गुरुवार, 18 फ़रवरी 2010

न्यूज एंकर या हरकारा

एक एंकर की भूमिका किसी समाचार चैनल में वही होती है जो किसी किताब के लिए गत्ते का या बोतल के लिए ठेपी का। न्यूज़ एंकर किसी भी कार्यक्रम को बड़ी सुलभता से पेश करने तथा उस कार्यक्रम की लोकप्रियता को बढ़ाने में चाशनी का काम करता है। पिछले 25 सालों में एंकर के रोल में काफी परिवर्तन आया है। जहां पहले एंकर अपने उम्दा व्यक्तित्व तथा खबरों को एक खास अंदाज में परोसने के लिए जाना जाता था वहीं आज उसकी स्थिति अपने चैनल के हरकारा या चौराहे पर अपने हाथों में दस पर्चे या अखबार लिए उस लड़के की तरह हो गई है जो एक भांड की तरह चिल्ला-चिल्ला कर सबसे गुहार लगा रहा हो कि आइए आज हमारे चैनल में फलां कार्यक्रम का मज़ा लीजिए या फिर ले जाइए- ले जाइए हर माल दस रूपये।

सन 1980 के दशक तक लोगों के दिमाग में एक समाचार वाचक (न्यूज़ रीडर) की छवि थी जो दस से पंद्रह मिनटों में दुनियाभर की खबरों को अपने दर्शकों तक बड़े ही नपे-तुले शब्दों में सरकारी नोट की तरह पढ़कर सुना दिया करता था। समाचार वाचक का व्यक्तित्व या उसकी अपनी सोच तथा खबरों के उपर टिप्पणी या तकरार करने की आज़ादी नहीं थी।

1980 के दशक में डॉ. प्रतिमा पुरी से लेकर जी.बी.सिंह, जे.बी.रमण, तेजेश्वर सिंह, रिनी खन्ना, अविनाश कौर सरीन तथा सरला माहेश्वरी से लेकर सुनीत टंडन, निथी खिद्रन और मीनू तलवार तक अपने दर्शकों के चहेते रहे। दूरदर्शन ही उस वक्त समाचार का एक जरिया था और समाचार बुलेटिन में देश के ज्वलंत मुद्दों पर सरकारी नीति तथा मसलों पर ज्यादा जोर दिया जाता था। आजकल की तरह खबरों को पकाने, सेंकने तथा उसपर रेंकने की परिपाटी नहीं थी। उस वक्त सबकुछ शालीनता तथा सभ्यता के दायरे में होता था और शायद उस वक्त वही सबसे उत्तम था।

मगर तब तक टेलीविजन न्यूज़ तथा उसके परिवेश तथा परिपेक्ष में एक नए दौर की शुरुआत हो चुकी थी। ईरान-इराक युद्ध से लेकर कई और खबरों को संवाददाताओँ ने अपनी आँखों देखी तथा व्यक्तिगत अंदाज में प्रस्तुत करना शुरु कर दिया । धीरे-धीरे समाचारों पर तफसरा और नजकरा का दौर शुरु हो गया।

यही दौर था जब भारतीय टेलीविजन के क्षितिज पर चार एंकर तकरीबन एक साथ उभरे। ये चारों सितारे थे प्रणव रॉय, विनोद दुआ, राघव बहल और विनीत नारायण। सबसे पहले समाचार को आम आदमी से जोड़ने तथा सरकारी तंत्र की सड़ने के साथ साथ कई बड़े घोटालों का पर्दाफाश करने वाले विनीत नारायण रातों रात करोंड़ों लोगों के चहेते बन गए। चाहे वो बिहार के कोयला खदानों में दादागीरी हो या फिर जैन हवाला कांड, विनीत के तेवर ने समाचार प्रस्तुतिकरण या खोजी पत्रकारिता की दुनिया में अपने लिए एक अलग मिसाल कायम की। मगर बाद में वो अपने उपर कई जानलेवा हमले तथा हर तरफ से कई किस्म के दबाव के चलते इस विद्या से अलग हो गए। दूसरी तरफ विनोद दुआ की छवि एक ऐसे दबंग पत्रकार की उभरी जो कैमरे तथा दर्शकों के सामने जनवाणी जैसे कार्यक्रम के मार्फत नेताओँ की धज्जियां उड़ाने में कोई कोर कसर बाकी नहीं रखते थे। राघव बहल बिजनेस पत्रकारिता के सबसे पहले स्टार थे जिन्होंने टेलीविज़न पर अपनी प्रतिभा का जादू बिखेरा। अंग्रेजी समाचार एंकरिंग में दिलकश अंदाज बिखेरने वाले डॉ. प्रणव रॉय की लोकप्रियता किसी नामचीन फिल्मी हस्ती से कम नहीं थी।

1986 के बाद जब भारत में पहली बार वीडियो न्यूज़ मैगज़ीन की शुरुआत हुई तो दो चेहरे और दिखे जिनके तेवर कुछ ज्यादा ही आक्रामक थे – करण थापर औऱ मधु त्रेहन, ज्यादा आक्रामक होने की वजह से इन्हें दर्शकों ने नकार दिया। फिर आया 1990 का दशक जहां दो और चेहरे इस फेहरिस्त में जुड़े। सही मायनोँ में हिंदी न्यूज़ टेलीविज़न की शुरुआत यहीं से हुई। ये थे सुरेद्र प्रताप सिंह और रजत शर्मा। एसपी ने टेलीविज़न पर हिंदी पत्रकारिता को एक नई दिशा और परिभाषा दी। पहली बात ये कि एसपी का व्यक्तित्व भले ही साधारण हो मगर उनकी सोच असाधारण थी। दूसरी बात ये कि एसपी खुद एक राज़ा थे मगर उनका दिल एक आम-आदमी की सोच संजीदगी और पीड़ा से प्रभावित होता था। एसपी के बड़े कद और अलग सोच की वज़ह से आजतक भारत में मध्यवर्गीय परिवार से लेकर सड़क पर चल रहे एक आम-आदमी का अपना कार्यक्रम बन गया था। एसपी की व्यक्तिगत साख इतनी जबरदस्त थी कि शिवसेना प्रमुख ने अपने सैनिकों को निश्चित रूप से हर रोज़ कार्यक्रम देखने का फतवा सा जारी कर रखा था। ठाकरे का मानना था कि एसपी तभी कोई खबर दिखाते हैं जब वो दिखाने लायक होती है। एसपी ने ये साबित कर दिया कि अगर आपमे सोच और संजीदगी हो तो न्यूज़ एंकर बनने के लिए आपको टॉम क्रूज़ या रिचर्ड गेर बनने की आवश्यकता नहीं है। एसपी ने अपनी बढ़ी दाढ़ी को ही अपनी पहचान का हिस्सा बनाया। एसपी की लगाई बगिया आजतक बरकरार है।

दूसरी तरफ रजत शर्मा की शैली थोड़ी अलग रही। ज़ी न्यूज़ के प्रमुख के तौर पर, आपकी अदालत के एंकर के तौर पर उन्होंने काफी लोकप्रियता हासिल की और इसी अदालत ने उनको अपना चैनल भी दिया। फिर स्टार प्लस पर आज की बात की भी एंकरिंग की। इंडिया टीवी के मालिक हैं और चैनल को इतनी जल्दी नंबर 1-2-3 के रेस में ले जाने का श्रेय भी जाता है।

पिछले 10 सालों में न्यूज़ एंकर की छवि तथा उसके किरदार के साथ जो सलूक किया गया है वो काफी खौफनाक है। अगर आज के चैनलों की बाढ़ के बीच न्यूज़ एंकरों पर सरसरी निगाह डालें तो लगता है उनमें से ज्यादातर एंकर जैसे चैनल मालिकों के लिए भांड बन गये हों। न्यूज़ एंकर्स की इस दुर्दशा के पीछे कई कारण हैं। और सबसे बड़ा कारण है सोच का दिवालियापन। सीएनएन और बीबीसी जैसे चैनलों में किसी रिपोर्टर को एंकरिंग की अर्जी के लिए तब तक योग्य नहीं माना जाता जब तक उसने आठ से दस साल तक फील्ड में काम नहीं किया हो। जिससे कि समय पड़ने पर वो अनुभव के आधार पर ब्रेकिंग न्यूज़ पर कुछ समय तक बोल सके। उनकी उम्र भी 35 से 40/45तक के बीच होती है लेकिन हमारे देश में ऐसा नहीं होता। यहां चैनल मालिक ऐसा नहीं सोचता यहां तो बस एंकर की शक्ल-सूरत अच्छी होनी चाहिए बाकी बातें उतनी जरुरी नहीं। मसलन यह कि न्यूज़ एंकर तो टेलीप्रॉम्पटर पर तोते की तरह पढ़ने वाली कठपुतली की तरह होनी चाहिए। उसके एंकरिंग का दिमाग से कोई वास्ता न भी हो तो चलेगा। शायद यही वजह है कि भारतीय टीवी चैनल पर न्यूज़ एंकर के द्वारा की गई गलतियां संगीन होती हैं इसका अंदाज़ा इसी बात से लगाया जा सकता है कि एक प्रतिष्ठित चैनल के नामचीन एँकर ने अपने रिपोर्टर से सवाल किया कि ग्वालियर में जो मिराज-200 विमान गिरा उसमें कितने यात्री सवार थे। मां सरस्वती के उस पौत्री को कौन समझाए कि लड़ाकू विमान में यात्री कहां मिलेंगे। किसी ने टूरिज्म को टेरेरिज्म पढ़ दिया। संसद के वेल में आए सांसद की बजाए संसद के डब्ल्यू एल एल में आए सांसद पढ़ दिया।

यह बात बड़ी कटु सत्य है कि हमारे न्यूज़ चैनलों के 10 में से 7-8 एंकर को खबर की पृष्ठभूमि पता नहीं होती क्योंकि एंकर बनने से पहले उसने पत्रकारिता तो की नहीं। अगर सामने से लिखा गायब हो जाए तो बड़ी ही हास्यापद स्थिति हो जाती है। उस पर तुर्रा यह कि इन न्यूज़ एंकर के कपड़े पहनने का अँदाज़ ऐसा है जैसे करेला पर नीम चढ़ा। अपने कमीज के उपर के तीन बटन खोलकर कैमरे के सामने बैठकर समाचार पढ़ना भले ही अमेरिका या किसी अन्य देश में सफलता या लोकप्रियता का पासपोर्ट हो मगर भारत जैसे देश में लोग आज भी राजनीतिक तथा आर्थिक ख़बर से प्रभावित होते हैं और वह अपने एंकर को कम से कम शालीन कपड़े पहले ही देखना चाहते हैं।

शायद हमारे टीवी चैनल के मालिकों तथा न्यूज़ के चंदूखाना चलाने वाले आर्यपुत्रों को इस बात का कतई एहसास नहीं कि आधुनिकता नग्नता का परिचायक नहीं है। और कोई बीच सड़क पर नंगा हो जाने से मॉर्डन नहीं कहलाता। उसकी सोच उसे प्राचीन या अर्वाचीन बनाती है।

ऐसा नहीं है कि भारतीय टेलीविज़न न्यूज़ चैनल में अच्छे एंकर का अभाव है। आज भी निधि कुलपति, सुमित अवस्थी, अभिसार और संजीव पालीवाल जैसे लोगों की अपनी छवि है। अंग्रेजी में कई एंकर ऐसे हैं जो अपनी अलग शैली के लिए जाने जाते हैं।

अमरीका जैसे देश में किसी विशेष व्यक्ति की मौत पर उसके परिवारवालों की प्रतिक्रिया के बारे में सवाल करना आम बात है। मगर जब हमारे एंकर्स अपने रिपोर्टर से पूछते हैं कि अपनी बीस साल की जवान बेटी के साथ बलात्कार के बाद मार दिए जाने की खबर सुनकर उसके बाप की क्या प्रतिक्रिया थी, तो लगता है कि उस एंकर के गाल पर एक झन्नाटेदार थप्पड़ रसीद किया जाए। उस मूर्खाधिराज को यह नहीं पता कि इतने बड़े हादसे की खबर सुनकर वह बूढ़ा बाप क्या कैमरे के सामने भरतनाट्यम करेगा या फिर ख्याल जौनपुरी गाएगा।

आवश्यकता इस बात की है कि किसी भी टीवी चैनल की छवि सुधरने के लिए उसके एंकर्स की छवि, सोच और मानसिकता ही सुधारी जाए। खबर अपने आप में खबर होती है। सुष्मिता सेन या राखी सावन्त द्वारा उसके प्रस्तुतीकरण से उसके स्वरूप में कोई फर्क नहीं पडे़गा। मगर जब एसपी सिंह, राजदीप या प्रणव राय या फिर विनोद दुआ उस खबर को पेश करते हैं तो खबर का निरपेक्ष रूप से मूल्यांकन और आकलन भी होता है जो राखी सावन्त या सुष्मिता सेन नहीं कर सकतीं।साथ ही यह बहुत जरूरी है कि खबरिया चैनल अपने एंकर्स की अहमियत को समझते हुए उनका उस रोल के लिए तैयार कर रही कैमरे के सामने लाए न कि कठपुतली बनाकर बैठा दे।

आजकल न्यूज चैनल की बाढ़ में हर तरफ भागते-दौड़ते एंकर एंकर्स की फौज, उनकी अदाओं और नाज-नखरे को देखकर ऐसा लगता है कि आने वाले चन्द सालों में सच्चे और संजीदा एंकर की संख्या बहुत ही कम रह जाएगी। आजकल हर खूबसूरत लड़की एक पत्रकार नहीं बल्कि एंकर बनना चाहती है। एक सर्वेक्षण के अनुसार हर दस में से आठ लड़कियां एंकर बनना चाहती हैं और सिर्फ दो को ही पत्रकारिता पेशे से प्यार है। एंकर बनने का सबसे बड़ा फायदा ये है कि लड़कियां रातोंरात स्टार बन जाती हैं। उनका रूतबा ऐसा बढ़ता है कि वह वह मध्यमवर्गीय परिवार से आई कन्याओं के लिए रोल मॉडल बन जाती हैं। हैरानी की बात ये है कि ऐसी लड़कियों के मकसद के लिए उनके माता-पिता भी ऐड़ी-चोटी का जोर लगाते हैं ताकि कुछ भी हो टेलीविजन में काम करने के बाद उसकी शादी का रिश्ता तो बड़े घरों से आएगा और उसका घर तो बस जाएगा।

शायद यही वजह है कि न्यूज चैनलों के चन्दूखाने में संपादक से लेकर प्रोड्यूसर की चान्दी है क्योंकि वह अपनी स्क्रिप्ट को तो किसी भी लड़की से अपने मनमाने अन्दाज में पढ़वा सकते हैं और अगर लड़की ने ऐसा करने से इंकार कर दिया तो बस मिनटों में ही चैनल से उसकी छुट्टी हो जाती है।

न्यूज एंकर का खबर की संजीदगी को समझना, हर बात की अहमियत और हर शब्द का वजन तथा उसकी महत्ता से अपने आपको जोड़कर उसे अपने दर्शकों तक पहुंचाना कोई आसान काम नहीं है। इसके लिए एंकर को काफी मेहनत-मशक्कत करनी पड़ती है। इसके बाद ही दर्शक अपने आपको उस एंकर से जोड़ पाते हैं। उस जमाने के एंकर और आजकल के एंकर में शायद यही फर्क है।

एक वक्त था जब भूतपूर्व प्रधानमंत्री राजीव गांधी की मृत्यु की खबर दर्शकों को देते समय न्यूज एंकर सलमा सुल्तान खुद रो पड़ीं थीं। एक वह वक्त जब दिल्ली के उपहार सिनेमा अग्निकाण्ड विभीषिका पर खबर पढ़ते एसपी सिंह ने अपने साथ लाखों लोगों की आंखें आंसुओं से लबरेज कर दीं थीं। और एक आज का दौर है जब एक प्रतिष्ठित न्यूज चैनल की स्टार एंकर इराक के सीरियल बम विस्फोट में हुए 200 लोगों की मौत की खबर को मुस्कुराते हुए ऐसे पढ़तीं हैं मानों उनके छोटे भाई ने जैसे दिवाली पर पटाखे फोडे़ हों।

दरअसल आजकल के न्यूज एंकर की संवेदनहीनता और नासमझी की इसी बीमारी से आम दर्शक को डर लगने लगा है। आजकल खबरखोरी का बाजार किसी हलवाई की दुकान की तरह हो गया है, जहां खबर महज एक मैदा की लोई बनकर रह गई और उसको एंकर की चाशनी में डालकर किसी तरह से खेला, ताना और पकाया जा सकता है।
यह तो रही सामान्य खबर की बात। कई न्यूज चैनलों में क्राइम से सम्बंधित समाचार एंकर्स का परिवेश और उनका डरावना अन्दाज इतना भयानक है कि 10 साल का बच्चा उसे देखकर किसी मानसिक आघात का शिकार बन जाए। सनसनी तथा वारदात जैसे कार्यक्रमों के एंकर किसी डॉन से कम नहीं लगते और 'चैन से सोना है तो जाग जाओ' जैसे तकिया कलाम इतने बेहूदा और अटपटे लगते हैं जैसे एक ही सादे कागज पर पांच आदमी ने अलग-अलग कहानियां लिख दी हों जिसको पढ़ना संजीवनी का पहाड़ उठाने से कम नहीं।

आजकल न्यूज चैनलों की बाढ़ में एंकर्स की फसल इतनी घटिया इसलिए हो गई है कि खबर जैसी संजीदा चीज जैसे व्यापार बन गया हो और संवेदनाओं का मूल्य जैसे समाप्त होता जा रहा है। ऐसी स्थिति वाकई भयावह होती है। खूबसूरती की चकाचौंध कुछ पल की बिजली भले ही बिखेर दे मगर सच्चाई यही है कि सूरत से सीरत को बेहतर माना जाता है और श्रृंगार से ज्यादा संस्कार की कीमत होती है। लिहाजा, इस नई पीढ़ी के पैगम्बरों का फर्ज बनता है कि एंकर्स की इस फसल को यह समझाया जाए कि समाचार की संजीदगी और उसका वजन किसी खूबसूरत चेहरे या जिस्मानी चौहदी से ज्यादा भारी होता है।
ऐसी स्थिति लगभग हर टीवी चैनल में है जहां एक खास गिरोह या सिण्डिकेट बनाया जाता है ताकि अपने गिरोह के लिए प्रमोशन तथा संसाधनों के सीमित अवसर को हड़प लिया जाए। ऐसे गिरोह में शामिल सरस्वती पुत्र एक-दूसरे की तारीफ करते हैं। प्रमोशन दिलवाते हैं और संस्थान तथा न्यूज रूम में अपने नियन्त्रण को लगातार मजबूत करते रहते हैं। हर साल एक खास महीने में मीडियाकर्मियों का गिरोह चैनल क्यों बदलता है? और अपने लिए मुंहमांगी कीमत तथा संसाधन क्यों मांगता है? दरअसल इस तरह के सिण्डिकेट उस कैटरिंग के ठेकेदार की तरह हो गए हैं जिसे एक काम और जगह दे दिया जाए तो वे संपादक से लेकर एंकर और रिपोर्टर की टीम तक को लाकर अपना मनपसन्द व्यंजन यानी न्यूज सेटअप बनाकर इच्छानुसार खबरों की फसल को सुखा-पकाकर परोस देंगे और न्यूज एंकर उस फौज का महज एक छोटा प्यादा ही होगा।

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