गुरुवार, 25 मार्च 2010

कुंभ का दंभ भाग-2

यूनान, मिश्र, रोमयां सब मिट गए जहां से,
बाकि मगर है अब तक नामोनिशा हमारा।
कुछ बात है कि हस्ती मिटती नहीं हमारी,
सदियों रहा है दुश्मन, दौरे जहां हमारा।
सच्चे अर्थो में वो हस्ती ब्राह्मण शक्ति ही है जिसने भारत की संस्कृति को अक्षुण बनाए रखा। हमारे संस्कृति और संस्कार की नीव इतनी मजबूत है कि इतिहास के हजारों थपेड़ों को बर्दाश्त करते हुए वो आज भी कायम है। और इसमें ब्राह्मणों के योगदान महत्वपूर्ण है।
ब्राह्मण समाज का इतिहास प्राचीन भारत के वैदिक धर्म से आरंभ होता है। मनु स्मॄति के अनुसार आर्यवर्त वैदिक लोगों की भूमि है ब्राह्मण व्यवहार का मुख्य स्रोत वेद हैं। ब्राह्मणों के सभी सम्प्रदाय वेदों से प्रेरणा लेते हैं। पारंपरिक तौर पे यह विश्वास है कि वेद अपौरुषेय ( किसी मानव या देवता ने नहीं लिखे ) तथा अनादि हैं, बल्कि अनादि सत्य का प्राकट्य है जिनकी वैधता शाश्वत है। वेदों को श्रुति माना जाता है ( श्रवण हेतु , जो मौखिक परंपरा का द्योतक है )।
ब्राह्मण शास्त्रों में प्रमुख हैं अग्निरस , अपस्तम्भ , अत्रि , बॄहस्पति , बौधायन , दक्ष , गौतम , हरित , कात्यायन , लिखित , मनु , पाराशर , समवर्त , शंख , शत्तप , ऊषानस , वशिष्ठ , विष्णु , व्यास , यज्ञवल्क्य तथा यम।
अनेक वर्षो से ब्रह्मण का निर्धारण माता-पिता की जाती के आधार पे ही होने लगा है। वैदिक शास्त्रों मैं साफ़-साफ़ बताया है
जन्मना जायते शुद्रः
संस्कारात भवेत् द्विजः |
वेद-पठत भवेत् विप्र
ब्रह्म जनातति ब्राह्मणः |
अर्थात जन्म से मनुष्य शुद्र, संस्कार से द्विज (ब्रह्मण), वेद के पाठन-पाठन से विप्र और जो ब्रह्म को जनता है वो ब्राह्मण कहलाता है।
समोदमस्तपः शौचम् क्षांतिरार्जवमेव च |
ज्ञानम् विज्ञानमास्तिक्यम् ब्रह्मकर्म स्वभावजम् ||
अर्थात ब्राह्मण का स्वभाव चित्त पर नियन्त्रण, इन्द्रियों पर नियन्त्रण, शुचिता, धैर्य, सरलता, एकाग्रता तथा ज्ञान-विज्ञान में विश्वास है। वस्तुतः ब्राह्मण को जन्म से शुद्र कहा है। ब्राह्मण को ब्रह्म का ज्ञान जरुरी है। केवल ब्राह्मण के घर पैदा होने से ब्राह्मण नहीं होता ।
अध्यापनम् अध्ययनम् यज्ञम् यज्ञानम् तथा |
दानम् प्रतिग्रहम् चैव ब्राह्मणानामकल्पयात ||

इस श्लोक में ब्राह्मण के छह कर्त्तव्य बताए गए हैं शिक्षण, अध्ययन, यज्ञ करना , यज्ञ कराना , दान लेना तथा दान देना।
शास्त्रों में ब्राह्मणों के सोलह प्रमुख संस्कार बताए गए हैं। जन्म से पूर्व गर्भधारण , पुन्सवन (गर्भ में जीव को ईश्वर को समर्पित करना ) , सिमन्तोणणयन । बाल्यकाल में जातकर्म ( जन्मानुष्ठान ) , नामकरण , निष्क्रमण , अन्नप्रसन , चूडकर्ण , कर्णवेध। बालक के शिक्षण-काल में विद्यारम्भ , उपनयन , वेदारम्भ , केशान्त अथवा गोदान , तथा समवर्तनम् या स्नान ( शिक्षा-काल का अन्त )। वयस्क होने पर विवाह तथा अन्त्येष्टि प्रमुख संस्कार हैं।
दक्षिण भारत में ब्राह्मणों के तीन सम्प्रदाय हैं - स्मर्त सम्प्रदाय , श्रीवैष्णव सम्प्रदाय तथा माधव सम्प्रदाय।
आधुनिक भारत के निर्माण के विभिन्न क्षेत्रों , जैसे साहित्य , विज्ञान एवम् प्रौद्यौगिकी , राजनीति , संस्कॄति , पाण्डित्य , धर्म में ब्राह्मणों का अपरिमित योगदान है | प्रमुख क्रांतिकारी और स्वतंत्रता-सेनानियों में बाल गंगाधर तिलक, चंद्रशेखर आजाद इत्यादि हैं। लेखकों और विद्वन में कालिदास, रविन्द्रनाथ टैगोर ब्राह्मण ही थे।
लेकिन समय के साथ-साथ ब्राह्मण पथ भ्रष्ट होते जा रहे हैं। अपनी विशिष्ता खोते जा रहे हैं। और आज हालत ये हो गई है कि समाज में ब्राह्मणों की हालत दयनीय हो गई है। उसका जिम्मेदार खुद ब्राह्मण ही है कहा जाता है कि नदी की पहचान तभी तक रहती है जब वो अपनी विशिष्टता को कायम रखते हुए, निस्वार्थ भाव से बहती है लेकिन जैसे हि नदी सागर में जाकर मिलती है उसकी पहचान को जाती है। उसका अस्तित्व विलीन हो जाता है। वही हाल ब्राह्मणों का है मॉर्डन बनने के चक्कर में आज ब्राह्मण अपनी खान-पान, मान-मर्यादा सभी को छोड़ कर समाज में विलीन हो गया है। ब्राह्मण सिर्फ नाम के ब्राह्मण रह गये है।
सन 2002 में दिल्ली में अखिल भारतीय ब्राह्मण सम्मेलन के दौरान देखा गया की ब्राह्मणों के खुद अपने ही हित में विचार एक नहीं हो पाए। वहां कुछ ब्राह्मणों ने ब्राह्मणों के लिए आरक्षण का मुद्दा उठाया लेकिन देश के कोने-कोने से सम्मेलन में आए ब्राह्मणों के बीच आरक्षण के मुद्दे पर आम राय नहीं बन पायी। कई और मामलों पर सिर्फ हो हल्ला हुआ और बिना किसी नतीजे के ब्राह्मण सम्मेलन समाप्त हो गया।
सिंहों के लेहड़े नहीं, हंसों की नहीं पात।
लालन की नहीं बोरियां, साधु ना चले जमात।।
अर्थात शेरों का झुंड नहीं होता, हंसों कभी पंक्ति बना कर नहीं उड़ते, हीरे, मोतियों को बोरियों में नहीं रखा जाता, और साधु अर्थात ब्राह्मण कभी भीड़ में नहीं चलते।
लेकिन आज ब्राह्मण भीड़ में खो गया है। समाज के बाकी लोगों की नकल करते-करते अपनी अक्ल खो बैठा है। एक जमाने में राजा के दरबार में जब ऋषि पहुंचते थे तो राजा खुद सिंहासन छोड़कर उनके स्वागत में द्वार तक आता था। कहते है कि यदि ब्राह्मण क्रोध में किसी के दरवाजे पर अपना जनेऊ तोड़कर फेंक देता था तो उसके कुल का नाश हो जाता था। खुश होकर किसी को आशीर्वाद दे देता तो उसकी सभी मनोकामनाएं पूरी हो जातीं थीं। कहा जाता है कि...
ऐसाम न विद्या, न तपो न ज्ञानम्।
धनम् न शीलम, न गुणों न धर्म:।
ते मृत्यु लोके भूमि भारभूता:।
मनुष्य रूपेण मृगाश्चरन्ति।।
अर्थात जिन लोगों के पास न विद्या है, न तप, न ज्ञान है, न धन है, न शील है, न गुण है, न धर्म है ऐसे लोग धरती में भार के समान हैं और मनुष्य के रूप में हिरण के समान विचरण कर रहे हैं। आज ब्राह्मणों की यही हालत है इन ऋषि कुमारों को पता नहीं आज किसकी नज़र लग गई है। कि उनके पास न विद्या है, न तप है, ज्ञान है, न सत्य है, न आचरण है, न शील है ब्राह्मण के कोई गुण नहीं है सिर्फ नाम के ब्राह्मण रह गए।
यही वजह की वर्तमान समाज में सबसे ज्यादा दुखी, परेशान ब्राह्मण समाज के लोग है। और समय के साथ-साथ पिछड़ते जा रहे हैं। एक ब्राह्मण दूसरे ब्राह्मण को आगे बढ़ते हुए नहीं देख सकता। हर क्षेत्र में चाहे वो साधु समाज हो, शंकराचार्य हो, अखाड़े वाले हो नौकरी-पेशा या राजनीति हर क्षेत्र में एक ब्राह्मण दूसरे ब्राह्मण की जड़ काटने में सबसे आगे है।
दरअसल ब्राह्मण ने अपना असली चोला छोड़ दिया है। धर्म के नाम पर ढोंग, धोखा, साधुता के नाम पर दंभ और मिथ्या अहंकार, संन्यास (समन्वय+न्यास) की जगह छल-कपट आज के साधु-संतों और पाखंडी ब्राह्मणों की असली पहचान है।
धर्म का तेजी से बाजारीकरण हो रहा है। कुंभ का पवित्र स्थल बाबाओं और तथाकथित साधु-संतों ने बड़े-बड़े पोस्टरों पटा पड़ा है। हर संत इतना असंत हो गया है कि उसको अपना पहचान के लिए बड़े-बड़े पोस्टरों का सहारा लेना पड़ता है। कुंभ के पवित्र स्थल में अपनी-अपनी दूकान लगा कर भगवा वेषधारी असली बनिए बैठे है जिनका एक ही उद्देश्य लगता है- देश-विदेश से आने वाली जनता को जिनता लूट सके तो लूट लें। दान के नाम पर मिले धन से ये महा तपस्वी दिखने वाले साधु-संत महंगी-महंगी कारें, हथियार, गांजा इत्यादि खरीदते हैं और मौका मिलते ही अय्याशी की सारी हदे पार करने में देर नहीं करते।
कुंभ में बाबाओं की दादागीरी और लाठी का वर्चस्व साफ देखा जा सकता है। इन अखाड़ों की स्थापना का उद्देश्य भारत पर आक्रमण करने वाले आक्रमणकारियों से देश की रक्षा करना था। भारत की संस्कृति और संस्कारों की आदर्श प्रस्तुत करते हुए उसे अक्षुण बनाए रखना था। लेकिन समय के साथ-साथ इन धर्म के कई अखाड़े अब अधर्म के अड्डों में दबदील हो गए हैं। इनका दंभ धर्म की छाती को छलनी कर देता है। उनके ऐशोआरम को देख कर धर्मपरायण हिंदू समाज की बोली भाली जनता का मन पीड़ा से भर जाता है। हर सच्चे इंसान का मन साधु-संतों के द्वारा हिंदू संस्कृति और संस्कारों का पतन देखकर आत्मग्लानि से भर जाता है। और पावन कुंभ से साधु-संतों के दंभ की छाप की पीड़ा समेटे आम जनमानस अपने गांव और शहर लौट जाते हैं। अंत में यह स्पष्ट करना जरूर है की हर साधु-संत और अखाड़े ऐसे नहीं। पर एक मछली सारे तालब को गंदा कर देती है। इसलिए तालाब को साफ रखने के लिए ऐसी मछली को उसकी सही जगह बता दी जाए ?

कुंभ का दंभ भाग-1

अश्वमेघ सहस्त्राणि वाजपेयशतानि च।
लक्षं प्रदक्षिणा भूमे: कुम्भ स्नानेन तत्फलम्।। (श्रीविष्णु पुराण)
अर्थात सहस्त्रों अश्वमेघ यज्ञ करने से, सैंकड़ों वाजपेय यज्ञ करने से और लाख बार पृथ्वी की प्रदक्षिणा करने से जो फल प्राप्त होता है, वह पुण्य फल केवल कुम्भ स्नान से प्राप्त होता है।
कुंभ महापर्व की परंपरा अत्यन्त प्राचीन है। कुंभ पर्व भारत की प्राचीन गौरवमयी वैदिक संस्कृति एंव सभ्यता का प्रतिनिधित्व करता है। इस महापर्व के अवसर पर सारे भारत से ही नहीं, अपितु विश्व के अनेक देशों से असंख्य धर्मपारायण श्रद्धालुगण एकत्र होकर स्नान, दान, तपादि करते हैं।
हरिद्वार, प्रयाग, उज्जैन और नासिक में बारहवें वर्ष कुंभ पर्व का आयोजन होता है। हरिद्वार और प्रयाग (इलाहाबाद) में दो कुंभ पर्वों के बीच 6 वर्ष के अंतराल में अर्धकुंभ होता है।
पद्मिनी नायके मेषे कुम्भ राशिगते गुरौ।
गंगाद्वारे भवेद्योग: कुम्भनामा तदोत्तम:।। (स्कन्द पुराण)
अर्थात जिस समय बृहस्पति कुम्भ राशि पर स्थित हो और सूर्य मेष राशि पर रहे, उस समय गंगाद्वार (हरिद्वार) में कुंभ योग होता है।
कुंभ पर्व की परम्परा मूल रूप में मनुष्य के द्वारा रत्नों, धन-ऐश्वर्य, सुख-आरोग्य, आत्म-ज्ञान एंव अमरत्व की इच्छाओं से जुड़ी हुई है। वेद-पुराण आदि ग्रन्थों में इन अदम्य इच्छाओं से संबंधित अनेक कथाएं वर्णित हैं। जिसमें भगवान शिव व गंगा जी की कथा, महर्षि दुर्वासा की कथा और समुद्र-मंथन की कथा प्रसिद्ध हैं।
इन सब कथाओं में सबसे प्रचलित आख्यान समुद्र मंथन की कथा है। स्कन्द पुराण में वर्णित कथा के अनुसार देवताओं और दानवों के बीच अमृत-कुंभ प्राप्ति के लिए समुद्र में ‘मन्दराचल पर्वत’ को मथानी एंव ‘वासुकि’ नाग को रस्सी बनाकर समुद्र मंथन किया गया। इस समुद्र मंथन में कालकूट विष, ऐरावत हाथी, पारिजात वृक्ष, श्री लक्ष्मी सहित अनेक दिव्य एंव दुर्लभ वस्तुओं के बाद महाविष्णु धनवन्तरि के हाथों में शोभित अमृत-कलश प्रकट हुआ।
समुद्र से अमृत कलश जैसे ही निकला देवताओं के इशारे पर इंद्र पुत्र जयंत अमृत कलश लेकर आकाश में उड़ गया। दैत्यगण जयंत का पीछा करने लगे। अमृत कलश को पाने के लिए देवताओं और दैत्यों के बीच 12 दिन तक लगातार युद्ध हुआ। इसके बाद भगवान विष्णु ने मोहिनी अवतार लेकर अमृत को देवताओं में बांटा। इस युद्ध के दौरान पृथ्वी के चार स्थान प्रयाग, हरिद्वार, उज्जैन और नासिक में अमृत कलश से अमृत की बूंदें गिरी थीं। इन चारों स्थानों पर कुंभ महापर्व मनाया जाता है।
पुराण के अनुसार अमृत कुंभ की रक्षा में बृहस्पति, सूर्य व चंद्रमा ने विशेष सहायता की थी। चंद्रमा ने अमृत के कुंभ से गिरने से, सूर्य ने कुंभ को फूटने से और बृहस्पति ने असुरों द्वारा अमृत कलश के अपहरण होने से तथा शानि ने देवराज इंद्र के भय से अमृत कुंभ की रक्षा की थी। इसी कारण सूर्य, चंद्र और बृहस्पति तीनों ग्रहों के विशेष योग में ही कुंभ महापर्व मनाया जाता है।

न वेदव्यवहारों यं संश्रव्यं शूद्रजातिषु।
तस्मात्सृजापरं वेदं पंचमं सार्ववर्णिकम्‌।।

अर्थात कुंभ का महत्व सभी वर्णों के लोगों के लिए समान है। किसी वर्ण का गंगा स्नान अथवा कुंभ-स्नान में निषेध नहीं है। वर्णेत्तर लोग भी कुंभ स्नान करते रहे हैं। ऐसी पौराणिक मान्यता है कि भगवान विष्णु के चरणों से चौथे वर्ण की उत्पत्ति हुई है और गंगा भी विष्णु के चरणों से निकली हैं। इस प्रकार कुंभ हर प्रकार के भेदभाव का निषेध करता है। कुंभ में सभी जाति, वर्ण और संप्रदाय के लोग एक साथ एक ही घाट में स्नान करते हैं। देखा जाए तो कुंभ मानव को मानव से प्रेम करने, साथ चलने, साथ रहने, अपने लक्ष्य की साथ मिलकर प्राप्ति करने का संदेश देता है। कुंभ के दौरान देश के कोने-कोने से हर जाति, संप्रदाय के लोग स्नान के लिए आते हैं। कुंभ स्थल में मानव मिलन का अद्भुत दृश्य देखा जा सकता है। सही मायने में मानव का मानव से प्रेम, सदभाव और सेवा किसी अमृत से कम नहीं हैं। शायद इसीलिए सैकड़ों वर्षो से हमारे पूर्वज लगातार देश के कोने-कोने से महीनों पैदल यात्रा करके कुंभ स्थल पर पहुंचे रहे हैं। और कुंभ अनेकता में एकता का अमृत रस भरता रहा है।
शास्त्रम श्रुतेनैव नतु कुंडलेन, दानेन पाणिन नतु कंकणेन।
विभातिकाया करुणापराणांम, परोपकारेण नतु चंदनेन।।
अर्थात हमारे कान शास्त्रों को सुनने के लिए हैं कुंडल पहनने के लिए नहीं। हमारे हाथ दान करने के लिए हैं मोटे-मोटे कड़ा या चूड़ा पहने के लिए नहीं, ये शरीर परमात्मा ने हमें परोपकार करने के लिए दिया है सेंट, चंदन और सुगंधित इत्र से मालिस करने के लिए नहीं। आम जनता से नहीं पर साधु और संत समाज से तो ये अपेक्षा की ही जा सकती हैं कि वो शास्त्र सम्मत जीवन बिताएं और समाज के सामने आदर्श प्रस्तुत करें। कुंभ के पावन मौके पर सबसे से ज्यादा पीड़ा कुछ अखाड़ों के साधु-संतों के व्यवहार, गणवेश और दंभ को देखकर होती है। संतों के बारे में कहा गया है कि
तरुवर फल नहीं खात हैं, सरवर पियत न नीर।
परामार्थ के कारणें संतन धरा शरीर।।
लेकिन कुंभ में कुछ अखाड़े वाले साधुओं की अकड़ देखकर ऐसा लगता है ‘परामार्थ के कारणें संतन धरा शरीर’ की बात छलावा है। घोड़े पर सवार, काला चश्मा लगाए, हाथ में बंदूक लिए ये अखाड़े के साधु किसी फिल्म के डाकू से कम नहीं लगते हैं और जहां उनके मुंह से वेद मंत्र निकलने चाहिए वहां अपने प्रतिद्धंदी अखाड़े वाले दूसरे साधुओं के लिए गालियां निकलती हैं। हथियारों से लैश ये अखाड़ची साधु पवित्र कुंभ स्थल पर ऐसे फायरिंग करते है जैसे भारत-पाकिस्तान के बीच युद्ध हो रहा हो। और इनकी दंभ भरी फायरिंग में कई बार निर्दोष जनता की जान चली जाती है। पर जटा-जुट धारी दैत्यों जैसे दिखाने वाले इन साधुओं के किंचित दुख नहीं होता। पता नहीं ये किस मिट्टी के बने होते हैं इन्हें अखाड़ों में कैसी शिक्षा-दीक्षा दी जाती है कि ये आम जनता का दुख-दर्द समझना तो दूर की बात है उनसे प्रेम से बात तक नहीं करते। इनकी वाणी इतनी कर्कश और अहंकार भरी होती कि कुंभ में स्नान और साधु संतो के दर्शन के लिए देश के कोने-कोने से आई जनता इनसे कोसो दूर भागती है। और भगवान से प्रार्थना करती है कि कुंभ में किसी अहंकारी, दंभी साधु से सामना न हो।
महाकुंभ का मुख्य आकर्षण शाही स्नान होता है । हजारों, लाखों की संख्या में साधु संतों की टोली एक साथ पवित्र नदी में स्नान के लिए निकलती है । इस स्नान में अठारह अखाड़ों के साधु एकत्रित होते हैं । तपोनिधि निरंजनी अखाड़ा, पंचदशनाम जूना अखाडा, उदासीन पंचायती अखाड़ा, निर्मल पंचायती अखाड़ा, पंचायती अखाड़ा, निर्मोही अखाड़ा, निर्वाणी अखाड़ा, दिगंबर अखाड़ा, पंच अटल अखाड़ा, महानिर्वाणी पंचायत अखाड़ा, अग्नि अखाड़ा आदि अखाड़ों के साधुओं का प्रतिनिधित्व वैष्णव अखाड़ा करता है । शाही स्नान के पश्चात इन अखाड़ों की भव्य झांकी आयोजित की जाती है, जिसमें साधुओं की शोभायात्रा को देखने के लिए भारी संख्या में श्रद्धालु जुटते हैं। ये परपंरा अनेक वर्षो से चली आ रही है। सबसे दुख की बात ये हैं कि जिन साधु संतों को जनता देव तुल्य समझती है वही साधु-संत पावन कुंभ में लड़ते-झगड़ते दिखाई देते हैं। शाही स्नान को लेकर अखाड़ों के बीच मारकाट मच जाती है। एक संत दूसरे संत को जान से मार देता है अमृतमयी कुंभ में खून की धारा बह जाती है। जिन साधु-संतों की जनता पूजा करती है उन्हें आपस में लड़ता देखकर जनता को बहुत दुख होता है। और उनका हृदय रो पड़ता है। जब अखाड़ों की भव्य झांकी निकलती है तो कई अखाड़े के साधु शक्ति प्रदर्शन करने के लिए हवा में गोलियां चलाते हैं, सैकड़ों बंदूकें, पिस्तौलों से फायरिंग की जाती है। गोली चलाने वाले साधुओं के हाव-भाव और दंभ देखकर लगता है कि ये दूसरे अखाड़े के साधुओं से खुद को श्रेष्ठ साबित करने के लिए किसी हद तक जा सकते हैं। लेकिन सवाल ये उठता है कि अहंकार दिखाने, गोली चलाने और निर्दोष जनता का खून बहा कर कोई अखाड़ा कभी श्रेष्ठ बन सकता है ? क्या अखाड़ों की झांकी बिना शक्ति प्रदर्शन के शांति और सौम्यता से नहीं निकाली जा सकती ? क्या साधु-संत आम जनता से प्रेमपूर्वक बात नहीं कर सकते ? क्या जरूरी है कि शाही स्नान में पहला हक सिर्फ इन अखाड़ची साधुओं का है ? क्या ये सभी अखाड़े वाले और प्रशासन के कर्ताधर्ता मिल कर देश के कोने-कोने से आई भोली-भाली गृहस्थ जनता को सबसे पहले शाही स्नान का हक नहीं दे सकते ? ऐसे कई सवाल है जो महाकुंभ के साधुओं का दंभ देखकर मन में उठते हैं और हमें सोचने पर मजबूर करते हैं।
वहीं दूसरी तरफ 18 पीठ के शंकराचार्यों ने भले ही अपने कुनबों के सिपहसालार से लेकर सेनापतियों के पाप गंगा में धो दिए होंगे पर क्या इन्होंने खुद सेनापति होने तक का दायित्व निभाया या नहीं ये चर्चा का विषय होना चाहिए। कुंभ स्नान से किसको फायदा होता है ये चर्चा का विषय है हरिद्वार शहर की चकाचौंध से लेकर तबाही तक का नजारा ये सोचने पर मजबूर करता है कि क्या कुंभ सचमुच हिंदू सभ्यता और हिंदू धर्म के संस्कारों के मापदंड की पराकाष्ठा है या फिर वो धर्म के नाम उद्योग की सबसे बड़ी त्रासदी है ?
एक तरफ जहां उत्तराखंड की सरकार कुंभ मेले के पहले हरिद्वार शहर के विकास और चकाचौंध के लिए 600 करोड़ रुपये खर्च करती है वहीं शंकराचार्य और साधु समाज का गिरोह 17 हजार करोड़ रुपये का कारोबार करता है। ऐसे में एक आम आदमी ये सोचने पर मजबूर हो जाता है कि क्या इन अखाड़ों का महत्व सिर्फ हरकी पौड़ी को रक्तरंजित करने के लिए रह जाता है या फिर मानव समाज के कल्याण के लिए ?
इन शंकराचार्यों की आपसी लड़ाई और उसका त्रासदी पूर्ण नजारा इस बात की ओर इंगित करता है कि ‘वसुधैव कुटुंबकम’ का यह ‘धारति सह धर्म:’ का पाठ पढ़ने और पढ़ाने वाले अपनी जिम्मेदारी भूल कर बनिए की तरह श्रद्धालुओं को नए-नए तरीके से लुभाते हैं और कभी-कभार उनका दीन और इमान दोनों लूट कर चले जाते हैं। (जारी है)

खबरिया चैनलों में त्योहारों का मौसम

खबरिया चैनलों में त्योहारों का मौसम
भारत त्योहारों का देश है हमारे देश में वर्ष भर एक-एक करके त्योहार आते हैं और हमारे जीवन को हर त्योहार नई ताजगी देता है। लोग महीनों से त्योहार का इंतजार करने लगते हैं और साथ में तैयारी भी करते हैं कि इस दीवाली में नया क्या खरीदेंगे, इस बार क्रिसमस में कौन सी नई जगह घूमने जाएंगे। इसी तरह नाना प्रकार के प्रोग्राम लोग वर्षो से बनाते चले आ रहे हैं और हर त्योहार का पूरा लुत्फ उठाने की कोशिश भी करते हैं।
खबरों के भूखे खबरिया चैनल खूंखार शेर की तरह खबरों की तलाश में रहते हैं। जैसे ही उन्हें पता चलता है कि होली आने वाली है तो बाजार में रंग बिकने बाद में शुरू होते हैं, खबरिया चैनल उससे पहले होली के त्योहार को बेचना शुरू कर देते हैं। हर खबरची चाणक्य को ये डर सताता रहता है कि कहीं मेरी दुकान जमने से पहले दूसरा चैनल होली के त्योहार को न बेचना शुरू कर दे और मुझे जूठी थाली चाटनी पड़े। इसी भागम-भाग में होली के कई दिन पहले से चैनलों में गुलाल उड़ने लगता है तड़का मारकर ऐसे-ऐसे चटकीले होली के प्रोग्राम दिखाते है कि ऐसा लगता कि इनका बस चलता तो टीवी से निकल कर दर्शक को गुलाल और रंग से लाल कर आते। पर बेचारा दर्शक खबर की तलाश में रिमोट से चैलन बदल-बदल कर वैसे ही लाल हो जाता है।
त्योहार को बेचने के लिए चैनल के चतुर हलवाई ज्योतिषियों को अपना सेल्समैन बनाकर एंकर के साथ बैठा देते हैं एंकर महोदया ज्योतिषी महोदय से ऐसे सवाल करती हैं जैसे उन्होंने पहली वार होली के त्योहार का नाम सुना हो, एंकर महोदया ‘पंडित जी हमें होली के बारे में कुछ बताइए ‘ फिर पंडित जी ऐसे शुरू हो जाते हैं जैसे होली में अभी-अभी पीएचडी करके लौटे हों। ग्राफिक्स के गुर्गे रंगों से टीवी स्क्रीन को बदरंग बनाने में कोई कसर नहीं छोड़ते। वो रह रह कर दूसरे चैनल देखते रहते हैं कि दूसरा चैनल कितनी बड़ी पिचकारी से कितनी दूर तक रंग की मार कर रहा है। उनकी कोशिश होती है कि उनकी मिसाइल दूसरे चैनल से लंबी हो और दूसरे चैनल से ज्यादा रंग फेंके टीवी स्क्रीन पर विजुअल जाए तेल लेने। होली को बेचने की ऐसी सनक टीवी चैनल पर चढ़ी होती है जैसे पूरे देश में सिर्फ टीवी चैनलों को होली मनाने का टेंडर दे दिया गया हो।
फिल्मी सितारों की होली इनके लिए प्रोग्राम में भांग का काम करती है जैसे ही विजुअल आए चतुर हलवाई उसको घोंटना शुरू कर देंते है। और ऐसा प्रोग्राम बनाते है कि अगली बार फिल्मी सितारे होली खेलने से पहले सौ बार सोचते हैं। किस हीरो ने किस हेरोइन को रंग लगाया, कैसे रंग लगाया, रंग खेलते वक्त हेरोइन ने कैसे कपड़े पहने थे? वो कितनी सेक्सी लग रही थी? किसके साथ ज्यादा होली खेल रही थी किसके साथ कम। ये सब भांग की तरह घोंट-घोंट कर बार-बार दिखाते हैं।
चैत्र की शुरुआत होते-होते नवरात्र का बुखार चैनलों के सिर पर चढ़कर बोलने लगता है और फिर हर दिन नए-नए पंड़ित अपनी-अपनी बुद्धि का बखान ‘बमबारी’ के तौर पर करने लगते हैं। हर नई तिथि को पंडित जी महाराज हर राशि की चौहद्दी क्षणभर में नाप लेते हैं और विभिन्न प्रकार के उपाय अपने दर्शकों को बाबा रामदेव के योगआसन की तरह अपने दर्शकों को बताने लगते हैं। कुछ चैनल हर दिन की पूजा से जुड़ी हुई विधियां और व्याधियां दोनों का घमासान मचाते हैं, तो कुछ चैनल दिन के हिसाब से राशियों को तराजू पर तौल कर उनके भार के मुताबिक प्रार्थना, पुनश्चरण तथा पुर्नस्थापन का राग अलापते हैं। एकआध चैनल तो तीन प्रहर की लंबाई-चौढ़ाई और गहराई माप कर दर्शकों के प्रश्न पर धोनी की तरह छक्के लगाते हुए दिखाई देते हैं। किसी चैनल में एक पंडित दुर्गा के नाम पर ही लक्ष्मी का आवाहन करवा देते हैं। तो दूसरा चामुंडा या शैलपुत्री से कुबेर के घर में डाका डालने की तरकीब बताते हैं। कुछ एक पंडित नवरात्र को भगवान श्रीराम के जन्म से जोड़ते हैं। तो कुछ एक धर्माधिकारी चैत्र की बयार को रवि फसल की कटाई से जोड़ देते हैं।
कुल मिलाकर नवरात्र के नौ दिनों में हिंदू सभ्यता के सारे अध्याय दीमक की तरह चट कर जाते हैं और देवी-देवताओं के प्रति आस्था की वजाए डर की कील ज्यादा ठोंकते हैं।
इसी बीच में कहीं गुडी पर्व आ गया तो विशेषकर मराठी लोगों के लिए क्या करें, क्या न करें का पाठ सुबह से शाम तक चलता है तो कर्नाटक और आंध्रप्रदेश के लोगों के लिए ‘युगादि’ की महत्ता और उस अवसर पर गन्ना तथा नीम खाने के महत्व का बखान होता है।
उसके बाद से लेकर सावन तक तो कुछ माहौल ढीला सा रहता है उसके फौरन बाद जब त्योहारों की झड़ी लगने लगती है तो कई खबरिया चैनलों में विशेष कार्यक्रमों की बारिश उसी रफ्तार से होने लगती है। कोई चैनल नाग पंचमी के अवसर पर स्टूडियों में ही सपेरा पकड़ कर ले आता है और उसकी बीन पर चैनल मालिक के साथ चैनल के पदाधिकारियों की फौज भी ‘नगीना’ फिल्म में श्रीदेवी की तरह नाचने लगते हैं। वैसे भी हमारा भारत कई मामलों में बड़ा ही अजीबो-गरीब देश है जहां चींटी से लेकर चूहा या फिर गाय से लेकर हाथी तक की पूजा और उसके फल का महात्म भी बड़े-बड़े ग्रंथो में वर्णित है तो बेचारी जनता क्या करे।
हमारे खबरिया चैनलों के बादशाह इस बात से भली-भांति परिचित हैं कि धर्म के नाम पर कोई भी लीला या नौटंकी कर लो जनता हर मौके पर हाथ जोड़े और सिर झुकाए हमेशा खड़ी रहती है। इसीलिए बड़े-बड़े त्योहारो के बावत हर किस्म का ब्यंजन परोसने के लिए अलग-अलग इलाके से चौंका देने वाले विशेषज्ञ को बुलाने की कवायद शुरू हो जाती है। और इनमे से जो विशेषज्ञ या पंडित सर्कस के जोकर की तरह दर्शकों को रिझाने में कामयाब हो गए तो उनसे बड़ा बाजीगर कोई नहीं।
कई चैनलों के मालिक इस बात को अच्छी तरह जानते हैं कि क्रिकेट मैच के बाद सबसे ज्यादा कोई चीज उन्हें छोटे पर्दे पर पसंद आती है तो वो है त्योहारों का मौसम। इसलिए वो हमेशा ऐसे लोगों की तलाश में रहते हैं जिनके चमत्कारी कारनामे चैलन में चार चांद लगाते रहें।
या फिर उनके पास ऐसा कोई और नया नुस्खा हो जिसका पेड़ एक ही दिन में बड़ा होकर पूरे टीवी स्क्रीन को ढक ले। इसलिए ऐसा अक्सर देखा गया कि श्रवण से लेकर दीपावली के बीच जितने बड़े छोटे त्योहार होते हैं वो कई खबरिया चैनल के लिए संजीवनी बूटी की तरह काम कर जाते हैं। अब ये उस चैनल विशेष पर निर्भर करता है कि वो किस त्योहार विशेष के आटे में कितना ज्यादा गुड़-शक्कर डाले और उसमें कितनी आंच दे ताकि कार्यक्रम का हलवा और जलेबी दिन भर पकता रहे और दर्शक झोला भर भर कर अपने घर के साथ-साथ मुहल्ले भर में सबको बांटकर खिलाता रहे।
दशहरा और दीपावली दो ऐसे पर्व है जिनमें हर चैनल हर किस्म का खेल खेलता है और ऐसे त्योहारों को ऐसी-ऐसी घटनाओं से जोड़ता है जिसका कोई तार्किक आधार नहीं होता। दशहरा में तो 9 दिन का सामान बड़े ही व्यापक पैमाने की तैयारी के रूम में परोसा जाता है। बस शहर में बीस-पचीस बढ़िया पूजा पंडाल होना चाहिए। पूजा के विधि-विधान से लेकर सांस्कृतिक कार्यक्रम और खाने पीने की वस्तुओं से लेकर ऐसी-ऐसी लाइव रिपोर्टिंग होतीं है जिसे देख सुनकर कई दर्शक अपने घर की पूजा का विधि-विधान भी भूल जाते हैं। दशहरे के मौके पर जगह-जगह दिखाई जाने वाली रामलीला को ‘मिक्सी’ में पीस कर न्यूज चैनल लीला बनाते है जो कहीं-कहीं गरीबी में आटा गीला जैसी हालत को भी दिखाता है। जैकेट और ‘टॉप बैंड’ का ऐसा तांडव रचते हैं कि न्यूज चैनल में रामलीला देख रहा दर्शक विजुअल देखने को ऐसे तरसता है जैसे रेगिस्तान में प्यासा पानी के लिए।
ताड़का वध की तैयारी चैनल कई दिन पहले से करने लगता है और बिजली चमका-चमका कर एक ही विजुअल को ट्रीट कर ऐसे दिखाया जाता कि ताड़का ने भी कभी सोचा नहीं होगा कि उसका वध एक ही दिन 50 टीवी चैनल मिलकर 200 बार कर देंगें। एक-एक दिन की रामलीला न्यूज चैनल भारत की जनता को ताज़ा खबर की चाशनी में लपेट कर ऐसे दिखाता है जेसे जनता ना राम को पहचानती हो न सीता को और दसानन रावण को। त्योहारों के सेल्समैंन बने पंडित जी को बुलाकर रामलीला पर व्याख्यान दिलवाया जाता है। पंडित जी रामकथा की ऐसी जुगाली करते-करते आधी भूली-आधी बिसरी चौपाई के सिर पैर जोड़ कर दर्शकों को ऐसे आत्मविश्वास से सुनाते है जैसे आज नई रामायण की रचना करके छोड़ेंगे। घर में बैठा दर्शक न्यूज चैनल में ये सब देखकर सारे गा मा पा की तरफ ऐसे भागता है जैसे धुएं से भरे कमरे से निकल कर खुली हवा में सांस लेने के लिए लोग दौड़ते हैं। दशहरे के दिन रावण के दहन की खास तैयारी की जाती है टीआरपी में कोई कमी न रहे। इसलिए रावण पर पूरा ध्यान दिया जाता है। ग्राफिक्स के गुर्गों की फौज रावण के एक एक सिर को टीआरपी का एक एक अंक मान कर रचती है और फिर जैकेट में चिपका कर टीवी स्क्रीन पर रावण को ऐसे लटका दिया जाता है जैसे उसे फांसी की सजा सुना दी गई हो। न्यूज चैनलों के हलवाई का बस चलता तो टीआरपी के लिए दस सिर वाले रावण के सिर पर 5 और सिर जोड़ देते।
आजकल जो नया ट्रेंड चला है कि हर त्योहार पर टीवी के हर सीरियल के पात्र तीन चार एपिसोड तो त्योहार मनाने में ही गुजार देते हैं। दर्शक बेचारा सीरियल में आगे क्या होगा इसी इन्तजार में बैठा-बैठा खून के घूंट पीता रहता है और चैनल वालों को कोसता रहता है। वो प्रोग्राम बंद भी नहीं करना चाहता क्योंकि चैनल वालों ने सीरियल दिखाकर उसकी ये जानने की भूख बढ़ा दी है कि आगे क्या होगा।
मन मारकर भी टीवी पर वही होली, दीवाली मनाते हुए कलाकारों को बर्दास्त करना पड़ता है। पर इससे चैनल वालों को क्या फर्क पड़ता है। उनको तीन, चार एपिसोड का मसाला मुफ्त में मिल जाता है जनता तो बेचारी उनकी मुट्ठी में फंस गई है जायेगी कहां?
दीवाली का त्योहार न्यूज चैनलों के लिए मिठाई की तरह हैं जिसे वे पानी पी-पी कर बार-बार दर्शकों को चखाते हैं। दीवाली के आते की बाजारों की रौनक, रंग-बिरंगे दीपक, लड़ियां-झड़ियां क्या कहां मिल रहा है किस शहर में क्या खास चीज मिल रही है सब कुछ दिखाने का ठेका जैसे उद्योगपतियों ने न्यूज चैनल वालों को दे रखा है। कौन सी मिठाई, कौन सी गुझिया आप खाइए कौन सी न खाएं ये आपको न्यूज चैनल वाले बता देंगे। और ऐसे बताएंगे जैसे सालों से मिठाई और गुझिया बेचने का काम करते रहें हो। दीवाली में रिपोर्टरों को खास हिदायत दी जाती है कि बाजार से अच्छे विजुअल शूट करके लाएं। फिर क्या रिपोर्टर दीवाली के 2 दिन पहले से सी युद्ध स्तर पर विजुअल बटोरने लग जाते हैं कई बार दुकानदार कहने लगते हैं कि ग्राहक कम और चैलन वाले ज्यादा बाजार में घूमते दिखते हैं। किसी प्रोडक्ट में क्या ऑफर चल रहा है?, किसके साथ क्या फ्री मिल रहा है?, ये सब न्यूज चैनल वाले ऐसे तड़का मारकर दिखाते हैं जैसे किसी खास प्रोडक्ट के बिक्री का इन्हें ठेका मिल गया हो कि 100 फ्रीज बिक्री करवा दो और 4 मुफ्त ले जाओ। देश-विदेश की खबर जानने के लिए टीवी के सामने बैठ दर्शख चातक की तरह ताकता रहता है कि कब न्यूज चैनल पर खबर चलेगी। चातक को स्वाति नक्षत्र पर बारिश की बूंद नसीब हो जाती है पर खबरों के प्यासे दर्शक के नसीब चातक जैसे कहां?
क्रिसमस के एक हफ्ते पहले से ही छोटे से लेकर बड़े शहर शादी की दुल्हन की तरह सजने लगते हैं। कपड़ों की दुकान से लेकर चैनल के न्यूजरूम तक शांताक्लाज़ हर कोने में कुकुरमुत्ते की तरह दिखाई देता हैं। शांताक्लाज की गुड्डीज और सफेद दाढ़ी में लाल कपड़ा एक ऐसा तिलिस्म पेश करता है जिससे बच्चे, बूढ़े सब प्रभावित होते हैं और एक हफ्ते पहले से ही इसकी डुग-डुगी हर समय पहले से ही बजना शूरू हो जाती है और 24 दिसंबर की रात में तो हर चैनल के स्क्रीन पर झिंगल वेल की आवाज हर घंटे में सुनाई देती है। और 31 दिसंबर आते-आते तो पूरा देश नए साल के स्वागत में ऐसे तैयार होता है मानो किसी नवविवाहिता वधू का स्वागत करने के लिए पूरा परिवार स्वागत करने के लिए खड़ा हो।
लब्बोलुआब ये है कि पूरी दुनिया में भारत ही ऐसा देश है जहां त्योहार का मौसम तकरीबन बारहों महीने किसी न किसी रूप में मनाया ही जाता है ये अलग बात की उसमें अक्सर ही सूखे की हल्दी और बाढ़ का कीचड़ देश के कुछ हिस्सों को इन त्योहारों की रौनक से महरूम कर दे मगर आम तौर पर हमारी जनता भी अब सिलिब्रेशन के नए-नए लटके झटके और रश्मो रिवायत से बखूबी वाकिफ वो गई है और दर्शकों का एक बड़ा हिस्सा इसी की बाढ़ में तैरता और डूबता दिखाई देता है।
कई लोगों के लिए दूरदर्शन ही पर्व, त्योहारों के कलेंडर का काम करता है। तो अन्य लोगों के लिए त्योहारी रश्मो-रिवायत का ऐलार्म भी बनता है। ये ही वजह है कि भारत में टेलीविजन मय्या की महिमा अपरम्मपार है। और उसी में देश की आबादी के बड़े हिस्से का बेड़ा पार है।

सोमवार, 15 मार्च 2010

खबरिया चैनलों पर ज्योतिष का बुखार भाग-2

दरअसल ज्योतिष का बुखार और ज्योतिषियों की हिदायते कभी-कभी इतनी भयावह और जानलेवा हो जाती है कि उसका अंत नहीं होता। एक साहब को एक ज्योतिषी ने बताया कि जब भी बिल्ली रास्ता काट जाए तो वो उसके आगे गाड़ी नहीं चलाएं किसी दूसरे को आगे जाने दें। एक दिन ऐसा ही तब हुआ जब वो अपनी वृद्ध माता को मरणासन अवस्था में अस्पताल ले जा रहे थे कि बिल्ली ने रास्ता काट दिया। वो 10 मिनट तक किसी और के आगे जाने का इंतजार कर रहे थे। मगर जब वो अस्पताल पहुंचे तो पाया कि उनकी मां का देहांत गाड़ी में ही हो गया और डॉक्टर के मुंह से निकला हुआ शब्द कि ‘काश आप यहां उनको 10 मिनट पहले ले आते ‘ उनको आज भी हर लम्हा सालता रहता है। इसी तरह एक ज्योतिषी ने एक साहब से यह कह दिया जिस लड़की से उनकी शादी हो उनके पीठ पर तिल के निशान जरूर देख लें। उन साहब ने घर आई लड़की से पहले वही सलूक किया और उसके हाथ से अपने मां-बाप के सामने ही थप्पड़ खा बैठे। कभी कभार ये कहना निहायत मुश्किल होता है कि क्या ज्योतिषी के मुंह से निकला हर वाक्य ब्रह्म वाक्य है या फिर आदमी के मन में डर या शंका ज्यो अक्सर मिलकर उसकी बुद्दि या और विवेक का कबाड़ा कर देते हैं। ज्योतिष ऐसा लड्डू बनकर रह गया है जिसको न निगले और न उगले बनता है। और अक्सर हां पढ़े-लिखे लोग भी ग्रह नक्षत्रों के चपेट में ऐसे आते है मानो की पतिंगा मकड़ी के जाल में फंस गया हो। लेकिन उससे निकलने के लिए छटपटा रहा हो।
मगर लब्बोलुआब ये है कि इलेक्ट्रॉनिक और ऑनलाइन ज्योतिषियों की फौज ने एक दो ऐसे साफ्टवेयर तैयार कर लिए जिसके चलते बेचारे तोते का पेशा भी छूट गया। उनको पता है कि आजकल के संभ्रांत से लेकर मध्यमवर्ग तक के लोगों के बीच सामान्य तौर पर तीन ही बीमारियां मिलती है। करियर, शादी और संतान का भविष्य और ज्योतिषियों की फौज इस कमज़ोरी से अच्छी तरह वाकिफ़ है इसलिए वो हर चैनल या अख़बार में कुंडली में ग्रहों की मंडली से लेकर नक्षत्रों के नखड़े, लग्नेश की लाठी, भाग्येश का झुनझुना, कर्मेश की कारस्तानी, लग्न का लोटा, मूल त्रिकोण की तिकड़ी, केंद्र का कृत्य, गोचर का गोबर, महादशा की महिमा, अंतर्दशा की जुगाली, प्रत्यंतर की परिक्रमा, सुखेश की सच्चाई, धनेश की धौकनी, चिंता की चिता, नवमांश का नमक, हौरा का हुल्लड़, कालचक्र का कुचक्र, साढ़ेसाती का मौसम और मांगलिक दोष का ऐसा लोमहर्षक और अधपकी खिचड़ी बनाते हैं जिसकी भूल-भुलैया में अच्छे अच्छे भी गुम हो जाए। अब ऐसे में ज्योतिष ज्ञान का केंद्र कम और त्रासदी ज़्यादा हो जाती है और आचार्य लोग ग्रहों के प्रकोप की ऐसी व्यूह रचना करते हैं कि उसमें अगर आप अभिमन्यू की तरह फंस गए तो आगे आपको जयद्रथ ही दिखेगा। यही वजह है कि बहुत से लोग इसी आशंका और भय से ग्रसित होकर इन ज्योतिषियों के दफ्तर के चक्कर लगाने पर मजबूर हो जाते हैं।
अब अख़बारों को देख लीजिए। तकरीबन हर अख़बार में दैनिक और साप्ताहिक राशिफल नियमित रुप से छपते हैं और आधी जनता उसी को पढ़कर अपने दिन-भर का कार्यकलाप तय करती है। और कई लोग तो उसे अक्षरश: सत्य मान लेते हैं। मिसाल के तौर पर एक अख़बार में एक ज्योतिषी ने सिंह राशि के व्यक्तियों के लिए भविष्यवाणी की, कल वो तुला राशि के लोगों से सावधान रहें। दुर्भाग्य से उनकी पत्नी की राशि भी तुला ही थी। वो बंधु घर पहुंचे और पूरी रात बिस्तर पर अपनी पत्नी को घूर-घूर कर देखते रहे कि क्या पता ये औरत कब धोखा दे जाएगी और इसी चक्कर में दोनों में तू-तू मैं-मैं इतनी बढ़ी कि एक हफ्ते में दोनों का तलाक हो गया। इसी तरह एक नामचीन चैनल पर राशि पढ़ने वाले पूरी दुनिया का भविष्य बता गए, मगर उनको ये नहीं मालूम पड़ा कि उनके बेटे की आधे घंटे के बाद एक सड़क दुर्घटना में मौत हो जाएगी। एक ऐसे ही सज्जन ने जब ये सुना कि अमुक दिन उनके लिए बहुत खराब है और ज्योतिषी महोदय ने टोटके के तौर पर पालक का पत्ता सुअर को खिलाने के लिए कहा। वो बेचारे पूरा दिन उसी की तलाश में घूमते रहे और जब शाम को सुअर मिली तो पत्ता खाने के बजाय उनके बाएं पांव का मांस ही फाड़ दिया और वो दस दिनों के लिए अस्पताल में भेज दिए गए।
इस तरह की घटनाएं तो आज भी अक्सर होती रहती हैं और ये सिलसिला पता नहीं कब जाकर रुकेगा। लेकिन इन ज्योतिषियों की वाणी उनका नाटकीय अंदाज़ और उनके वस्त्र भी ऐसे लगते हैं मानों वे इस संजीदे ज्ञानशक्ति का भी मखौल उड़ा रहे हैं। मिसाल के तौर पर एक नामचीन चैनल में बैठ जाने वाले ज्योतिषी महाराज की वेशभूषा ऐसी लगती है मानो वो सीधे शहंशाह अकबर के दरबार से आयातित किए गए हों। ये बाद में पता चला कि ये महाशय पहले दूरदर्शन लखनऊ केंद्र में एंकर हुआ करते थे। एक और नामचीन ज्योतिषी हैं जो चाणक्य के छोटे भाई दिखते हैं और उनके मुखारविंद से निकले शब्द ऐसे लगते हैं मानो किसी मॉल में पॉपकार्न उबल रहा हो। उससे भी खौफ़नाक नज़ारा एक ज्योतिषी का है जो अपने आप को शनिदेव का सबसे सच्चा सपूत मानते हैं। इनका राशिफल बताने का अंदाज देखकर ऐसा लगता है कि ये राशिफल कम बता रहे हैं डांट ज्यादा पिला रहे हैं। हैरानी की बात है जो कभी तंबू लगाते थे वो आज यंत्र मंत्र और तंत्र के सबसे बड़े तानाशाह के रूप में प्रतिष्ठित हैं ऐसा लगता है मानो शनिदेव उनसे पूछ कर ही कहर बरसाने की रणनीति बनाते हैं। और उनकी भविष्यवाणी भले ही सही हो न हो लेकिन हर शनिवार को करीब पांच सौ क्विंटल तेल की बिक्री का जुगाड़ हो जाता है। जनता में शनिदेव का डर बिठाने में इनका बड़ा योगदान है और इनके जलाल की महत्ता इस बात से आंकी जा सकती है कि एक ख़बरिया चैनल तो इनकी एक साल पुरानी भविष्यवाणी को भी टीआरपी के चक्कर में अपने चैनल पर दिखा रहा है। एक और चैनल पर तीन देवियां आती हैं जिनके नाज़ नखरे विदूषक राजू श्रीवास्तव को भी पसंद आते हैं। उससे भी बड़ी त्रासदी तब होती है जब एक चैनल पर एक तांत्रिक ये दावा करता है कि वो अपनी तंत्र विद्या से एक आदमी को मिनटों में मार देगा। पूरी दुनिया ये तमाशा लाइव देखती है। ज्योतिषी महाराज का तंत्र तो उस व्यक्ति का बाल भी बांका नहीं कर सका, अलबत्ता चैनल को इस ड्रामे के चलते जमकर टीआरपी मिली। ऐसा ही एक वाकया था बैतूल के पंडित कुंजीलाल का, जिन्होंने अपने मौत की भविष्यवाणी एक ख़ास दिन के लिए कर दी जिसके चक्कर में कम से कम तीन ख़बरिया चैनल टीआरपी का झोला भर-भर के घर ले गए। पंडित जी आज भी ज़िंदा है और अपने धंधे में तल्लीन है। पंडित जी तो नहीं मरे लेकिन सचमुच उस दिन ज्योतिष विद्या की मौत हो गई।
उससे भी अजीबोगरीब है टेरो कार्ड जिसमें ताश की पत्तियों को ऐसे बिखेरा जाता है मानों किसी व्यक्ति का भविष्य नहीं तीन पत्ती का जुआ खेला जा रहा हो। और जुए की तरह ही ज़िंदगी की बाज़ी लग रही हो। टैरो कार्ड रीडर मूर्खता की सारी हदों को पार करते हुए ऐसे ऐसे टोटके बताती हैं जो सुअर को पालक खिलाने जैसे ही मुश्किल हैं। मगर बेचारी जनता इन तमाम लटके झटके को ऐसे भकोसती है जैसे इससे बड़ा सच कोई और हो ही नहीं।
इसकी तीन सबसे बड़ी मिसाल जनता के सामने हैं। पहली मिसाल ये है कि हज़ारों लड़कियां तीस-पैंतीस साल की उम्र में भी कुंआरी रह जाती है क्योंकि ज्योतिषी लोग उनको मांगलिक करार दे देते हैं। लेकिन अगर यही कन्या फिल्म अभिनेत्री ऐश्वर्या राय हो तो इन्हीं ज्योतिषियों की फौज लंबी चौड़ी फीस लेकर अभिषेक बच्चन से शादी करने से पहले एक केले के पेड़ के साथ शादी करने के बाद भगवान शिव का आशीर्वाद लेने की तरकीब बताती है।
ऐसे ही सन 2005 में दुबई में 50 हजार रुपये की तनख्वाह पर काम करने वाले भारतीय मूल के एक व्यक्ति ने आत्महत्या कर ली क्योंकि उसको किसी ज्योतिषी ने बता दिया था कि उसकी मौत जल्दी हो जाएगी। इस डर से उस शख्स ने आत्महत्या कर ली।
यही हाल सन 2001 में नेपाल के राजकुमार दीपेंद्र का हुआ था जिसने अपने माता-पिता और राजपरिवार के कई लोगों की हत्या इसलिए कर डाली क्योंकि वो लोग एक ज्योतिषी के सलाह पर उसके पसंद की लड़की से शादी नहीं करने दे रहे थे। ज्योतिषी ने 29 साल के राजकुमार दीपेंद्र से ये कहा था कि वो 35 साल तक की उम्र तक शादी न करें वरना उनके पिता का देहांत हो जाएगा।
इस तरह के और सैकड़ों उदाहरण हैं जो ज्योतिष जैसी महाविद्या को फूहड़ बनाने की दिशा में कई अधपके और गलियों में कुकुरमुत्तों की तरह उगे हुए हैं।
सबसे अजीबोगरीब बात ये है कि चैनल पर साप्ताहिक राशिफल बताने वाले ज्योतिषियों को भी इस खेल का हिस्सा बने रहने के लिये चैनल मालिक से लेकर प्रोड्यूसर तक के फरमान के आगे नतमस्तक होना पड़ता है क्योंकि भारत जैसे विशाल देश में पूरे साल ही तीज त्योहार का मौसम होता है। मौनी अमावस्या से लेकर गुरु पूर्णिमा तक इतने लंबे पर्व त्योहारों की फेहरिस्त होती है कि जिसके बारे में बोलन और उससे जुड़े हुए उपाय टोटके हर राशि से जोड़कर बताना इनके लिए सर्वोत्म मौका होता है और ये दोनों नहीं चाहते कि ज्योतिष के इस फलते फूलते कारोबार में कोई अड़चन आए इसीलिए वो इसको भुनाने के लिए हमेशा नई तरकीब इजाद करते हैं और चैनल मालिक हमेशा उन्हीं ज्योतिषियों को बुलाते जो उनका और उनके चैनल का कल्याण करने के लिये हमेशा तत्पर हों । उन्हें मालूम है कि जनता तभी आकर्षित होती है जब अगल किस्म की भविष्यवाणी अति नाटकीय अंदाज में पेश हो।
इसीलिए कोई शनिदेव के कोप के बारे में बखान करता है तो कोई राहू का रौद्र रूप भगवान शंकर के तांडव के अंदाज में पेश करता है। कोई नक्षत्रों के नखरे और चाल की गति पर तिलिस्म पैदा करता है तो कोई उपायों की पुड़िया मंदिर के आगे भक्तों में प्रसाद की तरह बांटता है। जनता इसको बजरंग बली के लड्डू की तरह लपकती ही जाती है।
ख़बरिया चैनलों के मालिक इनका सहारा लेकर अपनी तिजोरियां भर रहे हैं और जनता को सही सीख देने की बजाय गुमराह कर रहे हैं। टीआरपी के चक्कर में चैनल के चाणक्य ऐसे ऐसे कार्यक्रम बनाते हैं जिससे दोनों की दुकान खूब चले भले ही एक आदमी का बेड़ा गर्क हो जाए। ये तो हमारे यहां की परंपरा रही है कि अजा पुत्रम बलिं ददात, देवो दुर्बल घातक:, और इन नक्षत्रों के चक्कर में अक्सर आम आदमी ही मारा जाता है।

न्युज में सीरियल या सीरियल में न्यूज ??

खबरिया चैनल गिद्ध की तरह ताक लगाए बैठ रहते हैं कि कब किस सीरियल में कोई मोटा बकरा मरे और वो उसे फौरन चट कर जाएं। एक ज़माना था जब खबरिया चैनलों की खबरें एक आम आदमी की जद्दोजहद का थर्मामीटर होती थी। उन चैनलों में देश विदेश की बड़ी ख़बरों के साथ-साथ कसबों और गांव की ख़बरों की भी तवज्जो मिलती थी। आजतक जैसे कार्यक्रम के लिए लोग 10 बजे रात का इंतज़ार करते थे। आज आलम ये है कि कोई भी समझदार और संवदेनशील शख्स इन खबरिया चैनलों को दस मिनट भी नहीं झेल सकता। अक्सर लोग चैनलों की हेडलाइन देख लेते हैं और अपनी निगाहें फेर लेते हैं।
सच मायने में आज भी दूरदर्शन ही ऐसा चैनल है जहां ख़बरें आमतौर पर सूखे और सीधे अंदाज में दिखने को मिल जाती हैं। बाकी खबरिया चैनल वही करते हैं जैसे दूधवाले एक किलो दूध में दो किलो पानी मिलाते हैं। अब ऐसे में हर आदमी हंस तो है नहीं जो नीर छीर विवेक रखता हो। पिछले पांच सालों से चैनलों को एक नई बीमारी ने आ घेरा। इस बीमारी के चलते कभी रमोला की सांप से शादी हो गई, तो कभी स्वर्ग में सीढ़ियां बच्चे के मुंह में निकले दाढ़ की तरह निकल आईं, कभी एक और नई झांसी की रानी पैदा हो गई, तो कभी ओंकारा में ईश्किया हो गया। इतना ही नहीं चैनलों पर सांप अजगर की कहानी जब चली तो देश के सबसे तेज़ चैनल में एक दिन रात के वक्त एक संपेरे का न्यूज़ रुम में फोन आया। उस संपेरे ने कहा कि साहब एक मौका हमको भी अपने चैनल में दीजिए, हम बीन बजाकर स्टूडियों में सांप ला देंगे। यदा कदा बाढ़ की विभीषिका या रेल हादसे जैसे विषयों पर खबरिया चैनलों की फिदायीन सोच और पैरासूटर्स ज़मीन पर उल्का की तरह गिरते हुए ज़रूर दिखाई दिए। मगर आम आदमी की संजीदगी और शंकाओं के बारे में कुछ नहीं दिखाई दिया। इन चैनलों का वजन तभी से घटना शुरू हुआ और वो सहायक से ज्यादा संहारक के रूप में ज़्यादा दिखने लगे।
फिर एक नया दौर आया जिसमें गुनाहों की खेती हर चैनल के खेत में लहलहाती सरसों की तरह फूलती-फलती दिखाई देने लगी और ये दौर करीब 8 से 10 सालों तक चला। अब एक नया दौर आया है जिसमें खबरिया चैनलों में ख़बर से ज़्यादा सीरियलों की तफसील होती है जिसे देखकर सीरिलिया चैनल भी आश्चर्य करने लगे हैं। 24 घंटे के बैंड में 6 से 8 घंटे तक सीरियल की ही कथाओं और गाथाओं पर भंडारा होता है और बड़े-बड़े विशेषज्ञ बुलाए जाते हैं। और लंबे-लंबे व्याख्यान से लेकर बौद्धिक बमबारी तक होती है। सच्चाई से लवरेज ख़बरों का जखीरा तो गया तेल लेने मगर बालिका वधू की आनंदी को गोली लगने की खबर को इस तरह बढ़ा चढ़ाकर पेश किया जाता है और खेला जाता है मानो वो भारत-पाकिस्तान का एक नया युद्ध बन गया हो।
इसकी शुरुआत तो बिग बॉस-1 से हुई थी जहां हर दिन की घटना घटित होने के पहले ही कुछ खबरिया चैनलों ने उसे पूरी तफसील से नमक मिर्च लगाकर दिखाना शुरू किया था और जनता उसे किसी पर्व त्यौहार के अवसर पर प्रयाग के संगम पर गंगा नदी में फेंके पैसे की तरह लूट रही थी। बिग बॉस से कौन अगले हफ्ते आउट होगा इसका रहस्य तिलिस्म की तरह परत दर परत खबरिया चैनल खोलते रहे लेकिन वो अक्सर खोदा पहाड़ निकली चुहिया होती रही। कई लोग इसी गम में खाना भूल जाते थे, तो कई माताएं अपने चूल्हे पर उबलता दूध छोड़कर टीवी के सामने बैठ जाती थीं। कई घरों में इसी खबर को लेकर पति-पत्नी में लड़ाई झगड़ा भी हो जाता था।
उसके बाद आया राखी का स्वयंवर और इसी सीरियल के लटके-झटके और राखी के नखरे ने खबरिया चैनलों को कम से कम सात महीने की संजीवनी दे दी। भले ही ये पूरा सीरियल 2 महीने में निपट गया हो मगर खबरिया चैनल का कुनबा उसे इलास्टिक की तरह 9 महीने तक खींचकर ले गया। राखी का स्वयंवर शुरू होने से पहले ही खबरिया चैनल उसकी बांग देने लगे थे और शुरू से अंत तक सीरियल के एक-एक एपीसोड को तड़का मार कर परोसते रहे और स्वयंवर खत्म होने के बाद भी पीछा नहीं छोड़ा। इनका बस चलता तो ये राखी सावंत और उनके मंगेतर बने इलेश की शादी करा कर ही छोड़ते। राखी सावंत की शादी कराने में भले ही सफल न हुए हो लेकिन अपनी टीआरपी का झोला भरने में कामयाब ज़रूर हो गए।
उसके बाद आया राहुल दुल्हनिया ले जाएगा का बुखार, जिसने तो नाटकीयता और परिहास के सारे तंबू उखाड़ दिये। पैसा और प्रचार के खातिर हजारों कन्याएं ने अपने कुल की मर्यादा को ताक पर रख कर राहुल महाजन से स्वयंवर रचाने के लिए ऐड़ी चोटी का ज़ोर लगा दिया। 50 साल की अम्मा से लेकर 80 साल की दादी ने भी अपने चश्मे का शीशा बदलवा दिया ताकी वो पूरा नज़ारा साफ-साफ देख सकें। टीवी सीरियल ने तो अपने समय पर स्वयंवर के एपीसोड दिखाए पर खबरिया चैनल ने स्वयंवर को दही की तरह मथ कर उसका मख्खन बना कर जनता के सामने बार-बार पेश किया।
उसके बाद बारी आई बालिका वधू की जिसने तो खबरिया चैनलों के दिवालियापन को और भी बेहतर तरीके से उजागर कर दिया। 4 दिन पहले से ही तकरीबन सारे खबरिया चैनलों ने बालिका वधू की पर्दे पर होने वाली मौत इस तरह नमक मिर्च मिला कर पेश करना शुरू किया जैसे कि सैंया बिना घर सूना...
आनंदी बालिका वधू नामक धारावाहिक में एक प्रमुख भूमिका में हैं और ये भारतीय सिनेमा और टेलीविजन धारावाहिकों की परंपरा रही कि ऐसे किरदार की पर्दे पर मौत उनके लिए अक्सर असहनीय हो जाती है। खबरिया चैनलों के चाणक्य इस कमजोरी को भली भांति जानते हैं। इसीलिए उन्होंने तीन दिन पहले से ही इसकी भोंक प्रियता के नए-नए कीर्तिमान स्थापित करने शुरू कर दिए। साथ ही ये भी जताने कि कोशिश की आनंदी की पर्दे पर मौत किसी भयानक राष्ट्रीय क्षति से कम नहीं।
आमतौर पर भारतीय दर्शक किसी भी फिल्म या लोकप्रिय टेलीविजन धारावाहिक में उसका दुखद अंत देखना पसंद नहीं करता। पश्चिमी देशों में बनाए गए फिल्म या धारावाहिक रियलिटी के ज्यादा करीब होते हैं और उनमें दुखद अंत भी दिखाया जाता है। टीवी सीरियल वाले भारतीय जनमानस की भावनाओं से खेलना खूब जानते हैं उन्हें पता है कि कुछ भारतीय महिलाएं सीरियल में नकली आंसू बहा रहे किरदार को देखकर असली आंसू बहाती हैं।
भारतीय दर्शक सीरियल के घटना क्रम को अपने दिलोदिमाग से जोड़कर देखता है। सीरियल में मनाई जाने वाली दीवाली में वह खुश होता और मातम दिखाए जाने पर दुखी होता है। ऐसे जनमानस के बीच खबर दिखाने का लाइसेंस लेकर खबरों के ठेकेदार खबरिया चैनल टीआरपी के लिए विजुअल के भिखारी बनकर सीरियलों के दरवाजे पर खड़े रहते हैं।
जहां सीरियल में इमोशनल ड्रामा की बूंदा बांदी शुरू हुई। उसकी पूंछ पकड़ कर खबरिया चैनल हाथी निकालने की कवायद शुरू कर देते हैं। एक ही घटनाक्रम को उलट-पलट कर घुमाफिरा कर कई बार दिखाते हैं। हमारे शास्त्रों में कहा गया है कि
यौवनं धनसंपत्ति: प्रभुत्वमविवेकिता
एकैकमप्यनर्थाय किंमु यत्र चतुष्टयम्
अर्थात यौवन, धन, ऐश्वर्य और अविचार- इन चारों में से एक-एक भी अति हो तो अनर्थ हो जाता है। फिर जहां चारों इकट्ठे हों, वहां का कहना ही क्या।
मेरी मंशा कतई नहीं कि ख़बरिया चैनल नसीहतों के दफ्तर में तब्दील हो जाए। मगर इसका मतलब ये भी नहीं कि वो निहायत ही नाशाइस्ता और शफ़ाक़ी हो जाएं। उन्हें मलामत और मजामत के बीच का फर्क समझना चाहिए और एक आम शहरी आज भी चैनल के मसीहाओं का ये उज़्र तस्लीम के काबिल नहीं समझता कि हम वही दिखाते हैं जो जनता चाहती है।
चूंकि कई मीडिया ग्रुप में कई चैनलों का एक गुलदस्ता या बाल्टी भर की विविधताएं रहती हैं, इसलिए उनके किसी भी नए उत्पाद को बढ़ा-चढ़ाकर दिखाने की कवायद के पीछे की ज़रुरत समझी जा सकती है। चाहे स्टार या नेटवर्क 18 या फिर ज़ी टेलीविज़न की कोई नई कहानी, नया धारावाहिक या सेलेब्रेटी इंटरव्यू हो तो उन विशेष कार्यक्रमों की धड़ाकेदार या छल्लेदार प्रस्तुति के पीछे की गणित और अर्थशास्त्र को समझना उतना मुश्किल नहीं है। ये सब जानने लगे हैं कि ख़बरिया चैनलों में सिर्फ कुछ एक बड़ी वारदातों या हादसों को ही ख़बर के खांचे में ढालकर पेश किया जाता है। मगर बाकी समय में तो कुछ भी किया जा सकता है।
दूरदराज की ख़बरों तथा विशेष कार्यक्रमों को दिखाने के लिए पैसे खर्च करने की आवश्वयकता होती है। मगर अधिकांश चैनलों के मालिक अपनी जेब ढ़ीली नहीं करना चाहते और प्रसिद्ध फिल्मकार आई एस जौहर की उक्ति में पूर्ण विश्वास रखते हैं। जौहर साहब की सबसे मशहूर लाइन ये थी- जब बाज़ार में पॉली पैकेट का दूध हर जगह मिलता हो तो फिर घर में भैंस बांधकर रखना निहायत ही बेवकूफी है।
उसी तरह कई ख़बरिया चैनलों को इस किस्म के फुटेज और विजुअल्स क्लिप्स एमटीआर या एमडीएच मसाले की तरह हर हफ्ते आसानी से मिल जाते हैं तो फिर वो दूरदराज की ख़बरों के लिए अपना समय और पैसा क्यों जाया करें। वैसे भी सीरियल वाले न्यूज़ में तो- हींग लगे न फिटकरी रंग भी चोखा हो- वाला मामला रहता है तो इसके लिए कोई दिमागी कसरत या बौद्धिक उछल-कूद की ज़हमत क्यों उठाए?
खीज और कोफ्त तब होने लगती है जब सारे ख़बरिया चैनल सीरियल न्यूज़ की बाढ़ में एक साथ बहने लगते हैं। ऐसे में फिर वही शेर जेहन में आता है-
रंग लाकर ही रही मर्दों की सोहबत का असर
शायराते कौम भी दादे-ज़बां देने लगी
मुर्गे की तो ख़ैर, फितरत हैं गुलबांगे-सहर
मुर्गियों को क्या हुआ, ये क्यों अज़ां देने लगी।
जिस दिन बालिका वधू की आनंदी के सिर में गोली लगने की ख़बर एक चैनल ने सिक्के की तरह उछाला, उस दिन से ब्रेकिंग न्यूज़ का बाज़ार और भी गरम होने लगा। 4 से 5 घंटे तक तफ्सरा और तज़करा का दौर चला। इसे क्या कहा जाए? दिमागी दीवालियापन की हद या संजीदा सोच का अकाल? या फिर ब्रेकिंग न्यूज़ शब्द के साथ ही सामूहिक बलात्कार।
अब तक तो हिन्दी चैनलों को ही इस किस्म की फूहड़ता के हमाम में कूदने का इलज़ाम लगाया जाता था और अंग्रेजी चैनलों के आकाओं की हेकड़ी यही होती है कि वो इस किस्म की उल-जुलूल हरकतों से कोसों दूर रहते हैंष मगर बालिका वधू प्रकरण ने इस बार दो नामचीन अंग्रेजी के ख़बरिया चैनलों को भी सस्ती लोकप्रियता के हमाम में नंगे ही कूदते देखा। इन चैनलों के कई रिपोर्टर घरों में पूजा के लिए चंदा मांगने गए लोगों की तरह ये पूछते हुए दिखाई दिए कि क्या बालिका वधू की आनंदी को गोली लगनी चाहिए या फिर क्या आनंदी ज़िंदा बच जाएगी?
और इसका सही जवाब कैमरे पर दिया एक पचास वर्षीय औरत ने। उन्होंने कहा कि “ भगवान से ज़्यादा मैं इस शो के प्रस्तुतकर्ताओं से प्रार्थना करुंगी कि वो आनंदी को ज़िंदा ले आएं ताकि आप लोगों की दुकान बंद न हो।” उस वक्त उस रिपोर्टर की शक्ल देखने लायक थी। उसे ये नहीं समझ में आ रहा था कि इस दलील पर वो हंसे या रोए क्योंकि ये दूध और मछली दोनों एक साथ खाने के बराबर था।
ब्रेकिंग न्यूज़ का इतना फूहड़ नज़ारा तो मैंने पहले कभी नहीं देखा। मगर आज भी ये तमाशा कई ख़बरिया चैनलों पर बदस्तूर जारी है। मानो वो एक आम दर्शक के सब्र का इम्तिहान ले रहा हो। फिर ऐसे में मुझे भी लगा कि
‘’उसे ये फ़िक्र है हरदम, नई तर्ज़े-जफा क्या है
हमें भी शौक हैं देखें, सितम के इन्तहा क्या है?”

गुरुवार, 11 मार्च 2010

चैनलों को ज्योतिष का बुखार भाग-1

एक प्राचीन कथा पर विश्वास करें तो ज्योतिष एक श्रापित विद्या है। एक बार नारद जी कैलाश पर्वत पर पहुंचे भगवान शिव ने कहा नारद जी आप तो बहुत बड़े ज्योतिषी हैं, बताइए सती इस समय कहां है? नारद जी ने गोचर देखा और गणना कर बताया कि माता सती इस समय स्नान कर रही हैं और उनके शरीर पर कोई वस्त्र नहीं है। शिवजी बोले आने दीजिए पूछते हैं जब माता सती पहुंची तो शिव जी ने सारी बात बताई तो सती बोलीं नारद जी का द्वारा की गई गणना सही है लेकिन ऐसी विद्या जो वस्त्रों के पार भी देख ले ठीक नहीं है इसलिए मैं इस विद्या को श्राप देती हूं कि कभी भी कोई ज्योतिषी पूरी गणना सही ढंग से नहीं कर पाएगा। लेकिन ख़बरिया चैनलों को ज्योतिष का ऐसा बुखार चढ़ा है कि वे किसी भी बकलोल बगुला भगत को बुला कर लोगों की निजी जिंदगी के वस्त्रों को सारी दुनिया के सामने उघाड़ने में कोई कसर नहीं छोड़ते।
ज्योतिष चर्चा की बात हो रही है तो मुझे महाभारत की कहानी याद आ गई। पांचों पांडवों में से केवल युद्धिष्ठिर महाराज ही स्वर्ग तक पहुंच पाए थे। बाकी के चार पांडव अपने अहंकार के कारण स्वर्ग के रास्ते से भटक गए थे। दरअसल, नकुल को अपनी सुंदरता का अभिमान था तो सहदेव को अपने ज्योतिषी ज्ञान, भीम को ताकत व अर्जुन को अपनी धनुष विद्या पर अहंकार था। इसके चलते राजा युद्धिष्ठर ही स्वर्ग तक पहुंच पाए। कुछ ऐसा ही अभिमान हमारे चैनलों और उनके कर्ता-धर्ताओं का भी है जो भले ही टीआरपी की गर्त में जाकर चैनल के माहौल को नारकीय बना रहे हों लेकिन लोगों को स्वर्ग की सीढ़िया दिखा रहे हैं।
हैरानी की बात ये है कि उसी ज्योतिष विद्या के आधार पर उसी दिन पांच आचार्य उन्हीं ग्रह नक्षत्रों की चाल-ढाल की गणना कर अपने ही अंदाज़ में जनता को बेवकूफ बनाने की कोशिश करते हैं। समुद्री विद्या वाकई बहुत ही अहम विद्या है बशर्ते कोई आचार्य उसे ठीक तरीके से समझ पाए। ज्योतिष अपने आप में ही एक बहुत बड़ा विज्ञान है बशर्ते ज्योतिषियों को लग्न-नक्षत्रों की गति की सही गणना करके फलित करने का-महारत प्राप्त हो। हमारे यहां प्राचीन काल से ही ज्योतिष विद्या में लोगों का भरोसा रहा है और अक्सर कई बार ज्योतिषियों की भविष्यवाणी सच हुई है। आज भी देहाती इलाकों के ज्योतिष या कई उत्तम संस्थानों के आचार्य इस शास्त्र में महारथ रखते हैं। लेकिन ज्योतिष का बाज़ारीकरण और बदनामी उस वक्त शुरु हुई जब अधपके ज्ञान वाले ज्योतिषियों ने चैनलों का सिंहासन संभालना शुरु किया।
कुछ समय पहले एक साहब शहर के किसी नामी गिरामी ज्योतिष के पास पहुंचे। मोटी फीस और लम्बे इंतज़ार के बाद जब बच्चे की बारी आई तो ज्योतिषी महाराज ने ताल ठोककर बड़े ही नाटकीय अंदाज में ऐलान किया कि ‘बच्चा तुम्हारा भविष्य काफी उज्जवल है। तुम्हारे आगे-पीछे सुबह से शाम तक गाड़ियां ही गाड़ियां होंगी’। लड़के के माता-पिता खुश थे कि उनका बेटा तो किसी बहुराष्ट्रीय कंपनी में सीएमडी से कम नहीं होगा। कुछ समय के बाद मालूम पड़ा कि उस लड़के को ट्राफिक पुलिस में नौकरी मिल गई। खबरिया चैनलों पर ज्योतिष का भूत इस कदर सर चढ़कर बोलता है मानो इससे बड़ी बीमारी दुनिया में और कुछ है ही नहीं।
आये दिन ज्योतिषों का नया कुनबा कुकुरमुत्ते की तरह हर गली कूचे में पनपने लगता है और फिर उस फौज में से एक हिस्सा खबरिया चैनलों का रुख करता है। ज़्यादातर ज्योतिषी जो कई खबरिया चैनलों में ब्रह्मा जी के बड़े पुत्र की तरह दुनिया में रखी हर चीज और तकरीबन हर देश और वहां के लोगों के भाग्य और दुर्भाग्य पर भविष्यवाणी करने लगते हैं, तो मानों ऐसा लगता है जैसे उनके सामने विवेक और विज्ञान दोनों बौने हो गए हों।
जिस तरह क्राइम शो ने मीडिया बाज़ार में जगह बनाई उसी तरह खबरिया चैनलों को एक और अस्त्र मिल गया जिससे करोड़ों की कमाई का रास्ता खुल गया। इस देश का दुर्भाग्य ये है कि ज्योतिष ऐसे बुखार में तब्दील हो गया जिससे राजा से लेकर रंक तक ग्रसित हैं।
हैरानी की बात ये है कि जो लोग दुनिया की हर चीज़ जानने का दावा करते हैं उनमें से बहुत ही कम ज्योतिषी ऐसे हैं जिन्हें ये मालूम कि ज्योतिष किन-किन युगों में किस प्रकार का रहा और इसकी भविष्यवाणी की गणना के स्रोत और आधार क्या रहे। आज भी देहातों में कोई भविष्य के बारे में बात कर दे तो फौरन उससे यही पूछा जाता है कि क्या तुम समुद्री जानते हों। इसका आधार ये है कि ज्योतिष के मूलत: दो भाग हैं एक गणित ज्योतिष और दूसरा फलित ज्योतिष। गणित ज्योतिष के प्रणेता भृगु ऋषि थे और उनकी लिखी हुई पुस्तक भृगु संहिता आज भी ज्योतिष विद्या का एक प्रमाणिक ग्रंथ हैं। ऋषि भृगु ने ही पहली बार समुद्री पद्धति से ज्योतिष की गणना की थी और चंद्रमा से प्रभावित इस विद्या में नक्षत्रों की चाल और बदलाव का गहन अध्ययन किया गया था। इस विद्या के तहत चंद्रमा को 27 नक्षत्रों का स्वामी माना गया है। दरअसल ये 27 नक्षत्र चंद्रमा की पत्नियां और दक्ष प्रजापति की पुत्रियां हैं। कहा जाता है कि चंद्रमा का क्षय रोग और चंद्रमा की गति इन्हीं 27 पत्नियों(नक्षत्रों)के आपसी झगड़े के कारण हैं। इसका एक प्रमाणिक तथ्य और भी है कि औरतों की माहवारी 27 दिनों पर ही होती है और कृष्णमूर्ति पद्धति के तहत एक पहर की 27 भागों में बांट कर गणना की जाती है। इसी पद्धति के तहत समुद्र में जल तरंगे सबसे ज्यादा पूर्णिमा की रात को ही उठती हैं।
दूसरी तरफ ऋषि पाराशर फलित ज्योतिष के प्रणेता माने जाते हैं जो आकाश विद्या से संबंधित हैं। इस पद्धति में सूर्य नवग्रह के मुखिया हैं और यथा पिंडे तथा ब्रह्मांडे के नियम से मानव शरीर को जोड़ा गया है। ऋषि पाराशर ने ही आकाश विद्या का गहन अध्ययन करने के बाद ग्रहों से संबंधित कई महत्वपूर्ण बातें बताईं थी जिनमें एक ये है कि हर मानव शरीर पर नवग्रहों का प्रभाव अवश्य पड़ता है और इसी पद्धति के तहत मनुष्यों को अंगुलियों में रत्न पहनने की सलाह दी जाती है। पौराणिक तौर पर राजकुमार भरत का जन्म इसी पद्धति से काल और नक्षत्र की गणना के आधार पर हुआ था। आजकल के जमाने में फलित ज्योतिष के सबसे प्रकांड विद्वान के एन राव को माना गया है जिनकी भविष्यवाणी नवग्रहों की चाल पर आधारित रही है।
इसी क्रम में चरक ऋषि ने इस विद्या को नई गणना पद्धति के आधार पर एक और दिशा देने की कोशिश की थी। यद्यपि अपनी तपस्या में वो बहुत हद तक सफल नहीं हो पाए थे उन्होंने राजा सुशाद की पुत्री से प्रायश्चित के तौर पर शादी की थी। क्योंकि राजा सुशाद ने उनकी दोनों आंखें फोड़ डाली थी। ये भी याद रहे कि चरक ऋषि ने वो शादी एक ख़ास दिन ज्योतिष की गणना के आधार पर ही की थी और बाद में उन्होंने चरक संहिता में आदर्श कन्या के गुण भी बताए थे। उन्होंने एक महत्वपूर्ण श्लोक की रचना भी की थी जो इस प्रकार है...
दंता कुदृष्टि यदि पिंगलाक्षी, रोमम शरीरम अधरम च श्यामम
भालं विशालं यदि उच्च नाभि ऐते न ब्याहेत यदि राजकन्या
यानि जिस कन्या के दांत बड़े हों, देखने में बदसूरत हों, आंखे अगर कनजी हो, शरीर पर बड़े-बड़े रोम हो और ओंठ काले हों माथा चौड़ा हो, नाभि निकली हुई हो उस कन्या से कभी विवाह नहीं करना चाहिए भले ही वह राजकुमारी क्यों न हो।

पश्चिमी देशों के मुकाबले आज भी काफी बेहतर और सशक्त है, मिसाल के तौर पर लिंडा गुडमैन 12 राशियों में पूरी दुनिया की चौहद्दी माप लेती है जबकि हमारे यहां एक ही दिन में एक ही अस्पताल में एक ही समय पैदा हुए दस बच्चों की जन्म कुंडली और भविष्यफल अलग-अलग होता है। लेकिन भाग-दौड़ की इस दुनिया में किसके पास इतना वक्त है कि इन सब बातों में अपना समय गवाएं और सही गणना करें। इसीलिए अक्सर ज्योतिषियों की भविष्यवाणियां सही साबित नहीं होती। आज की सबसे बड़ी सच्चाई ये है कि सबसे ज्यादा फलित ज्योतिष फूलों और हरे हरे नोट का चढ़ावा है भले ही दस में से आठ पंडितों ने इन शास्त्रों का नाम भी न सुना हो और ग्रहों और नक्षत्रों की गणना तो दूर की बात है। पूरे देश में ऐसे 22 विश्वविद्यालय हैं जहां सरकार ने ज्योतिष को बीए तथा एमए के पाठ्यक्रम की मान्यता दे दी है। भारतीय विद्या भवन से लेकर कई निजी संस्थाओं, आश्रमों और विश्वविद्यालयों में ज्योतिष का पाठ पढ़ाया जाता है और हर साल हजारों डिग्रियां बांटी जाती है और इन्हीं डिग्रियों के आधार पर सैंकड़ों ज्योतिषी आसमान में बिखरे तारे की तरह हर तरफ दिखाई देते हैं। इन्हीं ज्योतिषियों की फौज अख़बारों में बड़े बड़े इश्तेहार देकर और ख़बरिया चैनलों पर खुद को महिमामंडित कर ऐसा हौव्वा खड़ा करते हैं मानों दिल्ली के गफ्फार मार्केट में सेलफोन बेचने वालों की गुहार लग रही हो। कई लोगों के लिए ज्योतिष भी एक नशा बन गया है और इसमें नेता से लेकर अभिनेता तक का कुनबा हर दिन किसी जिम में कसरत करते हुए दिखाई दे जाती है। जहां तक नेताओं की बात है तो सत्तर फीसदी नेतागण ऐसे है जिनका दिन बिना ज्योतिषी के निकलता ही नहीं और जिनकी रात राहुकाल, चौघड़िया और यमगंडम के बिना पूरी नहीं होती। अर्जुन सिंह से लेकर देवेगौड़ा तक भी बिना ज्योतिषी के परामर्श के कोई काम नहीं करते। और दक्षिण भारत के नेताओं की तो बात ही निराली है, क्योंकि मैंने ऐसे कई मंत्रियों को देखा है जो ज्योतिष गणना के आधार पर ही और लोगों से अपने दफ्तर में मिलते हैं। इसी तरह कई उद्योगपति और उच्च अधिकारी भी हर दिन चौघड़िया की सारणी और तालिका महत्वपूर्ण फाइल की तरह अपनी टेबल पर रखते हैं। और रही बात फिल्म जगत की तो भले ही वहां के सारथी और महारथी पश्चिमी पहनावे में अपने जिस्मों की नुमाइश करें मगर इस सबों का ज्योतिष में और ज्योतिषियों में बहुत ज्यादा विश्वास रहता है। फिल्म के मुहूर्त से लेकर उसके रिलीज करने की तारीख भी ज्योतिषी के परामर्श के बाद ही तय होती है। यहां तक कि कभी शाहरुख खान अपने हाथ में ताबीज गंडा बांधकर कहीं जा कर माथा टेंकते हैं तो कहीं एकता कपूर बिना बालाजी के दर्शन किए हुए और पंडित की सलाह और गणना के बगैर किसी नए टेलिविजन सीरियल का आगाज नहीं करती हैं। अमिताभ बच्चन से लेकर कई नामी गिरामी फिल्मी हस्तियां ज्योतिष में पूरी तरह विश्वास करती हैं और कई फिल्मी सितारे तो बिना उनके सलाह से घर के बाहर पैर भी नहीं रखते।
ये अलग बात है कि ज्योतिषी समाज में आपस में ही इतना वैमनस्य और झगड़ा कि एक आदमी की भविष्यवाणी पर उसका मीनमेख निकालने में दस और लोग कौआ की तरह टूट पड़ते हैं और बड़ी से बड़ी भविष्यवाणियों की बौछार शुरू हो जाती है। आजकल हर ज्योतिषी किसी भी टीवी चैनल पर आने को ललायित रहता है क्योंकि उसे मालूम है कि जो दिखता है वही बिकता है। और एक बार सप्ताहिक फल खाने का मौका मिल गया तो समझिए कि राजा भर्तृहरि का अमर फल मिल गया।

हमारे यहां पौराणिक मान्यता है कि जब कोई बच्चा पैद होता है तब से लेकर उसके मृत्यु तक का सारा लेखा जोखा वो अपने सिर पर ब्रह्मा जी से लिखवाकर लाता है जिसमें उसके अन्यप्रासन से लेकर 16 संस्कारों में दाह संस्कार की कवायत शामिल होती है ज्योतिष ऐसी महाविद्या है जिसके द्वारा कई चीज़ों के बारे में पूर्व ज्ञान तो होता ही है साथ ही ये भी पता चलता है कि अगर आपको गोली लगनी ही है तो उसकी दिशा और दशा में कुछ परिवर्तन की गुजाइश का रास्ता दिख जाता है। वैसे भी होनी और अनहोनी को तो कोई भी नहीं टाल सकता मगर इस विधा कि बदौलत उसके बारे में पहले से ही सचेत रहने का संकेत अवश्य मिल जाता है। लेकिन ये तभी संभव होता है जब ज्योतिषी गणना में पूरी तरह पारंगत हों और उन्हें इस विद्या का संपूर्ण ज्ञान हो। जरा सी भी चूक हुई तो अर्थ का अनर्थ हो जाता है और हारिणी अकसर ‘कारिणी’ हो जाती है दुर्भाग्य ये है कि हमारे देश में न ही गुरु द्रोण साबित बच्चे और न ही एकलव्य और अर्जुन। ऐसे में इस महाविद्या को फुहड़ बनाने वाले घटोत्कक्षों की फौज से बचने में ही भलाई है क्योंकि जिस तरह वो शंका और डर का बीज जन्म कुंडली से निकालकर एक आम आदमी के दिमाग में डालते हैं उससे कई लोग अपना मानसिक संतुल भी खो बैठते हैं। मगर हमारे खबरिया चैनलों के मसिहाओं को ये समझाए कौन ??

खबरिया चैनलों पर ज्योतिष का बुखार भाग-2

दरअसल ज्योतिष का बुखार और ज्योतिषियों की हिदायते कभी-कभी इतनी भयावह और जानलेवा हो जाती है कि उसका अंत नहीं होता। एक साहब को एक ज्योतिषी ने बताया कि जब भी बिल्ली रास्ता काट जाए तो वो उसके आगे गाड़ी नहीं चलाएं किसी दूसरे को आगे जाने दें। एक दिन ऐसा ही तब हुआ जब वो अपनी वृद्ध माता को मरणासन अवस्था में अस्पताल ले जा रहे थे कि बिल्ली ने रास्ता काट दिया। वो 10 मिनट तक किसी और के आगे आगे जाने का इंतजार कर रहे थे। मगर जब वो अस्पताल पहुंचे पाया कि उनकी मां का देहांत गाड़ी में ही हो गया और डॉक्टर के मुंह से निकला हुआ शब्द कि ‘काश आप यहां उनको 10 मिनट पहले ले आते ‘ उनको आज भी हर लम्हा सालता रहता है। इसी तरह एक ज्योतिषी ने एक साहब से यह कह दिया जिस लड़की से उनकी शादी हो उनके पीठ पर तिल के निशान जरूर देख लें। उन साहब ने घर आई लड़की से पहले वही सलूक किया और उसके हाथ से अपने मां-बाप के सामने ही थप्पड़ खा बैठे। कभी कभार ये कहना निहायत मुश्किल होता है कि क्या ज्योतिषी मुंह से निकला हर वाक्य ब्रह्म वाक्य है या फिर आदमी के मन में डर या शंका ज्यो अकसन मिलकर उसकी बुद्दि या और विवेक का कबाड़ा कर देते हैं। ज्योतिष ऐसा लड्डू बनकर रह गया है जिसको न निगले और न उगले बनता है। और अक्सर हां पढ़े-लिखे लोग भी ग्रह नक्षत्रों के चपेट में ऐसे आते है मानो की पतिंगा मकड़ी के जाल में फंस गया हो। लेकिन उससे निकलने के लिए छटपटा रहा हो।
मगर लब्बोलुआब ये है कि इलेक्ट्रॉनिक और ऑनलाइन ज्योतिषियों की फौज ने एक दो ऐसे साफ्टवेयर तैयार कर लिए जिसके चलते बेचारे तोते का पेशा भी छूट गया। उनको पता है कि आजकल के संभ्रांत से लेकर मध्यमवर्ग तक के लोगों के बीच सामान्य तौर पर तीन ही बीमारियां मिलती है। करियर, शादी और संतान का भविष्य और ज्योतिषियों की फौज इस कमज़ोरी से अच्छी तरह वाकिफ़ है इसलिए वो हर चैनल या अख़बार में कुंडली में ग्रहों की मंडली से लेकर नक्षत्रों के नखड़े, लग्नेश की लाठी, भाग्येश का झुनझुना, कर्मेश की कारस्तानी, लग्न का लौटा, मूल त्रिकोण की तिकड़ी, केंद्र का कृत्य, गोचर का गोबर, महादशा की महिमा, अंतर्दशा की जुगाली, प्रत्यंतर की परिक्रमा, सुखेश की सच्चाई, धनेश की धौकनी, चिंता की चिता, नवमांश का नमक, हौरा का हुल्लड़, कालचक्र का कुचक्र, साढ़ेसाती का मौसम और मांगलिक दोष का ऐसा लोमहर्षक और अधपकी खिचड़ी बनाते हैं जिसकी भूल-भुलैया में अच्छे अच्छे भी गुम हो जाए। अब ऐसे में ज्योतिष ज्ञान का केंद्र कम और त्रासदी ज़्यादा हो जाती है और आचार्य लोग ग्रहों के प्रकोप की ऐसी व्यूह रचना करते हैं कि उसमें अगर आप अभिमन्यू की तरह फंस गए तो आगे आपको जयद्रथ ही दिखेगा। यही वजह है कि बहुत से लोग इसी आशंका और भय से ग्रसित होकर इन ज्योतिषियों के दफ्तर के चक्कर लगाने पर मजबूर हो जाते हैं।
अब अख़बारों को देख लीजिए। तकरीबन हर अख़बार में दैनिक और साप्ताहिक राशिफल नियमित रुप से छपते हैं और आधी जनता उसी को पढ़कर अपने दिन-भर का कार्यकलाप तय करती है। और कई लोग तो उसे अक्षरश: सत्य मान लेते हैं। मिसाल के तौर पर एक अख़बार में एक ज्योतिषी ने सिंह राशि के व्यक्तियों के लिए भविष्यवाणी की, कल वो तुला राशि के लोगों से सावधान रहें। दुर्भाग्य से उनकी पत्नी की राशि भी तुला ही थी। वो बंधु घर पहुंचे और पूरी रात बिस्तर पर अपनी पत्नी को घूर-घूर कर देखते रहे कि क्या पता ये औरत कब धोखा दे जाएगी और इसी चक्कर में दोनों में तू-तू मैं-मैं इतनी बढ़ी कि एक हफ्ते में दोनों का तलाक हो गया। इसी तरह एक नामचीन चैनल पर राशि पढ़ने वाले पूरी दुनिया का भविष्य बता गए, मगर उनको ये नहीं मालूम पड़ा कि उनके बेटे की आधे घंटे के बाद एक सड़क दुर्घटना में मौत हो जाएगी। एक ऐसे ही सज्जन ने जब ये सुना कि अमुक दिन उनके लिए बहुत खराब है और ज्योतिषी महोदय ने टोटके के तौर पर पालक का पत्ता सुअर को खिलाने के लिए कहा। वो बेचारे पूरा दिन उसी की तलाश में घूमते रहे और जब शाम को सुअर मिली तो पत्ता खाने के बजाय उनके बाएं पांव का मांस ही फाड़ दिया और वो दस दिनों के लिए अस्पताल में भेज दिए गए।
इस तरह की घटनाएं तो आज भी अक्सर होती रहती हैं और ये सिलसिला पता नहीं कब जाकर रुकेगा। लेकिन इन ज्योतिषियों की वाणी उनका नाटकीय अंदाज़ और उनके वस्त्र भी ऐसे लगते हैं मानों वे इस संजीदे ज्ञानशक्ति का भी मखौल उड़ा रहे हैं। मिसाल के तौर पर एक नामचीन चैनल में बैठ जाने वाले ज्योतिषी महाराज की वेशभूषा ऐसी लगती है मानो वो सीधे शहंशाह अकबर के दरबार से आयातित किए गए हों। ये बाद में पता चला कि ये महाशय पहले दूरदर्शन लखनऊ केंद्र में एंकर हुआ करते थे। एक और नामचीन ज्योतिषी हैं जो चाणक्य के छोटे भाई दिखते हैं और उनके मुखारविंद से निकले शब्द ऐसे लगते हैं मानो किसी मॉल में पॉपकार्न उबल रहा हो। उससे भी खौफ़नाक नज़ारा एक ज्योतिषी का है जो अपने आप को शनिदेव का सबसे सच्चा सपूत मानते हैं और उनकी भविष्यवाणी भले ही सही हो न हो लेकिन हर शनिवार को करीब पांच सौ क्विंटल तेल की बिक्री का जुगाड़ हो जाता है। जनता में शनिदेव का डर बिठाने में इनका बड़ा योगदान है और इनके जलाल की महत्ता इस बात से आंकी जा सकती है कि एक ख़बरिया चैनल तो इनकी एक साल पुरानी भविष्यवाणी को भी टीआरपी के चक्कर में अपने चैनल पर दिखा रहा है। एक और चैनल पर तीन देवियां आती हैं जिनके नाज़ नखरे विदूषक राजू श्रीवास्तव को भी पसंद आते हैं। उससे भी बड़ी त्रासदी तब होती है जब एक चैनल पर एक तांत्रिक ये दावा करता है कि वो अपनी तंत्र विद्या से एक आदमी को मिनटों में मार देगा। पूरी दुनिया ये तमाशा लाइव देखती है। ज्योतिषी महाराज का तंत्र तो उस व्यक्ति का बाल भी बांका नहीं कर सका, अलबत्ता चैनल को इस ड्रामे के चलते जमकर टीआरपी मिली। ऐसा ही एक वाकया था बैतूल के पंडित कुंजीलाल का, जिन्होंने अपने मौत की भविष्यवाणी एक ख़ास दिन के लिए कर दी जिसके चक्कर में कम से कम तीन ख़बरिया चैनल टीआरपी का झोला भर-भर के घर ले गए। पंडित जी आज भी ज़िंदा है और अपने धंधे में तल्लीन है। पंडित जी तो नहीं मरे लेकिन उस दिन ज्योतिष की मौत जरुर हो गई।
उससे भी अजीबोगरीब है टेरो कार्ड जिसमें ताश की पत्तियों को ऐसे बिखेरा जाता है मानों किसी व्यक्ति का भविष्य नहीं तीन पत्ती का जुआ खेला जा रहा हो। और जुए की तरह ही ज़िंदगी की बाज़ी लग रही हो। टैरो कार्ड रीडर मूर्खता की सारी हदों को पार करते हुए ऐसे ऐसे टोटके बताती हैं जो सुअर को पालक खिलाने जैसे ही मुश्किल हैं। मगर बेचारी जनता इन तमाम लटके झटके को ऐसे भकोसती है जैसे इससे बड़ा सच कोई और हो ही नहीं।
इसकी तीन सबसे बड़ी मिसाल जनता के सामने हैं। पहली मिसाल ये है कि हज़ारों लड़कियां तीस-पैंतीस साल की उम्र में भी कुंआरी रह जाती है क्योंकि ज्योतिषी लोग उनको मांगलिक करार दे देते हैं। लेकिन अगर यही कन्या फिल्म अभिनेत्री ऐश्वर्या राय हो तो इन्हीं ज्योतिषियों की फौज लंबी चौड़ी फीस लेकर अभिषेक बच्चन से शादी करने से पहले एक केले के पेड़ के साथ शादी करने के बाद भगवान शिव का आशीर्वाद लेने की तरकीब बताती है।
ऐसे ही सन 2005 में दुबई में 50 हजार रुपये की तनख्वाह पर काम करने वाले भारतीय मूल के एक व्यक्ति ने आत्महत्या कर ली क्योंकि उसको किसी ज्योतिषी ने बता दिया था कि उसकी मौत जल्दी हो जाएगी। इस डर से उस शख्स ने आत्महत्या कर ली।
यही हाल सन 2001 में नेपाल के राजकुमार दीपेंद्र का हुआ था जिसने अपने माता-पिता और राजपरिवार के कई लोगों की हत्या इसलिए कर डाली क्योंकि वो लोग एक ज्योतिषी के सलाह पर उसके पसंद की लड़की से शादी नहीं करने दे रहे थे। ज्योतिषी ने 29 साल के राजकुमार दीपेंद्र से ये कहा था कि वो 35 साल तक की उम्र तक शादी न करें वरना उनके पिता का देहांत हो जाएगा।
इस तरह के और सैकड़ों उदाहरण हैं जो ज्योतिष जैसी महाविद्या को फूहड़ बनाने की दिशा में कई अधपके और गलियों में कुकुरमुत्तों की तरह उगे हुए हैं।
सबसे अजीबोगरीब बात ये है कि चैनल पर साप्ताहिक राशिफल बताने वाले ज्योतिषियों को भी इस खेल का हिस्सा बने रहने के लिये चैनल मालिक से लेकर प्रोड्यूसर तक के फरमान के आगे नतमस्तक होना पड़ता है क्योंकि भारत जैसे विशाल देश में पूरे साल ही तीज त्योहार का मौसम होता है। मौनी अमावस्या से लेकर गुरु पूर्णिमा तक इतने लंबे पर्व त्योहारों की फेहरिस्त होती है कि जिसके बारे में बोलन और उससे जुड़े हुए उपाय टोटके हर राशि से जोड़कर बताना इनके लिए सर्वोत्म मौका होता है और ये दोनों नहीं चाहते कि ज्योतिष के इस फलते फूलते कारोबार में कोई अड़चन आए इसीलिए वो इसको भुनाने के लिए हमेशा नई तरकीब इजाद करते हैं और चैनल मालिक हमेशा उन्हीं ज्योतिषियों को बुलाते जो उनका और उनके चैनल का कल्याण करने के लिये हमेशा तत्पर हों । उन्हें मालूम है कि जनता तभी आकर्षित होती है जब अगल किस्म की भविष्यवाणी अति नाटकीय अंदाज में पेश हो।
इसीलिए कोई शनिदेव के कोप के बारे में बखान करता है तो कोई राहू का रौद्र रूप भगवान शंकर के तांडव के अंदाज में पेश करता है। कोई नक्षत्रों के नखरे और चाल की गति पर तिलिस्म पैदा करता है तो कोई उपायों की पुड़िया मंदिर के आगे भक्तों में प्रसाद की तरह बांटता है। जनता इसको बजरंग बली के लड्डू की तरह लपकती ही जाती है।
ख़बरिया चैनलों के मालिक इनका सहारा लेकर अपनी तिजोरियां भर रहे हैं और जनता को सही सीख देने की बजाय गुमराह कर रहे हैं। टीआरपी के चक्कर में चैनल के चाणक्य ऐसे ऐसे कार्यक्रम बनाते हैं जिससे दोनों की दुकान खूब चले भले ही एक आदमी का बेड़ा गर्क हो जाए। ये तो हमारे यहां की परंपरा रही है कि अजा पुत्रम बलिं ददात, देवो दुर्बल घातक:, और इन नक्षत्रों के चक्कर में अक्सर आम आदमी ही मारा जाता है।

मंगलवार, 9 मार्च 2010

क्राइम शो की खेती

पिछले हफ्ते एक मित्र से मिलने गाज़ियाबाद गया तो वहाँ एक अजीबो गरीब नजारा देखने को मिला। मेरे मित्र के छोटे भाई का बायां हाथ टूटा हुआ, चेहरा सूजा हुआ और बदन पर कई जगह पर चोट के निशान थे। पूछने पर पता चला कि वो बेचारा किसी माल में घूमने गया था और वहाँ कुछ लोगों ने उसकी अचानक पिटाई कर दी। उसका कसूर सिर्फ़ ये था कि वो एक खबरिया चैनल में 'इंटर्न' के तौर पर काम करने गया था। वहाँ उसे किसी क्राइम शो के लिए कुछ दृश्यों का 'नाट्यरूपातंरण' करने को कहा गया जिसमें उसकी भूमिका एक बलात्कारी की थी। मॉल में घूमते वक्त कुछ लोगों ने वही प्रोग्राम किसी टीवी चैनल पर आते देखा और सामने ही उस शो के बलात्कारी को मजे से घूमते देखकर अपना सारा आक्रोश उसी पर निकाल दिया।

में हैरान रह गया। तभी मेरे मित्र की मां सामने आई और हरी-हरी बद्दुआओं की बौछार शुरू हो गयी "बेड़ा गर्क हो इन चैनल वालों का' एक तो मेरे फूल से बच्चे से गधे की तरह काम करवाते हैं और फिर उल-जलूल की रिकॉर्डिंग करते हैं और देखो कल इसका क्या हाल हो गया। धिक्कार है तुम लोगों पर जो ऐसी नीच हरकत करते हो और सामाजिक मूल्यों और मान्यताओं का सत्यानाश करने पर तुले हो"।
मेरे मुंह से शब्द नहीं निकल रहे थे। फिर माताजी ने जो एक और कहानी सुनाई उसे सुनकर दिल वाकई बैठ गया। दरअसल हुआ ये कि उनके एक रिश्तेदार की लड़की पत्रकारिता का कोर्स खत्म कर एक चैनल में 'इंटर्नशिप' करने गयी थी। वहां उसको किसी खास क्राइम शो के लिए किसी कहानी का 'रिकस्ट्रक्शन' के एक किरदार का रोल करने को कहा गया। लड़की खुश थी कि इसी बहाने उसकी शक्ल टीवी पर दिख जायेगी। कार्यक्रम के प्रभारी ने ये झाँसा दिया कि एंकरिग सीखने के लिए कैमरे के सामने निडर होना अत्यन्त आवश्यक है। पर लड़की को ये नहीं पता कि इसका अंजाम क्या होगा।
खैर, क्राइम की स्टोरी का वो अंक रिकॉर्ड कर लिया गया। मगर बम तो तब फूटा जब उस लड़की की होने वाली सास ने ये कह कर मंगनी तोड़ दी। कि ऐसी कुलक्षिणी को अपने घर पर कैसे ला सकती है जब उसके बलात्कार का नजारा पुरी दुनिया ने टीवी पर देख लिया है।

तब मुझे लगा कि खबरिया चैनलों द्वारा की जा रही क्राइम शो की खेती से निकली फसल कितनी तीखी और जहरीली हो रही है और उसका जनमानस तथा खासकर बच्चों के दिलों-दिमाग पर क्या असर हो सकता है।
दरअसल भारत का दर्शक समाज अक्सर अमेरिका तथा ब्रिटेन के कई क्राइम शो की फूहड़ नकल का आदर्श कूड़ेदान बनता जा रहा है। हैरानी की बात ये है कि बीस साल पुराने शो को भी भारत में स्थानीय जड़ी-बूटी डालकर परोसने के बाद भी हमारी जनता उसे भैंस के चारे की तरह भकोस रही है। अमेरिका में 1960 तथा 1970 के दशक में लॉ एंड ऑर्डर मियामी वाइस ब्रुकलिन साउथ या एनवायपीडी जैसे क्राइम संबंधित शो काफी लोकप्रिय रहे। एनवीसी चैनल पर दिखाया गया “गैंगबस्टर” शो काफी चर्चित रहा जिसमें पुलिस की फाइल से उठाए गए अपराधी तथा अपराधियों के कारनामों को नाट्यरुपांतरण करके जनता को इनके बारे में अपील तथा आगाह करने का प्रयास किया गया था। उससे भी बेहतर रहा क्राइम स्टोरी। गुस्ताभ रेनिंगर तथा चक एडमसन द्वारा निर्मित क्राइम स्टोरी शो को उस समय एनवीसी टीवी के तीन करोड़ से ज़्यादा दर्शक बड़े चाव से देखते थे। उसी के मुक़ाबले एवीसी चैनल ने ‘मूनलाइटनिंग’ नामक क्राइम शो दिखाना शुरु किया था। उदाहरण के तौर पर क्वीन मार्टिन का ‘अनटचेबल्स’ क्राइम शो एफबीआई की फाइलों से ली गई सच्ची कहानियों पर आधारित था। मार्टिन द्वारा बनाए गए अन्य क्राइम शो में ‘द फ्यूजीटिव’ एफबीआई कैनन आदि काफी चर्चित रहे। सन 1980 के दशक में जोसेफ वामबाग का पुलिस स्टोरी भी काफी कामयाब रहा जिसने अपराधियों की सही मनस्थिति और अपराध की दुनिया में पुलिस विभाग की कमियों और साठ गांठ की पोल खोली थी। उसके बाद फॉक्स चैनल पर प्रसारित हुआ अमेरिका का ‘मोस्ट वांटेड’ जिसने लोकप्रियता के सारे पायदान तोड़ दिए और अमेरिकी दर्शक उसके दीवाने हो गए। इस शो के चलते दर्शकों में खूंखार अपराधियों के ख़िलाफ जागरुकता पैदा हो गई और 1990 से 1992 के बीच इस शो में दिखाए गए 159 में से कुल 45 शातिर अपराधी जनता द्वारा दी गई जानकारी के आधार पर पकड़े गए।
उसके बाद तो दुनिया के कई देशों में टीवी चैनलों पर ऐसे क्राइम शो की झड़ी सी लग गई और हमारा देश भी इससे अछूता नहीं रहा। सबसे पहले देश की जनता ने अपराध से जुड़े सीरियल पंकज कपूर का ‘करमचंद’ देखा जिसमें उन्हें बुद्धि का उद्भव केंद्र था और ‘शट-अप किटी’ तकिया कलाम बड़ा मशहूर हुआ था। इसी तरह अंग्रेजी का पहला क्राइम सीरियल था ‘शरलक होम्स’ जिसको मध्यमवर्गीय जनता ने एक नए अजूबे की तरह देखा और सराहा।
मगर सही मायने में भारत का पहला असली क्राइम शो था शोएब इलियासी का ‘इंडियाज़ मोस्ट वांटेड’, जिसके ज़रिए बड़ी बड़ी अपराध की घटनाओं का रिकंस्ट्रक्शन करके दिखाया जाता था और अपराधी की असली तस्वीर भी दर्शकों को दिखाई जाती थी और उससे भी नायाब था इलियासी का बड़ा ही नाटकीय प्रस्तुतिकरण और उनकी आवाज़। 1998 में शुरु हुए इस शो ने इलियासी को रातों रात स्टार बना दिया था। मगर दुर्भाग्य से इतने लोकप्रिय क्राइम शो के प्रस्तुतकर्ता खुद ही अपनी पत्नी को छुरा घोंपने के आरोप में पकड़े गए और जेल की हवा भी खाली।
उसके बाद जो दौर शुरु हुआ उसमें हर ख़बरिया चैनल अपने ही आंगन में दो से पांच क्राइम शो तक धनिया और मैथी की तरह उगाने लगे। आज तक से लेकर ज़ी न्यूज़ तक ने भी इसमें कई नए हथकंडे अपनाए और उसका कुंडा विज्ञापन के मकड़ों को पकड़ा दिया और करीब चाल बरसों तक यही क्राइम शो इन चैनलों की तिजोरी भरने लगा। आलम ये हुआ कि हर हफ्ते बलात्कार और हत्या, कबूतरबाज़ी से लेकर तमाम तरह के गुनाहों की फेहरिस्त इन कार्यक्रमों में खोजी और शामिल होने लगी और एक रिपोर्ट के अनुसार आईसीआईसीआई बैंक से लेकर नेवला छाप दंतमंजन तक बनाने वाली कंपनियों ने विज्ञापनों की बरसात कर दी। इन सारे चैनलों पर दिखाए गए क्राइम शो उर्दू शब्द कोष के कुछ पन्ने की तरह दिखाई दे रहे थे। आज तक के जुर्म और वारदात से लेकर तफ्सीस, सफेदपोश मुजरिम से लेकर फरार मुजरिम तक दिखा तो ज़ी न्यूज़ ने क्राइम रिपोर्टर और क्राइम फाइल की फाइल ही खोल डाली। सहारा टीवी ने ‘हैलो कंट्रोल रुम’ बनाया तो आईबीएन-7 ने ‘क्रिमिनल’ और हर हफ्ते टीआरपी के थर्मामीटर का पारा आसमान छूने लगा। उधर सोनी पर क्राइम पेट्रोल से लेकर एनडीटीवी इंडिया का एफआईआर और डायल 100 लोगों के दिमाग पर ताबड़तोड़ घंटिया बजाने लगा। और पिछले तीन सालों तक आलम ये था कि भारत में ख़बरिया चैनलों पर 37 ऐसे क्राइम शो की फसल लहलहा रही थी। और जनता अगहन में पके धान की तरह उसे दोनों हाथों से उठाकर अपने बैडरुम तक ले जा रही थी। लेकिन क्राइम शो की दुनिया में जितना बड़ा धमाका बीएजी फिल्म्स द्वारा निर्मित सनसनी ने किया उसकी आज तक कोई मिसाल नहीं है। तभी ये पहली बार मालूम हुआ कि नेशनल स्कूल ऑफ ड्रामा के बुलाए गए कलाकार कितनी आसानी से ये काम कर सकते हैं। अपने अनोखे नाजनख़रे की वजह से दर्शकों के चेहरे पर मुस्कराहट भले ही एक सेकेंड के लिए ना ला पाए लेकिन एक आम ख़बर को ख़ौफनाक बनाकर दर्शकों के जेहन में डर का कतरा ज़रुर डाल दिया जाता है। चाहे डी डी न्यूज़ पर रंगे हाथ हो या फिर इंडिया टीवी पर एसीपी अर्जुन या फिर स्टार न्यूज़ पर सनसनी। इन तमाम क्राइम शो की एक ही मंशा है और वो है दर्शकों के भेजे में डर की गोली दाग़ना। ऐसे कई उदाहरण है जहां क्राइम शो देखने के बाद लोगों की रात की नींद उड़ गई। कई महिलाओं का गर्भपात हो गया और कई बच्चे मानसिक तौर पर विचलित हो गए। कई मनोचिकित्सक भी ये मानते हैं कि इस तरह के शो से मानसिक तनाव और आघात लगता है और इसे देखकर दर्शक हताशा की स्थिति में पहुंच सकता है। शायद इसीलिए विदूषक राजू श्रीवास्तव ने अपने शो में स्टार न्यूज़ में दिखाए जाने वाले सनसनी कार्यक्रम और उसकी टैग लाइन आप कहीं मत जाइए, हम ब्रेक के बाद फिर हाज़िर होते हैं एक नई सनसनी लेकर। राजू ने अपने अंदाज़ में कहा कि दर्शक सनसनी देखकर इतना भयभीत है कि वो उठकर कहीं जा ही नहीं सकता।
मगर पिछले 3 सालों में जनता को गुनाह के संगीन किस्सों की असली किरदार, प्रस्तुतकर्ताओं के हैरतअंगेज अंदाज तथा डरावना और कनफोड़वा संगीत की छौंक ने इतना विचलित कर दिया कि वो इसके नाम से दूर भागने लगे। आज भी कुछ चैनलों पर हालांकि ऐसे क्राइम शो चल रहे हैं मगर उनकी लोकप्रियता और दर्शकों के मूड में काफी बदलाव आ गया है।


चैन से सोना है तो जाग जाओ......। आज हम दिखाएंगे आपको ऐसा खौफनाक मंज़र......। खूनी खेल देख कर आपका दिल दहल जाएगा...... जैसे डरावने शब्दों के साथ नाटक कंपनी से भर्ती किए गए एंकर खबर कम बताते हैं आंखे और मुंह ज्यादा चमकाते हैं। क्राइम शो की खेती करने वाले न्यूज चैनल के चाणक्य टीआरपी के लिए क्राइम कि खबरों में खाद और पेस्टीसाइड्स का ऐसा तड़का लगाते हैं कि दर्शकों को समझ में नहीं आता कि वो समाचार देख रहे हैं या डरावना सीरियल। कई बार तो ऐसा होता कि रात को 11 बजे न्यूज चैनल पर चल रहा क्राइम शो देख रहा दर्शक इतना डर जाता है कि रात भर अच्छे सो नहीं पाता उसे उस भुतहे एंकर की वही लाइन बार-बार सुनाई देती है कि ऐसा आपके साथ भी हो सकता है।
क्राइम शो की खेती करने वाले चैनलों का बस एक ही मकसद होता है कि हमारे प्रोग्राम की टीआरपी दूसरे चैनल से ज्यादा हो। क्राइम की खबर जाए तेल लेने, बस टीआरपी घी लेकर आ जाए। हद तो जब हो जाती है जब क्राइम शो में नाट्यरूपांतरण दिखाया जाता है गांव में बैठा भोला-भाला दर्शक अपने बेटे से कहता है ‘ये बेचारी लड़की का बलात्कार हो रहा है और टीवी वाले चित्र उतार रहे हैं, बचाते काहे नहीं’....... वो बेचारे गांव का आदमी जिसके लिए काला अक्षर भैंस बराबर होता होता टीवी स्क्रीन पर कोने में लगी छोटी सी नाट्यरूपांतरण का पट्टी पड़ नहीं पाता। और नाट्यरूपांतरण को सच्ची घटना मान लेता है। और इस तरह देश के हर कोन से टीआरपी के अंक चौके-छक्के की तरह आते है। चैनल के चाणक्य खुश होते है और एंकर अपनी नौटंकी की सफलता से एक दिन मशहूर अभिनेता बनने के सपने दिन में देखता है।
टीवी स्क्रीन पर खून के छींटे, धार दार चाकू, घूमती हुई पिस्तौल दनदनाती हुई गोली दिखाते हुए ऐसा बैकग्राउंड म्यूजिक लगाया जाता है घर में परिवार के साथ टीवी देख रहा छोटा बच्चा डर के मारे मां की छाती से चिपक जाता है। मां बच्चे की हालत देखकर पति से चैनल बदलने के लिए कहने लगती है। लेकिन खून खेल से टीआरपी की हांडी भरती रहे मासूम बच्चों के बारे में सोचने का वक्त न्यूज चैनलों के चाणक्यों के पास कहां? टीआरपी की भूख यहीं ख़त्म नहीं होती। कई बार जब प्रतिद्वंदी चैनल में टीआरपी से उद्वेलित क्राइम का कोई ज़बर्दस्त प्रोग्राम आता है तो दूसरे चैनल की सांस फूलने लगती है और जब कुछ समझ में नहीं आता तो चैनल के डायरेक्टर कहते हैं कि ब्लू फिल्मों को लेकर हमने पिछले साल जो प्रोग्राम दिखाया था उसको ही रिपीट कर दो। ब्लू फिल्मों के पैकेज को नए एंकर लिंक के साथ चला दो वो पूरी तरह बिक जाएगा। चैनलों की हालत कुछ ऐसी ही हो गई है, क्राइम को दिखाने का मकसद देश से अपराध का ख़ात्मा करना नहीं बल्कि टीआरपी के लिए उसका महिमा मंडन करना है।
पिछले दस साल से क्राइम की खेती कर रहे क्रिमनल माइंड पत्रकारों ने खूब बाह-बाही बटोरी, क्राइम शो ने फैशन शो से ज्यादा पैसा कमाकर दिया, नाम और दाम दोनों मिला..... क्राइम शो को पहले दर्शक जिज्ञासा से देखता था फिर मनोरंजन की तरह देखने लगा.... ऐसे में दस साल देखते ही देखते बीत गए लेकिन अब दर्शक क्राइम शो के तिलिस्म से निकल रहा है। क्राइम शो की खेती करने वाले किसानों की फसल अब नहीं बिक रही है टीआरपी के टोटे पड़ रहे हैं, खूनी खेल अब फेल हो रहे हैं, क्राइम शो देखते ही दर्शक अब ऐसे बिदक रहे हैं जैसे शादी के बाद लड़की अपने पुराने व्वॉयफ्रेंड को देखकर बिदकती है। क्रिमनल माइंड पत्रकार शब्द से हो सकता है कि हमारे कुछ साथी इत्तेफाक नहीं रखे लेकिन एक बार एक नामी गिरामी न्यूज़ चैनल के क्राइम शो की एंकरिंग करने वाले शख्स ने खुद टुन्न होकर एंकरिंग की और जनाब जब स्टूडियो से बाहर निकले तो खुद उनके सिर पर भी क्राइम की सनक चढ़ गई और उन्होंने दफ्तर में ही एक महिला एंकर का हाथ पकड़ लिया और कहने लगे मुझसे शादी करोगी। हालांकि महिला एंकर के तमाचे से उनके सिर से क्राइम का भूत तुरंत उतर गया लेकिन महाशय को कुछ दिनों के लिए चैनल से निलंबित कर दिया गया। हालांकि उन्हें दोबारा मौका मिला तो एक बार फिर ये जनाब टुन्न होकर क्राइम शो की एंकरिंग करने पहुंचे तो स्टूडियों में ऑन एयर ही लुढ़क गए लेकिन जनाब की नौकरी कई दिनों तक सही सलामत रही।
क्राइम शो की खेती में लगे ‘क्रिमिनल माइंड’ के रिपोर्टर बेचैन हैं चैनल के चाणक्य हैरान-परेशान है। समझ नहीं पा रहे कि खूनी खेल क्यों फेल हो रहे हैं। कुछ चैनलों की यहां तक नौबत आ गई कि उन्हें क्राइम शो की खेती बंद करनी पड़ी। नौटंकी करने वाले डरावने एंकर की नौकरी का तेल हो गया। नाट्यरूपांतरण रचने वाले नाटककार का रोल भी चपेटे में आ गया।

सोमवार, 8 मार्च 2010

मैनेजिंग एडिटर और मैनेजिंग रिपोर्टर भाग-2

कुछ साल पहले जब मुझे एक टीवी चैनल द्वारा साक्षात्कार के लिये बुलाया गया था तो वहां के प्रबंध संपादक मेरे सीधे जवाब से काफी उकड़ू से हो गये थे और कह भी दिया कि ‘ पंडितजी, आपका तेवर बवाली लगता है। मैं नहीं समझता कि आप यहां के माहौल में बहुत साल चल पाएंगे‘। मेरा जवाब यही था कि-
हिम्मत से सच कहो तो बुरा मानते हैं लोग
रो रो के बात कहने की मेरी आदत नहीं रही।
इस पर वो और आग बवूला हो गए और आगे जो अपनी कमज़र्फी और कमीनेपन का सबूत पेश किया उसके बाद मैंने उनका नाम तक लेना भी मुनासिब नहीं समझा। बात न तनख्वाह की थी न ही ओहदे की। ये लड़ाई उसूल की थी और मैंने वहां मुलाजमत कर हर दिन अपनी ज़मीर से लड़ाई करना ग़वारा नहीं किया।
एक और जगह भी तकरीबन वही नजारा दर पेश आया। उस इंटरव्यू के मुतजिम ने मुझे पहले ही आगाह किया था कि यहां पर आप को बहुत सारे पापड़ बेलने पड़ेंगे। मैंने कहा मैं तो बेलन लेकर आया हूं। ज़रा देखूं तो सही कि पापड़ का रंग क्या है? उनकी बात सही निकली और नियुक्ति पत्र के साथ-साथ दस फरमाइशों की फेहरिस्त जब सामने आई तो मैंने उन साहब के सामने उन तमाम कागज़ातों को फाड़ते हुए यही कहा कि –
हमने तो एक क़तरे का एहसान ग़ंवारा न किया
लोग ख़ुदा जाने पी गए समंदर कितने।
तब से लेकर अबतक मैंने उन्हीं एहसासों और उसूलों को अपने साथ लेकर चलने की कोशिश की है और आज भी वो सफर बदस्तूर जारी है। ये सही है कि उन ज़रख़ार ज़मीनों और रास्तों पर चलते हुए पांव कई बार लहू लुहान हो गए लेकिन उपर वाले की दुआ से अबतक मेरे जोश, अज़्म और पायेइस्तकलाल में ज़रा सी भी जुम्बिश नहीं आई। कभी उन दिनों को याद करता हूं तो वही शेर बार-बार ज़हन में आता है कि-
हमसे सजदे की उम्मीद करते थे वो
जिनको भूल से हमने ख़ुदा कह दिया
सरफ़रोशी की जब-जब भी की आरजू
दोस्तों ने हमें सिरफिरा कह दिया
पिछले हफ्ते एक नामचीन चैनल के संपादक को लालाजी ने बुलाकर कहा की भले ही उनकी एंकरिंग और बाजार में साख अच्छी हो मगर जब तक टीआरपी नहीं आएगा और विज्ञापन नहीं मिलेंगे तब तक उनके सिर पर नौकरी चले जाने की तलवार लटकती ही रहेगी। संपादक महोदय की खोपड़ी भन्ना गई और वो पांव पटकते अपने केबिन में आए। फौरन अपने मातहतों को बुलाकर चीखना शुरूकर दिया ’भाई लोगों पत्रकारिता तो गई तेल लेने। कल से आप लोग नए किस्म का मुजरा करने के लिए तैयार रहें। मालिकों की तिजोरी अपनी मेहनत का पसीना बहा कर भरने के अलावा एक और जिम्मेदारी कंधे पर डाल दी गई है। अब इनके गंदे कपड़े पर लगे दाग-धब्बे भी हमें साफ करने पड़ेंगे। या यूं कहें आज से हम लोग हाईक्लास धोबी हो गए हैं क्योंकि हमें हर कुछ मैनेज करना पड़ेगा। पर क्या करें? पापी पेट का सवाल जो है ‘।
दरअसल देखा जाए तो 1970 के दशक में रामनाथ गोयनका और आज के युग के विनीत जैन जैसे मालिकों के इरादे तथा विचारों में कोई खास फर्क नहीं है। आज पत्रकार और पत्रकारिता दोनों की छवि काफी बदल चुकी है और ये दोनों मालिक के हाथों की कठपुतली बनकर नाचते हैं, जबकि रामनाथ गोयनका अपने औद्योगिक साम्राज्य के हितों को अखबार तथा उसकी स्वतंत्रता तथा प्रजातांत्रिक अधिकार की पुड़िया तथा बंडल में लपेट कर पेश किया करते थे और जनता उनको सरकारी दमन तंत्र के खिलाप लड़ने वाला हरक्युलिश मानती थी। सच्चाई ये है कि प्रेस की आजादी तथा इंदिरा गांधी सरकार द्वारा आपात काल के हनन की दुहाई देने वाले गोयनका अपनी व्यक्तिगत अहम की लड़ाई को एक राष्ट्रीय मुद्दा बनाने में काफी हद तक सफल रहे थे। तब भी ऐसे मालिक आत्म सम्मान वाले, लिखे पढ़े, अनुभवी तथा विवेकशील संपादकों को निकल दिया करते थे। आज भी कई टीवी चैनलों के संपादक या प्रबंध संपादक निकाल दिये जाते हैं। फर्क इतना है कि उस समय बदनाम सरकारी तंत्र होता था (मसलन उपर से,यानि सरकार का आदेश था ) और आज कल टीआरपी होता है।
पहले लोग संपादक को हमेशा पढ़ते थे। टिप्पणी और लेख के माध्यम से कभी कभार सुनते थे और रेडियो या दूरदर्शन पर साक्षात्कार के जरिये कभी कभार उनकी शक्ल भी देख लेते थे। आज वो पैमाना उल्टा हो गया है। आज हर टीवी एडीटर या मैनेजिंग एडिटर की असली पहचान ये है कि वो अपना खास शो जरूर करेगा भले ही उसके लिए न शक्ल और न ही अक्ल से ही लायक हो। ऐसे कई टीवी चैनल हैं जहां के मैनेजिंग एडिटर ऐसा शो करना जन्मसिद्ध अधिकार समझते हैं क्यों कि उनका मकसद किसी विशेष या सामयिक विषयों पर निरपेक्ष या तटस्थ भाव से चर्चा करना नहीं बल्कि आत्ममान मंडन या आत्म मुग्धता का हउआ खड़ा करना होता है। विषय चाहे कोई भी हो, न्यूज चैनलों के मैनेजिंग एडिटर जब तक प्राइम टाइम के शो में अपने एंकरिंग के जलवे नहीं बिखेरे तब तक उनकी पहचान और टीआरपी नहीं गिनी जाती है। एक दो खबरिया चैनलों के मैनेजिंग एडिटरों को प्राइम टाइम शो में जब एकाध सामरिक विषयों पर धारा प्रवाह बकवास करते देखा तो यकीन हो गया कि लक्ष्मी माता का वाहन उल्लू को छोड़ कर और कोई दूसरी चिड़िया तो हो ही नहीं सकता था।
आज कल के मैनेजिंग एडिटर की फौज में कुछ लोगों ने काफी मेहनत से अपनी जगह बनाई है मिसाल के तौर पर एनडीवी की बरखा दत्त के नाज़ नखरे या नौटंकी नुमा अंदाज़ से कोई इत्तफाक भले ही न करे मगर अंग्रेजी पत्रकारिता के क्षेत्र में उनकी एक विशिष्ठ पहचान तो है। उसी तरह सीएनएन-आईबीएन के राजदीप सरदेसाई का अंदाज भले ही काफी आक्रामक और लट्ठमरा टाइप का हो लेकिन उनकी भी अपनी अलग छवि और नाम तो है। मगर इसका मतलब ये नहीं कि हर प्रबंध संपादक उसी तरह के हों।
हिंदी न्यूज चैनलों के इस किस्म के संपादकों की फौज की अदाएं निराली हैं। मिसाल के तौर पर इंडिया टीवी के रजत शर्मा जब जी न्यूज के प्रबंध संपादक थे तो उनका अलग तेवर और तकिया कलाम था अब वो इंडिया टीवी के मालिक है तो उनकी सोच और समझदारी का स्तर काफी अलग सा दिखता है। टीआरपी का ग्रहण उस चैनल पर भी दिखाई देने लगा है। रात को 11 बजे के बाद वो खबरिया चैनल किसी सेक्स संबंधित क्लीनिक जैसा दिखने लगता है। क्योंकि उसमें समाचार पर कम मगर व्याभिचार के नए तरीके पर ज्यादा बहस होत है। इसी तरह कई और हिंदी न्यूज चैनलों में मैनेजिंग एडिटर का दबदबा तथा रुतबा का मिलाप प्रतिभा तथा अनुभव से ही मिला दिखाई नहीं देता। ये प्रबंध संपादक कुछ खास ऐसा जरूर करते हैं जिससे लोग तथा खासकर उनके मातहत काम करने वाले लोग ये कहें कि ये तरीका फलाने मैनेजिंग एडिटर ने ईजाद किया था।
एक चैनल में एक नए मैनेजिंग एडीटर ने सुबह की मीटिंग लेने के लिए नया तरीका ईजाद किया ताकि सारे लोग यह जान जाएं कि वह किस तरह अपने रिपोर्टर्स की स्टोरी आइडिया देने के साथ-साथ उसको अच्छी डांट भी पिलाते हैं और ये सब उस फोन पर होता था जिस पर आवाज सब लोग सुन सकते थे मगर एक दिन उनके एक वरिष्ठ संवाददाता ने किसी स्टोरी के बावत उनकी ऐसी पतलून उतारी की मैनेजिंग एडिटर साहब का फोन पर मीटिंग लेने का बुखार हमेशा के लिए उतर गया।
कुछ ऐसे ही मैनेजिंग एडिटर होते हैं जिनकी अनोखी हरकत तथा अंदाज पूरे चैनल में परिहास का विषय बनकर रह जाता है। कुछ वर्ष पहले एक प्रतिष्ठित न्यूज चैनल के मैनेजिंग एडिटर ने कहा कि गुजरात में अचानक आई बाढ़ का कवरेज वायुसेना के हेलीकाप्टर में जाकर किया जाए। साथ ही उसके दिमाग में यह भी ख्याल आया कि अगर उनका रिपोर्टर हेलीकाप्टर में बैठकर ‘पीटीसी’ करे तो वह वाकई अनोखा और एक्सक्लूसिव होगा। दरअसल मैनेजिंग एडिटर साहब को ब्रेकिंग न्यूज तथा एक्सक्लूसिव शब्दों से बेइन्तहा प्यार था। बस क्या था उन्होंने फौरन रिपोर्टर को फरमान जारी कर दिया कि हुक्म की तामिल हो। मगर रिपोर्टर को यह सब बात बेतुकी लगी क्योंकि वह चाहता था कि कैमरे की बैटरी खत्म होने से पहले बाढ़ का ‘एरियल शाट’ मिले बिना कार्डलेस माइक या सिगनेट के यह लाइव नहीं हो सकता था।
रिपोर्टर ने अपना काम किया और कैमरे की बैटरी खत्म होने से पहले अपनी स्टोरी पूर कर हेलीकाप्टर के नीचे उतर आया और टेप भिजवा दी। मैनेजिंग एडिटर साहब को जब यह सूचना मिली तो वह लाल-पीला हो गया और जवाब तलब किया कि उनके हुक्म की तामील क्यों नहीं हुई? इस पर चिढ़े रिपोर्टर ने कह दिया की हेलीकाप्टर में पीटीसी करने के लिए उतना लंबा तार नहीं था और न ही उसके पास कॉर्डलेस माइक था। रिपोर्टर की इस छेड़खानी पर बाकी लोग हंस पड़े मगर मैनेजिंग एडिटर साहब का पारा सातमें आसमान पर चढ़ गया। उन्होंने रिपोर्टर पर हरी-पीली गालियों की झड़ी लगाते हुए कहा ‘साले, तार क्यों नहीं ले गए? नौकरी करनी है या नहीं? मैं इस चैनल का मैनेजिंग एडिटर हूं समझे। मैं तुम्हारा करियर खराब कर दूंगा ‘।
अब इस अक्ल के दुश्मन को कौन समझाए कि चार हजार फीट की ऊंचाई पर उड़ रहे हेलीकाप्टर में पीटीसी करने के लिये कार्डलेस माइक के अलावा यूवीई के लिए खास किस्म का उपक्रम और मशीन
चाहिए । नीचे से 4 हजार फीट की उंचाई पर तार जोड़ना उसके बूते की बात नहीं। और वैसे भी कौन रिपोर्टर और कैमरामैन किसी भी स्टोरी को लाइव कवर करने के लिये 4 हजार फीट लंबा तार हमेशा अपने साथ लेकर जाएगा? तकरीबन अधिकांश न्यूज चैनलों में मैनेजिंग एडिटर की नायाब अदाओं तथा तेवर के किस्से सुनने को अक्सर मिलते हैं। मगर तकरीबन हर चैनलों में कुछ ऐसे अनुभवी और विद्वान लोग होते हैं जो बड़ी चतुराई से प्रबंध संपादक महोदय की बेहूदी हरकतों पर पर्दा डाल कर चैनल को मजाक का पात्र बनने से बचा लेते हैं।
आज की स्थिति यह हो गयी है कि रिपोर्टर भी मैनेजमेंट का काम देखने लगे हैं। और वह अपनी बीट की रिपोर्ट भले ही न फाइल करें मगर मैनेजमेंट की औद्योगिक तथा मार्केटिंग से संबंधित हर समस्या का समाधान उनकी पहली जिम्मेदारी होती है। इसीलिए हर बड़े चैनल का रिपोर्टर भले ही किसी खास मंत्री के प्रेस कॉन्फ्रेंस के मौके पर उपस्थित न हो मगर इसका मतलब ये नहीं कि वो रिपोर्ट मिस कर गया या फिर उसके चैनल से कोई खास खबर छुट गई हो।
आजकल तकरीबन हर टीवी न्यूज चैनल का रिपोर्टर अपने पास कलम या कागज़ का पैड अपनी जेब में नहीं रखे मगर वह वीडियो एडाप्टर या कन्वर्टर अपनी जेब में हमेशा लेकर चलेगा क्यों कि यही तो जीवट की आधारशिला और उसकी जुगाड़ टेक्नॉलाजी का महायंत्र है। बाइट किसी भी मंत्री या संत्री का हो कुछ ही मिनटों के अंदर उसे जुगाड़ तकनीक के मार्फत मिल जाता है। उसके बाद वह रिपोर्टर अपने निजी हितों को संभालने में लगाता है या फिर मैनेजिंग एडिटर साहब के फरमान की तामील करने में। उसे पता है कि अगर संपादक महोदय की बेटी का दाखिला किसी प्रतिष्ठित स्कूल में बिना डोनेशन के हो गया तो एक साल तक उसकी नौकरी पक्की। फिर वह बिना वजह लिखने पड़ने की जहमत क्यों उठाए? इससे अच्छा है कि अपने चैनल के लिए विज्ञापन कमाए, अपने एडिटर के लिए विदेश यात्रा का साधन कमाए और अपने लिए बाकी सब कुछ कमाए।
प्रिंट मीडिया की तरह ही टेलीविजन न्यूज रिपोर्टरों का बड़ा गिरोह इसी पद्दति पर चलता है और फलता फूलता है। इसी तरह तकरीबन हर दिन कई बाइट और शॉट्स रिपोर्टरों की फौज तथा गिरोह द्वारा मिनटों में मैनेज होते हैं। और घंटे के अंदर ही एक चैनल को दिया गया बाइट हर चैनल के पास होता है। उसके बाद घटना विशेष को तलने पकाने और खेलने का एजेंडा तैयार होता है। और उसकी आखिरी शक्ल-सूरत मैनेजिंग एडिटर के हाथों में होती है। और यह सिलसिला हर दिन बदस्तूर जारी रहता है।
शायद यही वजह है कि पत्रकारिता का स्तर दिन प्रतिदिन फूहड़ होता जा रहा है। अब तो एक दो चैनलों में मैनेजिंग क्राइम रिपोर्टर भी हो गए हैं और आने वाले दिन में पता नहीं क्या-क्या होगा?
पर पत्रकारिता के बदले परिवेश तथा परिपेक्ष्य में भी कुछ ऐसे लोग हैं जिनको अपना आत्मसम्मान व्यक्तिगत तथा सामाजिक मूल्य आज भी बहुत प्यारा है और उनको इस बात से कोई तकलीफ नहीं कि उनकों किसी बड़े चैनल या अखबार में मैनेजिंग एडिटर की कुर्सी नहीं मिली क्योंकि....
मनसब तो हमें मिल सकते थे लेकिन शर्त हुजूरी थी
ये शर्त हमें मंजूर नहीं बस इतनी ही मजबूरी थी

मैनेजिंग एडिटर और मैनेजिंग रिपोर्टर भाग-1

आजकल अखबारों और टीवी चैनलों में एक नया दौर शुरू हो गया है। पहले संपादक और रिपोर्टर थे, अब प्रबंध संपादक और प्रबंध रिपोर्टर की फौज मैदान में है जिनका काम पत्रकारिता का पेश कम मगर अपने अखबार या न्यूज चैनल के लिए कई सारी चीजें ‘मैनेज’ करना ज्यादा है। ज़ाहिर है कि जब प्रजातंत्र का चौथा खंभा उद्योग की शक्ल ले लेगा तो फिर उस उद्योग के साथ जुड़ी हुई कई ख़ूबियों और ख़राबियों का समिश्रण भी सामने आएगा। एक तो वैसे भी इन अखबारों तथा टीवी चैनलों का काम पैसा कमान ज्यादा और समाज सेवा कम है तो फिर ऐसे में लिखे पढ़े तथा विद्वान संपादकों की जगह छुटभैइयों की फौज ने प्रबंध संपादक से लेकर प्रबंध रिपोर्टर तक का जिम्मा संभाल लिया है। ऐसे में लाजमी है कि सत्य और निष्ठा का तेल होगा और आंकड़ो और अटकलों का खेल होगा। क्योंकि पत्रकारिता एक आदरणीय और विश्वनीय पेशा नहीं बल्कि टीआरपी की रसोई होगी जिसमें हमेशा जुगाड़ की छोंक पड़ेगी।
शायद इसीलिए किसी ने पत्रकारिता तथा पत्रकारों के बदले मापदंड और मानसिकता को देखकर कहा था कि –
साहिल पे जितने आब-ग़ज़ीदा थे सब के सब
दरिया का रुख बदला तो तैराक हो गए।
आम तौर पर मैनेजिंग एडिटर की जिम्मेदारी अखबार या टीवी चैनल की संपादकीय दशा और दिशा, दोनों निर्धारित करना होता है। खबरों का चुनाव उसका स्थान एंव महत्व, चैनल या अखबार की बिक्री या बाजार की स्थिति से लेकर आर्थिक एंव विज्ञापन आदि तक मैनेज करना होता है। मगर सही मायने में आज के दौर में मैनेजिंग एडिटर या प्रबंध संपादक अपने अखबार या न्यूज चैनल के हर क्रियाकलाप का हिस्सा होता है। उसकी एक उंगली हर विभाग में होती है और उसका एक इशारा ही किसी को लाने और निकालने के लिए काफी होता है। संपादकीय से लेकर राजनीतिक और आर्थिक जोड़-तोड़, सत्ता के गलियारों से लेकर संत्री के पिछवाड़े तक, रिपोर्टरों की रपट से लेकर कैमरा मैन और एंकर तक की जन्म कुंडली इनके हाथ में होती है और सही मायने में, किसी भी प्रकाश या न्यूज चैनल के त्रिदेव येही होते हैं।
हाल ही में हुए भारतीय प्रसार संघ की बैठक में सरकार द्वारा निजी चैनलों पर कुछ पाबंदियां लगाने के प्रश्न पर हुई उठा पठक के बाद एक वरिष्ठ पत्रकार के मुंह से ये निकलते सुना कि ’देशहित और सूचना का अधिकार जाए भाड़ में ‘। यह बैठक तो उन लोगों की थी जिनका मूलमंत्र यही था कि उनके चैनलों में आ रहे विज्ञापनों तथा उनके कार्यक्रमों पर कोई रोक नहीं लगे। सरकार भी जानती है कि कई चैनलों के मालिक अपनी दुकान चला रहे हैं। कोई पहलावनी करता था या तेल,चीनी या चावल बेचता था मगर अब वह किसी चैनल ग्रुप का बादशाह है। मगर पैसों का ढेर हो जाने से किसी का किरदार तथा शिक्षा का स्तर तथा सोच तो नहीं बदल जाती’।
उस पत्रकार का कथन भले ही कई महारथियों और चैनल तथा अखबार मालिकों को तीर की तरह लगे मगर इसमें काफी हद तक सच्चाई तो है। अधिकांश मैनेजिंग एडिटर या प्रबंध संपादकों की हालत वाकई ऐसी है। बहुत ही ऐसे कम प्रबंध संपादक हैं जो गुणी, विद्वान तथा संजीदगी से सोचने वाले पत्रकार हैं। अधिकांश प्रबंध संपादकों की पहचान यही है कि वो कितने मंत्रियों को अपनी जेब में रखते हैं, कितनी बार वो राष्ट्रपति या प्रधानमंत्री के साथ विदेश यात्रा में शामिल हुए, कितनी बार उन्होंने अपने लिए किसी संस्था का सम्मान या पुरस्कार ‘मैनेज’ किया या फिर उनके खेल या जुगाड़ की राजनीति से उस अखबार या चैनल को कितना फायदा हुआ’
इन प्रबंध संपादकों को नई बड़ी चमकी गाड़ियों में बड़े-बड़े कार्यक्रमों तथा प्रीति भोज या गेट-टू-गेदर में अवश्य ही शामिल होते देखा होगा, मगर किसी संजीदा किस्म की गोष्ठी या सेमिनार में शिरकत करते बहुत कम ही देखा जा सकता है। जब भी कभी इनके पास किसी प्रतिष्ठित या शिक्षा केंद्र से अमुख विषय पर परिचर्चा में या गोलमेज कॉन्फ्रेंस में शामिल होने का अनुरोध या निवेदन आएगा तो वो फौरन ये कहकर इनकार कर देंगे कि या तो अमुख दिन वो बहुत ही व्यस्त है या फिर वो शहर में नहीं रहेंगे, क्यों कि या तो वो विदेश जा रहे हैं या फिर बहुत बड़ी सभा या राजनीतिक पार्टी के अधिवेशन में विशेष तौर पर सम्मानित अतिथि के तौर पर बुलाए गए हैं।
मगर सच्चाई तो कुछ और ही है दरअसल ऐसे प्रबंध संपादक इन सभाओं तथा विचार गोष्ठियों में जाकर अपनी पोल नहीं खुलवाना चाहते क्यों कि वो वहां अपना मुंह खेलेंगे तो उनकी असलियत और विद्वता तथा सोच के स्तर की पोल खुल जाएगी।
ऐसा ही एक बार श्री अरुण शौरी के साथ एक सेमिनार में हुआ था। श्री शौरी इंडियन एक्सप्रेस के संपादक के रूप में उस सेमिनार में शामिल हुए और गुजरात दंगों पर कुछ ज्यादा ही बोल गये। उसके बाद वहां मौजूद छात्र-छात्राओं ने उनका वो हाल कर दिया कि उन्हें कहना पड़ा कि वो भूल गए थे कि वो कहां आए हैं। ऐसा ही नज़ारा उदयन शर्मा सम्मान समारोह में देखने को मिला जब एक नामचीन संपादक पंडित जवाहरलाल नेहरू की शान में कुछ ज्यादा ही कसीदा पढ़ गए और वहां बैठी जनता ने उन्हें आड़े हाथों ले लिया।
यही हाल चंद और दिग्गज पत्रकारों का और जगहों पर भी हुआ और शायद यही वजह है कि ऐसे पत्रकार आजकल संजीदा किस्म के विषयों पर व्याख्यान देने या लिखने के वजाए किसी चैनल के पटल पर दिखना ज्यादा पसंद करते हैं क्योंकि उन्हें मालूम है कि चैनल के एंकर उन्हें सही तरह से घेर नहीं पाते।
दूसरे किस्म के प्रबंध संपादक ऐसे होते हैं जो हर किस्म के विषय पर लिखते और बोलते है चाहे वह धाराप्रवाह वकवास ही क्यों न हो। दिमागी मैथून या मानसिक स्खलन में उनका विश्वास नहीं। हां, उनकों इस बात की चिंता और जुगत हमेशा रहती है कि उनका नाम और उनकी छवि अखबार के पाठकों तथा टीवी चैनलों के स्मृति पटल पर अवश्य होनी चाहिए क्यों कि सही और सफल संपादक या पत्रकार वही है जो या तो लिखता है या फिर चैलन पर दिखता है भले ही विषय कोई भी हो।
पहले अखबारों के संपादक का अपना अलग किरदार और अपनी अलग पहचान होती थी। किसी अखबार का संपादक सबसे प्रबुद्ध, तार्किक और अनुभवी पत्रकार होता था। उसके द्वारा लिखे गए संपादकीय में हर दिन के महत्वपूर्ण मुद्दों, विषयों तथा वहस और विचार पर विशेष विश्लेषण तथा टिप्पणी होती थी जिसमें समाज के आम आदमी की जिंदगी उसकी ख्वाहिशें, सपने और उसके हित की बात होती थी। जब भी कोई बड़ा क्षेत्रीय, राष्ट्रीय मुद्दा उठता था तो लाखों पाठक अपने प्रिय अखबार के संपादकों की संपादकीय टिप्पणी का बेसब्री से सुबह तक इंतजार करते थे कि फलाने संपादक ने अमुख विषय पर अपने संपादकीय में क्या कहा या क्या टिप्पणी की?
अमुमन यह संपादकीय सरकार के या सल्तनत के किसी खास कार्य या निर्णय के खिलाफ होता था या फिर किसी ऐतिहासिक निर्णय की तारीफ या फिर उसका विश्लेषण करके उसमें महत्वपूर्ण सुझाव दिये जाते थे। चाहे वह इंदिरा गांधी द्वारा आपातकाल की घोषणा हो या फिर ऑपरेशन ब्लू स्टार हो या फिर वो पंजाब में 80 के दशक में बढ़ता आतंकवाद हो, ऐसे हजारों मुद्दे थे जिनपर संपादकों ने जनहित में सरकार को आड़े हाथों लिया। इस किस्म की निर्भीक पत्रकारिता के लिये लाला जगत नारायण जैसे पत्रकारों ने अपनी जान तक कुर्बान कर दी। सन 1980 के दशक तक विभिन्न अखबारों के संपादकों ने हर दिन अपनी संपादकीय में और अपने कॉलम के जरिए जन अभियान चलाया और प्रसासन से दो-दो हाथ किए। ऐसे कई उदाहरण है जब संपादकों ने सत्य और असत्य की लड़ाई में अपनी नौकरी तक गंवा दी मगर अपनी ईमानदारी और किरदार पर आंच नहीं आने दिया।
मगर इसी दशक में संपादक का भी रूप बदला और संपादकीय सत्ता के गुणगान का हथियार भी बनी। इसी दशक में शायद पहली बार बड़े पैमाने पर संपादकों की कलम पर बोली लगने लगी और नब्बे के दशक आते-आते पुराने मूल्यों और आदर्शो वाले संपादक की प्रजाति जैसे लुप्त सी हो गई। अंग्रेजी, हिंदी तथा क्षेत्रीय भाषाओं में भी संपादकों की इस प्रजाति की सोच, समझदारी तथा कार्यकलाप में क्रांतिकारी बदलाव आया। जहां सन 1970 के दशक में हिरण्यमय कारलेकर जैसे पत्रकारों को अपनी नौकरी से हाथ धोना पड़ा वहीं 80 के दशक में उप-प्रधानमंत्री देवीलाल द्वारा एक आदमी को 25 बार बहन की गाली दिए जाने की खबर छापकर इंडियन एक्सप्रेस के संपादक लाखों पाठकों की निगाह में पत्रकारिता के ध्रुव तारा की तरह उभरे। एम जे अकबर से लेकर कई मूर्धन्य पत्रकारों ने इस बदलती स्थिति का फायदा उठाया और खोजी पत्रकारिता के नाम पर कई कीले ठोंक दीं।
एक और नई बात ये हुई कि खास बीट कवर करने वाले संवाददाता की जगह संपादक खुद ही राष्ट्रपति और प्रधानमंत्री की विदेश यात्रा को कवर करने जाने लगे। अंजाम ये हुआ कि खबरों के पीछे की खबर का खुलासा करने के वजाए कई अखबारों ने इन गिने चुने संपादकों की नजर से घटना विशेष का जायजा और रिपोर्ट किसी अखबारी भोंपू से कम नहीं लगने लगी। धीरे-धीरे यही परिपाटी बनने लगी और कुछ ऐसे संपादक महोदयों की फौज बनने लगी। जिसका काम यही होता था कि किस मंत्रालय का शिष्टमंडल या किसी मंत्री का महकमा कहां जा रहा है और यही फौज हर बार हर जगह यात्रा करने लगी।
सरकारी महकमे को पत्रकारिता का ये अंदाज इसीलिए पसंद आया क्योंकि जब इन शिष्टमंडलों तथा ‘जंकेट’ में संपादक महोदय ही ‘माल-ए-मुफ्त दिले-ए-बेरहम’ का सबसे ज्यादा मजा लेने का आदी हो गया हो तो भला वो सरकार के खिलाफ एक लफ्ज भी लिखने की हिमाकत कैसे करेगा?
इसी तरह पत्रकारिता में संपादक के स्तर से ही वैचारिक संशय तथा दीवालियापन की बू आने लगी। जिन एक दो संपादकों ने सरकार के खिलाफ कुछ लिखने की कोशिश की तो पीआईवी में तैनात चाटूकारों और सरकारी दुमछल्लों की फौज ने अगली विदेशयात्रा की सूची से उनका नाम ही नदारत कर दिया। उसके बाद होने ये लगा कि किसी भी अखबार में किसी मंत्रायल के खिलाफ कोई खबर छप गई तो मंत्री जी खुद फोन लाइन पर आकर संपादक महोदय को बड़ी शालीनता से समझा दिया करते थे कि अगली विदेश यात्रा या पत्रकारों के लिए फ्लैट के आबंटन में उनका नाम शायद न रहे। ज़ाहिर था, संपादक महोदय इस बात का ख्याल रखते थे कि कम से कम संपादकीय में सरकार के नीति पर सीधे प्रहार न हो। चाहे इसके लिए संपादकीय ही क्यों न गोल कर दिया जाए।
ऐसा ही देश के एक विशिष्ठ अंग्रेजी अखबार में हुआ था जब राजीव-जयवर्धने संधि के तहत भारत सरकार ने आईपी के एफ श्रीलंका भेजने का फैसला किया था। उस वक्त स्टेट्समैन को छोड़कर सभी अखबारों ने इस फैसले के बारे में कसीदे गढ़े थे और उसे एक ऐतिहासिक कदम बताया था। मगर उस नामचीन अखबार में इसके बावत कोई संपादकीय छपा ही नहीं क्योंकि रात के 12 बजे संपादक महोदय ने वह ब्रोमाईड निकालकर फेंक दिया था जिसमें एक 24 साल के युवा सहायक संपादक ने संपादकीय लिखा था और इस फैसले को भयंकर भूल बताया था। ये अलग बात है कि भारत के लिए श्रीलंका में सेना भेजना एक ऐतिहासिक भूल साबित हुई मगर उस नामचीन अखबार के संपादक को अपनी गद्दी हिलने का इतना भय लगा कि वो नाइट गाउन में ही दफ्तर भागे और श्रीलंका वाले संपादकीय की जगह वहां पर एनसीआर वाला संपादकीय चिपकाने का आदेश दे दिया।
यही समय था जब अखबार मालिकों ने एक सोची समझी नीति के तहत ‘संपादक’ नामक संस्था की ताबूत में कील ठोंकना आरंभ कर दिया और 90 दशक की शुरुआत होते-होते संपादक नामक संस्था लगभग दफन होना शुरू होग गई। अखबार मालिकों को लगने लगा की जब सहायक संपादक ही संपादकीय लिखते हैं और संपादक महोदय को विदेश यात्रा तथा मंत्रियों के फौज से मेल मिलाप से फुर्सत ही नहीं तो फिर क्यों न सरकारी महकमे से सीधे तार जोड़ लिए जाएं।
इससे तीन फायदे थे। एक तो था की संपादक की आवश्यकता ही नहीं रह गई। दूसरा ये की संपादकीय नीतियों तथा सामाजिक संवेदनाओं की दलील का भी खात्मा हो गया। प्रबंध संपादकों की छत्रछाया तथा सीधे प्रबंधन की कमान संभालने के बाद अखबारों की आस्तीन सामाजिक तथा आम आदमी की आकांक्षाओं तथा अपेक्षाओं के लिए छोटी पड़ने लगी। और तब से लेकर अब तक के सफर में जो गुजरा वो सबके सामने है।
तीसरा और सबसे बड़ा फायदा ये था कि प्रबंध संपादक और सरकार के बीच संपर्क के तार सीधे जुड़ जाने से अखबार के नाम पर कई और तरह के व्यवसाय तथा उद्योग खोलने तथा बढ़ाने का लाइसेंस मिल गया। हर अखबार तथा टीवी चैनल का संपादक विज्ञापन तथा बाजार में बिखरे टीआरपी के धन पर कब्जा करने की जुगत में लग गया। 90 के दशक में यही बीमारी टीवी चैनलों को लग गई और आज ये इतनी बुरी तरह फैल गई है कि इसका कोई इलाज दिखाई नहीं देता।
चाहे टीवी चैनल हो या फिर अखबार, एक बात तो साफ है कि आजकल पेशेवर से ज्यादा प्रबंधक होने में शिक्षा और डिग्री का ज्यादा महत्व है क्योंकि पत्रकारिता खुद एक नए उद्योग में तब्दील हो गया है शायद यही वजह है कि एक नामचीन मीडिया ग्रुप के मालिक खुली सभा में बोलते हैं कि उन्हें लिखे-पढ़े लोगों से नफरत है। उनको अपना औद्योगिक साम्राज चलाने के लिए ईमादार तथा अनुभवी कार्यकर्ता चाहिए चाहे वो पढ़ा लिखा हो या न हो। उसी तरह एक और नामचीन मीडिया ग्रुप के मैनेजिंग डायरेक्टर ने कहा कि उनके लिए अखबार के संपादक की जगह एक धोबी से उपर नहीं है।

मार्केटिंग का मकड़ा

मकड़ा 8 पांव वाला एक ऐसा कीड़ा होता है जिसकी क्षमता रेशम की तरह जाल बुनने की होती है। जाल ऐसा मजबूत किला होता है जिसमे बड़ा से बड़ा कीड़ा भी एक बार फंस जाय तो उससे बाहर निकलना मुश्किल हो जाता है और अक्सर उसकी मौत भी हो जाती है।
मकड़े का दंश भी काफी खतरनाक होता है और आदमी इससे मर भी सकता है। ये जीव अंटार्कटिका को छोड़ कर प्राय: दुनिया के हर हिस्से में पाया जाता है। मकड़े की खासियत उसके जाल बुनने की ताकत, तेजी और लचीलेपन में होती है भले ही उसकी शक्ल कितनी भी खौफनाक क्यों न हो। और इसी वजह से मकड़े की महत्ता हमारे शास्त्र-पुराणों में भी विद्यमान है। मकड़े को कला तथा दंत कथाओं में भी स्थान प्राप्त है क्योंकि इसकी तुलना धैर्य, क्रूरता तथा सृजन के पर्याय के रूप में भी की जाती है।
हमारे अखबारों तथा खबरिया चैनलों की दुनिया में भी मकड़ों को मार्केटिंग विभाग से जोड़ा जाता है क्यों कि उसका एक पांव संस्थान के आठो विभागों में होता है।
इसी मकड़े ने स्कॉटलैंड के राजा राबर्ट ब्रूश को धैर्य और मेहनत की सीख दी थी और सातवीं बार लड़ाई में सफलता का गुरुमंत्र सिखा दिया था। हजरत मुहम्मद और अबू बकर को यहुदियों तथा अपने दुश्मनों से इसी मकड़जाल ने बचाया था और तभी वो मक्का पहुंचने में कामयाब हुए थे।
आज के दौर में मार्केटिंग का मकड़ा ही तो है जिसके तंत्रजाल ने अखबार तथा चैनल मालिकों को अपने गिरफ्त में इस कदर फंसा लिया है कि बिना इसके विकास या विस्तार या फिर कैंपेन या स्पॉसरशिप की कहानी पूरी ही नहीं होती। सच्चाई यही है कि हर अखबार या चैनल के दफ्तर में जो सबसे ज्यादा शक्तिशाली अंग होता है उसका नाम है मार्केटिंग विभाग। उसके बिना किसी भी प्रकाशन या चैनल की जिंदगी अधूरी सी हो गई है। एक जमाना था जब किसी अखबार में कहीं इक्का-दुक्का सरकारी विज्ञापन दिख जाता था मगर आज आलम ये है कि 32 से 38 पेज के अखबार में विज्ञापन तो हर जगह आड़े-तिरछे और ऊपर से नीचे तक दिखाई दे जाता है मगर खबरों को उन्हीं के ढेर में जैसे किसी कोने में डरे-सहमे बच्चे की तरह देखा जा सकता है।
दरअसल विज्ञापन की शुरुआत सन 1930 के दशक से ही हो गई थी। मगर तब तक उसका इतना बोलवाला नहीं था। कुछ एक अखबार उस वक्त भी इसी की बदौलत अपनी छवि अलग बनाने में लगे थे। भारतीय अखबारों में ‘हिंदू’ ही ऐसा अखबार था जिसने महात्मा गांधी की मौत की खबर को 31 जनवरी 1948 के दिन पहले पेज की सुर्खी बनाने के वजाय पेज नंबर 3 पर छापा था क्यों कि अखबार के पहले पेज पर विज्ञापन विद्यमान था। उस वक्त इस वाकये ने बड़ा हंगामा मचाया था। आज तो तकरीबन हर अखबार यही कहता है और लोगबाग उसे नई संस्कृति का आगाज मानकर खुश हो लेते हैं। उन्हें हैरानी तब होती है जिस दिन किसी बड़े अखबार में ऐसा नहीं होता।
आज से कम से कम 20 साल पहले अखबारों की पहचान उसके पहले पेज की खबर और मास्ट हेड से होती थी। उसके बाद बारी बड़ी खबरों की होती थी और तब देश विदेश के साथ-साथ खेल कूद और अन्य विषयों का नंबर आता था। विज्ञापनों की उपस्थिति किसी खास विशेषांक या रविवार को ज्यादा दिखती थी और उसमें भी सरकारी विभागों और मंत्रालयों की उपलब्धियों का ही जिक्र होता था। मगर सन 1990 के दशक की शुरुआत से पूरी कहानी अलग हो गयी और धीरे-धीरे मार्केटिंग विभाग ने अपना मकड़जाल फैलाना शुरु किया। फिर क्या था? विज्ञापन और पैसे की गंगा बह निकली और मालिकों ने मार्केटिंग वालों को अपना कुबेरपुत्र मानना शुरू कर दिया। परिणाम ये हुआ की अमेरिकी ढर्रे पर निजी संस्थाएं अपना भाव बढ़ाने की आग में कूद पड़ीं। हर किस्म के संस्थान और विभाग विभिन्न प्रकार के लुभाने से लेकर उत्तेजक विज्ञापन ईजाद करने लगे और सन 2000 आते आते संपादक से बड़ा और रोबीला मार्केटिंग मैनेजर हो गया क्यों कि मालिकों की निगाह में वही एक कमाऊ पूत था।
फिर आया खबरिया चैनलों का दौर और विज्ञापन की बांसुरी तो जैसे कई मालिकों के लिए प्राण वायु हो गयी। आज आलम ये है कि तकरीबन हर एक चैनल में 30 मिनट के बैंड में खबर सिर्फ 14 से 16 मिनट की होती है और बाकी समय विज्ञापन का अजगर निकल जाता है। जहां सन 1975 में अखबारों तथा पत्रिकाओं में विज्ञापन का बाजार सिर्फ 1200 करोड़ रुपये का था वहां आज ये बढ़कर 19500 करोड़ रुपये का हो गया है। टेलिविजन में विज्ञापन का बाजार आज 35,000 करोड़ से ऊपर का है और सन 2013 तक ये 85,000 करोड़ रुपये से भी ज्यादा हो जाएगा।
पहले अखबारों में खास किस्म के पेज हुआ करते थे जिसको देखने के लिए एक आम पाठक हमेशा लालायित रहता था। आज अखबार छपने के कई दिन पहले ही ये तय हो जाता है कि किस पेज में कितना बड़ा विज्ञापन जाएगा। संपादक महोदय के ऐड़ी चोटी का जोर लगाने के बाद भी उसमें परिवर्तन की गुंजाइश नहीं रहती। क्योंकि खबर भले ही बिके न बिके मगर विज्ञापन की जगह पहले से बिक चुकी होती है। ऐसे में समाचार की जगह तो महज खाना पूर्ति के लिए ही रह जाती है।
अखबार के मालिक हफ्ते में 5 से 6 बार मार्केटिंग हेड के साथ घंटों बैठक करते हैं जिसमें प्रचार प्रसार के साथ-साथ कॉमोडिटी कैंपेन और ब्रॉन्ड लॉन्च की कवायद भी शामिल होती है। मगर संपादक जी को 10 मिनट में ही चंद आदेशों के साथ टरका दिया जाता है। संपादक महोदय की क्या मजाल कि वो लालाजी य़ा मार्केटिंग के मसीहा की हुक्मउदूली करें। अगर मुंह खोला तो बाहर जाने का रास्ता खुला है।
आज आलम ये है कि बड़ी से बड़ी खबरों के बीच में भी विज्ञापन की पट्टी की कील ठोक कर रख दी जाती है। संपादक महोदय खीजते तो जरूर हैं मगर कुछ कर नहीं सकते। बड़ी और माकूल खबरों के बीच विज्ञापन की पट्टी ऐसे लगती है जैसे कोई संपादक की छाती पर ही मूंग दल रहा हो।
उससे भी त्रासदी पूर्ण नजारा तब देखने को मिलता है जब संगीन और संजीदा खबरों के बीच विज्ञापन की छुरी अटपटे ढंग से घोंप दी जाती है। हाल ही में प्रतापगढ़ में मची भगदड़ में मारे गए लोगों की खबर के साथ एक ऐसा उतेजक और वाहियात किस्म का विज्ञापन लगा दिया गया था मानो वह मौत का ही मजाक उड़ा रहा हो। एक तरफ मरने वालों की जलती चिता का दृश्य और उसके बगल में उससे तीन गुना बड़ा फैशनवीक में शामिल एक मॉडल की तंग चोली तथा अर्ध नग्न बदन की तस्वीर। अब इसका क्या अर्थ लगाया जाए?
खबरिया टेलीविजन चैनलों में तो और भी बदतर हालत होती है और वहां मार्केटिंग के मौलवी के फतवे की नाफरमानी की जुर्रत कौन कर सकता है? इन चैनलों में तो संपादक महोदय की हालत तो और भी पतली होती है क्यों कि टेलिविजन तो सेकेंड्स का खेल है और विज्ञापन देने वाले ब्रेकफास्ट न्यूज से लेकर प्राइम टाइम की चौहद्दी, इतिहास और भूगोल पहले से माप चुके होते हैं।
आलम ये होता है कि आधे घंटे के विशेष या स्पेशल कार्यक्रम में विज्ञापन 15 से 18 मिनट तक का हो जाता है। एंकर से लेकर प्रस्तुतकर्ता और कॉपी एडिटर की ऐसी की तैसी होना आम बात हो गई है। बेचारे प्रोड्यूसर और एडिटर ने पांच पैकेज बना दिए। और 10 ग्राफिक प्लेट तैयार कर लिया और उस पर से बहुरंगी बैंड की चाशनी भी। संगीतमय मोंटाज और स्टिंग का खांचा तो वैसे भी रहना था। मगर आखिर में मालूम पड़ा की सिर्फ दो या तीन पैकेज ही चलेगा और बाकी फेंक दिया जाएगा कबाड़ में। ऐसे में उनकी हालत ऐसी बेबस मां के समान हो जाती है जैसे किसी ने उनके दूध पीते बच्चे का गला उनकी आंखों के सामने ही घोंट दिया हो। अगर उसने अपने आला अफसर या अधिकारियों से जिरह की या पूछताछ करने की जुर्रत भी की तो सीधा जवाब मिलता है कि काम करना है कि नहीं?
अगर ब्रेकिंग न्यूज हो तो समाचार संपादक महोदय हाय तौबा करने के बाद भी 30 सेकेंड का समय नहीं ले पाते क्यों कि एमसीआर का हरकारा सीधे बांग देता है कि विज्ञापन इतने मिनट का है और यही अंतिम सच है। लिहाजा कई बार ब्रेकिंग न्यूज खुद ही ब्रेक हो जाती है और उसके टुकड़े एमसीआर से पीसीआर तक कई दिशाओं में बिखरे दिखाई पड़ जाते हैं। अलबत्ता बाकी लीलाएं तो सनातन धर्म की तरह जारी रहती हैं।
जब कई नामचीन चैनलों के एंकर अपनी महानता और विद्वता का बखान कर रहे होते हैं तो उनके द्वारा बोला गया एक ज्यादा वाक्य भी मार्केटिंग के मसीहाओं के दिल में तीर के तरह जा चुभता है। कई बार देखा गया कि एंकर महोदय के वाक्य पूरे हुए बिना ही विज्ञापन की बौछार शुरू हो जाती है जो काफी लंबे अर्से तक चलती रहती है। अंजाम ये होता है कि जब एंकर महोदय फिर उसी खबर पर लौटते हैं तब उस खबर की टांग टूटने के अलावा उसकी अस्मत भी लुट चुकी होती है और मार्केटिंग के मौलवी की झिड़की से भी वो घुट चुके होते हैं।
इतना ही नहीं, जब मेहमान विशेषज्ञ या दो अलग-अलग पार्टी के नेताओं को किसी खास चर्चा के लिए बुलाया जाता है तो उन दोनों की लड़ाई बीच में ही काट दी जाती है और इस धींगा-मश्ती में भी विज्ञापन ही बाजी मार ले जाता है। एंकर साहिबा मुंह देखती रह जाती हैं। दूसरी तरफ दर्शक बड़े चाव से इंतजार करते रहते है कि आगे क्या होगा? मगर जब तक फिर ब्रेक के बाद लौटे तब तक सामने पड़ी चाय की प्याली ठंडी हो चुकी होती है और बहस महज उपहास बनकर रह जाती है। फिर भी किसी की क्या मजाल कि मार्केटिंग के मौलवी की टोपी तक छू पाने की हिमाकत करे? आखिर सवाल पैसे का है और जो जीता वही सिकंदर।फिर क्या दिखेगा बाहर और अंदर?
हद तो तब होती है जब विज्ञापन तथा मार्केटिंग टीम मिलकर संपादकीय से लेकर खबरों की हेडलाइन तक दे डालने की जुर्रत कर बैठती है और उसके मसीहा अपनी नाक जख्मी कर लौट आते हैं। एक प्रतिष्ठित अखबार ने पेप्सी कंपनी की सीईओ इंदिरा नूई का साक्षात्कार किया तो वहां के मार्केटिंग प्रमुख ने कहा कि इसकी हेड लाइन ‘वुमेन ऑन टॉप’ लिखी जाए। किसी की मजाल थी कि कोई उन्हें मुंह भी लगाता क्योंकि वो पूरे पेज का विज्ञापन लेकर आए थे जिसकी कीमत 10 लाख रुपये थी। मगर दूसरे दिन जब वो हेडलाइन छपी तो कोहराम मच गया और लोग उसका भ्रामक अर्थ निकालने लगे। जब मार्केटिंग के महानायक से पूछा गया की ये गलती किससे हुई तो उन्होंने फौरन संपादक की तरफ उंगुली उठाई और लालाजी से जूता खिलवा दिया।
पेज 3 संस्कृति भी मार्केटिंग के मकड़जाल की नई बुनाई है। दरअसल इसकी शुरुआत 7 मई 1987 में न्यूयॉर्क टाइम्स से हुई थी जहां रिपोर्टर से ये कहा गया कि चैरिटी शो किस मकसद से हुआ ये जानने की जरूरत नहीं। मगर रिपोर्टर महोदय ये जरूर बताएं कि उस जलसे में कौन कैसे कपड़े पहन कर आया था और उसकी स्टाइल और कीमत क्या थी? हमारे दो तीन नामचीन अखबारों ने इसे लपक लिया। सिटी न्यूज तो गायब हो गई और उसकी जगह पेज 3 संस्कृति की शुरुआत हो गई। और आज तकरीबन हर अखबार का यही सबसे ज्यादा लुभावना हिस्सा होता है। अखबार मालिकों के लिए जैसे अंधे के हाथ बटेर वाली कहावत चरितार्थ हो गई और आज तो लोग लाखों रुपया खर्च कर पेज 3 पर अपनी तस्वीर छपवाने के लिए बेताब रहते हैं।
लब्बोलुआब ये कि आज कल के मीडिया बाजार में उसी मकड़े की कीमत और पूछ है जिसको अपना जाल फैलाना और मालिकों को फसाना आता है। उनके नए-नए फंडे और अखबार या चैनल बेचने की तरकीब चरस के नशे की तरह लाला जी को फौरन अपने बस में कर लेती है और बाकी रास्ता साफ है। ऐसा भी एक दिन आएगा जब चैनल मालिक मार्केटिंग मैनेजर के इशारे पर ये तय करना शुरू कर देंगे कि किसी खास एंकर को एक खास किस्म का बदनचुम्बी लिबास पहन कर कैसे कैमरे के सामने बैठना पड़ेगा या फिर किस सीकिया पहलवान को लक्स-कोज़ी बनियान पहन कर किस खास शो में एंकरिंग करनी पड़ेगी।
वो दिन दूर नहीं जब विज्ञापन का अपना चैनल भी आएगा इसमें टेली मार्केटिंग की तरह हर घंटे एक विशेष तबके के लिए विज्ञापन प्रसारित होंगे ताकि माताएं ये जान लें की उनकी औलाद के लिए सबसे सस्ता पैंपर किस ब्रांड का है और उनकी अपनी पसंद की अंगिया चोली किस दुकान में मिलेगी।
ऐसे में समाचार संपादक तथा संवाददाताओं का वही हाल होगा जैसे किसी औरत को रात में अपने बेडरूम में पति की मार खानी पड़ती हो लेकिन बेवसी की वजह से उसे बेडरूम से बाहर आकर न अपनी सास या ननद का सामना करने की हिम्मत हो और न ही अपने बदन पे लगे चोट के निशान दिखाने का साहस हो। किसी ने ठीक ही कहा कि भीतर की मार बहुरिया जाने...। मगर किसकी हिम्मत है कि मार्केटिंग के ततैइये के छत्ते में अपनी उंगली या गर्दन घुसाए?