रविवार, 21 फ़रवरी 2010

खबरिया चैनलों में उर्दू की फज़ीहत

ख़बरिया चैनलों में उर्दू की फज़ीहत
बिहार के ग्रामीण परिवेश से आए एक मंत्री महोदय को अंग्रेज़ी में चंद लाइन का संदेश पढ़ने को कहा गया तो वो नेचर को ‘ नेटूरे‘ पढ़ गए। उनके पीए ने टोका कि सर ये गलत है। फिर क्या था मंत्री जी झल्लाते हुए बोले कि नाक पर एक घूंसा मारूंगा तो ‘बिल्डिंग’ हो जाएगा।
पीए बोला मेरे पास पहले से ही दो बिल्डिंग है सर। मगर इसी नेटूरे के चक्कर में कहीं आपका ‘फुटूरे' (फ्यूचर) न ख़राब हो जाए...
ग्रामीण परिवेश के लोगों को अंग्रेज़ी नहीं आए तो ये बात समझ में आती है। मगर अपने ही देश में उर्दू जैसी नफ़ीस और मीठी ज़ुबान के साथ हर दिन बदसलूकी हो तो बड़ी कोफ़्त होती है।
ये सच है कि अल्फाज़ इंसानी जज्ब़ों की तरजुमानी का सबसे माकूल ज़रिया है और उसमें में भी उर्दू ज़बान सबसे बेहतर है। इस ज़ुबान की नज़ाकत और नफ़ासत का जवाब नहीं। इसी ज़ुबान ने शायरी को पैदा किया जो इज़हारे ख्याल का सबसे माकूल और मोअज़ीज पैकर है।
इस ज़ुबान को हज़ारों शायरों ने अपनी कलम से तराशा और नए-नए मुकाम कायम किए। उर्दू महज़ हमारी तहज़ीब ही नहीं, हमारी पहचान का एक हिस्सा है और हमारे तहज़ीब याफ्ता या मुहज्जब होने का आइनादार भी।
उर्दू के अल्फाज़ बोलने और सुनने में तो प्यारे लगते ही हैं, अगर गुस्सा भी आ जाए तो गालियां उर्दू में ही निकलती हैं। गदहा, नामाकूल, बेवकूफ़, बदतमीज़, नालायक़ और हरामखोर जैसे लफ्ज़ों का वज़न उर्दू में ही मालूम पड़ता है इसकी तुलना में हिंदी की गालियां भी बड़ी हल्की और अजीबोगरीब लगती हैं। मसलन किसी को हिंदी में गाली भी देंगे तो क्या कहेंगे... मूढ़, पातक, पाखंडी, क्रूर.. और क्या?
यकीन मानिए फिर भी आपको गाली देने का मज़ा नहीं आएगा। मिसाल के तौर पर एक हिंदी के प्रकांड विद्वान ने गुस्से में आकर एक व्यक्ति को गदहा के बदले ‘वैशाख नंदन’ कह दिया तो वो आदमी हंसने लगा। शायद उसे लगा की ये महामहिम उसे इस शब्द के द्वारा श्री कन्हैयालाल नंदन का रिश्तेदार समझ बैठे।
वैसे भी शुद्ध हिंदी में बातचीत करना भी काफी अटपटा सा लगता है। मिसाल के तौर पर हम कहते हैं कि मेरे सर का बाल झड़ने लगा है तो समझ में आता है। अगर उसे आप शुद्ध हिंदी में कहें कि ‘मेरे शीश से केश स्खल न होने लगा है‘ तो लोग आपको सरफिरा ही समझेंगे। उर्दू की एक और नायाब पहचान है शेर या रुबाई जो किसी चार पेज की कहानी पर भारी पड़ जाती है। दो लाइन का शेर दस पेज की कहानी के बराबर होता है और एक शेर अपने आप में ही मुकम्मल कायनात होती है। मिसाल के तौर पर-
आपके पांव के नीचे दिल है
एक ज़रा आपको ज़हमत होगी।
दूसरी तरफ हिंदी में कविता का नज़ारा ये है कि-
हिमाद्रि तुंग श्रृंग से प्रबुद्ध शुद्ध भारती.....
अब आप ही बताइए इसकी समझ कितने लोगों को होगी।
मगर खबरिया चैनलों के एंकर और रिपोर्टरों में से तक़रीबन 90 फीसदी लोग उर्दू ज़ुवान के साथ बदसलूकी करने के गुनहगार हैं। हर दिन जब उर्दू लफ्ज़ों को हवा में उछलते देखता हूं तो हैरानी होती है।
सबसे अजीब बात तो ये है कि आग़ाज़ ही ग़लत होता है। कई चैनल न्यूज और खबर से ही हरामखोरी पर उतर आते हैं। फिर आगे की क्या विसात।
कई ऐसे नामचीन एंकर हैं जिनके कान पर जूं तक नहीं रेंगती। ज़ी न्यूज़ चैनल के एक जनाब ज़ाहिर को जाहिर और हज़ार को हजार बोलने का शौक फरमाते हैं और कभी शर्मसार भी नहीं होते हैं। स्टार न्यूज के भी एक आला एंकर को ज़रूरत, ज़रूरी, ज़ायका या फिर तजुर्बा से लेकर कई लफ्जों में नुक्ता, ग़ैन या क़ाफ समझने का इल्म नहीं। इसी तरह सहारा न्यूज की एक मोहतरमा को ये समझ में नहीं आता कि ज़लील और जलील में ज़मीन आसमान का फ़र्क है।
हाल ही में इसकी दो संगीन मिसाले देखने को मिलीं। एक प्रतिष्ठित व्यापारी के बेटे की शादी के मौके पर एक नामचीन खबरिया चैनल के एंकर ने अपने संवाददाता से पूछा ‘जी, बताएं वहां का नज़ारा और माहौल कैसा है ‘? तो संवाददाता साहिबा ने जवाब दिया कि एकदम मस्त और मातमी माहौल है और चारो तरफ रोशनाई फैली हुई है।
क्या? शादी के माहौल में मातम और रोशनी की जगह रोशनाई फैली हुई है? अजी बस भी कीजिए। कम से कम अर्थ का अनर्थ तो न कीजिए।
दूसरी घटना तब की है जब दिल्ली पुलिस के एसीपी राजबीर सिंह की हत्या हुई थी आधी रात को इसके बावत एनडीटीवी के एक आला सहाफी ने अपने फोनों में कुछ ऐसे लफ्जो का इस्तेमाल किया जिसको सुनकर उसके साथी भी दंग रह गए। ऐसा लग रहा था जैसे वो मोहतरम उस फोनों में खबर देने के बजाय उस मरहूम पुलिस अफसर पर अपने दिल का भड़ास निकाल रहे थे और पेट की गैस को मुंह के रास्ते बाहर ला रहे थे। साथ ही उन्हें मरहूम (मृत) और महरूम (वंचित) लफ्ज़ के बीच का अंतर नहीं समझ आ रहा था।
इस तरह की सैकड़ों मिसाले हैं जिनको गिनाकर दिल बोझल ही होगा। मगर अब तक हमारी खबरिया चैनल बिरादरी के बुजुर्गों को इस बात का शायद एहसास भी नहीं हुआ कि उनके युवा साथियों को लफ्ज़ों की लज्जत और उसका सही तलफ्फुस सीखने की कितनी ज्य़ादा ज़रूरत है। एक दो पत्रकारों ने तो कह भी दिया कि हम उर्दू के शब्दों का हिंदी करण कर देते हैं। ताकी आम आदमी उसे आसानी से समझ सके। अब ऐसी वाहियात दलील का क्या जवाब होगा? उन्हें क्या मालूम कि एक नुक्ते की हेराफेरी से ख़ुदा कब जुदा हो जाता है और अमानत कितनी ज़ल्दी ख़यानत में तब्दील हो जाती है।
दरअसल आजकल के चैनलों के सहाफियों को कौन समझाए-
सहाफत वो खेल नहीं जो हर कोई बच्चा खेले
दिल उबल सा जाता है सदमात के सहते-सहते
एक वो दौर था जब देवकी नदंन पांडे जैसे समाचार वाचक भी एक गलत लफ्ज़ मुंह से निकल जाने पर अपने श्रोताओं से माफी मांगते हुए कहते थे ‘ कृपया इसे फिर से सुनिए’ और तब उस ख़बर को सावधानी पूर्वक दोहराते थे। मगर आज ये आलम ये है कि एनडीटीवी अंग्रेज़ी चैनल की एक नामचीन एंकर इराकी शियाओं को ‘इराकी शिट’ पढ़ देती है और टूरिज्म को टेरोरिज्म बना देती है और फिर भी बेशर्मों की तरह हंसती रहती है। इसे क्या कहा जाए? बेशर्मी की इंतहा या सहाफियों की इज्ज़त की नीलामी?
हैरानी की बात ये है ये नज़ारा कई चैनलों के उपर आ रहे हेड लाइन पर भी होता है अगर ये मान भी लिया जाए कि मौजूदा सहाफियों की फौज में कई ऐसे भी हैं जो अंग्रेज़ी में पढ़े लिखे। इसलिए उनमें उर्दू तालीम नदारत है और लफ्जों का तलफ्फुस एक अहम मरहला हो सकता है। मगर खबरों की हेडलाइन लिखने वाले से तो ऐसी तालीम या इल्म की उम्मीद की जा सकती है। फिर भी ऐसी बदहाली क्यों?
क्या इसका ये मतलब निकाला जाए कि इस पेशे में भी जाहिलों और नक्कारों की तादात बहुत ज्य़ादा बढ़ गई है? मौजूदा हाल में खबरियां चैनलों की सुर्खियां मेरे इस इल्ज़ाम और दावे की मुक्कमल तौर पर तस्दीक़ करती है।
बीबीसी के हर पत्रकार को सिखाया जाता था जिस किसी भी नए मुल्क में जाओ तो सबसे पहले वहां की मादरी ज़ुबान सीखो और खबरें अपने आप मिलती रहेंगी। सब लोग इसे पाक़ फ़रमान समझ कर मेहनत मशक्कत करते थे और आज भी करते हैं। मगर अफसोस की हम अपने ही वतन की प्यारी ज़ुबान नहीं सीख पाते या सीखने की ज़हमत नहीं करते ।
हैदराबाद और बैंगलौर जैसे शहरों में भी दक्कनी उर्दू बोलने वाले लोग भले ही क़ब्र को खबर या तकरीब को तख़रीब बोल दें मगर वो लिखने में कोई ग़लती नहीं करते।
हैदराबाद के आकाशवाणी के संवाददाता जनाब शुजात अली के साथ मैं जा रहा था कि अचानक वो बोले ”ए पंडित मियां ये हल्लू हल्लू क्या चलती तुम ज़रा तेज़ कदम बढ़ाओ। आसमाना से बरसाता गिरने वाली है।” मैं हैरान हो गया और अचानक मुंह से निकल गया “मियां आसमाना से बरसाता तो ठीक है लेकिन कहीं बीबी से बीबियां हो गईं तो बहुत पिटेंगे आप।” उसके आधे घंटे बाद जब उन्होंने ख़बरें पढ़ी तो यक़ीन नहीं हुआ कि ये इतनी बेहतरीन उर्दू जानते हैं।
दूसरा वाकया बैंगलोर का है जब मैंने सी के जाफरशरीफ के घर फोन किया तो जवाब मिला कि “अभी वो पानी नहा रहीं। ज़रा वक्त छोड़ के फोन करे तों उनो झुब्बा-चपलां डाल को बाहर आती।” मैं हैरान था कि ये कौन सी हिमाकत है। मर्द है फिर आती क्यों। फिर मालूम पड़ा कि ये दक्कनी उर्दू बोलने का अंदाज़ है। मगर जब वो बाहर आकर अख़बार पढ़ने लगे तो उनके इल्म पर हैरानी थी।
बदकिस्मती ये है कि सहाफियों में नई उमर की नई फसल दिन में दस घंटे खिचड़ी ज़ुबान में चबर-चबर भले ही कर ले और फेसबुक पर दुनियां भर की बकवास और बेहूदेपन का मज़ा ज़रूर ले ले मगर उसके पास किताबें या रिसालें पढ़ने या नया इल्म सीखने का वक्त ही नहीं है।
और ये कहने में कोई शर्म नहीं कि इस शरीके-जुर्म में हमारी पीढ़ी के लोग भी हैं। अगर हम लोग अपनी ज़िम्मेदारी का एहसास करते हुए इस जवान पीढ़ी को सहाफियत की इल्म के साथ-साथ ज़ुबान की भी तालीम देते तो शायद हर दिन ये अफसोसनाक मंज़र दरपेश नहीं आता।
मगर क्या ये बात सच नहीं कि-
साहिल के तमाशाई हर डूबने वाले पर
अफसोस तो करते हैं, इमदाद नहीं करते।
इसी बात की सबसे ज्यादा तकलीफ़ होती है।

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