गुरुवार, 18 फ़रवरी 2010

खबरिया चैनलों का सही चेहरा

खबरिया चैनलों का सही चेहरा
मैने अंग्रेजी पत्रकारिता में सन 1983 में कदम रखा जब जेएनयू में पीएचडी कर रहा था। वहीं से अखबारों तथा ‘मेन स्ट्रीम’ तथा ‘इकोनोमिक एण्ड पोलिटिकल’ वीकली में लिखना शुरू किया और आगे का रास्ता आसान होना शुरू होता गया। तब से लेकर मैं अंग्रेजी की पत्रकारिता में लिप्त होता गया और उसी भाषा में हंसने रोने से लेकर रेंकने-भोंकने तक की बारीकियां सिखने लगा। मगर वहां अपने एक साथी डॉ कुमार नरेंद्र सिंह की बात हमेशा सालती रही ‘अंग्रेजी के आसमान में चाहे जितना उड़ो मगर हिन्दी की जमीन कभी मत छोड़ना’।
सन 2007 की फरवरी में पहली बार एक वाक्या ने मेरी संजीदगी की रीढ़ पर वज्र प्रहार किया और मैं हिंदी के हिंडोले में आ गिरा। हंस नामक नामचीन पत्रिका में जनवरी 2007 में एक विशेषांक छपा जो अचानक कहीं से हाथ लगा और उसको पढ़ने के बाद फौरन उसकी समीक्षा करने की ललक जाग उठी। सोचा, शायद इसी बहाने हिंदी में लिखने की आदत लग जाए। मैंने उस पत्रिका में छपे लेखों के संकलन पर एक समीक्षा लिख मारी। और उसकी एक प्रति हंस पत्रिका के संपादक के दफ्तर में छोड़ आया। कई वरिष्ठ पत्रकारों के मुंह से सुन रखा था कि हंस के संपादक सही मायने में सरस्वती पुत्र हैं और वो सच छापने से कभी नहीं डरते। मगर मैं सच का इंतजार करता ही रहा....
खैर, एक दो और नामचीन अखबरों के संपादकों को भी मैंने इसकी प्रति प्रकाशन के लिए भेजी। कुछ का जवाब नहीं आया, पर एक दो संपादकों ने वापस फोन कर के कहा, ‘बन्धुवर आपकी समीक्षा कमाल की है पर छपने योग्य नहीं। मैं इसे छापकर उन लोगों से बैर मोल नहीं ले सकता। आखिर उनके चैनलों में भी तो जाना पड़ता है’।
मैं हैरान था कि इस समीक्षा के अंदर कौन सा बम या विस्फोटक था जो इतना खतरनाक हो गया। मेरे विचार में या सोचने के तरीके में मतभेद हो सकता है मगर पत्रकार विरादरी में किसी से कोई झगड़ा या दुश्मनी तो है ही नहीं। फिर क्या बात हो गई? क्या समीक्षा लिखना इतना बड़ा संगीन अपराध हो गया?
फिर एनडीटीवी में ही एक साथी ने राय दी कि ये जनसत्ता के संपादक
प्रभाष जोशी जी को भेज दो। मगर एक हफ्ते के बाद उनका फोन आया
‘महराज ये क्या किया है आपने? इसे पढ़कर आगे आपको नौकरी कौन देगा? अपने पांव पर क्यों कुल्हाड़ी मार रहे हो भाई?’
फिर मन खराब हो गया और मैंने ठान लिया कि हिंदी में दोबारा कुछ नहीं लिखूंगा। दो दिन पहले अचानक उसकी पांडूलिपी कमरे में पड़े कागज के ढेर में नज़र आई।
फिर मैंने सोचा कि इसके पहले ये किसी कबाड़ी के यहां या किसी परचून की दूकान पर ‘ढोंगा’ के तौर पर अपनी इज्जत नीलाम करे, इसको अपने ब्लॉग पर ‘जस की तस’ डाल देना ही श्रेयकर है। कम से कम पत्रकारों की इस पीढ़ी में तो इस पर निगाह डालेगा और इसे ‘हस्ताक्षर’ नहीं तो ‘हाशिय़े’ का एक कोना तो मानेगा।

कोई टिप्पणी नहीं:

एक टिप्पणी भेजें