रविवार, 4 जुलाई 2010

एस.पी.सिंह की याद

हिंदी पत्रकारिता के इतिहास में यूँ तो कई चमकते सितारे अपनी रौशनी बिखेर गए मगर एस.पी.सिंह की बात ही कुछ और थी / वो एक आला सहाफी होने के अलावा उतने ही कद्दावर इंसान और युगद्रष्टा थे. टेलीविजन पत्रकारिता के वे जनक थे. फितरत से राजा मगर हमेशा एक आदमी की सोच को जितनी बारीकी से समझने की क्षमता उनमें थी वो शायद आज के दौर में किसी भी मूर्धन्य पत्रकार में नहीं दिखाई देती.

मैं ये तो नहीं दावा कर सकता की उनके बहुत करीबी लोगों या दोस्तों में से था क्योंकि मेरा उनका संबंध आजतक से ही जुड़ा और वहीँ पर ही खत्म हो गया. आजतक के दौर में हर वरिष्ठ पत्रकार अपने आस-पास चम्पूओं और चाटुकारों की फौज रखना लाजमी समझता है क्योंकि ये किरदार उसके खेल और जुगाड़ की दुकान ही चलाने में ही काम नहीं आते बल्कि उसका अपना तिलस्म सोंच की परिणिति तथा गोल या खास महकमा को बनाकर यथाविधि महिमा मंडन या विलाप को भी अंजाम देने में काफी कारगर हथियार के रूप में इस्तेमाल किया जाता है.

स्वर्गीय सुरेन्द्र प्रताप इन चोंचलों,चमचा, कलछा और बेलचा की फौज की सोच और समझदारी से काफी ऊपर थे. उनकी सबसे बड़ी और अनोखी शख्सियत की पहचान और रंगबत थी - बेदाग़ छवि एवं बड़ा कद. मुलाजमत की मजबूरी और ज्याती रिश्तें के बीच उन्होंने कभी समझौता नहीं किया. इसलिए उनके दर्शक और सहयोगी - दोनों उनके ईमानदारी और बेबाकी के कायल थे. लफ़्ज़ों की लज्जत और ख़बरों में छुपी सच्चाई को परखने की उनमें अदभुत क्षमता थी और उसके लिए वो कभी समझौता नहीं करते थे. इस बात को मैंने खुद कई बार महसूस किया. यहाँ तक कि अगर पीटूसी में भी एक लफ्ज़ गलत चला जाए तो वो पीटूसी काट दिया करते थे. मैंने अपनी पीटूसी में एक बार जानवर के बदले दरिंदा लफ़्ज का इस्तेमाल कर दिया तो वो भड़क उठे और वो खबर तब तक नहीं चलने दी जब तक मैंने सही लफ़्ज़ों का इस्तेमाल नहीं किया. शब्दों की मार या लफ़्ज़ों की सही लज्जत के बारे में असली मुहर लगाने वाला आज कोई नहीं दिखा.

जहां तक खबरों के पीछे की खबर की बात है तो उसमें वो अद्वितीय थे. रिपोर्टर चाहे कितनी भी दिमागी कसरत कर ले. मगर वो किसी खबर को महज दो वाक्यों में समझना चाहते थे. और खबर तभी होती है जब वो दो वाक्यों में समझ आ जाये. उनकी सोच बड़ी ही साफ़ थी. वो कहते थे एक आम आदमी को सीधे साफ़ लफ़्ज़ों में अगर खबर समझा दो तो तुम रिपोर्टर या संवाददाता हो, टेलीविजन इसी का नाम है. इसमें जनता तस्वीर देखना चाहती है. इसमें कोई आडम्बर या भूमिका का उतना महत्व नहीं. आजतक की खबरों का चुनाव और भाषा इसलिए अलग रही क्योंकि उसमें एस.पी की अपनी सोच और किरदार साफ़ दिखाई देता था. शायद इसी वजह से शिवसेना प्रमुख ने सभी शिवसैनिकों को रात के दस बजे आजतक नियमित रूप से देखने का फरमान जारी कर दिया था.

अगर सुबह 6 बजे फोन की घंटी बजी तो अक्सर वो एस पी का ही फोन होता था. सिर्फ दो वाक्य " अरे अजय फलानी खबर पक गयी सी लगती है. दोपहर अपलिंक कर देना।.. और वाकई में उस पकी खबर को वो अपने अंदाज़ में आजतक पर परोसते थे तो दर्शक उनके कायल हो जाते थे. ऐसा ही एक वाक्या था- प्रधानमंत्री देवगौड़ा और रामकृष्ण हेगड़े के बीच की तनातनी. मगर गौड़ा महाशय अपनी जुबान खोलने को तैयार नहीं थे. सारी कोशिशें बेकार होती दिखाई दे रही थी. मैंने अपने हमनाम साथी स्वर्गीय अजय चौधरी से अपनी मुश्किल बताई तो वो हंस कर बोले अरे बाबा बॉस से ही बात कर लो. क्या पता,कोई नया नुस्खा निकल आये.

खैर मैंने उन्हें फोन किया तो वो हंसने लगे और कहा अजीब अहमक हो यार तुम इतना भी नहीं कर सके. तो मैंने उन्हें पूरी बात बताई और कहा की वो हेगड़े के नाम पर तो गौड़ा महाशय माइक तोड़ कर चले जाते हैं और आपको ये खबर हर हाल में चाहिए. फिर क्या करूँ? इसी बीच किसी ने उनके कान में आकर कहा की कश्मीर के अनंतनाग में बवाल हो गया है और कई लोग फायरिंग में मारे गए. एक मिनट बाद उन्होंने वापस फ़ोन कर कहा " कल शाम को जैसे ही गौड़ा बंगलौर हवाई अड्डे पर उतरे तो सीधे उसके पास चले जाना। शुरुआत अनंतनाग से करना और बाद में जोर-शोर से बोलना शुरू कर देना कि हेगड़े बड़ा ही अच्छा नेता है. फिर गौड़ा महाशय कुछ गुल अवश्य खिलाएंगे और सब कुछ रिकॉर्ड कर लेना.

कमाल की सोंच थी ये. मैंने दूसरे दिन वैसा ही किया. आते ही गौड़ा जी के ऊपर अनंतनाग पर सवाल दागा. मगर बात उनके पल्ले नहीं पड़ी. वो कश्मीर के अनंतनाग के बदौलत जे.एच.पटेल मंत्रिमंडल के सदस्य तथा फिल्म अभिनेता श्री अनंतनाग पर बरस पड़े कि नालायक है अनंतनाग. दारु पीकर टुन्न रहता है. काम-काज कुछ नहीं करता. बुलाओ उसको.मैं अभी उसकी वाट लगाता हूँ.

मैंने फौरन राम कृष्ण हेगड़े का स्तुतिगान शुरू कर दिया. फिर क्या था. गौड़ा जी ने ऐसी लच्छेदार गालियों से हेगड़े को नवाजा कि मैं सन्न रह गया. शाम को एस.पी को फोन किया कि सब रिकॉर्ड तो हो गया, मगर जितनी गालियाँ दी है,उसका क्या करूँ, वो तो खबर में नहीं जा सकती. एस.पी बिगड़ गए. बोले यार मैंने तुम्हे उस पर तरस खाने के लिए थोड़े ही कहा है। याद रखो,तुम संजय हो,युद्धिष्ठिर या भीष्म नहीं। सारे बाइट्स का कन्नड़ से हिन्दी में अक्षरशः अनुवाद करके भेजो।

दूसरे दिन जब आजतक पर खबर चली तो हंगामा मच गया। मैंने फिर एस पी को फोन किया कि यहां तो लोग मेरा बुरा हाल कर देंगे। तो उनका जवाब था-"बस डटे रहो। भारत की जनता भी तो अपने गिरेबान में झांककर देखे कि किसके हाथ में सत्ता की बागडोर सौंपी है।"

ऐसा ही एक बार तब हुआ जब कोजेंट्रिक्स परियोजना पर गुस्से में तत्कालीन प्रधानमंत्री ने अपना कुर्ता निकाल फेंका था और श्रीमती मेनका गांधी को खरी-खोटी सुनाई थी। पर एस पी कहां माननेवाले थे। आजतक में वही खबर जस की तस चल गयी। फिर बवाल हुआ। तत्कालीन सूचना मंत्री सी.एम.इब्राहिम ने मुझे बंगलोर से हटाने तक की मांग कर डाली। मगर एस पी ने साफ इनकार करते हुए कहा कि ये संभव नहीं है। ऐसा संपादक आज के दौर में कहां मिलता है जो अपने एक संवाददाता के लिए अपनी कुर्सी तक दांव पर लगा दे। जब तक वो रहे,आजतक में काम करने का अलग ही उमंग और मजा था
एस.पी की एक और खास बात थी बच्चों जैसा भोलापन और सरलता। सन 1997 के आसपास जब उनको लगने लगा कि उनके नाम पर उनके दफ्तर के कुछ लोग अलग खेल करने लगे हैं तो वो बिफर पड़े और कहा कि आगे से सीधे मुझे सेल पर बात कर लिया करो। इसके अलावा कुछ नहीं सुनना।

मैं तमिलनाडु में चुनाव कवर करने गया था जो उनका फरमान था। एसाइनमेंट के आकाओं को ये बात नागवार गुजरी। एक-दो नए पिल्लों ने कुछ खुराफात भी की। मुझसे ये बर्दाश्त नहीं हुआ तो साफ कह दिया कि “मेरे अलावा सिर्फ अजय चौधरी से बात करना।” तमिलनाडु के चुनाव में DMK के द्वारा दो लाख साइकिलें बांटने की ख़बर पर वो मचल पड़े और बोले “मित्र बड़े अच्छे विजुअल्स हैं। मगर क्या ऐसा नहीं हो सकता कि वहां हर दो साल पर चुनाव करवाया जा सके?” मैं और अजय चौधरी दोनों अवाक् रह गए कि ये क्या बोल रहे हैं? फिर हिम्मत करके मैंने पूछा- इसकी कोई खास वजह? तो हंसते हुए बोले-“यार इसी बहाने दो-तीन लाख लोगों को साइकिल तो मिल जाया करेगा। क्या बुराई है इसमें? नेता लोग इसी बहाने अपने खीस से कुछ पैसे तो ढीला करेंगे?”

एस पी का सबसे बड़ा बल और उनकी कमजोरी भी थी साफगोई। उससे आगे वो किसी की भी नहीं सुनते थे। बनावट से वो नफरत करते थे। सलीके के घोर समर्थक थे। यहां तक कि PTC के साथ वीओ में भी किसकी आवाज किससे मिलती है इसका वो पूरा ख्याल रखते थे। इसलिए मेरी रिपोर्ट में वीओ अक्सर मृत्युंजय कुमार झा ही करते थे। सन् 1996 में बैग्लोर में हुए विश्व सुंदरी प्रतियोगिता में मेरी रिपोर्ट काटने तथा वीओ करने का काम दिबांग को सौंपा गया था। इससे काफी लोग नाराज भी हुए। मगर एस पी का निर्णय अटल था और दिबांग ने उन तमाम रिपोर्टों के साथ वाकई न्याय किया।

एस पी अपने सहकर्मियों की भावनाओं तथा संवेदनाओं का काफी ख्याल रखते थे। इसकी सबसे बड़ी मिसाल तब देखने को मिली जब आजतक के एक सहकर्मी के साथ कांशीराम ने दुर्व्यवहार किया था। एस पी और डॉ प्रणय राय को एक साथ राजपथ पर उतरते लोगों ने पहली बार देखा था।

मैंने तो इसे और करीब से जाना जब विश्व सुन्दरी प्रतियोगिता पर रिपोर्ट करने के दौरान आजतक की मालकिन मधु त्रेहन से मेरी कहा-सुनी हो गयी और मैंने तकरीबन सोच लिया था कि अगले दिन से काम पर नहीं आउंगा। वैसे भी मैं थोड़ा गुस्सैल था। ये बात कुछ लोगों ने उनके कान में डाल ही रखी थी। मगर जब एस पी को पूरी बात मालूम पड़ी तो वो बड़े नाराज हुए। पहले तो मुझे डांट लगायी कि उनको ये बात क्यों नहीं बतायी गयी? बाद में जाकर वो मधु त्रेहन से लड़ गए और कहा कि “अजय झा डोबरमैन है। वो एक ही कमांड सुनता है। आज से या तो मधु त्रेहन ही आजतक चलाएंगे या फिर मैं।” और वो शाम को अपना बैग लेकर दफ्तर से निकल गए थे। उस दिन के बाद से मधु त्रेहन ने आजतक में कोई दखल नहीं दिया।

ऐसा ही एक वाक्या था- सारे ब्यूरो चीफ की मीटिंग थी। आजतक के मालिक ने , आस्ट्रेलिया से कुछ एक्सपर्ट बुलाया था जो हमलोगों को टेलीविजन न्यूज की बारीकियां समझाए। मैं,अजय चौधरी,विजय विद्रोही,मृत्युंजय झा,राकेश शुक्ला,मिलिंद खाण्डेकर आगे बैठे हुए थे। दोपहर तक हमलोग उबने लगे थे। मिलिन्द ने एक चिट एस पी को भेज दिया कि हमलोग बाहर भागने के मूड में हैँ। उसी चिट पर उनका जवाब आया “लाला ने लाखों रुपये खर्च कर ये ताम-झाम लगाया है। चूतियापा मत करो। कल सूद समेत वापस चुका लेना।”

दूसरे दिन हमलोगों को कुछ और गुर सिखाए गए। हमलोग पके तो पहले से ही थे। हमलोगों ने अपनी मंशा एस पी जाहिर कर दी। वो मुस्कराकर बोले- “हद से बाहर नहीं जाना।” फिर हमलोगों ने आस्ट्रेलियाई टीम को दिल्ली की नयी सड़क से लेकर गफ्फार मार्केट में न्यूज कवरेज का वो जलवा दिखाया कि सब त्राहि-माम। शाम होते-होते बेचारे हमारे एक्सपर्ट धाराशायी। मालिक ने एस पी से शिकायत की- “तुम्हारे लड़कों ने मेहमानों के साथ बदसलूकी की। सारे बदहवास हैं। कुछ बीमार भी पड़ गये। ये क्या तरीका है?”

एस पी इसी का इन्तजार कर रहे थे। उन्होंने मालिक से दो टूक कह दिया-“हमारे बच्चों को ये सब सिखाने की जरुरत नहीं। वो अपना काम जानते हैं। केनवरा का मॉडल चांदनी चौक में नहीं चलता है। ऐसे निठल्लों को बाहर से बुलाकर भाषण दिलवाने से बेहतर है कि आप इन बच्चों की तनख्वाह बढ़ा दें। बाकी सबकुछ ये खुद ही संभाल लेंगे।”

शाम को जब हमलोग अशोक यात्री निवास वापस आये तो सबका मूड अलग था। बाद में अजय,मृत्युंजय,जे पी दीवान भी चले आये और फिर खाने-पीने की महफिल जम गयी। दूसरे दिन जब हमलोग विदा होने लगे तो कहा गया कि बियर - शराब का पैसा मालिक नहीं देंगे। बात फिर एस पी तक पहुंची। फिर उनका होटल मालिक का फोन आया कि वो सारे पैसे भिजवा दिए जाएंगे। बच्चों को जाने दिया जाए।

ऐसी दिलेरी,ऐसा अंदाज और ऐसे तेवरवाला पत्रकार शायद ही फिर देखने को मिले। एस पी सबसे बड़ी नियामत ये रही कि वो मरने के बाद भी अपनी पहचान और शक्ल एक-दो पत्रकारों को दे गए। एस पी का अंदाज-ए-बयां और वांकपन आज भी दोहराता है कि-

तुझसे बिछड़ा भी मैं तो ऐ दोस्त याद रख
चेहरे पे तेरे अपनी नजर छोड़ जाउंगा

ग़म तो होगा सबको,पर सबका ग़म होगा जुदा

ना जाने कितने दीदये-तर छोड़ जाउंगा.

एस पी की याद से ही आज भी आंखें बेसाख्ता लवरेज हो उठती है।..

एस.पी.सिंह की याद

हिंदी पत्रकारिता के इतिहास में यूँ तो कई चमकते सितारे अपनी रौशनी बिखेर गए मगर एस.पी.सिंह की बात ही कुछ और थी / वो एक आला सहाफी होने के अलावा उतने ही कद्दावर इंसान और युगद्रष्टा थे. टेलीविजन पत्रकारिता के वे जनक थे. फितरत से राजा मगर हमेशा एक आदमी की सोच को जितनी बारीकी से समझने की क्षमता उनमें थी वो शायद आज के दौर में किसी भी मूर्धन्य पत्रकार में नहीं दिखाई देती.

मैं ये तो नहीं दावा कर सकता की उनके बहुत करीबी लोगों या दोस्तों में से था क्योंकि मेरा उनका संबंध आजतक से ही जुड़ा और वहीँ पर ही खत्म हो गया. आजतक के दौर में हर वरिष्ठ पत्रकार अपने आस-पास चम्पूओं और चाटुकारों की फौज रखना लाजमी समझता है क्योंकि ये किरदार उसके खेल और जुगाड़ की दुकान ही चलाने में ही काम नहीं आते बल्कि उसका अपना तिलस्म सोंच की परिणिति तथा गोल या खास महकमा को बनाकर यथाविधि महिमा मंडन या विलाप को भी अंजाम देने में काफी कारगर हथियार के रूप में इस्तेमाल किया जाता है.

स्वर्गीय सुरेन्द्र प्रताप इन चोंचलों,चमचा, कलछा और बेलचा की फौज की सोच और समझदारी से काफी ऊपर थे. उनकी सबसे बड़ी और अनोखी शख्सियत की पहचान और रंगबत थी - बेदाग़ छवि एवं बड़ा कद. मुलाजमत की मजबूरी और ज्याती रिश्तें के बीच उन्होंने कभी समझौता नहीं किया. इसलिए उनके दर्शक और सहयोगी - दोनों उनके ईमानदारी और बेबाकी के कायल थे. लफ़्ज़ों की लज्जत और ख़बरों में छुपी सच्चाई को परखने की उनमें अदभुत क्षमता थी और उसके लिए वो कभी समझौता नहीं करते थे. इस बात को मैंने खुद कई बार महसूस किया. यहाँ तक कि अगर पीटूसी में भी एक लफ्ज़ गलत चला जाए तो वो पीटूसी काट दिया करते थे. मैंने अपनी पीटूसी में एक बार जानवर के बदले दरिंदा लफ़्ज का इस्तेमाल कर दिया तो वो भड़क उठे और वो खबर तब तक नहीं चलने दी जब तक मैंने सही लफ़्ज़ों का इस्तेमाल नहीं किया. शब्दों की मार या लफ़्ज़ों की सही लज्जत के बारे में असली मुहर लगाने वाला आज कोई नहीं दिखा.

जहां तक खबरों के पीछे की खबर की बात है तो उसमें वो अद्वितीय थे. रिपोर्टर चाहे कितनी भी दिमागी कसरत कर ले. मगर वो किसी खबर को महज दो वाक्यों में समझना चाहते थे. और खबर तभी होती है जब वो दो वाक्यों में समझ आ जाये. उनकी सोच बड़ी ही साफ़ थी. वो कहते थे एक आम आदमी को सीधे साफ़ लफ़्ज़ों में अगर खबर समझा दो तो तुम रिपोर्टर या संवाददाता हो, टेलीविजन इसी का नाम है. इसमें जनता तस्वीर देखना चाहती है. इसमें कोई आडम्बर या भूमिका का उतना महत्व नहीं. आजतक की खबरों का चुनाव और भाषा इसलिए अलग रही क्योंकि उसमें एस.पी की अपनी सोच और किरदार साफ़ दिखाई देता था. शायद इसी वजह से शिवसेना प्रमुख ने सभी शिवसैनिकों को रात के दस बजे आजतक नियमित रूप से देखने का फरमान जारी कर दिया था.

अगर सुबह 6 बजे फोन की घंटी बजी तो अक्सर वो एस पी का ही फोन होता था. सिर्फ दो वाक्य " अरे अजय फलानी खबर पक गयी सी लगती है. दोपहर अपलिंक कर देना।.. और वाकई में उस पकी खबर को वो अपने अंदाज़ में आजतक पर परोसते थे तो दर्शक उनके कायल हो जाते थे. ऐसा ही एक वाक्या था- प्रधानमंत्री देवगौड़ा और रामकृष्ण हेगड़े के बीच की तनातनी. मगर गौड़ा महाशय अपनी जुबान खोलने को तैयार नहीं थे. सारी कोशिशें बेकार होती दिखाई दे रही थी. मैंने अपने हमनाम साथी स्वर्गीय अजय चौधरी से अपनी मुश्किल बताई तो वो हंस कर बोले अरे बाबा बॉस से ही बात कर लो. क्या पता,कोई नया नुस्खा निकल आये.

खैर मैंने उन्हें फोन किया तो वो हंसने लगे और कहा अजीब अहमक हो यार तुम इतना भी नहीं कर सके. तो मैंने उन्हें पूरी बात बताई और कहा की वो हेगड़े के नाम पर तो गौड़ा महाशय माइक तोड़ कर चले जाते हैं और आपको ये खबर हर हाल में चाहिए. फिर क्या करूँ? इसी बीच किसी ने उनके कान में आकर कहा की कश्मीर के अनंतनाग में बवाल हो गया है और कई लोग फायरिंग में मारे गए. एक मिनट बाद उन्होंने वापस फ़ोन कर कहा " कल शाम को जैसे ही गौड़ा बंगलौर हवाई अड्डे पर उतरे तो सीधे उसके पास चले जाना। शुरुआत अनंतनाग से करना और बाद में जोर-शोर से बोलना शुरू कर देना कि हेगड़े बड़ा ही अच्छा नेता है. फिर गौड़ा महाशय कुछ गुल अवश्य खिलाएंगे और सब कुछ रिकॉर्ड कर लेना.

कमाल की सोंच थी ये. मैंने दूसरे दिन वैसा ही किया. आते ही गौड़ा जी के ऊपर अनंतनाग पर सवाल दागा. मगर बात उनके पल्ले नहीं पड़ी. वो कश्मीर के अनंतनाग के बदौलत जे.एच.पटेल मंत्रिमंडल के सदस्य तथा फिल्म अभिनेता श्री अनंतनाग पर बरस पड़े कि नालायक है अनंतनाग. दारु पीकर टुन्न रहता है. काम-काज कुछ नहीं करता. बुलाओ उसको.मैं अभी उसकी वाट लगाता हूँ.

मैंने फौरन राम कृष्ण हेगड़े का स्तुतिगान शुरू कर दिया. फिर क्या था. गौड़ा जी ने ऐसी लच्छेदार गालियों से हेगड़े को नवाजा कि मैं सन्न रह गया. शाम को एस.पी को फोन किया कि सब रिकॉर्ड तो हो गया, मगर जितनी गालियाँ दी है,उसका क्या करूँ, वो तो खबर में नहीं जा सकती. एस.पी बिगड़ गए. बोले यार मैंने तुम्हे उस पर तरस खाने के लिए थोड़े ही कहा है। याद रखो,तुम संजय हो,युद्धिष्ठिर या भीष्म नहीं। सारे बाइट्स का कन्नड़ से हिन्दी में अक्षरशः अनुवाद करके भेजो।

दूसरे दिन जब आजतक पर खबर चली तो हंगामा मच गया। मैंने फिर एस पी को फोन किया कि यहां तो लोग मेरा बुरा हाल कर देंगे। तो उनका जवाब था-"बस डटे रहो। भारत की जनता भी तो अपने गिरेबान में झांककर देखे कि किसके हाथ में सत्ता की बागडोर सौंपी है।"

ऐसा ही एक बार तब हुआ जब कोजेंट्रिक्स परियोजना पर गुस्से में तत्कालीन प्रधानमंत्री ने अपना कुर्ता निकाल फेंका था और श्रीमती मेनका गांधी को खरी-खोटी सुनाई थी। पर एस पी कहां माननेवाले थे। आजतक में वही खबर जस की तस चल गयी। फिर बवाल हुआ। तत्कालीन सूचना मंत्री सी.एम.इब्राहिम ने मुझे बंगलोर से हटाने तक की मांग कर डाली। मगर एस पी ने साफ इनकार करते हुए कहा कि ये संभव नहीं है। ऐसा संपादक आज के दौर में कहां मिलता है जो अपने एक संवाददाता के लिए अपनी कुर्सी तक दांव पर लगा दे। जब तक वो रहे,आजतक में काम करने का अलग ही उमंग और मजा था
एस.पी की एक और खास बात थी बच्चों जैसा भोलापन और सरलता। सन 1997 के आसपास जब उनको लगने लगा कि उनके नाम पर उनके दफ्तर के कुछ लोग अलग खेल करने लगे हैं तो वो बिफर पड़े और कहा कि आगे से सीधे मुझे सेल पर बात कर लिया करो। इसके अलावा कुछ नहीं सुनना।

मैं तमिलनाडु में चुनाव कवर करने गया था जो उनका फरमान था। एसाइनमेंट के आकाओं को ये बात नागवार गुजरी। एक-दो नए पिल्लों ने कुछ खुराफात भी की। मुझसे ये बर्दाश्त नहीं हुआ तो साफ कह दिया कि “मेरे अलावा सिर्फ अजय चौधरी से बात करना।” तमिलनाडु के चुनाव में DMK के द्वारा दो लाख साइकिलें बांटने की ख़बर पर वो मचल पड़े और बोले “मित्र बड़े अच्छे विजुअल्स हैं। मगर क्या ऐसा नहीं हो सकता कि वहां हर दो साल पर चुनाव करवाया जा सके?” मैं और अजय चौधरी दोनों अवाक् रह गए कि ये क्या बोल रहे हैं? फिर हिम्मत करके मैंने पूछा- इसकी कोई खास वजह? तो हंसते हुए बोले-“यार इसी बहाने दो-तीन लाख लोगों को साइकिल तो मिल जाया करेगा। क्या बुराई है इसमें? नेता लोग इसी बहाने अपने खीस से कुछ पैसे तो ढीला करेंगे?”

एस पी का सबसे बड़ा बल और उनकी कमजोरी भी थी साफगोई। उससे आगे वो किसी की भी नहीं सुनते थे। बनावट से वो नफरत करते थे। सलीके के घोर समर्थक थे। यहां तक कि PTC के साथ वीओ में भी किसकी आवाज किससे मिलती है इसका वो पूरा ख्याल रखते थे। इसलिए मेरी रिपोर्ट में वीओ अक्सर मृत्युंजय कुमार झा ही करते थे। सन् 1996 में बैग्लोर में हुए विश्व सुंदरी प्रतियोगिता में मेरी रिपोर्ट काटने तथा वीओ करने का काम दिबांग को सौंपा गया था। इससे काफी लोग नाराज भी हुए। मगर एस पी का निर्णय अटल था और दिबांग ने उन तमाम रिपोर्टों के साथ वाकई न्याय किया।

एस पी अपने सहकर्मियों की भावनाओं तथा संवेदनाओं का काफी ख्याल रखते थे। इसकी सबसे बड़ी मिसाल तब देखने को मिली जब आजतक के एक सहकर्मी के साथ कांशीराम ने दुर्व्यवहार किया था। एस पी और डॉ प्रणय राय को एक साथ राजपथ पर उतरते लोगों ने पहली बार देखा था।

मैंने तो इसे और करीब से जाना जब विश्व सुन्दरी प्रतियोगिता पर रिपोर्ट करने के दौरान आजतक की मालकिन मधु त्रेहन से मेरी कहा-सुनी हो गयी और मैंने तकरीबन सोच लिया था कि अगले दिन से काम पर नहीं आउंगा। वैसे भी मैं थोड़ा गुस्सैल था। ये बात कुछ लोगों ने उनके कान में डाल ही रखी थी। मगर जब एस पी को पूरी बात मालूम पड़ी तो वो बड़े नाराज हुए। पहले तो मुझे डांट लगायी कि उनको ये बात क्यों नहीं बतायी गयी? बाद में जाकर वो मधु त्रेहन से लड़ गए और कहा कि “अजय झा डोबरमैन है। वो एक ही कमांड सुनता है। आज से या तो मधु त्रेहन ही आजतक चलाएंगे या फिर मैं।” और वो शाम को अपना बैग लेकर दफ्तर से निकल गए थे। उस दिन के बाद से मधु त्रेहन ने आजतक में कोई दखल नहीं दिया।

ऐसा ही एक वाक्या था- सारे ब्यूरो चीफ की मीटिंग थी। आजतक के मालिक ने , आस्ट्रेलिया से कुछ एक्सपर्ट बुलाया था जो हमलोगों को टेलीविजन न्यूज की बारीकियां समझाए। मैं,अजय चौधरी,विजय विद्रोही,मृत्युंजय झा,राकेश शुक्ला,मिलिंद खाण्डेकर आगे बैठे हुए थे। दोपहर तक हमलोग उबने लगे थे। मिलिन्द ने एक चिट एस पी को भेज दिया कि हमलोग बाहर भागने के मूड में हैँ। उसी चिट पर उनका जवाब आया “लाला ने लाखों रुपये खर्च कर ये ताम-झाम लगाया है। चूतियापा मत करो। कल सूद समेत वापस चुका लेना।”

दूसरे दिन हमलोगों को कुछ और गुर सिखाए गए। हमलोग पके तो पहले से ही थे। हमलोगों ने अपनी मंशा एस पी जाहिर कर दी। वो मुस्कराकर बोले- “हद से बाहर नहीं जाना।” फिर हमलोगों ने आस्ट्रेलियाई टीम को दिल्ली की नयी सड़क से लेकर गफ्फार मार्केट में न्यूज कवरेज का वो जलवा दिखाया कि सब त्राहि-माम। शाम होते-होते बेचारे हमारे एक्सपर्ट धाराशायी। मालिक ने एस पी से शिकायत की- “तुम्हारे लड़कों ने मेहमानों के साथ बदसलूकी की। सारे बदहवास हैं। कुछ बीमार भी पड़ गये। ये क्या तरीका है?”

एस पी इसी का इन्तजार कर रहे थे। उन्होंने मालिक से दो टूक कह दिया-“हमारे बच्चों को ये सब सिखाने की जरुरत नहीं। वो अपना काम जानते हैं। केनवरा का मॉडल चांदनी चौक में नहीं चलता है। ऐसे निठल्लों को बाहर से बुलाकर भाषण दिलवाने से बेहतर है कि आप इन बच्चों की तनख्वाह बढ़ा दें। बाकी सबकुछ ये खुद ही संभाल लेंगे।”

शाम को जब हमलोग अशोक यात्री निवास वापस आये तो सबका मूड अलग था। बाद में अजय,मृत्युंजय,जे पी दीवान भी चले आये और फिर खाने-पीने की महफिल जम गयी। दूसरे दिन जब हमलोग विदा होने लगे तो कहा गया कि बियर - शराब का पैसा मालिक नहीं देंगे। बात फिर एस पी तक पहुंची। फिर उनका होटल मालिक का फोन आया कि वो सारे पैसे भिजवा दिए जाएंगे। बच्चों को जाने दिया जाए।

ऐसी दिलेरी,ऐसा अंदाज और ऐसे तेवरवाला पत्रकार शायद ही फिर देखने को मिले। एस पी सबसे बड़ी नियामत ये रही कि वो मरने के बाद भी अपनी पहचान और शक्ल एक-दो पत्रकारों को दे गए। एस पी का अंदाज-ए-बयां और वांकपन आज भी दोहराता है कि-

तुझसे बिछड़ा भी मैं तो ऐ दोस्त याद रख
चेहरे पे तेरे अपनी नजर छोड़ जाउंगा

ग़म तो होगा सबको,पर सबका ग़म होगा जुदा

ना जाने कितने दीदये-तर छोड़ जाउंगा.

एस पी की याद से ही आज भी आंखें बेसाख्ता लवरेज हो उठती है।..

बुधवार, 19 मई 2010

लाइव की लुगाई और फोनो का फितूर

टेलीविज्ञान हमारी जिंदगी का एक महत्वपूर्ण अंग बन गया है। आजकल की भागदौड़ की जिदंगी में सूचना के साथ-साथ मनोरंजन का भी ये सबसे सस्ता और सशक्त कारगर जरिया बन गया है। दुनिया के किसी कोने में घटी कोई भी घटना दर्शकों के सामने इस माध्यम के जरिये मिनटों में सीधे दिखने लगती है। राजनीति से लेकर खेलकूद, मनोरंजन से लेकर विज्ञान और मनोविज्ञान, बच्चों से लेकर बूढ़े तक की जिन्दगी के तकरीबन हरेक हिस्से को ये टेलीविजन नियमित रूप से छूता है और उसकी सोच को भी प्रभावित करता है।

दरअसल टेलीविजन पर आज के समाज की निर्भरता इतनी ज्यादा बढ़ गई है कि ये सोचना मुश्किल सा लगता है कि इस माध्यम के बिना क्या आज का आदमी ठीक तरह से जी पाएगा या नहीं। कहीं एक मिनट के खास दृश्य के प्रसारण से कहीं सरकार गिर जाती है तो कहीं दंगा हो जाता है। तस्वीर और आवाज के मिश्रण से बने इस सशक्त माध्यम ने हमारे समाज को इतनी ज्यादा लत लगा दी है कि लगता है जैसे टेलीविजन बिन घर सूना.....

टेलिविजन इस सदी के सबसे चमत्कारिक अविष्कारों में अग्रणी माना जाता है। मगर हैरानी की बात ये है कि अन्य उपकरणों की तरह इसके अविष्कार के साथ किसी एक वैज्ञानिक या अनुसंधानकर्ता का नाम नहीं जुड़ा है बल्कि इसको विकसित करने में विश्व के कई देशों के वैज्ञानिकों तथा शोधकर्ताओं की टीम ने समय-समय पर उसमें अपना योगदान दिया और आज हम टेवलेस टेप और प्लाज्मा की बात करते हैं।



दरअसल टेलीविजन पर अनुसंधान की प्रक्रिया सन 1907 में शुरू हुई। और सन 1920 तक ब्रिटिश अनुसंधानकर्ता ए कैम्पवेल सुईनटोन तथा रूसी वैज्ञानिक बोरिश रोसिन ने इसमें काफी महत्वपूर्ण भूमिका निभाई। उसके बाद जर्मन वैज्ञानिक पॉल निप्कोह ने दुनिया का पहला टीवी स्कैनर बनाया।



जहां तक टेलीविजन न्यूज का सवाल है तो बीबीसी को इसकी मातामही कहा जा सकता है क्योंकि सन 1932 में बीबीसी ने ही इसकी शुरुआत की थी। 22 अगस्त 1932 को लंदन के ब्रॉडकास्ट हाउस से पहली बार टीवी का प्रायोगिक प्रसारण शुरू हुआ था। और 2 नवंबर 1932 को बीबीसी ने एलेक्जेंडरा राजमहल से दुनिया का पहला नियमित टीवी चैनल का प्रसारण शुरू कर दिया था।



उसके 5 साल बाद यानि 13 मई 1937 को राजा जॉर्ज छठवें ने राज्याभिषेक समारोह को ब्रिटेन की जनता तक सीधे पहुंचाने के लिए पहली बार ओवी वैन का इस्तेमाल किया। उसके बाद 12 जून 1937 को पहली बार विविंल्डन टेनिस का सीधा प्रसारण दिखाया गया था।



9 नवंबर 1947 को टेलीविजन के इतिहास में पहली बार टेली रिकार्डिंग कर उसी कार्यक्रम का रात में प्रसारण किया गया। 27 अगस्त 1950 को बीबीसी ने पूरे यूरोपीय महादेश में लाइव टेलीविजन दिखाने का कीर्तिमान स्थापित किया और सन 1967 में पहली बार बीबीसी टीवी अपने पहले सैटेलाइट कार्यक्रम ‘हमारी दुनिया’ के जरिए पूरे विश्व में प्रसारित होने लगा। साथ ही सितंबर 1976 में आईटीएन नेटवर्क के संवाददाता माइकल निकोल्सन ने पहली बार लाइव टेलीविजन न्यूज बुलेटिन में फोनो का इस्तेमाल किया था।



दूसरी तरफ अमेरिका में भी 1930 के दशक में टेलीविजन सभ्यता जोर पकड़ने लगी और सन 1946 में ABC टेलीविजन नेटवर्क का उदय हुआ। पहली बार रंगीन टेलीविजन का अविर्भाव 17 दिसंबर 1953 को अमेरिका में हुआ। और विश्व का पहला रंगीन विज्ञापन कैप्सूल 6 अगस्त 1953 को न्यूयॉर्क में प्रसारित हुआ था।



अमेरिका में NBC टेलीविजन नेटवर्क ने सन 1954 में मशहूर विदूषक स्टीव एलन द्वारा ‘टू नाइट शो ‘ प्रसारित कर तहलका मचा दिया था। मगर टेलीविजन के क्षेत्र में सन् 1960 में एक नया इतिहास बना और राष्ट्रपति पद के लिए रिपब्लिकन पार्टी के उम्मीदवार रिचर्ड निक्सन और डेमोक्रेटिक पार्टी के उम्मीदवार जॉन एफ कैनेडी के बीच राष्ट्रीय स्तर पर सीधे प्रसारित परिचर्चा को अमेरिकी जनता ने खूब सराहा। 26 सितंबर 1960 को प्रसारित इस ‘लाइव डिवेट’ ने टेलीविजन की पहुंच तथा लोकप्रियता को एक नया मुकाम दिया। और अमेरिका जनता इस उपकरण की दीवानी हो गई।



अमेरिकी टेलीविजन के इतिहास में एक और नया अध्याय जुड़ा 22 नवंबर 1960 को जब NBC चैनल ने डलास में हुए राष्ट्रपति जॉन एफ कैनेडी की हत्या की तस्वीरे प्रसारित की और उसके बाद पूरे चार दिनों तक अमेरिकी जनता इसी शोक लहर में डूबी रही। टेलीविजन पटल पर राष्ट्रपति की शव यात्रा से लेकर कातिल ली. हार्वे ऑस्वर्ड को पुलिस द्वारा हिरासत में लिए जाने का सीधा प्रसारण देखना 33 लाख अमेरिकी जनता के लिए एक नया अनुभव था। NBC के रिपोर्टर जैक रूबी ने ऑस्वॉर्ड की पहली तस्वीर और उसकी हवालात यात्रा का सीधा प्रसारण अपने दर्शकों को दिखाया था।



टेलीविजन के इतिहास में एक और नया इतिहास 20 जुलाई 1967 को जुड़ा जब चांद पर गए अंतरिक्ष यात्री नील आर्मीस्ट्रांग और एडविन आर्डिन ने चांद पर पहला कदम रखा। पूरी दुनिया की करोड़ों जनता ने अमेरिका की नेटवर्क टीवी के जरिए इन दोनों आतंरिक्ष यात्रियों को चांद पर उतरते देखा। सीधा प्रसारण के इतिहास में पृथ्वी से चांद तक की दूरी तय करने की ये पहली मिसाल थी।



उसके बाद सन 1976 में टेड टर्नर ने एटलांटा शहर में अपना सुपर स्टेशन शूरू किया और पहली बार केबल नेटवर्क के जरिए टेलीविजन प्रसारण का इतिहास कायम हुआ। सन 1979 में सिर्फ खेलकूद का विशेष टीवी नेटवर्क ईएसपीएन स्थापित हुआ। और इसी क्रम में सन 1980 में सीएनएन का जन्म हुआ।



सन 1981 में पहली बार दुनिया भर की जनता ने इरान-इराक युद्ध का सीधा प्रसारण अपने बेडरूम तक में देखा। और सीएनएन के रिपोर्टर पीटर आर्रनट रातो-रात दुनिया के सबसे चर्चित पत्रकार बन गये। युद्ध क्षेत्र से खबरों के सीधे प्रसारण की ये पहली मिसाल थी।



टेलीविजन के इतिहास में कुछ खास दिन आज भी इस सुनहरे सफर का आइनादार है। मिसाल के तौर पर पहली बार 1933 में अमेरिकी राष्ट्रपति फ्रेंकलिन रूज्वेल्ट ने देश की जनता को टेलीविजन के जरिए सीधा संबोधित किया था। सीबीएस चैनल ने 1938 में पहली बार वर्ल्ड न्यूज राउंड-अप का प्रसारण किया था। सन 1947 में कांग्रेस की कार्यवाही का सीधा प्रसारण शुरू हुआ था। और सन 1967 में अमेरिका की 94 फीसदी जनता ने अतंरिक्ष यात्री नील आर्मीस्ट्रांग को चांद पर उतरते देखा था। उसी तरह ब्रिटेन में रानी विक्टोरिया द्वारा 1939 में पहली बार क्रिसमस का संदेश राष्ट्र के नाम सीधा प्रसारित किया गया था।



टेलीविजन प्रस्तुतकर्ताओं की श्रेणी में अमेरिका के टोंम ब्रोकाओ एडवार्ड आर मुरौ, सर पीटर जेनिंग्स, मर्लिन सेंडर्स, पाउलिने फ्रेडेरिक और डेन रार्थर से लेकर बीबीसी के मेक्क डोनाल्ड मेकार्मिक तथा निकी मार्कस जैस लोगों को आज भी दुनिया आदरपूर्वक याद करती है।



भारत में टेलीविजन



भारत में टेलीविजन की शुरुआत निहायत ही छोटे स्तर पर 13 सितंबर 1959 को दिल्ली शहर से हुई थी। यहां एक छोटे ट्रांसमीटर और छोटे काम चलाऊ स्टूडियो से पहला प्रसारण शुरू हुआ। नियमित प्रसारण आकाशवाणी के प्रभाग के तौर पर 1965 से शुरू हुआ। इसे मुंबई तथा अमृतसर से सन 1972 में जोड़ा गया था और सन 1975 तक देश के सात शहरों में इसका प्रसारण देखा जाने लगा था।



सन 1980 के दशक में टेलीविजन की दुनिया में विकसित दूरगामी आयामों के मद्देनजर भारत भी अपनी अलग पहचान बनाने की जुगत में लगा रहा। सन 1982 की आखिर में एशियाड खेलकूद प्रतियोगिता के समय भारत में रंगीन टेलीविजन का आगाज हुआ।



कांग्रेस सरकार की खुला आसमान नीति के तहत सीएनएन जैसी विदेशी टेलीविजन संस्थाओं ने स्टार टीवी के जरिए भारत में प्रसारण 1991 में शुरू किया। सन टीवी नेटवर्क 1992 में स्थापित दक्षिण भारत का पहला निजी चैनल बना जबकि उत्तरी भारत की कमान सुभाष चंद गोयल की जीटीवी ने संभाली। सन 1994 तक 12 निजी चैनल सैटेलाइट के जरिए देखे जाने लगे थे। जीटीवी ने 1995 में जीन्यूज नामक 24 घंटे के खबरिया चैनल की शुरुआत की और 1998 में एनडीटीवी तथा रुपर्ट मुर्डाक की स्टार टीवी के साथ मिलकर स्टार न्यूज चैनल की स्थापना की गई।



दूसरी तरफ राघव बहल की टीवी 18 ने सीएनबीसी के साथ मिलकर 1999 में सीएनबीसी इंडिया चैनल बनाया। डीडी-2 पर आजतक जैसे मशहूर कार्यक्रम बनाने वाले टीवीटूडे समूह ने 24 घंटे के हिंदी न्यूज चैनल का प्रसारण दिसंबर 2000 से शुरू किया। 2003 में एनडीटीवी समूह एक साथ 2 खबरिया चैनल लेकर अवतरित हुआ। और दूसरी तरफ 28 मार्च 2003 को सहारा इंडिया परिवार ने भी अपना 24 घंटे का न्यूज चैनल सहारा समय खबरों के बाजार में उतारा। वरिष्ट पत्रकार रजत शर्मा ने 20 मई 2004 को इंडिया टीवी चैनल के जरिए अपनी नई पारी की शुरुआत की।



17 जनवरी 2005 को एनडीटीवी ने अपना विजनेस चैनल एनडीटीवी प्रॉफिट लॉन्च किया और 27 मार्च 2005 को जागरण समूह ने चैनल-7 नामक 24 घंटे वाले खबरिया चैनल की शुरुआत की।



पिछले दस सालों में भारत में टेलीविजन चैनलों की बाढ़ सी आ गई है। आज की तारीख में भारत की सरजमीं से कुल 570 टेलीविजन चैनल अपलिंक किए जाते हैं जिनमें 59 खबरिया चैनल हैं। करीब 200 अन्य चैनलों के लिए सूचना और प्रसारण मंत्रालय के पास लाइसेंस का आवेदन पड़ा है। जाहिर है ऐसे माहौल में हर चैलन खबर के हर टुकड़े पर भी कुछ खास करने की होड़ में क्या-क्या दिखाता है और अपने दर्शकों को लुभाने की हर कोशिश करता है।



आजकल का माहौल ऐसा हो गया है कि बहुत कम चैनल अच्छी स्टोरी का पैकेज बना कर दर्शकों को दिखाते हैं। आधी से ज्यादा खबरें लाइव ही जाती हैं क्योंकि उसी पर टीआरपी से लेकर कई और चीजों की गणित कायम है।



कई महत्वपूर्ण घटनाओं को दर्शकों की जानकारी के लिए सीधे दिखाना आवश्य भी हो जाता है। कोई बड़ा हादसा या बड़ी विभिषिका या राजनीतिक भूस्खलन या फिर खेलकूद.. यहां तक की पर्यावरण और आम जिन्दगी से जुड़े मसलों और मरहलों पर बड़ी खबरों को सीधे दिखाने पर कोई हर्ज नहीं है। मगर परेशानी तब होती है जब सब कुछ ढाक के तीन पात की तरह हो जाता है और सबकुछ ब्रेकिंग न्यूज ही बन जाता है। और उसके बाद जो सिलसिला जो शुरू होता है उसका अंत कहां होता है ये तो रिपोर्टर भी नहीं जान पाता।



आमतौर पर ओवी वैन का इस्तेमाल किसी भी बड़ी घटना की पहली तस्वीर दिखाने के लिए किया जाता था। मगर अब उस तस्वीर से ज्यादा उस घटना विशेष पर संवाददाताओं का प्रवचन और दर्शकों के नाम धारा प्रवाह संदेश ज्यादा वक्त ले जाता है।

आज भारत में न्यूज चैनलों की बाढ़ सी आ गई है, नेशनल न्यूज चैनल से लेकर स्टेट स्तर पर खबरिया चैनलों का मकड़जाल फैला हुआ है। इनकी खबरों की भूख ऐसी है जैसे जंगल में 42 दिन से भूखे शेर को खाना नहीं मिला हो और बेचारा पेड़ की सूखी छाल को ही शिकार समझ कर भक्षण कर रहा हो। ऐसा ही हाल खबरिया चैलनों का हो गया है। खबर न मिलने पर बेतुकी घटनाओं को ही खबर बनाकर उस पर लाइव लेना शुरू कर देते हैं। दिल्ली में बूंदा-बादी शुरू हो जाए। तो फट से ओवी वैन लगाकर भाई लोग लाइव की सेना तैनात कर देते हैं और बारिश पर लाइव चैट। रिपोर्टर बांदू-बांदी होने की जगह यानी घटना स्थल से चैट देने लगता है। हद तो तब हो जाती है जब बारिश की बात कर रहे रिपोर्टर की शर्ट तक नहीं गिली होती और खबरिया चैनल उस पूरा आधा घंटे का लाइव खेल का खेला खेल जाते हैं।



लाइव की लुगाई का मोह ऐसा है कि जिसे ‘लाइव’ करने का मौका मिल जाता है वो उसे बिना ताने नहीं छोड़ता। भाई लोगों को डर होता है कि कहीं दूसरा खबरिया चैनल ज्यादा देर तक लाइव की लुगाई दिखाकर टीआरपी के ज्यादा बच्चे न पैदा कर ले। बारिश की खबर पर अबोध बालक की तरह बिना किसी तैयारी के बोल रहा रिपोर्टर बारिश की तरफ देखकर सोचता है कि काश उसने मौसम विभाग के दफ्तर में कुछ दिन काम किया होता तो बारिश के बारे में ऐसा व्याख्यान देता कि चैनल हेड तुरंत मौसम बीट बना कर उसे मौसम बीट का हेड बना देता। फिर तो बारिश में लाइव और लाइव में बारिश का मज़ा ही कुछ और होता!



लाइव की लुगाई को 24 घंटे जगना पड़ता है पता नहीं कब किसको लाइव की लुगाई की याद आ जाए और किसी महान खबर पर लाइव की लुगाई को नाचना पड़े। लाइव का मोह इतना अंधा है कि अगर किसी खबर पर दूसरे खबरिया चैनल ने ओवी वैन लेकर घटना स्थल से लाइव लेना शुरू कर दिया तो बाकी चैनलों में ज्वालामुखी फट पड़ता है और उससे निकने वाली राख पूरे न्यूजरूम में कोहराम मचा देती है। हर किसी को इंतजार होता होता है कि ओवी वैन की पालकी कब पहुंचे कब, और कब लाइव की लुगाई का नाच शुरू होगा।



सुबह से लेकर शाम तक ओवी वैन दिल्ली, मुंबई जैसे महानगर पर पर लाइव के ताड़ में घूमती रहती हैं और छोटी सी घटना का आड़ मिलते ही लाइव का लुगाई का मुंह दिखाने का पूरा खेल शुरु हो जाता है। और घटना स्थल पर पहुंचा रिपोर्टर घटना का बयान तब तक बिना सांस लिए करता रहता है जब तक उसकी सांस न फूलने लगे। उसे लगता है कि कहीं उससे ज्यादा एंकर न बोल ले और पूरी पारी में उसका रोल कम न रह जाए। कभी-कभी एंकर और रिपोर्टर खुद ज्यादा से ज्यादा ज्ञान देने के चक्कर में लाइव का बेड़ागर्क कर देते हैं। खबर की खिचड़ी बनने कि जगह, पुलाव तैयार हो जाता है।



लेकिन उससे भी ज्यादा त्रासदी पूर्ण घटना तब होती है जब अदना सी बात पर भी चैनल के संपादक रिपोर्टरों की फौज को फौरन ‘फोनों’ देने का फरमान जारी करते हैं। ये दिगर बात है कि खबर में इतनी दम न हो कि राष्ट्र के नाम संदेश प्रसारित किया जा सके। मगर चूकि एक प्रतिस्पर्धी चैनल ने कोई खबर फोड़ दी तो बाकी चैनलों के न्यूज रूम में भी मेढ़क की तरह उछल कूद शुरू हो जाती है और फोनो देने की गुहार भी।



अक्सर ऐसा होता है कि बीट रिपोर्टर तो अपना काम निकाल ले जाता है। और जैसे-तैसे उस खबर के बारे में दस-पांच लाइन ठीक-ठाक बोलकर पतली गली से निकल जाता है। उसको इस खबर के बावत बाइट लेने की चिंता हो जाती है और इस चक्कर में कई घंटे भी लग जाते हैं। मगर चुकि उस खबर को जिंदा रखना है और अन्य चैनलों के मुकाबले हर आधे घंटे पर नए तड़के के साथ अपडेट देना होता है तो बेचारे रिपोर्टर की हालत अजीबोगरीब होती है।



हद तो तब होती है जब वो बेचारा लघु शंका या दीर्घ शंका में भी जाए तो अपना फोन कान पर लटकाए रहने पर मजबूर होता है। ऐसे में पूरानी जानकारी के बलबूते पर ही उसे अपना पैंतरा बदलना पड़ता है और देहाड़ी बचानी पड़ती है। मगर चैनल संचालकों के दिमाग पर फोनो का फितूर इतना हाबी हो चुका होता है कि उसके चक्कर में कई रिपोर्टर भयानक गलतियां कर बैठते हैं और अक्सर अर्थ का अनर्थ हो जाता है। ऐसे में एक रिपोर्टर की गलती पूरे चैनल की इज्जत पर पानी फेर देता है।



फोनो के फितूर का फीता गजब का है। जब तक विजुअल न आ रहे हों या और कोई बात न सूझ रही हो तो फोनो के फीते से खबर को बार-बार नापा जाता है। एक छोटी सी घटना को पांच-पांच मिनट तक सिर से पैर तक बीसों बार रिपोर्टर फोनो के फीते से नापता रहता है। लेकिन एंकर महोदया बार-बार बोलती रहती हैं कि ‘जरा विस्तार से बताइए आखिर हुआ क्या’?



अगर किसी विशेषज्ञ का फोन किसी घटना पर किसी दूसरे चैनल को मिल गया तो न्यूज रूम में हंगामा मच जाता है कि पहले फोनो हमें क्यों नहीं मिला? अब जूठा फोनो लेना पड़ेगा। लेकिन खबरिया चैनल के भाई लोग जूठा फोनो लेने पर कोई परहेज नहीं करते। इसीलिए एक विशेषज्ञ दस चैनलों पर एक घटना को पचास बार दोहराता है। घटना अगर इंसान होती तो अपना इतनी बार बखान सुनकर फोनो देने वालों को 5 स्टार होटल में पार्टी जरूर देती...

शुक्रवार, 14 मई 2010

भेड़चाल में भगदड़

मीडिया पर अचानक लगाए जा रहे कई तरह के आरोपों में भले ही अतिश्योक्ति की बू आ रही हो मगर उन आरोपों के कुछ बिंदुओं में सच्चाई की सुई भी शामिल है। कई लब्ध प्रतिष्टित विद्वानों तथा चितंकों ने मीडिया और खास कर इलेक्ट्रानिक मीडिया के आक्रामक तेवर से लेकर छोटी सी खबर को भी तिल का ताड़ बना देने के बड़ती मनोवृति पर ब्रज प्रहार करना शुरू कर दिया है। कुछ एक लेखों में लेखकों की खीझ साफ दिखाई दे जाती है तो कहीं, किसी लेखक के दिल में उस मीडिय का हिस्सा नहीं बन पाने और दोपहर में भी चौदवी का चांद की तरह नहीं चमक पाने की टीस और दर्द भी दिख जाता है।



मगर इसमें कोई दो राय नहीं कि खबरों की होड़ में अपने आप को हमेशा आगे रखने तथा अपने प्रतिद्वंदियों से एक कदम आगे निकल जाने की ललक में कभी कभार मजे हुए पत्रकार और नामचीन चैनल भी गुड़ गोबर कर देते हैं।



अखबारों की तुलना में खबरिया चैनलों का रवैया और रस्मों रिवाज कुछ मुख्तलिफ है। आमतौर पर अखबारों की सुर्खियां अलग-अलग होती है और उन खबरों पर तफ़सरा और तज़करा का मयार भी काफी अलग दिखता है। कुछ एक अखबार खबरों के पीछे की खबर को भी बड़ी शालीनता और समन्वय भाव से पेश करते हैं क्योंकि उनके लिए पाठकों का विश्वास ही मूल मंत्र और महामंत्र होता है।



मगर खबरिया चैनलों के चंडूखाने में अजीबोगरीब आलम देखने को मिलता है। वहां के तहज़ीबो रवायत से लेकर खबरों की समझी-नसामझी, खबरों को सेकने, पकाने और तानने का अंदाज से लेकर परोसने तक की बारीकी के कई पहलुओं पर गर्मागरम बहस होती है और फिर आखिरी रणनीति बनती है। हर चैनल उसी वक्त में उसी खास खबर पर हर तरह से अपनी विश्वसनीयता से लेकर नीयत और नियामत का झंडा गाड़ने पर आमादा हो जाता है और इसी क्रम में जो तिकड़म से लेकर तिलिस्मानी तीरंदाजी की कवायद शुरू होती है वो कहीं बचकानी सी लगती है तो कहीं बेमानी भी। कभी रिपोर्टर का अति उत्साह और ‘सबसे पहले मैं’ के साथ ‘अहम् ब्रह्मस्मि ‘ का दंभ उसे मजाक का पात्र बना देता है तो कभी खबर की चाशनी पूर तरह तैयार होते होते एसाइनमेंट हेड की हेकड़ी की भेट चढ़ जाती है

खबरचियों की टीम अगर खुदा न खास्ता इंडिया गेट के लॉन या विजय चौक पर बैठी हो तो फिर कहना ही क्या? एसएमएस का एक उल्कापात किसी कोने से आया और पल भर में ही जनवरी में बहती सर्द हवा की तरह सब खबरचियों को सून्न करता चला गया। मानो बिजली कौंधी और उसी गति से चैनलों के सेनापतियों की नींद या फिर उनके विवेक को भी झकझोर गई। उसके बाद जो ‘लाइव’ या फोनों का दौर चलता है, युद्ध स्तर पर ओवी मगाई जाती है और जो अन्य कई हैरतअंगेज करतब देखने को मिलते हैं उससे लगता है मानो धरती आज ही फट जाएगी।



खबरिया चैनलों की फौज में सुबह से शाम तक खबरों के समंदर में गोता खाते रिपोर्टर बेचारे क्या करें ? मगर उस फौज में भी कई ऐसे तुक्का वाले तीरंदाज होते हैं जो आए दिन अपने विरादरी के कई साथियों से मानो बदला निकाल रहे होते हैं। मिसाल के तौर पर स्टार न्यूज के एक ऐसे खबर्ची हैं जो अक्सर नार्थ या साउथ ब्लाक में महारत रखने का दावा करते हैं और गाहे-बगाहे खबरों के बावत एक दो ऐसे शगुफे छोड़ देते हैं जिसके चलते कई अन्य चैनलों के रिपोर्टरों को अपने आकाओं की गालियां सुनने को मिल जाती हैं। अक्सर ऐसी खबरें दस मिनट के बाद स्टार न्यूज से तो बाहर निकल जाती है मगर बाकी चैनलों के रिपोर्टरों के लिए मुसिबत का जंजाल बन जाती हैं और भेड़चाल की इस परंपरा में भगदड़ का बदस्तूर निर्वहन होता है। शायद ऐसे चंद ही पत्रकार हैं जो अपने आकाओं से ये कहने की हिम्मत रखते हों कि जब तक खबर की पुष्टि नहीं हो जाती और उसका किसी मंत्री विशेष या पार्टी प्रवक्ता से बाइट नहीं मिल जाती तब तक उसे नहीं चलाना चाहिए।



मगर अधिकांश खबरचियों को अपने आकाओं की हुक्मउदूली करने की हिम्मत नहीं होती और फरमान मिलते ही वो अपना लाव-लश्कर लेकर मैदाने जंग में कूद पड़ते हैं। मज़ेदार बात ये होती है कि जब तक और खबरिया चैनल इस खबर की पुष्टि करे और उसके लिए बाइट ढुढने निकले तब तक कोई और नया शगूफा छुट चुका होता है और फिर सर मुडाते ही ओले पड़ने की नौबत आ जाती है।



मगर कई ऐसे भी खबरिया चैनल हैं जो उसी शगूफे को ब्रह्म वाक्य मानकर उस पर फोनो या ओवी करने लग जाते हैं और जनता को राष्ट्र के नाम संदेश देने लगते हैं।



दरअसल ज्यादातर खबरिया चैनलों में सुबह के बुलेटिनों में पिछली रात अखबारों में छपी खबरों का ही जिक्र होता है और 80 फीसदी खबरे वहीं से टीप ली जाती हैं। उस पर से तुर्रा ये कि अगर किसी अखबार ने कोई ‘एक्सक्लूसिव’ खबर छाप दी तो ये एसाइनमेंट हेड के लिए अपने बीट रिपोर्टर को जलील करने के लिए एक नया अस्त्र मिल जाता है। ऐसा इसलिए होता है कि चैनल के चालकों और सेनापतियों की तिकड़ी का सक्रिय पत्रकारिता से खुद वास्ता ही नहीं रहा। उनका क्या ? उन्होंने 4 अखबार पढ़ लिया और 5 चैनल देख लिया और फिर उसके बाद जिस रिपोर्टर का जी चाहा, उसकी ही क्लास ले ली। कोई अफलातूनी अंदाज में चीखने लगता है तो कोई बंद केबिन में डांट पिलाता है। चैनल के सेनापति एयरकंडिशन केबिन में बैठकर फ्रूटचाट खा रहे होते हैं और बेचारे रिपोर्टर की नियति ये है कि वो दिल्ली की तपती गर्मी में अपने आकाओं की डांट खाए और उसके साथ अपने प्रतिस्पर्धी चैलनों से भी हमेशा दो कदम आगे रहे।



पिछले दिनों ही एक ऐसा वाक्या देखने को आया। एक खबरिया चैनल ने भरी दोपहर में गोला दागा कि चीन मुद्दे पर प्रधानमंत्री ने पर्यावरण मंत्री जयराम रमेश को फोन पर जमकर डांट पिलाई। फिर क्या था? मिनटों में बाकी चैनलों में भी वही राग अलापना चालू हो गया और संवाददाता गण अपनी बुद्धि और अनुभव के हिसाब से राष्ट्र के नाम संदेश देने लगे। भेड़चाल में ही भगदड़ की एक नई मिसाल थी। कुछ संवाददाताओं ने कसीदे कढ़े तो कुछ ने उनके मंत्रीमंडल से विदाई तक की बात भी कर डाली। मगर सच्चाई ये थी कि प्रधानमंत्री ने श्री जयराम रमेश को घर पर बुलाकर खरी खोटी सुनाई थी और फोन पर तो बात ही नहीं की थी।



कभी-कभार खबरों की तेज रफ्तार में ऐसी गलतियां हो जाती हैं और कई संजीदा चैनल मिनटों में ही अपनी भूल सुधार लेतें हैं मगर अति तब होती है जब किसी एक चैनल ने कोई अविस्मयकारी शगूफा छोड़ा और खबर ‘फोड़ा’ और उसके बाद मिनटों में बाकी चैनलों के सिपाही और सेनापति मीलो चले जाने में इजराइली सेना को भी पीछे छोड़ देते हैं।



एक्सक्लूसिव खबर की होड़ में चमत्कार से चूतियापा तक हर किस्म की खट्टी मीठी ताजी पुरानी और आड़ी तिरछी खबरों का बाजार ऐसे फटता है जैसे आईसलैंड की पहाड़ी से निकली ज्वालामुखी के आग और राख ने पूरे यूरोप के आसमान पर कब्जा कर लिया हो।



इसकी सबसे बड़ी मिसाल थी एक खबरिया चैनल के रिपोर्टर द्वारा श्रीलंका में रावण कब्र खोज निकालना। उस खास चैनल का रिपोर्टर श्रीलंका के उस खास गुफा के सामने खड़ा होकर चिल्ला रहा था की गुफा के अंदर रावण की ममी पड़ी हुई है और उसके दर्शक इसका मजा ले रहे थे।



मगर कई प्रतिद्वंदी चैलनों के न्यूजरूम में अलग ही माहौल था। कुछ एक चैनलों ने फौरन एक रिपोर्टर को कोलंबो उड़ाने की बात की तो कुछ एक ने वहां के स्थानीय चैनल से ‘फीड अपलिंक’ कराने की तैयारी की बात की। मगर सबसे हैरतअंगेज बात ये थी की उस खास चैलन के रिपोर्टर महाशय ने गुफा के अंदर जाने की जहमत नहीं उठाई। और उससे भी बड़ी हैरानी की बात ये थी कि बाकी चैनलों के सेनापति ने ये जानने की कभी कोशिश नहीं की कि रावण क्या मुसलमान या ईसाई था जिसकी क्रब उन्हें दिख गई थी?



हमारे ग्रंथों के अनुसार रावण एक ब्राह्मण था वो भी सतयुग में पैदा हुआ था। हमारी परंपराओं के अनुसार हर एक हिंदू का दाह संस्कार होता है तो फिर रावण का कब्र कैसे बन गया ? उन रिपोर्टर महाशय ने ये भी कह दिया कि उस गुफा के अंदर रावण का ममीकृत शरीर रखा था। सोचने की बात ये है कि क्या रावण मिश्र में पैदा हुआ था जहां के राजा फराओं की मृत्यु के बाद उनकी ममी बनाने की प्रथा थी?



काश, हमारे खबरिया चैलनों के चालक ‘कौआ कान ले गया की’ की प्रवृति को छोड़कर 2 मिनट संजीदा से सोचते और अपनी बुद्धि या विवेक से काम लेते। मगर होता ये है कि खबर की एक ‘चिंगारी’ फूटती है और मिनटों में ही पूर खबरिया चैनल समाज को अपनी लपटों में घेर लेती है।



उससे भी अजीबोगरीब नज़ारा तब होता है जब पर्व त्योहार के समय भी भेड़चाल में भगदड़ का मंज़र दरपेश आता है। अभी हाल में अक्षय तृतिया के अवसर पर सुबह-सुबह एक चैनल ने खबर दिखाई कि आज के दिन सोना खरीदना बड़ा शुभ होता है। फिर क्या था? चंद घंटों में ही कई चैनलों के ओवी बड़े-बड़े ज्वैलर्स के दुकानों के सामने लगा दिए गए और रिपोर्टरों से उस पर लाइव करने की हिदायत दी गई। कोई सोने का भाव बता रहा था तो कोई दुकानों की सुंदरता में कसीदे पढ़ रहा था तो कोई ग्राहक की प्रतिक्रिया ले रहा था तो कोई दुकान में आने वाली भीड़ का हाल बता रहा था।



इतफाक से मैं भी उस जगह से गुजर रहा था। जाने पहचाने रिपोर्टर को देखकर मैं रुक गया और पूछा कि ‘भाई किस खबर पर लाइव हो रहा है?’ उसने अपना दुखड़ा सुनाया, बेड़ागर्क हो इस एसएमएस परिपाटी का जो अच्छेखासे दिन को बिगाड़ देता है। कभी ये कमाल करता है तो कभी ये धमाल करता है और हम तो एक फटे ढोल की तरह हैं बजना हमारी मजबूरी है।‘



मैं हैरान था कि रक्षा और गृह मंत्रालय कवर करने वाले इस बेचारे को अक्षय तृतीया के त्रिकोण में कहा घुसेड़ दिया गया। कौतूहलताबश मैंने पूछ लिया ‘इस तिथि के महत्व के बारे में भी कुछ बता रहे हो क्या ‘ तो वो विफर कर बोला ‘अरे बॉस तिथि गई तेल लेने। आसपास कोई और रिपोर्टर नहीं था तो मुझे झोक दिया गया। अब जब यहां आ ही गया हूं तो 4 ग्राहकों की बाइट पेल दूंगा और दोपहर तक एक बढ़िया सा पैकेज रेल दूंगा फिर छुट्टी।‘



मैं हैरान था कि खबरों की दुनिया में क्या भेड़चाल का ऐसा नज़ारा भी देखने को मिल सकता है मगर यही सच था। और वो भी काफी अफसोसनाक।



खबरिया चैनलों में भेड़चाल की भगदड़ का सिलसिला जारी है। जैसे एक भेड़ गड्डे में गिरती है तो झुंड की सारी भेड़ें उसी गड्डे में जा गिरती है। बेचारी भेड़ों ने सपने में भी नहीं सोचा होगा की उनकी ‘भेड़चाल’ की नकल खबरिया चैनल करेंगे और बदले में रायल्टी भी नहीं देंगे। यदि भेड़ों की कोई ‘खाप महापंचायत’ होती तो इस पर जरूर बड़ा हंगामा होता। या फिर शायद भेड़ों ने सोचा होगा की छोड़ो जाने दो यार बेचारे खबरिया चैनलस टीआरपी के मायाजाल में ऐसे फंसे है कि उन्हें नकल करके ही असली बनने के ख्याली पुलाव में जीने दो।



खबरिया चैनल दूसरे न्यूज चैनल में ब्रेकिंग पट्टा पर उछलता देख बिना जांचे परखे ब्रेकिंग की नाच नाचने लगते हैं चाहे आंगन टेड़ा हो या चौकोना। भाई, जब पड़ोसी नाच रहा है तो पांव तो थिरकेंगे ही। फिर अगर ब्रेकिंग न्यूज की नाच में तुरंत नहीं उतरे तो पता चला टीआरपी की सारी ‘निछावर’ दूसरे न्यूज चैनल वाले मार ले जाएंगे। और टीआरपी न आने पर मालिकों के सामने ‘ब्रेक डांस’ करना पड़ेगा।





टीआरपी का डर अच्छे खासे संपादकों को भी भेड़ों का चरवाहा बना देता है। जैसे चरवाहा चाह कर भी गड्डे में गिर रही भेड़ों को नहीं निकाल पाता है, उसी तरह हमारे खबरिया चैनलों के संपादक अच्छा खासा ज्ञान और अनुभव रखते हुए भी भेड़चाल में मची भगदड़ से खुद को बचा नहीं पाते। जैसे धोबी नदी में कपड़े धोते समय प्यासा मरता रहता है पर नदी का पानी नहीं पीता, उसी तरह खबरों की नदी में खबरिया चैनलों के संपादक इस आस में प्यासे बैठे रहते हैं कि शायद भेड़चाल में मची भगदड़ में से ही कुछ टीआरपी लपकने का सामान निकल आए।

मीडिया में ‘विशेष’ की बारिश

विशेष जैसा कार्यक्रम दिखाने की परंपरा 1955 से प्रारंभ हुई थी और 70 के दशक तक आते आते उसका प्रचलन बीबीसी के अलावा ऑस्ट्रेलिया के एबीसी चैनल और अमेरिका के एनबीसी चैनल में हो गया था। वियतनाम युद्ध के बाद बीबीसी के अलावा एक और ऑस्ट्रेलियाई चैनल ने उस युद्ध से जुड़े विशेष मुद्दों को लेकर 20 मिनट से आधे घंटे तक के कार्यक्रम बनाए थे जिनमें खबरों के भीतर की खबर का विश्लेषण किया गया था। 80 के दशक में सीएनएन ने इस क्षेत्र में अहम भूमिका निभाई। ईरान-इराक युद्ध के समय सीएनएन की विशेष रिपोर्ट दर्शकों में काफी खलबली मचाई और 90 के दशक आते-आते कई न्यूज चैनलों में विशेष कार्यक्रमों को तैयार करने की टीम बनाने की कवायद शुरू हो गई।

भारत में दूरदर्शन पर गाहे-बगाहे कुछ विशेष कार्यक्रम दिख जाते थे जिनका स्तर उस जमाने के ख्याल से काफी ठीक-ठाक होता था। बीबीसी जैसे चैनलों में विशेष कार्यक्रम बनाने वाले संवाददाताओं और प्रस्तुत कर्ताओं की टीम आज भी इतनी ही पुख्ता और संजीदा है जितनी पहले थी। मगर भारत में खबरिया चैनलों की आई बाढ़ के बाद इन विशेष कार्यक्रमों की शक्ल ही नहीं बल्कि उनकी सोच में भी नकल और नक्कारेपन का दीमक लगना शुरू हो गया है।



जब तक वरिष्ठ पत्रकार श्री रजत शर्मा जी न्यूज के प्रमुख रहे तब तक हर दो तीन दिन में किसी महत्वपूर्ण विषय पर कोई न कोई विशेष कार्यक्रम अवश्य दिख जाता था। मगर पिछले 10 सालों में विशेष कार्यक्रम बनाने वाली टीम का न ही सिर्फ ढर्रा बदला है बल्कि उनकी सोच, छायांकन और कथानक में भी भयानक बदलाव आया है।



जिस तरह पिछले दस सालों में खबरिया चैनलों की बाढ़ सी आ गई है उसी तरह विशेष या स्पेशल कार्यक्रम के फेहरिस्त में भी काफी इजाफा हुआ है और आज आलम ये है कि हर खबरिया चैनल एक अदना से विषय पर भी रातो-रातों आधे विशेष खड़ा कर देता है।



विशेष कार्यक्रमों की श्रेणी में श्री सिद्धार्थ काक और रेणुका सहाणे द्वारा प्रस्तुत ‘सुरभि’ नामक कार्यक्रम को निश्चय ही सिरमौर कहा जाएगा। ‘सुरभि’ ने कम समय में ही लोकप्रियता का आसमान छूना शुरू कर दिया था और उसमें पूरे राष्ट्र का परिपेक्ष्य मिलता था।



उसके बाद आई विनोद दुआ की ‘परख’ जिसका अपना अलग ही मुकामों-मयार रहा और श्री दुआ का प्रस्तुती करण और विषयों का चयन भी काफी अलग सा था। मगर उसके बाद कुछ और प्रस्तुतकर्ताओं ने इसी ढर्रे पर विशेष कार्यक्रम बनाने की कोशिश तो जरूर की। मगर वो लोकप्रियता के पायदान पर उनता ऊंचा नहीं पहुंच पाए।



खबरिया चैनलों में आज तक ने सबसे पहले विशेष नामक आधे घंटे के कार्यक्रम की शुरुआत की थी और कई महत्वपूर्ण विषयों पर ईमानदारी से जांच फड़ताल करने की कोशिश की थी। मगर विगत 3 से 4 सालों में उस कार्यक्रम का स्तर भी काफी गिरा है। और विशेष कार्यक्रम की विशेष नकल करने वाले चैनलों की तो बात ही निराली है।





यूं लगने लगा है जैसे हर दिन खबरिया चैनलों में विशेष कार्यक्रमों की बारिश सी होने लगी है। विषय चाहे कोई भी लेकिन जब तक उसकी खींचतान आधे घंटे तक नहीं हो और उसमें विभिन्न किस्मों के लटके झटके या तड़का नहीं लगाया जाए तो कई प्रस्तुत कर्ताओं की नजर में उसका महत्व ही नहीं रह जाता। आलम ये है कि हर खबरिया चैलन में विशेष कार्यक्रम बनने के लिए एक टीम तैनात कर दी जाती है। स्पेशल टास्क फोर्स की तरह ये टीम रोज आधे घंटे का विशेष प्रोग्राम रचने की काम युद्ध स्तर पर करते हैं। जैसे रोज आधे घंटे का खास सर्कस अपने खबरिया चैनल के दर्शकों को ऐसे दिखाने है कि विशेष प्रोग्राम देखने वाला दर्शक बिचकने न पाए और विशेष प्रोग्राम की टीआरपी का ग्राफ रातों-रात उपर चढ़ जाए।



आज हालात ये हो गये है कि हर रोज आधे घंटे के विशेष प्रोग्राम की बारिश जरूर होती है चाहे उसमें दर्शक भीगे या न भीगे। पर विशेष टीम के भाई लोग पसीने जरूर तर हो जाते हैं जब टीआरपी मन मुताबिक नहीं आती। अब भाई हर रोज विशेष के नाम पर बेतुके विषय पर आधे घंटे का प्रोग्राम दर्शकों के गले से नहीं उतरा तो वो क्या करें।



बारिश का भी अपना मौसम होता है। बरसात के दिनों में रोज बारिश हो तो चलता पर बिन मौसम बरसात को झेलना आसान नहीं होता। यहां तो खबरिया चैलनों ने कसम खा रखी है की रोज आपकों आधे घंटे का विशेष जरूर दिखाएंगे और आपकों को देखने पर मजबूर भी कर देंगे। रहस्यवाद का ऐसा तानाबान बुनेंगे की आप 2 घंटा पहले से ही खबरिया चैनलों पर आने वाले विशेष कार्यक्रम का इंतजार करने लगेंगे। भाई लोगो ऐसे-ऐसे प्रोमो बनाएंगे कि आम दर्शक प्रोमो देखकर चौंक पड़ेगा। उसे लगेगा इस धरती का लगता आज ये आखिरी दिन है और खबरिया चैनल का विशेष प्रोग्राम देख ले तो शायद हमारी जान बच जाए।

प्रोमो की लाइन.......

सावधान ! बर्फ पिघल रही है,

धरती जल में समा जाएगा !

अब क्या होगा इस दुनिया का ?

क्या होगा आपका ?

कैसे बच सकती है आपकी जान ?

बताएंगे रात 8 बजे सिर्फ महा ज्ञानी चैनल पर !



अब दफ्तर से थका-हारा का घर लौटा बेचारा आम आदमी सीधे कहिए तो खबरिया चैनलों के लिए टीआरपी का बकरा जब खबरिया चैलनों पर डरावनी आवाज में ऐसे प्रोमो देखता है तो सब काम छोड़कर विशेष देखने की तैयारी करने लगता है। सभी घरवाले सारे काम निपटा कर विशेष प्रोग्राम देखने के लिए इकट्ठा हो जाते हैं। विशेष प्रोग्राम की बर्फ मोन्टाज के साथ पिघलनी शुरू होती और आधे घंटे में तरह-तरह के विजुअल के चमत्कार के साथ पिघल कर पानी हो जाती है। और बेचार दर्शक ठगी का घूट पी कर ऐसे टीवी बंद करके सोचता है कि काश मैने प्रोमो नहीं देखा होता तो खबरिया चैलनों के इस छलावे से बच जाता।



लेकिन वही दर्शक तोते की तरह खबरिया चैलनों के शिकारियों की जाल में बार-बार फंसता है और विशेष प्रोग्राम देखकर अपने आप को छला हुआ महूसस करता है। विशेष प्रोग्राम तानाबाना पहाड़ की तरह होता है और जब आधे घंटे का विशेष प्रोग्राम दर्शक देखता है तो उसे खबर के नाम पर चुहिया भी हाथ नहीं लगती और वो बेचारा हाथ मलता रह जाता है।



लेकिन अब खबरिया चैलनों के दर्शक ‘विशेष’ शब्द से ऐसे बिदक रहे है जैसे विशेष का मतलब ही बदल गया हो। विशेष का मतबल कोई खास प्रोग्राम नहीं, आधे घंटे का ऐसा सर्कस हो जो हर हाल में दर्शक को आधे घंटे तक बांधे रखे चाहे विषय कोई भी हो।



दरअसल विशेष प्रोग्राम का अर्थ खबरिया चैलनों के लिए अलग है। विशेष प्रोग्राम का मतलब सबसे ज्यादा टीआरपी दिलाने वाला प्रोग्राम। जिसे प्रोग्राम से टीआरपी का झोला भर जाए वही खबरिया चैलनों का जीवन दाता है। विषय जाए तेल लेने।



अगर किसी ने अच्छे विषय की गलती से बात भी छेड़ दी तो उसे टीवी की समझ कहां? उसके साथी ही उसको सबसे पहले नोचना शुरू कर देते हैं। असली टीवी के पारखी वही भाई लोग हैं जो आधे घंटे का ऐसा तिलिस्म तैयार करते हैं कि दुनियां भर के जासूस प्रोमों देखकर उसका पार नहीं पा सकते। फिर दर्शक की क्या औकात ?





विशेष की बारिश से चवन्नी छाप प्रोग्रामों की ऐसी बाढ़ आ गई है। और अपनी -अपनी नाव लेकर खबरिया चैनल बाढ़ में दर्शकों को बचाने के लिए उतर पड़े हैं। अब दर्शक पर निर्भर करता है कि वो किस महा ज्ञानी खबरिया चैलने के विशेष की बारिश में नहाएगा और सौ जन्मों का पुण्य प्राप्त करेगा और बदले में टीआरपी का दान ‘विशेष’ बनाने वाले पंडों को देगा।



विशेष की बारिश में लगातार भीग रहा दर्शक अब समझदार होता जा रहा है और हर महा ज्ञानी खबरिया चैनल के विशेष की बारिश में नहीं भीगता। यही वजह है हर खबरिया चैलने के हलवाई टीआरपी की दौड़ में आगे नहीं निकल पाते। जगन्नाथ पुरी के पंडों की तरह चैनल के चालक ताक लगाये बैठे रहते है कि कब दर्शक उनके विशेष के फंदे में फंसे और वो अच्छी टीआरपी का स्वाद चखे। दर्शकों और खबरिया चैनलों के बीच लुका-छिपी का खेर जारी है। और विशेष की बारिश हो रही है छाता लेकर खबरिया चैनल देंखे तो शायद भीगने से बच जाएं......

सोमवार, 26 अप्रैल 2010

मीडिया और मोमबत्ती बिग्रेड

मीडिया और मोमबत्ती बिग्रेड

कहा जाता है कि आवश्कता ही अविष्कार की जननी है। और जहालत की तिरगी में इल्म और तालीम की कंदील ही रास्ता रोशन करती है। आदमी अपनी जरुरियात के लिए हर तरह के प्रयोग व प्रयास करता है और आसपास की चीजों से ही अपने ऐशोआराम का सामान जुटा लेता है।

कंदील या मोमवत्ती की कहानी भी कुछ इसी तरह शुरू होती है। पाषाण युग से ही मोमवत्ती के प्रयोग का किस्सा सामने आता है मिश्र ऐसा पहला देश था जिसमें कंदील का प्रयोग ईशा पूर्व 400 साल पहले से ही शुरू हो गया था। उसके बाद चीन तथा जापान में कीड़ों और कुछ फसलों के बीज से मोम निकाल कर उसको कागज के ट्यूब में डालकर मोमबत्ती बनाया जाता था।

भारत में मोमबत्ती की शुरुआत पहली सदी के आगाज़ से मंदिर में दीप जलाने के लिए दालचीनी के पेड़ से उसकी छाल पिघलाकर निकाले गए मोम से हुई थी।
अमेरिका में लोगों ने एक खास प्रजाति की मछली की चर्बी से पहली बार मोमबत्ती बनाई। उसमें लकड़ी का एक टुकड़ा घुसेड़ दिया जाता था ताकि वो सीधी तरह खड़ी रह सके। उसके बाद पहली सदी के अंत में सेरिओ नामक वृक्ष की छाल को पिघलाकर और उसमें से मोम निकाल कर मोमबत्ती बनाने की प्रथा शुरू हो गई।

कालान्तर में इंग्लैड में बसे लोगों ने बेबेरिज नामक पेड़ से मोमबत्ती बनाना शुरु कर दिया। लेकिन ये थोड़ा महंगा साबित हुआ। ये दीगर बात है कि आज की तारीख में भी इस पेड़ की छाल से इंग्लैंड में मोमबत्ती बनाई जाती है। लेकिन उसकी मुश्किल ये है कि 8 इंच की मोमबत्ती के लिए एक पूरे पेड़ का छाल पिघलाना पड़ता है।
कुछ समय बाद जानवरों की चर्बी से भी मोमबत्ती बनाने की प्रथा शुरू हुई लेकिन उसकी दुर्गंध लोगों को पसंद नहीं आई।

बड़े पैमाने पर मोमबत्ती बनाने की प्रथा 14वीं सदी के आसपास शुरू हुई जिसमें मधुमक्खी के छत्ते से निकाले गए मोम का प्रयोग हुआ। फ्रांस के पेरिस में इसका आविर्भाव हुआ और 18वीं सदी के आगाज में मोमबत्ती बनाने की कला दुनिया के कई देशों में विकसित हो गई।
मोमबत्ती बनाने की मशीन का निर्माण पहली बार सन 1825 में हुआ। मोमबत्ती में पाराफिन का प्रयोग 1830 में शुरू हुआ। टैलो पदार्थ से बनाई गई मोमबत्ती भी काफी समय तक लोकप्रिय रही।

आज की तारीख में घरों से राजमहलों तक, झाड़-फानूस को सजाने में मोमबत्ती का बड़ा ही अहम रोल रहा है। बिजली आने के बाद भी कई देशों में और खासकर कुछ विशेष मौकों पर सुगंधित और रंग बिरंगी मोमबत्तियां अपनी अलग ही छटा बिखेरती हैं।
मोमबत्ती के इतिहास के संदर्भ में ये भी जानना उचित होगा कि चीन में मोमबत्ती बनाने की अलग ही तकनीक थी। सन 265 से 420 ईबी तक जिंन साम्राज्य में इसका प्रचलन काफी बड़े पैमाने पर रहा। इस पद्धति के तहत कागज के पन्ने पर मधुमक्खी के छत्ते से निकाले गए मोम को चिपका कर मोमबत्ती बनाई जाती थी।बाद में सूंग साम्राज्य के समय मोमबत्ती में धागा डाला जाने लगा था।

भारत के समीप तिब्बत देश में याक जानवर के मख्खन से मोमबत्ती बनाई जाती थी।
1448 में निर्मित दुनिया की सबसे प्रचीन मोमबत्ती बनाने वाली मशीन आज भी दक्षिण अफ्रीका के डबलिन शहर में मौजूद है। साथ ही गाय या भैंस की चर्बी से निर्मित मोमबत्ती के कुछ कारखाने यूरोपिय देशों में देखे जा सकते हैं।

16वीं सदी में यूरोप के कई देशों में महलों और मकानों में रौशनी के अलावा सड़क पर प्रकाश डालने के क्रम में मोमबत्ती का प्रयोग होता था। मगर सन 1830 के बाद से मोमबत्ती बनाने की तकनीक तथा उसके मूल पदार्थों के चयन में भी काफी बदलाव आया।

अमेरिका के जोसेफ सैमसन को सन 1830 में नये तरीके से मोमबत्ती बनाने का पेटेंट दिया गया था। सन 1934 में इस कंपनी ने प्रति घंटे 1500 मोमबत्ती की रफ्तार से मोमबत्ती निर्माण का कार्य शुरू किया जो पूरे देश में बहुत मशहूर हुआ।

सन 1829 में प्रिंस विल्सन नामक एक शख्स ने श्रीलंका के एक 1400 एकड़ वाले नारियल के पेड़ों का जखीरा खरीदा जिसका मूल उद्देश्य नारियल के पेड़ की छाल की मदद से मोमबत्ती बनाना था। मगर उसके बदले वहां ताड़ के पेड़ की छाल से मोमबत्ती बनने लगी।
सन 1879 में थामस एडिसन द्वारा बिजली बल्ब के अविष्कार के बाद से भले ही मोमबत्ती की महत्ता में थोड़ी कमी आई हो। मगर जन्मदिन से लेकर गिरजाघरों में खास दिन पर मोमबत्ती जलाने का चलन आज भी बदस्तूर जारी है।

सोयाबीन से लेकर पेट्रोलियम पदार्थों से भी मोमबत्ती बनाई जाती है और आज की तारीख में पूरी दुनिया में 178 पदार्थों से अलग-अलग किस्म की मोमबत्तियां बनाई जाती रही हैं।

आप सोच रहे होंगे कि हम मोमबत्ती का बखान क्यों कर रहे हैं ? दरअसल आजकल मोमबत्ती का इस्तेमाल एक खास मानसिकता के लोग खास मौकों पर करने लगे हैं और तो और इस खास मानसिकता के लोगों की एक बिग्रेड सहज ही तैयार हो गई है जिसे आप मोमबत्ती बिग्रेड कह सकते हैं। किसी खास मौके पर मोमबत्ती बिग्रेड की चिल्ल पौ का उतना ही महत्व होता है जितना राजनीति की भाषा में आश्वासन का।

मोमबत्ती बिग्रेड का वैभव आपको सिर्फ वैभावशाली दिल्ली, मुंबई जैसे रेशमी महानगरों में ही दिखाई देगा। कुछ लोग सिर्फ हाईप्रोफाइल केस (अमीर परिवार से जुड़ी घटना) में न्याय मांगने के लिए एक खास जगह पर इकट्ठा होकर मोमबत्ती जलाते हैं। अगर किसी अमीर परिवार की बेटी की हत्या हो गई या किसी नामी मॉडर्न परिवार के साथ अन्याय हो गया तो मोमबत्ती बिग्रेड के लोग मोमबत्ती जलाकर, सुंदर-सुंदर रंग बिरंगे पोस्टर बनाकर, लेटेस्ट फैशन की पोशाक पहन कर, अंग्रेजी में नारे लगाते हैं और अंग्रेजी में बयान जारी करते हैं। हिंदी बोलने से उन्हें थोड़ा परहेज होता है। शायद डर हो कि हिंदी बोलने से कई विरोध करने की क्वालिटी न डिग्रेड हो जाए इस लिए स्टाइलिश इंग्लिश में अपनी बात कहते हैं। आप इस ग़फलत में मत रहिएगा की मोमबत्ती बिग्रेड कोई संगठन है और मोमबत्ती जलाने पहुंचने वाले सभी लोग एक दूसरे को जानते हैं। मोमबत्ती ब्रिगेड के लोग कुछ ऐसे ही इकट्ठा होते हैं जैसे कस्तूरी की तलाश में हिरन भटकते-भटकते इकट्ठे हो जाते हैं।

विरोध करने के लिए एकत्र हुए मोमबत्ती बिग्रेड के लोगों के चेहरे पर विरोध का भाव ढूंढना ऐसे ही है जैसे समुद्र में मोती खोजना। हल्की मुस्कान के साथ अपनी बात ऐसे कहते हैं जैसे किसी गेट टू गेदर पार्टी में आए हो। मजे की बात ये है कि हमारी मीडिया मोमबत्ती बिग्रेड को खूब अहमियत देती है। जैसे ही मीडिया को भनक लगती है कि आज मोमबत्ती बिग्रेड का खास शो हो होने जा रहा है तो न्यूज चैनलों की ओबी वैन सीधे मोमबत्ती बिग्रेड की लाइव कवरेज के लिए तैनात कर दी जाती है।
कैमरा, लाइट , और पूरे एक्शन के साथ मोमबत्ती जलाई जाती है और ये अद्भुत विरोध आप घर बैठे टीवी पर देख सकते हैं। या सीधे कहें तो इंज्वाय कर सकते हैं। क्योंकि आपको दुख और विरोध का भाव कहीं भी देखने को नहीं मिलेगा। ये अजीब विरोधाभास और यदि आप मोमबत्ती बिग्रेड के लोगों में विरोध और दुख का भाव देखना चाहते हैं तो फिर आप माडर्न मोमबत्ती बिग्रेड में शामिल होने कि योग्यता नहीं रखते।

मोमबत्ती बिग्रेड के साथ मीडिया की कदम ताल निराली हैं। मोमबत्ती बिग्रेड की पल-पल की खबर देने के लिए न्यूज चैनल लाखों रुपये खर्च करने में नहीं झिझकते। न्यूज चैनलों की रिपोर्टर मोमबत्ती बिग्रेड के लोगों की मोमबत्ती से मोमबत्ती जलाकर बोलतीं है जैसे वो खुद रिपोर्टर कम मोमबत्ती बिग्रेड की मेम्बर ज्यादा हों। और रिपोर्टर महोदया को इसके लिए खूब शाबाशी भी दी जाती हैं उनके इस हुनर की तारीफ सीनियर खूब चटकारा लेकर करते हैं।

मोमबत्ती बिग्रेड का चलन अभी नया है। इसलिए दिल्ली, मुंबई जैसे महानगरों में ज्यादा नजर आता है। पर आपको परेशान होने की जरूरत नहीं। मॉडर्न कहलाने का शौंक बड़ी गजब की चीज़ है। इसलिए जिसे भी खुद को मॉडर्न साबित करना होगा वो जल्द से जल्द मोमबत्ती बिग्रेड में शामिल होगा और वो दिन दूर नहीं जब आपको छोटे शहरों में भी मोमबत्ती बिग्रेड के लोग नजर आने लगेंगे।

आप ये सोच कर परेशान हो सकते हैं की दांतेवाड़ा में नक्सली हिंसा में मारे गए जवानों के लिए मोमबत्ती बिग्रेड ने मोमबत्तियां क्यों नहीं जलाई? आए दिन पश्चिम बंगाल में हो रहे नक्सली हमले का विरोध ये मोमबत्ती बिग्रेड क्यों नहीं करता? किसी गरीब की बेटी की बलात्कार हो जाने पर मोमबत्ती बिग्रेड का मोम जैस दिल क्यों नहीं पिघलता ? विदर्भ में आत्महत्या कर रहे किसानों का दुख मुंबई के मोमबत्ती बिग्रेड को दुखी क्यों नहीं करता ? देश में हो रहे अरबों के घोटलों पर मोमबत्ती बिग्रेड की ज्वाला क्यों नहीं जलती ? महंगाई से पिस रही आम जनता की पीड़ा मोमबत्ती बिग्रेड को क्यों नहीं दिखाई देती?

दरअसल मोमबत्ती बिग्रेड में शामिल पढ़े-लिखे मोटा पैसा कमाने वाले लोगों का ये मानसिक दिवालियापन हैं। ये लोग खुद को बाकी दुनिया से अलग समझते हैं पश्चिमी सभ्यता की नकल करने के लिए पिज्जा हट में बैठकर हजार रुपये का पिज्जा खा कर और पानी की जगह “कोल्ड ड्रिंक” से प्यास बुझा कर ये लोग खुद को माडर्न समझते हैं और पश्चिमी सभ्यता की आंख, कान, दिमाग बंद कर अनुसरण करते हैं। इन्हें लगता है ये ही वर्ल्डक्लास जीवन है।
मोमबत्ती बिग्रेड के लोग क्या ये नहीं जानते की उनके देश भारत ने सदियों से दुनिया को शांति का पाठ पढ़ाया हैं। शांति का अधिष्ठाता रहे भारत के महापुरुष दुनिया को शांति और अहिंसा का मार्ग दिखाते रहे हैं। महात्मा बुद्ध से लेकर महात्मा गांधी तक ये परंपरा निरंतर चली आ रही है।

‘दे दी हमे आजादी बिना खड्ग बिना ढाल
साबरमती के संत तूने कर दिया कमाल’

आज भी हमारे देश के स्कूलों में छात्र ये गीत गाते हैं। सारी दुनिया महात्मा गांधी के सत्य और अहिंसा के मार्ग का लोहा मानती है। महात्मा गांधी बिना मोमबत्ती जलाए, सादगी और अहिंसात्मक तरीके से विरोध करते थे और अंग्रेजों को सोचने पर मजबूर कर देते थे। पर मोमबत्ती बिग्रेड को मोमबत्ती ज्यादा भाती है चाहे किसी को श्रद्धांजलि देना हो, या विरोध प्रगट करना हो। महात्मा गांधी को संसाधनों के दुरुपयोग पर बहुत दुख होता था और वो हमेशा कम से कम चीज़ों का इस्तेमाल कर जीवन जीने की लोगों को सलाह देते थे। एक बार महात्मा गांधी के जन्म दिन पर उनकी पत्नी ने आश्रम में घी का दीपक जलाया था जब गांधी जी ने घी दीपक जलते देखा तो काफी दुखी हुए और कहा कि जिस देश में लाखों लोगों को घी खाने के लिए नहीं मिलता वहां घी का दीपक चलाना संसाधनों का दुरुपयोग करना है। और गांधी जी ने इसके लिए प्रायश्चित किया था।

अगर गांधीजी मोमबत्ती बिग्रेड के फैशनेबल मोमबत्ती शो को देखते तो देश के इन महा शुभचितंकों से शायद हाथ जोड़कर यही निवेदन करते की... हे ! मोमबत्ती बिग्रेड के महानुभावों। जो धन आप मोमबत्ती खरीदने में खर्च करते हैं वहीं धन आप शहीदों के परिवारवालों को दे तो उनकी बड़ी मदद होती।...

मगर ये बात मोमबत्ती बिग्रेड के लोगों के जेहन में न कभी आई और न लगता है कभी आएगी? क्योंकि मोमबत्ती बिग्रेड के ज्यादातर लोग अमीरी और वैभव के उस खेमे से तालुक रखते हैं जहां गरीबी और अभाव का साया कभी रहा ही नहीं। संपन्न परिवार के इन लोगों को पांच रुपये की मोमबत्ती जलाने में मजा आता है, सांधनों का दुरुपयोग करके इनकों आनंद मिलता है। भोग-विलास और आनंद में मदहोश मोमबत्ती बिग्रेड के लोगों से उम्मीद करना कि मोमबत्ती में पैसा खर्च करने की जगह ये देश के लिए शहीद हुए शूरवीरों के असहाय परिवार की मदद करेंगे ऐसे ही है जैसे पत्थर से पिघलने की उम्मीद करना।

मोम तो पिछल जाएगा, मोमबत्ती की बाती जल जाएगी पर मोमबत्ती बिग्रेड के लोगों में ईमानदारी, सत्यनिष्ठा और सादगी की बाती कब जलेगी ? कब मोमबत्ती बिग्रेड देश की आम जनता की भावनाओं का प्रतिनिधित्व करेगा ? मोमबत्ती बिग्रेड जमीन से जुड़े मुद्दे उठाएगा ? कब मोमबत्ती बिग्रेड का दिखावे का चोला वास्तविक ईमानदारी का चोला धारण करेगा ? कब मोमबत्ती बिग्रेड में फैशन की जगह देशभक्ति का भाव दिखेगा ? कब मोमबत्ती जलाने वाला युवा बिग्रेड सही मायने में देश की का शुभचितंक बिग्रेड बनेगा ?

ऐसे सैकड़ों सवाल है जो जिन पर सोचने के लिए समाज के महा महिम मोमबत्ती बिग्रेड के लोगों के पास शायद समय नहीं है। पश्चिमी देशों को जब हम अपना आदर्श मान लेते हैं और उनके बनाए ढर्रे पर लगातार आंख, कान, दिमाग बंद कर चलते चले जाते हैं तो ऐसे ही मोमबत्ती बिग्रेड पैदा होते हैं। जिनकी भावनाएं सिर्फ मोमबत्ती जलाने तक सीमित होती हैं। देश की जमीन से जुड़ी समस्याओं के बारे में सोचने समझने के लिए इनके पास वक्त नहीं होता और गरीबों पर होने वाले अन्याय के खिलाफ आवाज उठाने के लिए लिए इनके पास मोमबत्ती नहीं होती।

कुछ खास घटनाओं पर ही मोमबत्ती बिग्रेड का हुजूम नज़र आता है जो इनकी संकीर्ण मानसिकता और भेदभाव पूर्ण भावनाओं को दिखाता है। 26/11 मुंबई हमले के बाद मुंबई के गेटवे ऑफ इंडिया के सामने मोमबत्तियां लेकर इकट्ठा हुए मोमबत्ती बिग्रेड के लोगों ने अंग्रेजी में अपना रोना रोया। भले ये भाई लोग घरों में हिंदी या मुंबईय्या भाषा बोलते हो लेकिन मोमबत्ती बिग्रेड के शो में अंग्रेज बने बिना इनके पेट का पिज्जा कैसे पचता ? कैसे लोगों को ये पता चलता की ये महान लोग हाईक्लास के हैं और मॉर्डन फैशन की दुनिया के आदर्श मानुष हैं ?

हमारे देश का मीडिया मॉर्डन मानुषों का बड़ा कदरदान हैं हर न्यूज चैनल इनकी कवरेज पर अपनी पूरी ताकत झोंकने में कोई कसर नहीं छोड़ता है। न्यूज चैनलों को इस बात से कोई लेना-देना नहीं है कि मोमबत्ती बिग्रेड के लोगों की भावनाएं ईमानदार भावुकता से भरी हैं या दिखावटी घड़ियाली भावनाओं से ? गुड विजुअल के भूखे खबरिया चैनल, खबर दिखाने के नाम पर, न्यूज चैनल में सुंदर-सुंदर चेहरे दिखाने पर ज्यादा भरोसा रखते हैं। बिल्ली के भाग से टूटा छींका और न्यूज चैनलों की मुराद हुई पूरी। मोमबत्ती बिग्रेड के लोग न्यूज चलनों की मांग पर खरे उतरते हैं। बिल्ली की तरह न्यूज चैनल वाले तक लगाए बैठ रहते हैं कि कब कई मोमबत्ती बिग्रेड के लोग इकट्ठा हों और भाई लोग ओबी वैन तान दें और फिर कहना ही क्या....? चले राग तोरी में ख्याल जौनपुरी और कुछ तो मोहर्रम में भी गाएं होरी।

मोमबत्ती बिग्रेड को पापुलर बनाने में मीडिया की अहम भूमिका हैं। खबरिया चैनल मसाला, तड़का और भावनाओं के रंग भरकर देश की जनता के सामने मोमबत्ती बिग्रेड के शो को ऐसे पेश करते हैं जैसे देश मोमबत्ती बिग्रेड के शो में देशभर का दुख पिघल कर बह चला हो और उसे बांधने का सारा ठेका खबरिया चैनलों को दे दिया गया हो।

ऐसा लगता है मोमबत्ती बिग्रेड वालों की महा असली, महा दुखी भावनाओं की भाषा सिर्फ हमारे खबरिया चैनल ही समझते हैं और जितने दुखी और मोम की तरह पिघलने वाले दयालु मोमबत्ती बिग्रेड के लोग हैं उतने ही दुखी और उतने ही दयालु हमारे खबरिया चैनल के भाई लोग हैं। तभी तो पूरी भक्ति भावना से मीडिया बिग्रेड के शो अपने न्यूज चैनल पर दिखाते हैं।

महादेवी वर्मा की कविता के ये पंक्तियां

“गीत कहीं कोई गाता है,
गूंज किसी दिल में उठती है”

खबरिया चैनलों और मोमबत्ती बिग्रेड की जुगलबंदी में ये पंक्तियां फिट बैठती है गीत मोमबत्ती बिग्रेड के लोग गाते है और उसकी असली गूंज खबरिया चैनलों के संपादकों के दिल में गूंजती हैं और फिर घंटों खबरिया चैनलों में मोमबत्ती बिग्रेड की लीला छाई रहती है।

खबरिया चैनलों के लिए शायद मोमबत्ती बिग्रेड वाले गुन-गुनाते होंगे
जब शाम ढले आना..
जब मोमबत्ती जले आना...

और ये गीत सुनते ही लोकतंत्र के चौथे खंभे के पहरेदार खबरिया चैनल, खबरों की सारी मर्यादा को छोड़कर मोमबत्ती बिग्रेड के शो की तरफ ऐसे भागते हैं जैसे सर्कस देखने के लिए युवाओं की टोली गांव से कस्बों की तरफ भागती है।

सोमवार, 12 अप्रैल 2010

दाढ़ी का दर्प

दाढ़ी शब्द सुनते ही चेहरों पर करोड़ों बालों के जंगल का चित्र मन में उभर आता है। दाढ़ी को परिभाषित करें तो बालों का ऐसा झुंड जिसने गाल को ढक रखा है , कह कर आप मन को सांत्वना दे सकते हैं। लेकिन मन में सवाल उठता है कि ये दाढ़ी आखिर चीज़ क्या है? कुछ लोग दाढ़ी क्यों रखते हैं? सभी लोग दाढ़ी क्यों नहीं रखते? क्या लोग चेहरे की किसी कमी को छुपाने के लिए दाढ़ी रखते है? क्या लोग विद्वान, दार्शनिक, महान दिखने के लिए दाढ़ी रखते है? या लोगों को दढ़ियल कहलाने का शौक होता है? और न जाने कितने सवाल है जो हमारे मन में कौतूहल पैदा करते हैं।
दाढ़ी का अध्ययन pogonology कहा जाता है। इतिहास के पन्ने पलटे तो दाढ़ी को पुरुषों की बुद्धि और ज्ञान, यौन पौरूष, पुरुषत्व, या उच्च सामाजिक स्थिति के प्रतीक के रूप में देखा जाता था।, वहीं दूसरी तरफ दाढ़ी को गंदगी, एक सनकी स्वभाव से भी जोड़ा जाता था।
प्राचीन इजिप्ट के लोगों को दाढ़ी रखने का शौक था वे लाल और सुनहरे रंग की डाई लगाकर अपनी दाढ़ी को सजाते थे। 3000 से 1580 BC तक नकली दाढ़ी पहनने का फैशन था। खास मौकों पर राजा और रानी भी नकली दाढ़ी पहनते थे।


मेसोपोटामिया सभ्यता के लोग अपनी दाढ़ी को तरह-तरह से सजाते संवारते थे और दाढ़ी को नया लुक देने की कोशिश करते थे। फारसी लोग लंबी दाढ़ी रखते थे। राजा लंबी दाढ़ी को देखकर खुश होते थे।
प्राचीन भारत में लंबी दाढ़ी सम्मान और विद्वता का प्रतीक मानी जाती थी। साधु-संत लंबी दाढ़ी रखते थे और उनकी दाढ़ी में तपस्या और त्याग का भाव झलकता था। दाढ़ी वाले संतों के प्रति आम जनमानस में विशेष श्रद्धा होती थी। प्राचीन भारत के कुछ इलाकों में दाढ़ी को लेकर विशेष परंपरा प्रचलित थी लोग अपनी दाढ़ी का विशेष ख्याल रखते थे और कई स्टाइल से उसे संवारते थे। यहां तक की दाढ़ी को अपने आत्म सम्मान से जोड़कर देखते थे। दाढ़ी के महत्व का अंदाज़ा इसी बात से लगाया जा सकता है कि कर्ज़ न चुकाने वाले व्यक्ति की सजा के तौर पर आम जनता के सामने दाढ़ी मुंडा दी जाती थी। और दाढ़ी को बचाने को लेकर लोंगों के मन में इतना भय था कि वे सारा कर्ज चुका देते थे।
सिकंदर महान के समय में क्लीन सेव की परंपरा शुरू हुई और सिकंदर ने अपने सैनिकों को क्लीन सेव रहने का आदेश दिया था।

प्राचीन रोम की कहानी कुछ अलग है कहा जाता है कि 299BC तक रोम में दाढ़ी बनाने का प्रचलन ही नहीं था। पहली बार 299 BC के लगभग एक नाई को रोम बुलाया गया और Scipio Africanus पहले रोमन नागरिक थे जिन्होंने नाई से दाढ़ी बनवाई। और उसके बाद क्लीन सेव की हवा पूरे रोम में ऐसे फैली कि दाढ़ी के जंगल सपरचट्ट मैदान में रातों-रात तबदील हो गए और चिकने चेहरे रोम की पहचान बन गये।
जर्मनी में जंगलों में रहने वाली पिछड़ी जनजाति समाज में ये परंपरा थी कि जब तक नौजवान अपने समाज के एक दुश्मन को मौत के घाट नहीं उतार देता तब तक वो अपनी दाढ़ी नहीं कटवा सकता था। लोग लंबी दाढ़ी रखते थे और अपनी अपनी दाढ़ी की कसमें खाते थे। और दाढ़ी की कसम खाने का विशेष महत्व समझा जाता था।
15वी शताब्दी में ज्यादातर यूरोपवासी क्लीन सेव थे लेकिन 16वीं शताब्दी में यूरोप में लंबी-लंबी और स्टाईलिश दाढ़ी रखने का फैशन था। ऐसे-ऐसे स्टाइल प्रचलित थे कि अगर आप उस जमाने के लोगों की फोटो देखे तो आपकी नजर सबसे पहले दाढ़ी पर ही पड़ेगी और जितना समय आप उस फोटो को देखेंगे ज्यादा से ज्यादा बार आपकी नजर दाढ़ी पर ही टिकी रहेगी। दाढ़ी की कुछ मसहूर स्टाइल Spanish spade beard, English square cut beard, The forked beard और Stiletto beard यूरोप में प्रचलित थी।
नेपोलियन के जमाने में दाढ़ी फिर परवान चढ़ी। राजा और सेना के बड़े अधिकारी भी स्टाइलिश दाढ़ी रखने का शौक रखते थे। 19वीं शताब्दी के दौरान का दाढ़ी फैशन आम जनता के बीच खूब प्रचलित था।
पश्चिमी यूरोप और अमेरिका में सन 1960 में हिप्पी आंदोलन के दौरान लंबी दाढ़ी समाज के उच्चवर्ग में खासी लोकप्रिय थी।
19वीं शताब्दी में अमेरिका में दाढ़ी का प्रचलन ज्यादा नहीं था। अब्राहम लिंकन से पहले किसी अमेरिकी राष्ट्रपति ने दाढ़ी का शौक नहीं पाला था। प्रथम विश्व युद्ध के समय सन 1910 में केमिकल हथियारों के प्रयोग की आशंका के चलते सैनिकों को क्लीन सेव रहने की हिदायत दी थी।
वियतनाम युद्ध के समय दाढ़ी को फिर लौटने का मौका मिला। सन 1970 के दौरान हिप्पियों और व्यापारियों ने स्टाइलिश दाढ़ी रख कर अपने चेहरे की रौनक बढ़ाने में कोई कमी नहीं छोड़ी। संगीतकारों ने स्टाइलिश दाढ़ी को संगीत के सुर से जोड़ कर ऐसा समा बांधा की सारी दुनिया में मशहूर हो गये। The Beatles और Barry White इसमें अग्रणी हैं। 1909 से 1913 के बीच अमेरिका के राष्ट्रपति रहे William Howard अंतिम राष्ट्रपति थे जिन्होंने दाढ़ी रखी थी। इस तरह दाढ़ी की दास्तां निराली हैं।


कई धर्मों में दाढ़ी का विशेष महत्व है।

सिख धर्म में दाढ़ी का विशेष महत्व है ऐसी मान्यता है कि दाढ़ी पुरुष के शरीर का अभिन्न भाग है और उसे सम्मान के साथ अच्छे से रखना चाहिए। गुरु गोविंद सिंह ने दाढ़ी को सिखों की पहचान कहा। केश को सिखों के “5 का” में से एक माना गया।
हिंदू धर्म में तपस्वी, साधु-संत लंबी दाढ़ी रखते हैं। ऋषि-मुनि प्राय: जंगल में तपस्या करते थे। चेहरे पर लंबी-लंबी दाढ़ी और सिर पर जटाएं होती थी। हिंदू धर्म में दाढ़ी रखने वाले संतों को आज भी बहुत सम्मान प्राप्त है।


यहूदी धर्म में रेज़र से दाढ़ी बनाने पर निषेध है। कैची से दाढ़ी के बाल काटे जा सकते हैं। क्लीन सेव रहने के लिए बहुत से यहूदी धर्म के लोग इलेक्ट्रॉनिक रेज़र का इस्तेमाल करते हैं। यहूदी धर्म में दाढ़ी को पवित्रता से जोड़ा जाता है।
चित्र और मूर्तियों में ईशा मसीह को हमेशा दाढ़ी में दिखाया गया है। ईसाई धर्म के संतों में कुछ लंबी दाढ़ी रखते है और कुछ पादरी दाढ़ी नहीं रखते हैं।
मुस्लिम धर्म में दाढ़ी रखने को बढ़ावा दिया जाता है। कुछ लोग दाढ़ी रखते हैं और मूछें नहीं रखते हैं। काज़ी साहब, शाही इमाम ज्यादातर दाढ़ी रखते हैं। इस्लाम धर्म में गहरी आस्था रखने वाले लोग दाढ़ी रखना पसंद करते हैं।
पत्रकार विरादरी में दाढ़ी की दास्तां गजब की है लगता है कि चूसे हुए आम के चेहरे वाले पत्रकारों ने दाढ़ी रखकर अपने चेहरे को सही शक्ल देने की कोशिश की होगी। कुछ पत्रकारों ने खुद को विद्वान, महाज्ञानी और दार्शनिक दिखने की लालसा में दाढ़ी का जंगल उगाने में कोई कसर नहीं रखी। भले ही बड़ी-बड़ी दाढ़ी में वो कार्टून शो के डरावने किरदार से कम न लगते हो। मंत्री का संत्री गेट पर न रोके इसलिए स्टाइलिश दाढ़ी से ऐसा रोबदार चेहरा गढ़ने में कुछ भाई लोगों ने कोई कसर नहीं छोड़ी। इसके चक्कर में भले ही वो तालिबानी कुनबे के सदस्य क्यों न लगते हो? कुछ लोगों को हो सकता है अपनी योग्यता पर इतना गहरा शक हो कि जब तक वो दाढ़ी नहीं रखेंगे तब तक लोग उन्हें पत्रकार मानेंगे ही नहीं। कभी कभी ये सोचकर हैरानी होती है कि अगर दाढ़ी रखने से ही कोई बहुत बड़ा ज्ञानी और विद्वान हो जाता तो शायद दुनिया का पहला दार्शनिक एक बकरा ही होता। खैर आजाद देश के आजाद पत्रकार भाई लंबी-लंबी दाढ़ी रखें पर उसको सैंपू से जरूर धोएं और इत्र लगाना न भूले ताकी उनके अगल-बगल बैठे भले मानुषों को बदबू का दंश न झेलना पड़े।
आज कल के दाढ़ी रखने वाले कुछ लोग खुद को क्या समझते हैं? यो वो खुद की जानते होंगे पर ऐसा लगता है। भाई लोगों को रोब झाड़ने का इतना शोक होता है कि दाढ़ी बढ़ाकर खुद को आम दुनिया से अलग समझने लगते हैं और दाढ़ी में हाथ फेरते हुए रौब दिखाने की पूरी कोशिश करते हैं। दाढ़ी फैलाकर और छाती तान कर ऐसे चलते जैसे दाढ़ी में ही सारा ज्ञान छुपा हो। और जब कभी पहाड़ खोदा जाता है तो चुहिया भी नहीं निकलती। कई लोग तो दाढ़ी बढ़ाकर अपने आपको उसे खेमे में शामिल करना चाहते हैं जिससे उनका दूर-दूर तक वास्ता न करनी में न कथनी में होता है। कोई उनकी उपमा महान दार्शनिक या विद्वान से कर दे तो वो फूल के कुप्पा हो जाते हैं। उन्हें लगते लगता है कि विश्व के महान दार्शनिक भी उनके जैसे ही रहे होंगे।
दाढ़ी का इस्तेमाल लोग दुनिया को उल्लू बनाने में खूब कर रहे हैं। आजकल बाबा बनने की पहली सीढ़ी है आप दाढ़ी बढ़ा ले, लंबी दाढ़ी और लंबे बाल देखकर लोग आपको संत समझने में देर नहीं करेंगे। और फिर आप उपदेश और सतसंग के धंधे में उतर जाएं। मालामाल होने में देर नहीं लगेगी। इतनी तेजी से धन देऊ प्रोफेशन और कोई नहीं है। बाबागीरी के पेशे में आप रातो-रात अपनी झोली भर सकते हैं। और दुनिया के सारे सुख आपको ये दाढ़ी का जंगल दिला सकता है। इसके प्रत्यक्ष उदाहरण आप लोग टीवी में देख रहे होंगे। और आगे भी देखेंगे इसमें कुछ कोई शक नहीं है। इच्छाधारियों की इच्छाओं के बारे में बताने की जरूरत नहीं है। दाढ़ी का असली रहस्य लगता है इन तथाकथित बाबाओं को ही मालूम है बाकी सब फेल हैं।

शनिवार, 3 अप्रैल 2010

धर्म का चश्मा भाग-1

चश्मा बड़ी गजब चीज़ है। आंखों में काला चश्मा लगाकर आप दुनिया को छुपी नजरों से देख लेते हैं और दुनिया की नजरें आपको नहीं देख पाती। लोग पता नहीं लगा पाते की आप असल में क्या और किधर देख रहे थे? आप छुपा क्या रहे है ? क्या आपको डर है आंखे कहीं सच न बोल दें? क्या नाक पर काला चश्मा चढ़ा कर हम आंखों को सच बयां करने से रोकते हैं ?
चश्मा चढ़ा कर आप समाज में सीना तानकर चल सकते हैं और पूरा मुंह छुपाने की जरूरत नहीं पड़ती। बस आंखे में दृश्य या अदृश्य चश्मा चढ़ा रहे। और जब धर्म का चश्मा चढ़ जाए तो फिर बात ही क्या है? धर्म के चश्मे पर बात करने से पहले क्यों न धर्म को थोड़ा बहुत समझ लिया जाए?
धर्म किसी एक या अधिक परलौकिक शक्ति में विश्वास और इसके साथ-साथ उसके साथ जुड़ी रिति, रिवाज़, परम्परा, पूजा-पद्धति और दर्शन का समूह है।
य: धारति सह धर्म:, अर्थात जिंदगी में जो धारण किया जाए वही धर्म है। नैतिक मूल्यों का आचरण ही धर्म है। धर्म वह पवित्र अनुष्ठान है जिससे चेतना का शुद्धिकरण होता है।
किसी समाज या देश की समस्याओं का समाधान कर्म-कौशल, व्यवस्था-परिवर्तन, वैज्ञानिक तथा तकनीकी विकास, परिश्रम तथा निष्ठा से सम्भव है। आज के मनुष्य की रुचि अपने वर्तमान जीवन को सँवारने में अधिक है। उसका ध्यान 'भविष्योन्मुखी' न होकर वर्तमान में है। वह दिव्यताओं को अपनी ही धरती पर उतार लाने के प्रयास में लगा हुआ है।
मनु ने धर्म के दस लक्षण बताये हैं:
धृति क्षमा दमोस्तेयं शौचं इन्द्रियनिग्रहः ।
धीर्विद्या सत्यं अक्रोधो , दसकं धर्म लक्षणम ॥ (मनु स्मृति)
अर्थात धैर्य, क्षमा, संयम, चोरी न करना, शौच ( स्वच्छता ), इन्द्रियों को वश मे रखना, बुद्धि, विद्या, सत्य और क्रोध न करना ; ये दस धर्म के लक्षण हैं।
शास्त्रों में कहा गया है कि जो अपने अनुकूल न हो वैसा व्यवहार दूसरे के साथ नहीं करना चाहिये, यही धर्म की कसौटी है।
श्रूयतां धर्म सर्वस्वं श्रूत्वा चैव अनुवर्त्यताम् ।
आत्मनः प्रतिकूलानि, परेषाम् न समाचरेत् ॥
अर्थात धर्म का सर्वस्व है, सुनों और सुनकर उस पर चलो! स्वयं को जो अच्छा न लगे, वैसा आचरण दूसरे के साथ नहीं करना चाहिये।
हिन्दू धर्म विश्व के सभी धर्मों में सबसे पुराना धर्म है। ये वेदों पर आधारित धर्म है, जो अपने अन्दर कई अलग-अलग उपासना पद्धतियाँ, मत, सम्प्रदाय, और दर्शन समेटे हुए है। हिन्दू एक फ़ारसी शब्द है। हिन्दू लोग अपने धर्म को सनातन धर्म या वैदिक धर्म भी कहते हैं।
ऋग्वेद में कई बार सप्त सिन्धु का उल्लेख मिलता है, संस्कृत में सिन्धु शब्द के दो मुख्य अर्थ हैं पहला, सिन्धु नदी जो मानसरोवर के पास से निकल कर लद्दाख़ और पाकिस्तान से बहती हुई समुद्र मे मिलती है, दूसरा, कोई समुद्र या जलराशि।
ऋग्वेद की नदी स्तुति के अनुसार वे सात नदियाँ हैं सिन्धु, सरस्वती, वितस्ता (झेलम), शुतुद्रि (सतलुज), विपाशा (व्यास), परुषिणी (रावी) और अस्किनी (चेनाब)।
ईरानियों ने सिन्धु नदी के पूर्व में रहने वालों को हिन्दु नाम दिया। जब अरब से मुस्लिम हमलावर भारत में आए, तो उन्होने भारत के मूल धर्मावलम्बियों को हिन्दू कहना शुरू कर दिया।
हिन्दू धर्म के अनुसार संसार के सभी प्राणियों में आत्मा होती है। मनुष्य ही ऐसा प्राणी है जो इस लोक में पाप और पुण्य, दोनों कर्म भोग सकता है, और मोक्ष प्राप्त कर सकता है।
हिन्दू धर्म में चार मुख्य सम्प्रदाय हैं।
1- वैष्णव (जो विष्णु को परमेश्वर मानते हैं)
2- शैव (जो शिव को परमेश्वर मानते हैं)
3- शाक्त (जो देवी को परमशक्ति मानते हैं)
4- स्मार्त (जो परमेश्वर के विभिन्न रूपों को एक ही समान मानते हैं)।
हिंदू धर्म में ॐ (ओम्) ब्रह्मवाक्य माना गया है, जिसे सभी हिन्दू परम पवित्र शब्द मानते हैं। ऐसी मान्यता है कि ओम की ध्वनि पूरे ब्रह्मान्ड में गून्ज रही है। ध्यान में गहरे उतरने पर यह सुनाई देती है। ब्रह्म की परिकल्पना वेदान्त दर्शन का केन्द्रीय स्तम्भ है, और हिन्दू धर्म की विश्व को अनुपम देन है।

श्रीमद भगवतगीता के अनुसार विश्व में नैतिक पतन होने पर भगवान समय-समय पर धरती पर अवतार लेते हैं। ईश्वर के अन्य नाम हैं : परमेश्वर, परमात्मा, विधाता, भगवान। इसी ईश्वर को मुस्लिम अरबी में अल्लाह, फ़ारसी में ख़ुदा, ईसाई अंग्रेज़ी में गॉड, और यहूदी इब्रानी में याह्वेह कहते हैं।
अद्वैत वेदान्त, भगवत गीता, वेद, उपनिषद्, आदि के मुताबिक सभी देवी-देवता एक ही परमेश्वर के विभिन्न रूप हैं। ईश्वर स्वयं ही ब्रह्म का रूप है। निराकार परमेश्वर की भक्ति करने के लिये भक्त अपने मन में भगवान को किसी प्रिय रूप में देखता है।
“एकं सत विप्रा बहुधा वदन्ति” (ऋग्वेद)
अर्थात एक ही परमसत्य को विद्वान कई नामों से बुलाते हैं।
योग, न्याय, वैशेषिक, अधिकांश शैव और वैष्णव मतों के अनुसार देवगण वो परालौकिक शक्तियां हैं जो ईश्वर के अधीन हैं मगर मानवों के भीतर मन पर शासन करती हैं।
योग दर्शन के अनुसार-
ईश्वर ही प्रजापति और इन्द्र जैसे देवताओं और अंगीरा जैसे ऋषियों के पिता और गुरु हैं।
मीमांसा के अनुसार-
सभी देवी-देवता स्वतन्त्र सत्ता रखते हैं, और उनके उपर कोई एक ईश्वर नहीं है। इच्छित कर्म करने के लिये इनमें से एक या कई देवताओं को कर्मकाण्ड और पूजा द्वारा प्रसन्न करना ज़रूरी है। इस प्रकार का मत शुद्ध रूप से बहु-ईश्वरवादी कहा जा सकता है।
ज़्यादातर वैष्णव और शैव दर्शन पहले दो विचारों को सम्मिलित रूप से मानते हैं। जैसे, कृष्ण को परमेश्वर माना जाता है जिनके अधीन बाकी सभी देवी-देवता हैं, और साथ ही साथ, सभी देवी-देवताओं को कृष्ण का ही रूप माना जाता है। ये देवता रंग-बिरंगी हिन्दू संस्कृति के अभिन्न अंग हैं।
वैदिक काल-
वैदिक काल के मुख्य देव थे इन्द्र, अग्नि, सोम, वरुण, रूद्र, विष्णु, प्रजापति, सविता (पुरुष देव), और देवियाँ थीं सरस्वती, ऊषा, पृथ्वी, इत्यादि।
बाद के हिन्दू धर्म में और देवी देवता आये इनमें से कई अवतार के रूप में आए जैसे राम, कृष्ण, हनुमान, गणेश, कार्तिकेय, सूर्य-चन्द्र और ग्रह, और देवियाँ जिनको माता की उपाधि दी जाती है जैसे दुर्गा, पार्वती, लक्ष्मी, शीतला, सीता, राधा, सन्तोषी, काली, इत्यादि। ये सभी देवता पुराणों मे उल्लिखित हैं, और उनकी कुल संख्या 33 करोड़ बतायी जाती है।
महादेव-
पुराणों के अनुसार ब्रह्मा, विष्णु और शिव साधारण देव नहीं, बल्कि महादेव हैं
गाय-
हिन्दु धर्म में गाय को भी माता के रूप में पूजा जाता है। यह माना जाता है कि गाय में सम्पूर्ण ३३ करोड़ देवि-देवता वास करते हैं।
आत्मा-
हिन्दू धर्म के अनुसार हर मनुष्य में एक अभौतिक आत्मा होती है, जो सनातन और अमर है। हिन्दू धर्म के मुताबिक मनुष्य में ही नहीं, बल्कि हर पशु और पेड़-पौधे, यानि कि हर जीव में आत्मा होती है। मानव जन्म में अपनी आज़ादी से किये गये कर्मों के मुताबिक आत्मा अगला शरीर धारण करती है। अच्छे कर्म करने पर आत्मा कुछ समय के लिये स्वर्ग जा सकती है, या कोई गन्धर्व बन सकती है, अथवा नव योनि में अच्छे कुलीन घर में जन्म ले सकती है। बुरे कर्म करने पर आत्मा को कुछ समय के लिये नरक जाना पड़ता है, जिसके बाद आत्मा निकृष्ट पशु-पक्षी योनि में जन्म लेती है। जन्म मरण का सांसारिक चक्र तभी ख़त्म होता है जब व्यक्ति को मोक्ष मिलता है। उसके बाद आत्मा अपने वास्तविक सत्-चित्-आनन्द स्वभाव को सदा के लिये पा लेती है। मानव योनि ही अकेला ऐसा जन्म है जिसमें मानव के पाप और पुण्य दोनों कर्म अपने फल देते हैं और जिसमें मोक्ष की प्राप्ति संभव है। (जारी है)

धर्म का चश्मा भाग-2

धर्म की बात हो और कबीर की चर्चा न हो ऐसा कैसे हो सकता है ।
कबीरदास पढ़े-लिखे नहीं थे। कबीरदास ने खुद कहा...
“मसि कागद छुए नहीं, कलम गही नहीं हाथ”
अर्थात कागज और स्याही कभी छुआ नहीं,कलम को कभी हाथ नहीं लगाया। फिर भी धर्म के बारे में कबीर का दर्शन गजब का था। धर्म में व्याप्त कुरीतियों को लेकर कबीर ने हिंदू-मुस्लिम दोनों को लताड़ा।
हिंदूओं के सिर मुंडा कर लंबी चोटी रखने वाले पंडो और संन्यासियों दोनों को फटकारते हुए कहा
“मुंड मुडाए हरि मिले तो सब कोउ ले मुडाए
बार-बार के मुड मुडाए भेड़ न बैकुंठ जाए”।।
अर्थात यदि सिर मुडा कर और लंबा चंदन लगाने से भगवान मिलने लगे, और भक्त स्वर्ग पहुंचने लगे तो सबसे पहले भेड़ को बैकुंठ मिल जाता। लेकिन बार-बार पूरे बाल मुडाने के बाद भी भेड़ कभी स्वर्ग नहीं जाती।
वहीं दूसरी तरफ मुस्लिमों को लताड़ते हुए कबीर ने कहा कि
“कांकर पाथर जोर कै, मस्जिद लई जुनाए
ता चढ़ मुल्ला बाग दे क्या बहरा हुआ खुदाए”।।
कबीरदास ने कहा की कंकड़, पत्थर जोड़कर मुस्लिम समुदाय के लोग मस्जिद बना लेते हैं, और उसमें बैठकर मुल्ला,मौलवी जोर-जोर से चिल्लाते हैं क्या उनका खुदा बहरा हो गया है ?
पाहन पूजे हरि मिले तो मैं पूजू पहार।
चाकी क्यों नहीं पूजिए, पीस खाए संसार।।
कबीर ने मूर्ति पूजा का विरोध करते हुए करते हुए कहा कि यदि पत्थर पूजने से भगवान मिले तो मैं पहाड़ की पूजा करने के लिए तैयार हूं। यदि पत्थर की पूजा करनी है तो गेहूं पीसने वाले चक्की की पूजा करो जिसमें अनाज पीस कर लोग रोटी खाते हैं।
रोज रखने वाले मुस्लिमों को भी कबीर ने निशाना बनाया और कहा कि....
“दिन को रोज रखत हैं रात हनत हैं गाय”
अर्थात ये मुस्लमान भाई दिन को रोज़ा रखते हैं, थूक तक गले से नहीं निगते पर रात में गाय का मांस खाते हैं ऐसे मुस्लिमों को जन्नत कैसे नसीब होगी ? इतनी ही नहीं कबीर तो यहां तक कह गये कि
“मुसलमान की पीर औरिया मुर्गी मुर्गा खाई।
खाला के घर बेटी ब्याही घर में करे सगाई।।“
कबीर ने कहा कि मुर्गी-मुर्गा खाने वाले मुसलमानों के नाते-रिश्तों की दास्तां निराली है, मौसी की बेटी से शादी कर लेते है अर्थात अपनी मां की सगी बहन की बेटी से शादी करना सीधे बहन से शादी करने जैसा है कबीर ने मुस्लिम धर्म की कुरितियों पर कड़ा प्रहार किया है और हिंदूओं के ढोंग, आडंबर और दिखावटी कर्मकांड के लिए खूब लताड़ा।
कबीर ने धर्म के नाम पर समाज को बहकाने वाले धर्म के ठेकेदारों को ललकारते हुए कहा कि...
“हिंदुन की हिंदुआई देखी, तुर्कन की तुर्काई”
अर्थात हिंदू धर्म और मुस्लिम धर्म दोनों को देखा। दोनों धर्म के लोग ईश्वर की प्राप्ति के सच्चे मार्ग से भटके हुए हैं। इस प्रकार कबीर ने उस जमाने में लोगों के आंख से धर्म का चश्मा उतारने के कोशिश की और जनमानस को सही रास्ता दिखाने का प्रयास किया।
आज धर्म पर बाजार हावी है। सीधे कहा जाए तो धर्म का बाजारीकरण हो गया है आपको भगवान के दर्शन के लिए पैसे चुकाने पड़ेंगे। ये आपकों तय करना है कि कितने रुपये वाला दर्शन करना है। अर्थात प्रसिद्ध मंदिरों अगर आप पास से भगवान का दर्शन करना चाहते हैं तो उसके अलग रेट हैं और अगर दूर से गेट के पास से ही दर्शन कर लेना चाहते हैं तो उसके लिए कम पैसे में काम बन सकता है। आज ईश्वर का दर्शन रुपये-पैसों में तौला जाने लगा है।
हमारे देश में धर्मगुरुओं की लंबी फौज खड़ी हो गई है। सबका अपना अलग तुर्रा है। शंकराचार्य ने 4 पीठों की स्थापना की थी और हर पीठ में एक प्रमुख आचार्य अर्थात शंकराचार्य की नियुक्ति की थी। वर्षो से ये परम्परा चली आ रही थी लेकिन आज आपकों एक दर्जन शंकराचार्य मिल जाएंगे, उनके हाव-भाव देख कर आप हैरान रह जाएंगे। हर शंकराचार्य खुद को असली और दूसर शंकराचार्य को नकली बताता है।
धर्म के नाम पर सतसंग करने वाले बाबाओं का बोलबाला है। इनकी अरबों की संपत्ति है। करोड़ों की गाड़ियों का काफिला है। संयोग से एक ऐसे बाबा के दर्शन हुए जिनकी चरण पादुका(चप्पल) में हीरे लगे हुए थे। एक भक्त ने बड़े उत्साह से बताया की ये महाराज जी की चरण पादुका में 50 लाख के हीरे लेगे है। उन्ही महाराज जी ने भक्तों को प्रवचन में ज्ञान दिया कि ‘माया-मोह से दूर रहकर साधु-संतों की संगत करने से ही इस संसार सागर मुक्ति मिल सकती है’। भक्त बेचारा माया-मोह से दूर रहे और दुनिया भर की सारी माया इन बाबाओं के आश्रम में लाकर दान कर दे ताकि ये धर्म का चश्मा पहले पाखंडी लोग ऐश कर सकें।
आज आपको किसी तीर्थ स्थल तक जाने की जरूरत नहीं है हर शहर, हर गली में आपको को धर्म का चश्मा पहले लुटेरे बाबा बैठे मिल जाएंगे। उनकी वेश-भूष देखकर समाज का साधारण जनमानस ईश्वर के करीब जाने की लालशा में खिंचा चला आता है। और फिर बाबा उसे अपना चेला बनाने में कोई कसर नहीं छोड़ते हैं।
आजकल धर्म के साथ योग जोड़कर कुछ बाबाओं ने योग की मल्टीनेशनल कंपनी खड़ी कर ली है। प्रचीन काल से योग भारत की संस्कृति का अभिन्न हिस्सा रहा है स्वंय श्रीकृष्ण को बहुत बड़ा योगी कहा जाता है। हमारे देश में महान योगी संत हुए है लेकिन योग का जैसा बाजारीकरण आज हो रहा है पहले कभी नहीं हुआ। योग से बीमारी का लाइलाज बीमारी तक का दावा करने में भी लोग नहीं हिचक रहे हैं। बाबा लोग योग को धंधा बनाकर एक-एक आसन को ऐसे बेच रहे हैं जैसे पीजा हट वाले तरह-तरह का पीजा बेचते हैं।
धर्म का चश्मा पहने इन बाबाओं से मिला भी कोई आसन काम नहीं इसके लिए आपको बकायदे पहले से बुकिंग करनी होगी। कुछ बाबाओं की मिलने की फीस 25 हजार रुपये है। पहले फीस जमा कराएं फीर समय लें बाबा मिलते हैं।
धन कुबेर बने बैठे इन बाबाओं के समाज के उत्थान में क्या योगदान है?, समाज के समस्याओं के दूर करने के लिए इन बाबाओं ने क्या प्रयास किए हैं?, धर्म ने नाम पर लोगों को बहकाने के अलावा देश में शांति सद्भाव बढ़ाने के लिए इन बाबाओं ने क्या किया? आज भारत की आबादी में 65% हिस्सा युवा वर्ग का है उनकों सही दिशा देने की इन बाबाओं की क्या योजना है। जिस भारत देश में ये बाबा पैदा हुए उसकी माठी के लिए इन्होंने आज तक क्या किया? ऐसे न जाने कितने सवाल है जिनके जवाब इन धर्म का चश्मा पहने बैठे इन बाबाओं के देना पड़ेगा?
धर्म का चश्मा पहले राजनीति में घुसने की जुगते में बैठे कुछ ढोंगी संतों को आम जनता सही वक्त पर आईन दिखा देगी और जिस दिन युवा पीड़ी इन बाबाओं के असली धंधे को समझ गई उस दिन इनके धर्म के चश्म को उतर कर फेंक देगी। यहां यह स्पष्ट करना जरूरी है सभी संत ऐसे नहीं है पर आज ढोंगी बाबाओं का बाजार ज्यादा गरम है हमारा उद्देश्य उन ढोंगी बाबाओं की तरफ इशारा करना था जिन्होंने धर्म का चश्मा पहन कर समाज के संसाधनों का दुरुपयोग किया है और आम जनमानस को ईश्वर प्राप्ति के सही मार्ग से भटकाया।

गुरुवार, 25 मार्च 2010

कुंभ का दंभ भाग-2

यूनान, मिश्र, रोमयां सब मिट गए जहां से,
बाकि मगर है अब तक नामोनिशा हमारा।
कुछ बात है कि हस्ती मिटती नहीं हमारी,
सदियों रहा है दुश्मन, दौरे जहां हमारा।
सच्चे अर्थो में वो हस्ती ब्राह्मण शक्ति ही है जिसने भारत की संस्कृति को अक्षुण बनाए रखा। हमारे संस्कृति और संस्कार की नीव इतनी मजबूत है कि इतिहास के हजारों थपेड़ों को बर्दाश्त करते हुए वो आज भी कायम है। और इसमें ब्राह्मणों के योगदान महत्वपूर्ण है।
ब्राह्मण समाज का इतिहास प्राचीन भारत के वैदिक धर्म से आरंभ होता है। मनु स्मॄति के अनुसार आर्यवर्त वैदिक लोगों की भूमि है ब्राह्मण व्यवहार का मुख्य स्रोत वेद हैं। ब्राह्मणों के सभी सम्प्रदाय वेदों से प्रेरणा लेते हैं। पारंपरिक तौर पे यह विश्वास है कि वेद अपौरुषेय ( किसी मानव या देवता ने नहीं लिखे ) तथा अनादि हैं, बल्कि अनादि सत्य का प्राकट्य है जिनकी वैधता शाश्वत है। वेदों को श्रुति माना जाता है ( श्रवण हेतु , जो मौखिक परंपरा का द्योतक है )।
ब्राह्मण शास्त्रों में प्रमुख हैं अग्निरस , अपस्तम्भ , अत्रि , बॄहस्पति , बौधायन , दक्ष , गौतम , हरित , कात्यायन , लिखित , मनु , पाराशर , समवर्त , शंख , शत्तप , ऊषानस , वशिष्ठ , विष्णु , व्यास , यज्ञवल्क्य तथा यम।
अनेक वर्षो से ब्रह्मण का निर्धारण माता-पिता की जाती के आधार पे ही होने लगा है। वैदिक शास्त्रों मैं साफ़-साफ़ बताया है
जन्मना जायते शुद्रः
संस्कारात भवेत् द्विजः |
वेद-पठत भवेत् विप्र
ब्रह्म जनातति ब्राह्मणः |
अर्थात जन्म से मनुष्य शुद्र, संस्कार से द्विज (ब्रह्मण), वेद के पाठन-पाठन से विप्र और जो ब्रह्म को जनता है वो ब्राह्मण कहलाता है।
समोदमस्तपः शौचम् क्षांतिरार्जवमेव च |
ज्ञानम् विज्ञानमास्तिक्यम् ब्रह्मकर्म स्वभावजम् ||
अर्थात ब्राह्मण का स्वभाव चित्त पर नियन्त्रण, इन्द्रियों पर नियन्त्रण, शुचिता, धैर्य, सरलता, एकाग्रता तथा ज्ञान-विज्ञान में विश्वास है। वस्तुतः ब्राह्मण को जन्म से शुद्र कहा है। ब्राह्मण को ब्रह्म का ज्ञान जरुरी है। केवल ब्राह्मण के घर पैदा होने से ब्राह्मण नहीं होता ।
अध्यापनम् अध्ययनम् यज्ञम् यज्ञानम् तथा |
दानम् प्रतिग्रहम् चैव ब्राह्मणानामकल्पयात ||

इस श्लोक में ब्राह्मण के छह कर्त्तव्य बताए गए हैं शिक्षण, अध्ययन, यज्ञ करना , यज्ञ कराना , दान लेना तथा दान देना।
शास्त्रों में ब्राह्मणों के सोलह प्रमुख संस्कार बताए गए हैं। जन्म से पूर्व गर्भधारण , पुन्सवन (गर्भ में जीव को ईश्वर को समर्पित करना ) , सिमन्तोणणयन । बाल्यकाल में जातकर्म ( जन्मानुष्ठान ) , नामकरण , निष्क्रमण , अन्नप्रसन , चूडकर्ण , कर्णवेध। बालक के शिक्षण-काल में विद्यारम्भ , उपनयन , वेदारम्भ , केशान्त अथवा गोदान , तथा समवर्तनम् या स्नान ( शिक्षा-काल का अन्त )। वयस्क होने पर विवाह तथा अन्त्येष्टि प्रमुख संस्कार हैं।
दक्षिण भारत में ब्राह्मणों के तीन सम्प्रदाय हैं - स्मर्त सम्प्रदाय , श्रीवैष्णव सम्प्रदाय तथा माधव सम्प्रदाय।
आधुनिक भारत के निर्माण के विभिन्न क्षेत्रों , जैसे साहित्य , विज्ञान एवम् प्रौद्यौगिकी , राजनीति , संस्कॄति , पाण्डित्य , धर्म में ब्राह्मणों का अपरिमित योगदान है | प्रमुख क्रांतिकारी और स्वतंत्रता-सेनानियों में बाल गंगाधर तिलक, चंद्रशेखर आजाद इत्यादि हैं। लेखकों और विद्वन में कालिदास, रविन्द्रनाथ टैगोर ब्राह्मण ही थे।
लेकिन समय के साथ-साथ ब्राह्मण पथ भ्रष्ट होते जा रहे हैं। अपनी विशिष्ता खोते जा रहे हैं। और आज हालत ये हो गई है कि समाज में ब्राह्मणों की हालत दयनीय हो गई है। उसका जिम्मेदार खुद ब्राह्मण ही है कहा जाता है कि नदी की पहचान तभी तक रहती है जब वो अपनी विशिष्टता को कायम रखते हुए, निस्वार्थ भाव से बहती है लेकिन जैसे हि नदी सागर में जाकर मिलती है उसकी पहचान को जाती है। उसका अस्तित्व विलीन हो जाता है। वही हाल ब्राह्मणों का है मॉर्डन बनने के चक्कर में आज ब्राह्मण अपनी खान-पान, मान-मर्यादा सभी को छोड़ कर समाज में विलीन हो गया है। ब्राह्मण सिर्फ नाम के ब्राह्मण रह गये है।
सन 2002 में दिल्ली में अखिल भारतीय ब्राह्मण सम्मेलन के दौरान देखा गया की ब्राह्मणों के खुद अपने ही हित में विचार एक नहीं हो पाए। वहां कुछ ब्राह्मणों ने ब्राह्मणों के लिए आरक्षण का मुद्दा उठाया लेकिन देश के कोने-कोने से सम्मेलन में आए ब्राह्मणों के बीच आरक्षण के मुद्दे पर आम राय नहीं बन पायी। कई और मामलों पर सिर्फ हो हल्ला हुआ और बिना किसी नतीजे के ब्राह्मण सम्मेलन समाप्त हो गया।
सिंहों के लेहड़े नहीं, हंसों की नहीं पात।
लालन की नहीं बोरियां, साधु ना चले जमात।।
अर्थात शेरों का झुंड नहीं होता, हंसों कभी पंक्ति बना कर नहीं उड़ते, हीरे, मोतियों को बोरियों में नहीं रखा जाता, और साधु अर्थात ब्राह्मण कभी भीड़ में नहीं चलते।
लेकिन आज ब्राह्मण भीड़ में खो गया है। समाज के बाकी लोगों की नकल करते-करते अपनी अक्ल खो बैठा है। एक जमाने में राजा के दरबार में जब ऋषि पहुंचते थे तो राजा खुद सिंहासन छोड़कर उनके स्वागत में द्वार तक आता था। कहते है कि यदि ब्राह्मण क्रोध में किसी के दरवाजे पर अपना जनेऊ तोड़कर फेंक देता था तो उसके कुल का नाश हो जाता था। खुश होकर किसी को आशीर्वाद दे देता तो उसकी सभी मनोकामनाएं पूरी हो जातीं थीं। कहा जाता है कि...
ऐसाम न विद्या, न तपो न ज्ञानम्।
धनम् न शीलम, न गुणों न धर्म:।
ते मृत्यु लोके भूमि भारभूता:।
मनुष्य रूपेण मृगाश्चरन्ति।।
अर्थात जिन लोगों के पास न विद्या है, न तप, न ज्ञान है, न धन है, न शील है, न गुण है, न धर्म है ऐसे लोग धरती में भार के समान हैं और मनुष्य के रूप में हिरण के समान विचरण कर रहे हैं। आज ब्राह्मणों की यही हालत है इन ऋषि कुमारों को पता नहीं आज किसकी नज़र लग गई है। कि उनके पास न विद्या है, न तप है, ज्ञान है, न सत्य है, न आचरण है, न शील है ब्राह्मण के कोई गुण नहीं है सिर्फ नाम के ब्राह्मण रह गए।
यही वजह की वर्तमान समाज में सबसे ज्यादा दुखी, परेशान ब्राह्मण समाज के लोग है। और समय के साथ-साथ पिछड़ते जा रहे हैं। एक ब्राह्मण दूसरे ब्राह्मण को आगे बढ़ते हुए नहीं देख सकता। हर क्षेत्र में चाहे वो साधु समाज हो, शंकराचार्य हो, अखाड़े वाले हो नौकरी-पेशा या राजनीति हर क्षेत्र में एक ब्राह्मण दूसरे ब्राह्मण की जड़ काटने में सबसे आगे है।
दरअसल ब्राह्मण ने अपना असली चोला छोड़ दिया है। धर्म के नाम पर ढोंग, धोखा, साधुता के नाम पर दंभ और मिथ्या अहंकार, संन्यास (समन्वय+न्यास) की जगह छल-कपट आज के साधु-संतों और पाखंडी ब्राह्मणों की असली पहचान है।
धर्म का तेजी से बाजारीकरण हो रहा है। कुंभ का पवित्र स्थल बाबाओं और तथाकथित साधु-संतों ने बड़े-बड़े पोस्टरों पटा पड़ा है। हर संत इतना असंत हो गया है कि उसको अपना पहचान के लिए बड़े-बड़े पोस्टरों का सहारा लेना पड़ता है। कुंभ के पवित्र स्थल में अपनी-अपनी दूकान लगा कर भगवा वेषधारी असली बनिए बैठे है जिनका एक ही उद्देश्य लगता है- देश-विदेश से आने वाली जनता को जिनता लूट सके तो लूट लें। दान के नाम पर मिले धन से ये महा तपस्वी दिखने वाले साधु-संत महंगी-महंगी कारें, हथियार, गांजा इत्यादि खरीदते हैं और मौका मिलते ही अय्याशी की सारी हदे पार करने में देर नहीं करते।
कुंभ में बाबाओं की दादागीरी और लाठी का वर्चस्व साफ देखा जा सकता है। इन अखाड़ों की स्थापना का उद्देश्य भारत पर आक्रमण करने वाले आक्रमणकारियों से देश की रक्षा करना था। भारत की संस्कृति और संस्कारों की आदर्श प्रस्तुत करते हुए उसे अक्षुण बनाए रखना था। लेकिन समय के साथ-साथ इन धर्म के कई अखाड़े अब अधर्म के अड्डों में दबदील हो गए हैं। इनका दंभ धर्म की छाती को छलनी कर देता है। उनके ऐशोआरम को देख कर धर्मपरायण हिंदू समाज की बोली भाली जनता का मन पीड़ा से भर जाता है। हर सच्चे इंसान का मन साधु-संतों के द्वारा हिंदू संस्कृति और संस्कारों का पतन देखकर आत्मग्लानि से भर जाता है। और पावन कुंभ से साधु-संतों के दंभ की छाप की पीड़ा समेटे आम जनमानस अपने गांव और शहर लौट जाते हैं। अंत में यह स्पष्ट करना जरूर है की हर साधु-संत और अखाड़े ऐसे नहीं। पर एक मछली सारे तालब को गंदा कर देती है। इसलिए तालाब को साफ रखने के लिए ऐसी मछली को उसकी सही जगह बता दी जाए ?

कुंभ का दंभ भाग-1

अश्वमेघ सहस्त्राणि वाजपेयशतानि च।
लक्षं प्रदक्षिणा भूमे: कुम्भ स्नानेन तत्फलम्।। (श्रीविष्णु पुराण)
अर्थात सहस्त्रों अश्वमेघ यज्ञ करने से, सैंकड़ों वाजपेय यज्ञ करने से और लाख बार पृथ्वी की प्रदक्षिणा करने से जो फल प्राप्त होता है, वह पुण्य फल केवल कुम्भ स्नान से प्राप्त होता है।
कुंभ महापर्व की परंपरा अत्यन्त प्राचीन है। कुंभ पर्व भारत की प्राचीन गौरवमयी वैदिक संस्कृति एंव सभ्यता का प्रतिनिधित्व करता है। इस महापर्व के अवसर पर सारे भारत से ही नहीं, अपितु विश्व के अनेक देशों से असंख्य धर्मपारायण श्रद्धालुगण एकत्र होकर स्नान, दान, तपादि करते हैं।
हरिद्वार, प्रयाग, उज्जैन और नासिक में बारहवें वर्ष कुंभ पर्व का आयोजन होता है। हरिद्वार और प्रयाग (इलाहाबाद) में दो कुंभ पर्वों के बीच 6 वर्ष के अंतराल में अर्धकुंभ होता है।
पद्मिनी नायके मेषे कुम्भ राशिगते गुरौ।
गंगाद्वारे भवेद्योग: कुम्भनामा तदोत्तम:।। (स्कन्द पुराण)
अर्थात जिस समय बृहस्पति कुम्भ राशि पर स्थित हो और सूर्य मेष राशि पर रहे, उस समय गंगाद्वार (हरिद्वार) में कुंभ योग होता है।
कुंभ पर्व की परम्परा मूल रूप में मनुष्य के द्वारा रत्नों, धन-ऐश्वर्य, सुख-आरोग्य, आत्म-ज्ञान एंव अमरत्व की इच्छाओं से जुड़ी हुई है। वेद-पुराण आदि ग्रन्थों में इन अदम्य इच्छाओं से संबंधित अनेक कथाएं वर्णित हैं। जिसमें भगवान शिव व गंगा जी की कथा, महर्षि दुर्वासा की कथा और समुद्र-मंथन की कथा प्रसिद्ध हैं।
इन सब कथाओं में सबसे प्रचलित आख्यान समुद्र मंथन की कथा है। स्कन्द पुराण में वर्णित कथा के अनुसार देवताओं और दानवों के बीच अमृत-कुंभ प्राप्ति के लिए समुद्र में ‘मन्दराचल पर्वत’ को मथानी एंव ‘वासुकि’ नाग को रस्सी बनाकर समुद्र मंथन किया गया। इस समुद्र मंथन में कालकूट विष, ऐरावत हाथी, पारिजात वृक्ष, श्री लक्ष्मी सहित अनेक दिव्य एंव दुर्लभ वस्तुओं के बाद महाविष्णु धनवन्तरि के हाथों में शोभित अमृत-कलश प्रकट हुआ।
समुद्र से अमृत कलश जैसे ही निकला देवताओं के इशारे पर इंद्र पुत्र जयंत अमृत कलश लेकर आकाश में उड़ गया। दैत्यगण जयंत का पीछा करने लगे। अमृत कलश को पाने के लिए देवताओं और दैत्यों के बीच 12 दिन तक लगातार युद्ध हुआ। इसके बाद भगवान विष्णु ने मोहिनी अवतार लेकर अमृत को देवताओं में बांटा। इस युद्ध के दौरान पृथ्वी के चार स्थान प्रयाग, हरिद्वार, उज्जैन और नासिक में अमृत कलश से अमृत की बूंदें गिरी थीं। इन चारों स्थानों पर कुंभ महापर्व मनाया जाता है।
पुराण के अनुसार अमृत कुंभ की रक्षा में बृहस्पति, सूर्य व चंद्रमा ने विशेष सहायता की थी। चंद्रमा ने अमृत के कुंभ से गिरने से, सूर्य ने कुंभ को फूटने से और बृहस्पति ने असुरों द्वारा अमृत कलश के अपहरण होने से तथा शानि ने देवराज इंद्र के भय से अमृत कुंभ की रक्षा की थी। इसी कारण सूर्य, चंद्र और बृहस्पति तीनों ग्रहों के विशेष योग में ही कुंभ महापर्व मनाया जाता है।

न वेदव्यवहारों यं संश्रव्यं शूद्रजातिषु।
तस्मात्सृजापरं वेदं पंचमं सार्ववर्णिकम्‌।।

अर्थात कुंभ का महत्व सभी वर्णों के लोगों के लिए समान है। किसी वर्ण का गंगा स्नान अथवा कुंभ-स्नान में निषेध नहीं है। वर्णेत्तर लोग भी कुंभ स्नान करते रहे हैं। ऐसी पौराणिक मान्यता है कि भगवान विष्णु के चरणों से चौथे वर्ण की उत्पत्ति हुई है और गंगा भी विष्णु के चरणों से निकली हैं। इस प्रकार कुंभ हर प्रकार के भेदभाव का निषेध करता है। कुंभ में सभी जाति, वर्ण और संप्रदाय के लोग एक साथ एक ही घाट में स्नान करते हैं। देखा जाए तो कुंभ मानव को मानव से प्रेम करने, साथ चलने, साथ रहने, अपने लक्ष्य की साथ मिलकर प्राप्ति करने का संदेश देता है। कुंभ के दौरान देश के कोने-कोने से हर जाति, संप्रदाय के लोग स्नान के लिए आते हैं। कुंभ स्थल में मानव मिलन का अद्भुत दृश्य देखा जा सकता है। सही मायने में मानव का मानव से प्रेम, सदभाव और सेवा किसी अमृत से कम नहीं हैं। शायद इसीलिए सैकड़ों वर्षो से हमारे पूर्वज लगातार देश के कोने-कोने से महीनों पैदल यात्रा करके कुंभ स्थल पर पहुंचे रहे हैं। और कुंभ अनेकता में एकता का अमृत रस भरता रहा है।
शास्त्रम श्रुतेनैव नतु कुंडलेन, दानेन पाणिन नतु कंकणेन।
विभातिकाया करुणापराणांम, परोपकारेण नतु चंदनेन।।
अर्थात हमारे कान शास्त्रों को सुनने के लिए हैं कुंडल पहनने के लिए नहीं। हमारे हाथ दान करने के लिए हैं मोटे-मोटे कड़ा या चूड़ा पहने के लिए नहीं, ये शरीर परमात्मा ने हमें परोपकार करने के लिए दिया है सेंट, चंदन और सुगंधित इत्र से मालिस करने के लिए नहीं। आम जनता से नहीं पर साधु और संत समाज से तो ये अपेक्षा की ही जा सकती हैं कि वो शास्त्र सम्मत जीवन बिताएं और समाज के सामने आदर्श प्रस्तुत करें। कुंभ के पावन मौके पर सबसे से ज्यादा पीड़ा कुछ अखाड़ों के साधु-संतों के व्यवहार, गणवेश और दंभ को देखकर होती है। संतों के बारे में कहा गया है कि
तरुवर फल नहीं खात हैं, सरवर पियत न नीर।
परामार्थ के कारणें संतन धरा शरीर।।
लेकिन कुंभ में कुछ अखाड़े वाले साधुओं की अकड़ देखकर ऐसा लगता है ‘परामार्थ के कारणें संतन धरा शरीर’ की बात छलावा है। घोड़े पर सवार, काला चश्मा लगाए, हाथ में बंदूक लिए ये अखाड़े के साधु किसी फिल्म के डाकू से कम नहीं लगते हैं और जहां उनके मुंह से वेद मंत्र निकलने चाहिए वहां अपने प्रतिद्धंदी अखाड़े वाले दूसरे साधुओं के लिए गालियां निकलती हैं। हथियारों से लैश ये अखाड़ची साधु पवित्र कुंभ स्थल पर ऐसे फायरिंग करते है जैसे भारत-पाकिस्तान के बीच युद्ध हो रहा हो। और इनकी दंभ भरी फायरिंग में कई बार निर्दोष जनता की जान चली जाती है। पर जटा-जुट धारी दैत्यों जैसे दिखाने वाले इन साधुओं के किंचित दुख नहीं होता। पता नहीं ये किस मिट्टी के बने होते हैं इन्हें अखाड़ों में कैसी शिक्षा-दीक्षा दी जाती है कि ये आम जनता का दुख-दर्द समझना तो दूर की बात है उनसे प्रेम से बात तक नहीं करते। इनकी वाणी इतनी कर्कश और अहंकार भरी होती कि कुंभ में स्नान और साधु संतो के दर्शन के लिए देश के कोने-कोने से आई जनता इनसे कोसो दूर भागती है। और भगवान से प्रार्थना करती है कि कुंभ में किसी अहंकारी, दंभी साधु से सामना न हो।
महाकुंभ का मुख्य आकर्षण शाही स्नान होता है । हजारों, लाखों की संख्या में साधु संतों की टोली एक साथ पवित्र नदी में स्नान के लिए निकलती है । इस स्नान में अठारह अखाड़ों के साधु एकत्रित होते हैं । तपोनिधि निरंजनी अखाड़ा, पंचदशनाम जूना अखाडा, उदासीन पंचायती अखाड़ा, निर्मल पंचायती अखाड़ा, पंचायती अखाड़ा, निर्मोही अखाड़ा, निर्वाणी अखाड़ा, दिगंबर अखाड़ा, पंच अटल अखाड़ा, महानिर्वाणी पंचायत अखाड़ा, अग्नि अखाड़ा आदि अखाड़ों के साधुओं का प्रतिनिधित्व वैष्णव अखाड़ा करता है । शाही स्नान के पश्चात इन अखाड़ों की भव्य झांकी आयोजित की जाती है, जिसमें साधुओं की शोभायात्रा को देखने के लिए भारी संख्या में श्रद्धालु जुटते हैं। ये परपंरा अनेक वर्षो से चली आ रही है। सबसे दुख की बात ये हैं कि जिन साधु संतों को जनता देव तुल्य समझती है वही साधु-संत पावन कुंभ में लड़ते-झगड़ते दिखाई देते हैं। शाही स्नान को लेकर अखाड़ों के बीच मारकाट मच जाती है। एक संत दूसरे संत को जान से मार देता है अमृतमयी कुंभ में खून की धारा बह जाती है। जिन साधु-संतों की जनता पूजा करती है उन्हें आपस में लड़ता देखकर जनता को बहुत दुख होता है। और उनका हृदय रो पड़ता है। जब अखाड़ों की भव्य झांकी निकलती है तो कई अखाड़े के साधु शक्ति प्रदर्शन करने के लिए हवा में गोलियां चलाते हैं, सैकड़ों बंदूकें, पिस्तौलों से फायरिंग की जाती है। गोली चलाने वाले साधुओं के हाव-भाव और दंभ देखकर लगता है कि ये दूसरे अखाड़े के साधुओं से खुद को श्रेष्ठ साबित करने के लिए किसी हद तक जा सकते हैं। लेकिन सवाल ये उठता है कि अहंकार दिखाने, गोली चलाने और निर्दोष जनता का खून बहा कर कोई अखाड़ा कभी श्रेष्ठ बन सकता है ? क्या अखाड़ों की झांकी बिना शक्ति प्रदर्शन के शांति और सौम्यता से नहीं निकाली जा सकती ? क्या साधु-संत आम जनता से प्रेमपूर्वक बात नहीं कर सकते ? क्या जरूरी है कि शाही स्नान में पहला हक सिर्फ इन अखाड़ची साधुओं का है ? क्या ये सभी अखाड़े वाले और प्रशासन के कर्ताधर्ता मिल कर देश के कोने-कोने से आई भोली-भाली गृहस्थ जनता को सबसे पहले शाही स्नान का हक नहीं दे सकते ? ऐसे कई सवाल है जो महाकुंभ के साधुओं का दंभ देखकर मन में उठते हैं और हमें सोचने पर मजबूर करते हैं।
वहीं दूसरी तरफ 18 पीठ के शंकराचार्यों ने भले ही अपने कुनबों के सिपहसालार से लेकर सेनापतियों के पाप गंगा में धो दिए होंगे पर क्या इन्होंने खुद सेनापति होने तक का दायित्व निभाया या नहीं ये चर्चा का विषय होना चाहिए। कुंभ स्नान से किसको फायदा होता है ये चर्चा का विषय है हरिद्वार शहर की चकाचौंध से लेकर तबाही तक का नजारा ये सोचने पर मजबूर करता है कि क्या कुंभ सचमुच हिंदू सभ्यता और हिंदू धर्म के संस्कारों के मापदंड की पराकाष्ठा है या फिर वो धर्म के नाम उद्योग की सबसे बड़ी त्रासदी है ?
एक तरफ जहां उत्तराखंड की सरकार कुंभ मेले के पहले हरिद्वार शहर के विकास और चकाचौंध के लिए 600 करोड़ रुपये खर्च करती है वहीं शंकराचार्य और साधु समाज का गिरोह 17 हजार करोड़ रुपये का कारोबार करता है। ऐसे में एक आम आदमी ये सोचने पर मजबूर हो जाता है कि क्या इन अखाड़ों का महत्व सिर्फ हरकी पौड़ी को रक्तरंजित करने के लिए रह जाता है या फिर मानव समाज के कल्याण के लिए ?
इन शंकराचार्यों की आपसी लड़ाई और उसका त्रासदी पूर्ण नजारा इस बात की ओर इंगित करता है कि ‘वसुधैव कुटुंबकम’ का यह ‘धारति सह धर्म:’ का पाठ पढ़ने और पढ़ाने वाले अपनी जिम्मेदारी भूल कर बनिए की तरह श्रद्धालुओं को नए-नए तरीके से लुभाते हैं और कभी-कभार उनका दीन और इमान दोनों लूट कर चले जाते हैं। (जारी है)

खबरिया चैनलों में त्योहारों का मौसम

खबरिया चैनलों में त्योहारों का मौसम
भारत त्योहारों का देश है हमारे देश में वर्ष भर एक-एक करके त्योहार आते हैं और हमारे जीवन को हर त्योहार नई ताजगी देता है। लोग महीनों से त्योहार का इंतजार करने लगते हैं और साथ में तैयारी भी करते हैं कि इस दीवाली में नया क्या खरीदेंगे, इस बार क्रिसमस में कौन सी नई जगह घूमने जाएंगे। इसी तरह नाना प्रकार के प्रोग्राम लोग वर्षो से बनाते चले आ रहे हैं और हर त्योहार का पूरा लुत्फ उठाने की कोशिश भी करते हैं।
खबरों के भूखे खबरिया चैनल खूंखार शेर की तरह खबरों की तलाश में रहते हैं। जैसे ही उन्हें पता चलता है कि होली आने वाली है तो बाजार में रंग बिकने बाद में शुरू होते हैं, खबरिया चैनल उससे पहले होली के त्योहार को बेचना शुरू कर देते हैं। हर खबरची चाणक्य को ये डर सताता रहता है कि कहीं मेरी दुकान जमने से पहले दूसरा चैनल होली के त्योहार को न बेचना शुरू कर दे और मुझे जूठी थाली चाटनी पड़े। इसी भागम-भाग में होली के कई दिन पहले से चैनलों में गुलाल उड़ने लगता है तड़का मारकर ऐसे-ऐसे चटकीले होली के प्रोग्राम दिखाते है कि ऐसा लगता कि इनका बस चलता तो टीवी से निकल कर दर्शक को गुलाल और रंग से लाल कर आते। पर बेचारा दर्शक खबर की तलाश में रिमोट से चैलन बदल-बदल कर वैसे ही लाल हो जाता है।
त्योहार को बेचने के लिए चैनल के चतुर हलवाई ज्योतिषियों को अपना सेल्समैन बनाकर एंकर के साथ बैठा देते हैं एंकर महोदया ज्योतिषी महोदय से ऐसे सवाल करती हैं जैसे उन्होंने पहली वार होली के त्योहार का नाम सुना हो, एंकर महोदया ‘पंडित जी हमें होली के बारे में कुछ बताइए ‘ फिर पंडित जी ऐसे शुरू हो जाते हैं जैसे होली में अभी-अभी पीएचडी करके लौटे हों। ग्राफिक्स के गुर्गे रंगों से टीवी स्क्रीन को बदरंग बनाने में कोई कसर नहीं छोड़ते। वो रह रह कर दूसरे चैनल देखते रहते हैं कि दूसरा चैनल कितनी बड़ी पिचकारी से कितनी दूर तक रंग की मार कर रहा है। उनकी कोशिश होती है कि उनकी मिसाइल दूसरे चैनल से लंबी हो और दूसरे चैनल से ज्यादा रंग फेंके टीवी स्क्रीन पर विजुअल जाए तेल लेने। होली को बेचने की ऐसी सनक टीवी चैनल पर चढ़ी होती है जैसे पूरे देश में सिर्फ टीवी चैनलों को होली मनाने का टेंडर दे दिया गया हो।
फिल्मी सितारों की होली इनके लिए प्रोग्राम में भांग का काम करती है जैसे ही विजुअल आए चतुर हलवाई उसको घोंटना शुरू कर देंते है। और ऐसा प्रोग्राम बनाते है कि अगली बार फिल्मी सितारे होली खेलने से पहले सौ बार सोचते हैं। किस हीरो ने किस हेरोइन को रंग लगाया, कैसे रंग लगाया, रंग खेलते वक्त हेरोइन ने कैसे कपड़े पहने थे? वो कितनी सेक्सी लग रही थी? किसके साथ ज्यादा होली खेल रही थी किसके साथ कम। ये सब भांग की तरह घोंट-घोंट कर बार-बार दिखाते हैं।
चैत्र की शुरुआत होते-होते नवरात्र का बुखार चैनलों के सिर पर चढ़कर बोलने लगता है और फिर हर दिन नए-नए पंड़ित अपनी-अपनी बुद्धि का बखान ‘बमबारी’ के तौर पर करने लगते हैं। हर नई तिथि को पंडित जी महाराज हर राशि की चौहद्दी क्षणभर में नाप लेते हैं और विभिन्न प्रकार के उपाय अपने दर्शकों को बाबा रामदेव के योगआसन की तरह अपने दर्शकों को बताने लगते हैं। कुछ चैनल हर दिन की पूजा से जुड़ी हुई विधियां और व्याधियां दोनों का घमासान मचाते हैं, तो कुछ चैनल दिन के हिसाब से राशियों को तराजू पर तौल कर उनके भार के मुताबिक प्रार्थना, पुनश्चरण तथा पुर्नस्थापन का राग अलापते हैं। एकआध चैनल तो तीन प्रहर की लंबाई-चौढ़ाई और गहराई माप कर दर्शकों के प्रश्न पर धोनी की तरह छक्के लगाते हुए दिखाई देते हैं। किसी चैनल में एक पंडित दुर्गा के नाम पर ही लक्ष्मी का आवाहन करवा देते हैं। तो दूसरा चामुंडा या शैलपुत्री से कुबेर के घर में डाका डालने की तरकीब बताते हैं। कुछ एक पंडित नवरात्र को भगवान श्रीराम के जन्म से जोड़ते हैं। तो कुछ एक धर्माधिकारी चैत्र की बयार को रवि फसल की कटाई से जोड़ देते हैं।
कुल मिलाकर नवरात्र के नौ दिनों में हिंदू सभ्यता के सारे अध्याय दीमक की तरह चट कर जाते हैं और देवी-देवताओं के प्रति आस्था की वजाए डर की कील ज्यादा ठोंकते हैं।
इसी बीच में कहीं गुडी पर्व आ गया तो विशेषकर मराठी लोगों के लिए क्या करें, क्या न करें का पाठ सुबह से शाम तक चलता है तो कर्नाटक और आंध्रप्रदेश के लोगों के लिए ‘युगादि’ की महत्ता और उस अवसर पर गन्ना तथा नीम खाने के महत्व का बखान होता है।
उसके बाद से लेकर सावन तक तो कुछ माहौल ढीला सा रहता है उसके फौरन बाद जब त्योहारों की झड़ी लगने लगती है तो कई खबरिया चैनलों में विशेष कार्यक्रमों की बारिश उसी रफ्तार से होने लगती है। कोई चैनल नाग पंचमी के अवसर पर स्टूडियों में ही सपेरा पकड़ कर ले आता है और उसकी बीन पर चैनल मालिक के साथ चैनल के पदाधिकारियों की फौज भी ‘नगीना’ फिल्म में श्रीदेवी की तरह नाचने लगते हैं। वैसे भी हमारा भारत कई मामलों में बड़ा ही अजीबो-गरीब देश है जहां चींटी से लेकर चूहा या फिर गाय से लेकर हाथी तक की पूजा और उसके फल का महात्म भी बड़े-बड़े ग्रंथो में वर्णित है तो बेचारी जनता क्या करे।
हमारे खबरिया चैनलों के बादशाह इस बात से भली-भांति परिचित हैं कि धर्म के नाम पर कोई भी लीला या नौटंकी कर लो जनता हर मौके पर हाथ जोड़े और सिर झुकाए हमेशा खड़ी रहती है। इसीलिए बड़े-बड़े त्योहारो के बावत हर किस्म का ब्यंजन परोसने के लिए अलग-अलग इलाके से चौंका देने वाले विशेषज्ञ को बुलाने की कवायद शुरू हो जाती है। और इनमे से जो विशेषज्ञ या पंडित सर्कस के जोकर की तरह दर्शकों को रिझाने में कामयाब हो गए तो उनसे बड़ा बाजीगर कोई नहीं।
कई चैनलों के मालिक इस बात को अच्छी तरह जानते हैं कि क्रिकेट मैच के बाद सबसे ज्यादा कोई चीज उन्हें छोटे पर्दे पर पसंद आती है तो वो है त्योहारों का मौसम। इसलिए वो हमेशा ऐसे लोगों की तलाश में रहते हैं जिनके चमत्कारी कारनामे चैलन में चार चांद लगाते रहें।
या फिर उनके पास ऐसा कोई और नया नुस्खा हो जिसका पेड़ एक ही दिन में बड़ा होकर पूरे टीवी स्क्रीन को ढक ले। इसलिए ऐसा अक्सर देखा गया कि श्रवण से लेकर दीपावली के बीच जितने बड़े छोटे त्योहार होते हैं वो कई खबरिया चैनल के लिए संजीवनी बूटी की तरह काम कर जाते हैं। अब ये उस चैनल विशेष पर निर्भर करता है कि वो किस त्योहार विशेष के आटे में कितना ज्यादा गुड़-शक्कर डाले और उसमें कितनी आंच दे ताकि कार्यक्रम का हलवा और जलेबी दिन भर पकता रहे और दर्शक झोला भर भर कर अपने घर के साथ-साथ मुहल्ले भर में सबको बांटकर खिलाता रहे।
दशहरा और दीपावली दो ऐसे पर्व है जिनमें हर चैनल हर किस्म का खेल खेलता है और ऐसे त्योहारों को ऐसी-ऐसी घटनाओं से जोड़ता है जिसका कोई तार्किक आधार नहीं होता। दशहरा में तो 9 दिन का सामान बड़े ही व्यापक पैमाने की तैयारी के रूम में परोसा जाता है। बस शहर में बीस-पचीस बढ़िया पूजा पंडाल होना चाहिए। पूजा के विधि-विधान से लेकर सांस्कृतिक कार्यक्रम और खाने पीने की वस्तुओं से लेकर ऐसी-ऐसी लाइव रिपोर्टिंग होतीं है जिसे देख सुनकर कई दर्शक अपने घर की पूजा का विधि-विधान भी भूल जाते हैं। दशहरे के मौके पर जगह-जगह दिखाई जाने वाली रामलीला को ‘मिक्सी’ में पीस कर न्यूज चैनल लीला बनाते है जो कहीं-कहीं गरीबी में आटा गीला जैसी हालत को भी दिखाता है। जैकेट और ‘टॉप बैंड’ का ऐसा तांडव रचते हैं कि न्यूज चैनल में रामलीला देख रहा दर्शक विजुअल देखने को ऐसे तरसता है जैसे रेगिस्तान में प्यासा पानी के लिए।
ताड़का वध की तैयारी चैनल कई दिन पहले से करने लगता है और बिजली चमका-चमका कर एक ही विजुअल को ट्रीट कर ऐसे दिखाया जाता कि ताड़का ने भी कभी सोचा नहीं होगा कि उसका वध एक ही दिन 50 टीवी चैनल मिलकर 200 बार कर देंगें। एक-एक दिन की रामलीला न्यूज चैनल भारत की जनता को ताज़ा खबर की चाशनी में लपेट कर ऐसे दिखाता है जेसे जनता ना राम को पहचानती हो न सीता को और दसानन रावण को। त्योहारों के सेल्समैंन बने पंडित जी को बुलाकर रामलीला पर व्याख्यान दिलवाया जाता है। पंडित जी रामकथा की ऐसी जुगाली करते-करते आधी भूली-आधी बिसरी चौपाई के सिर पैर जोड़ कर दर्शकों को ऐसे आत्मविश्वास से सुनाते है जैसे आज नई रामायण की रचना करके छोड़ेंगे। घर में बैठा दर्शक न्यूज चैनल में ये सब देखकर सारे गा मा पा की तरफ ऐसे भागता है जैसे धुएं से भरे कमरे से निकल कर खुली हवा में सांस लेने के लिए लोग दौड़ते हैं। दशहरे के दिन रावण के दहन की खास तैयारी की जाती है टीआरपी में कोई कमी न रहे। इसलिए रावण पर पूरा ध्यान दिया जाता है। ग्राफिक्स के गुर्गों की फौज रावण के एक एक सिर को टीआरपी का एक एक अंक मान कर रचती है और फिर जैकेट में चिपका कर टीवी स्क्रीन पर रावण को ऐसे लटका दिया जाता है जैसे उसे फांसी की सजा सुना दी गई हो। न्यूज चैनलों के हलवाई का बस चलता तो टीआरपी के लिए दस सिर वाले रावण के सिर पर 5 और सिर जोड़ देते।
आजकल जो नया ट्रेंड चला है कि हर त्योहार पर टीवी के हर सीरियल के पात्र तीन चार एपिसोड तो त्योहार मनाने में ही गुजार देते हैं। दर्शक बेचारा सीरियल में आगे क्या होगा इसी इन्तजार में बैठा-बैठा खून के घूंट पीता रहता है और चैनल वालों को कोसता रहता है। वो प्रोग्राम बंद भी नहीं करना चाहता क्योंकि चैनल वालों ने सीरियल दिखाकर उसकी ये जानने की भूख बढ़ा दी है कि आगे क्या होगा।
मन मारकर भी टीवी पर वही होली, दीवाली मनाते हुए कलाकारों को बर्दास्त करना पड़ता है। पर इससे चैनल वालों को क्या फर्क पड़ता है। उनको तीन, चार एपिसोड का मसाला मुफ्त में मिल जाता है जनता तो बेचारी उनकी मुट्ठी में फंस गई है जायेगी कहां?
दीवाली का त्योहार न्यूज चैनलों के लिए मिठाई की तरह हैं जिसे वे पानी पी-पी कर बार-बार दर्शकों को चखाते हैं। दीवाली के आते की बाजारों की रौनक, रंग-बिरंगे दीपक, लड़ियां-झड़ियां क्या कहां मिल रहा है किस शहर में क्या खास चीज मिल रही है सब कुछ दिखाने का ठेका जैसे उद्योगपतियों ने न्यूज चैनल वालों को दे रखा है। कौन सी मिठाई, कौन सी गुझिया आप खाइए कौन सी न खाएं ये आपको न्यूज चैनल वाले बता देंगे। और ऐसे बताएंगे जैसे सालों से मिठाई और गुझिया बेचने का काम करते रहें हो। दीवाली में रिपोर्टरों को खास हिदायत दी जाती है कि बाजार से अच्छे विजुअल शूट करके लाएं। फिर क्या रिपोर्टर दीवाली के 2 दिन पहले से सी युद्ध स्तर पर विजुअल बटोरने लग जाते हैं कई बार दुकानदार कहने लगते हैं कि ग्राहक कम और चैलन वाले ज्यादा बाजार में घूमते दिखते हैं। किसी प्रोडक्ट में क्या ऑफर चल रहा है?, किसके साथ क्या फ्री मिल रहा है?, ये सब न्यूज चैनल वाले ऐसे तड़का मारकर दिखाते हैं जैसे किसी खास प्रोडक्ट के बिक्री का इन्हें ठेका मिल गया हो कि 100 फ्रीज बिक्री करवा दो और 4 मुफ्त ले जाओ। देश-विदेश की खबर जानने के लिए टीवी के सामने बैठ दर्शख चातक की तरह ताकता रहता है कि कब न्यूज चैनल पर खबर चलेगी। चातक को स्वाति नक्षत्र पर बारिश की बूंद नसीब हो जाती है पर खबरों के प्यासे दर्शक के नसीब चातक जैसे कहां?
क्रिसमस के एक हफ्ते पहले से ही छोटे से लेकर बड़े शहर शादी की दुल्हन की तरह सजने लगते हैं। कपड़ों की दुकान से लेकर चैनल के न्यूजरूम तक शांताक्लाज़ हर कोने में कुकुरमुत्ते की तरह दिखाई देता हैं। शांताक्लाज की गुड्डीज और सफेद दाढ़ी में लाल कपड़ा एक ऐसा तिलिस्म पेश करता है जिससे बच्चे, बूढ़े सब प्रभावित होते हैं और एक हफ्ते पहले से ही इसकी डुग-डुगी हर समय पहले से ही बजना शूरू हो जाती है और 24 दिसंबर की रात में तो हर चैनल के स्क्रीन पर झिंगल वेल की आवाज हर घंटे में सुनाई देती है। और 31 दिसंबर आते-आते तो पूरा देश नए साल के स्वागत में ऐसे तैयार होता है मानो किसी नवविवाहिता वधू का स्वागत करने के लिए पूरा परिवार स्वागत करने के लिए खड़ा हो।
लब्बोलुआब ये है कि पूरी दुनिया में भारत ही ऐसा देश है जहां त्योहार का मौसम तकरीबन बारहों महीने किसी न किसी रूप में मनाया ही जाता है ये अलग बात की उसमें अक्सर ही सूखे की हल्दी और बाढ़ का कीचड़ देश के कुछ हिस्सों को इन त्योहारों की रौनक से महरूम कर दे मगर आम तौर पर हमारी जनता भी अब सिलिब्रेशन के नए-नए लटके झटके और रश्मो रिवायत से बखूबी वाकिफ वो गई है और दर्शकों का एक बड़ा हिस्सा इसी की बाढ़ में तैरता और डूबता दिखाई देता है।
कई लोगों के लिए दूरदर्शन ही पर्व, त्योहारों के कलेंडर का काम करता है। तो अन्य लोगों के लिए त्योहारी रश्मो-रिवायत का ऐलार्म भी बनता है। ये ही वजह है कि भारत में टेलीविजन मय्या की महिमा अपरम्मपार है। और उसी में देश की आबादी के बड़े हिस्से का बेड़ा पार है।