्बों में छपती है और उनके पाठक आज भी उन अख़बारों की विश्वसनीयता में अपना विश्वास रखते हैं और उनके संपादक महानगरों की तरह हर साल अपना चोला, चरित्र और चाल नहीं बदलते।

इन छोटे अख़बारों के संपादकों की लेखनी और तेवर में कहीं बेहतर पैनापन और ईमानदारी दिखाई देती है और वो सच छापने से डरते नहीं क्योंकि उन्हें दिल्ली-मुंबई वाले संपादकों तथा उनके चोचले और मिथ्या आडंबर से कोई मतलब नहीं होता और ना ही कोई पुरस्कार पाने के लिए किसी भी सरकारी लाइन में खड़े दिखाई देते हैं।

दुर्भाग्य ये है कि दिल्ली में बैठे हिन्दी पत्र-पत्रिकाओं के संपादकों द्वारा हिन्दी की मौजूदा हालत पर रोने कलपने की कवायद वैसे ही लगती है जैसे कोई चालीस हज़ार फिट की ऊंचाई पर हवाई जहाज में उड़ते हुए किसी गांव की सड़क पर जमी हुई धूल की परत की मोटाई मांपने की कोशिश कर रहा हो। लेकिन किसी संगोष्ठी या सेमिनार में आप उनसे एक सवाल कर लें और फिर देखें उनकी भावनाओं का अंबार और हिन्दी के प्रति उदगार।

हिन्दी पत्रकारिता के आखिरी सही पितामह और ध्वजवाहक के रुप में स्वर्गीय प्रभाष जोशी का नाम लिया जाएगा। उनकी अपनी छवि तथा उनके कद तक पहुंचने में हिन्दी तो क्या अंग्रेजी के भी कई नामचीन और नुक्ताचीन संपादकों को कई बरस लग जाएंगे। लेकिन स्वर्गीय जोशी ने कभी अपने कलम का चोला और उसकी नींव तक नहीं बदली। ये इस बात को इंगित करता है कि अगर आपमें मौलिकता है और शाश्वत सच की डोर थामकर चलने का साहस और हिम्मत है तो शुरुआत में लोग भले ही आप पर कटाक्ष करें मगर आखिरी में वो भी आपकी सही कीमत जानेंगे।

सच्चाई ये है कि दिल्ली के पांच सितारा होटलों में बैठकर पूरी हिन्दी की पत्रकारिता पर तपसरा या तसगरा करने वाले और हिन्दी पत्रकारिता की मौजूदा स्थिति पर तरस खाने वाले संपादकों को ये मानने की हिम्मत नहीं पड़ती कि मुफ्सिल इलाकों के संपादकों के संघर्ष से ही हिन्दी पत्रकारिता ज़िंदा ही नहीं बल्कि सरकारी तंत्र से बेखौफ़ लोहा लेती है और बदस्तूर संघर्ष की राह पर चलती रहती है।

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