सोमवार, 8 मार्च 2010

मार्केटिंग का मकड़ा

मकड़ा 8 पांव वाला एक ऐसा कीड़ा होता है जिसकी क्षमता रेशम की तरह जाल बुनने की होती है। जाल ऐसा मजबूत किला होता है जिसमे बड़ा से बड़ा कीड़ा भी एक बार फंस जाय तो उससे बाहर निकलना मुश्किल हो जाता है और अक्सर उसकी मौत भी हो जाती है।
मकड़े का दंश भी काफी खतरनाक होता है और आदमी इससे मर भी सकता है। ये जीव अंटार्कटिका को छोड़ कर प्राय: दुनिया के हर हिस्से में पाया जाता है। मकड़े की खासियत उसके जाल बुनने की ताकत, तेजी और लचीलेपन में होती है भले ही उसकी शक्ल कितनी भी खौफनाक क्यों न हो। और इसी वजह से मकड़े की महत्ता हमारे शास्त्र-पुराणों में भी विद्यमान है। मकड़े को कला तथा दंत कथाओं में भी स्थान प्राप्त है क्योंकि इसकी तुलना धैर्य, क्रूरता तथा सृजन के पर्याय के रूप में भी की जाती है।
हमारे अखबारों तथा खबरिया चैनलों की दुनिया में भी मकड़ों को मार्केटिंग विभाग से जोड़ा जाता है क्यों कि उसका एक पांव संस्थान के आठो विभागों में होता है।
इसी मकड़े ने स्कॉटलैंड के राजा राबर्ट ब्रूश को धैर्य और मेहनत की सीख दी थी और सातवीं बार लड़ाई में सफलता का गुरुमंत्र सिखा दिया था। हजरत मुहम्मद और अबू बकर को यहुदियों तथा अपने दुश्मनों से इसी मकड़जाल ने बचाया था और तभी वो मक्का पहुंचने में कामयाब हुए थे।
आज के दौर में मार्केटिंग का मकड़ा ही तो है जिसके तंत्रजाल ने अखबार तथा चैनल मालिकों को अपने गिरफ्त में इस कदर फंसा लिया है कि बिना इसके विकास या विस्तार या फिर कैंपेन या स्पॉसरशिप की कहानी पूरी ही नहीं होती। सच्चाई यही है कि हर अखबार या चैनल के दफ्तर में जो सबसे ज्यादा शक्तिशाली अंग होता है उसका नाम है मार्केटिंग विभाग। उसके बिना किसी भी प्रकाशन या चैनल की जिंदगी अधूरी सी हो गई है। एक जमाना था जब किसी अखबार में कहीं इक्का-दुक्का सरकारी विज्ञापन दिख जाता था मगर आज आलम ये है कि 32 से 38 पेज के अखबार में विज्ञापन तो हर जगह आड़े-तिरछे और ऊपर से नीचे तक दिखाई दे जाता है मगर खबरों को उन्हीं के ढेर में जैसे किसी कोने में डरे-सहमे बच्चे की तरह देखा जा सकता है।
दरअसल विज्ञापन की शुरुआत सन 1930 के दशक से ही हो गई थी। मगर तब तक उसका इतना बोलवाला नहीं था। कुछ एक अखबार उस वक्त भी इसी की बदौलत अपनी छवि अलग बनाने में लगे थे। भारतीय अखबारों में ‘हिंदू’ ही ऐसा अखबार था जिसने महात्मा गांधी की मौत की खबर को 31 जनवरी 1948 के दिन पहले पेज की सुर्खी बनाने के वजाय पेज नंबर 3 पर छापा था क्यों कि अखबार के पहले पेज पर विज्ञापन विद्यमान था। उस वक्त इस वाकये ने बड़ा हंगामा मचाया था। आज तो तकरीबन हर अखबार यही कहता है और लोगबाग उसे नई संस्कृति का आगाज मानकर खुश हो लेते हैं। उन्हें हैरानी तब होती है जिस दिन किसी बड़े अखबार में ऐसा नहीं होता।
आज से कम से कम 20 साल पहले अखबारों की पहचान उसके पहले पेज की खबर और मास्ट हेड से होती थी। उसके बाद बारी बड़ी खबरों की होती थी और तब देश विदेश के साथ-साथ खेल कूद और अन्य विषयों का नंबर आता था। विज्ञापनों की उपस्थिति किसी खास विशेषांक या रविवार को ज्यादा दिखती थी और उसमें भी सरकारी विभागों और मंत्रालयों की उपलब्धियों का ही जिक्र होता था। मगर सन 1990 के दशक की शुरुआत से पूरी कहानी अलग हो गयी और धीरे-धीरे मार्केटिंग विभाग ने अपना मकड़जाल फैलाना शुरु किया। फिर क्या था? विज्ञापन और पैसे की गंगा बह निकली और मालिकों ने मार्केटिंग वालों को अपना कुबेरपुत्र मानना शुरू कर दिया। परिणाम ये हुआ की अमेरिकी ढर्रे पर निजी संस्थाएं अपना भाव बढ़ाने की आग में कूद पड़ीं। हर किस्म के संस्थान और विभाग विभिन्न प्रकार के लुभाने से लेकर उत्तेजक विज्ञापन ईजाद करने लगे और सन 2000 आते आते संपादक से बड़ा और रोबीला मार्केटिंग मैनेजर हो गया क्यों कि मालिकों की निगाह में वही एक कमाऊ पूत था।
फिर आया खबरिया चैनलों का दौर और विज्ञापन की बांसुरी तो जैसे कई मालिकों के लिए प्राण वायु हो गयी। आज आलम ये है कि तकरीबन हर एक चैनल में 30 मिनट के बैंड में खबर सिर्फ 14 से 16 मिनट की होती है और बाकी समय विज्ञापन का अजगर निकल जाता है। जहां सन 1975 में अखबारों तथा पत्रिकाओं में विज्ञापन का बाजार सिर्फ 1200 करोड़ रुपये का था वहां आज ये बढ़कर 19500 करोड़ रुपये का हो गया है। टेलिविजन में विज्ञापन का बाजार आज 35,000 करोड़ से ऊपर का है और सन 2013 तक ये 85,000 करोड़ रुपये से भी ज्यादा हो जाएगा।
पहले अखबारों में खास किस्म के पेज हुआ करते थे जिसको देखने के लिए एक आम पाठक हमेशा लालायित रहता था। आज अखबार छपने के कई दिन पहले ही ये तय हो जाता है कि किस पेज में कितना बड़ा विज्ञापन जाएगा। संपादक महोदय के ऐड़ी चोटी का जोर लगाने के बाद भी उसमें परिवर्तन की गुंजाइश नहीं रहती। क्योंकि खबर भले ही बिके न बिके मगर विज्ञापन की जगह पहले से बिक चुकी होती है। ऐसे में समाचार की जगह तो महज खाना पूर्ति के लिए ही रह जाती है।
अखबार के मालिक हफ्ते में 5 से 6 बार मार्केटिंग हेड के साथ घंटों बैठक करते हैं जिसमें प्रचार प्रसार के साथ-साथ कॉमोडिटी कैंपेन और ब्रॉन्ड लॉन्च की कवायद भी शामिल होती है। मगर संपादक जी को 10 मिनट में ही चंद आदेशों के साथ टरका दिया जाता है। संपादक महोदय की क्या मजाल कि वो लालाजी य़ा मार्केटिंग के मसीहा की हुक्मउदूली करें। अगर मुंह खोला तो बाहर जाने का रास्ता खुला है।
आज आलम ये है कि बड़ी से बड़ी खबरों के बीच में भी विज्ञापन की पट्टी की कील ठोक कर रख दी जाती है। संपादक महोदय खीजते तो जरूर हैं मगर कुछ कर नहीं सकते। बड़ी और माकूल खबरों के बीच विज्ञापन की पट्टी ऐसे लगती है जैसे कोई संपादक की छाती पर ही मूंग दल रहा हो।
उससे भी त्रासदी पूर्ण नजारा तब देखने को मिलता है जब संगीन और संजीदा खबरों के बीच विज्ञापन की छुरी अटपटे ढंग से घोंप दी जाती है। हाल ही में प्रतापगढ़ में मची भगदड़ में मारे गए लोगों की खबर के साथ एक ऐसा उतेजक और वाहियात किस्म का विज्ञापन लगा दिया गया था मानो वह मौत का ही मजाक उड़ा रहा हो। एक तरफ मरने वालों की जलती चिता का दृश्य और उसके बगल में उससे तीन गुना बड़ा फैशनवीक में शामिल एक मॉडल की तंग चोली तथा अर्ध नग्न बदन की तस्वीर। अब इसका क्या अर्थ लगाया जाए?
खबरिया टेलीविजन चैनलों में तो और भी बदतर हालत होती है और वहां मार्केटिंग के मौलवी के फतवे की नाफरमानी की जुर्रत कौन कर सकता है? इन चैनलों में तो संपादक महोदय की हालत तो और भी पतली होती है क्यों कि टेलिविजन तो सेकेंड्स का खेल है और विज्ञापन देने वाले ब्रेकफास्ट न्यूज से लेकर प्राइम टाइम की चौहद्दी, इतिहास और भूगोल पहले से माप चुके होते हैं।
आलम ये होता है कि आधे घंटे के विशेष या स्पेशल कार्यक्रम में विज्ञापन 15 से 18 मिनट तक का हो जाता है। एंकर से लेकर प्रस्तुतकर्ता और कॉपी एडिटर की ऐसी की तैसी होना आम बात हो गई है। बेचारे प्रोड्यूसर और एडिटर ने पांच पैकेज बना दिए। और 10 ग्राफिक प्लेट तैयार कर लिया और उस पर से बहुरंगी बैंड की चाशनी भी। संगीतमय मोंटाज और स्टिंग का खांचा तो वैसे भी रहना था। मगर आखिर में मालूम पड़ा की सिर्फ दो या तीन पैकेज ही चलेगा और बाकी फेंक दिया जाएगा कबाड़ में। ऐसे में उनकी हालत ऐसी बेबस मां के समान हो जाती है जैसे किसी ने उनके दूध पीते बच्चे का गला उनकी आंखों के सामने ही घोंट दिया हो। अगर उसने अपने आला अफसर या अधिकारियों से जिरह की या पूछताछ करने की जुर्रत भी की तो सीधा जवाब मिलता है कि काम करना है कि नहीं?
अगर ब्रेकिंग न्यूज हो तो समाचार संपादक महोदय हाय तौबा करने के बाद भी 30 सेकेंड का समय नहीं ले पाते क्यों कि एमसीआर का हरकारा सीधे बांग देता है कि विज्ञापन इतने मिनट का है और यही अंतिम सच है। लिहाजा कई बार ब्रेकिंग न्यूज खुद ही ब्रेक हो जाती है और उसके टुकड़े एमसीआर से पीसीआर तक कई दिशाओं में बिखरे दिखाई पड़ जाते हैं। अलबत्ता बाकी लीलाएं तो सनातन धर्म की तरह जारी रहती हैं।
जब कई नामचीन चैनलों के एंकर अपनी महानता और विद्वता का बखान कर रहे होते हैं तो उनके द्वारा बोला गया एक ज्यादा वाक्य भी मार्केटिंग के मसीहाओं के दिल में तीर के तरह जा चुभता है। कई बार देखा गया कि एंकर महोदय के वाक्य पूरे हुए बिना ही विज्ञापन की बौछार शुरू हो जाती है जो काफी लंबे अर्से तक चलती रहती है। अंजाम ये होता है कि जब एंकर महोदय फिर उसी खबर पर लौटते हैं तब उस खबर की टांग टूटने के अलावा उसकी अस्मत भी लुट चुकी होती है और मार्केटिंग के मौलवी की झिड़की से भी वो घुट चुके होते हैं।
इतना ही नहीं, जब मेहमान विशेषज्ञ या दो अलग-अलग पार्टी के नेताओं को किसी खास चर्चा के लिए बुलाया जाता है तो उन दोनों की लड़ाई बीच में ही काट दी जाती है और इस धींगा-मश्ती में भी विज्ञापन ही बाजी मार ले जाता है। एंकर साहिबा मुंह देखती रह जाती हैं। दूसरी तरफ दर्शक बड़े चाव से इंतजार करते रहते है कि आगे क्या होगा? मगर जब तक फिर ब्रेक के बाद लौटे तब तक सामने पड़ी चाय की प्याली ठंडी हो चुकी होती है और बहस महज उपहास बनकर रह जाती है। फिर भी किसी की क्या मजाल कि मार्केटिंग के मौलवी की टोपी तक छू पाने की हिमाकत करे? आखिर सवाल पैसे का है और जो जीता वही सिकंदर।फिर क्या दिखेगा बाहर और अंदर?
हद तो तब होती है जब विज्ञापन तथा मार्केटिंग टीम मिलकर संपादकीय से लेकर खबरों की हेडलाइन तक दे डालने की जुर्रत कर बैठती है और उसके मसीहा अपनी नाक जख्मी कर लौट आते हैं। एक प्रतिष्ठित अखबार ने पेप्सी कंपनी की सीईओ इंदिरा नूई का साक्षात्कार किया तो वहां के मार्केटिंग प्रमुख ने कहा कि इसकी हेड लाइन ‘वुमेन ऑन टॉप’ लिखी जाए। किसी की मजाल थी कि कोई उन्हें मुंह भी लगाता क्योंकि वो पूरे पेज का विज्ञापन लेकर आए थे जिसकी कीमत 10 लाख रुपये थी। मगर दूसरे दिन जब वो हेडलाइन छपी तो कोहराम मच गया और लोग उसका भ्रामक अर्थ निकालने लगे। जब मार्केटिंग के महानायक से पूछा गया की ये गलती किससे हुई तो उन्होंने फौरन संपादक की तरफ उंगुली उठाई और लालाजी से जूता खिलवा दिया।
पेज 3 संस्कृति भी मार्केटिंग के मकड़जाल की नई बुनाई है। दरअसल इसकी शुरुआत 7 मई 1987 में न्यूयॉर्क टाइम्स से हुई थी जहां रिपोर्टर से ये कहा गया कि चैरिटी शो किस मकसद से हुआ ये जानने की जरूरत नहीं। मगर रिपोर्टर महोदय ये जरूर बताएं कि उस जलसे में कौन कैसे कपड़े पहन कर आया था और उसकी स्टाइल और कीमत क्या थी? हमारे दो तीन नामचीन अखबारों ने इसे लपक लिया। सिटी न्यूज तो गायब हो गई और उसकी जगह पेज 3 संस्कृति की शुरुआत हो गई। और आज तकरीबन हर अखबार का यही सबसे ज्यादा लुभावना हिस्सा होता है। अखबार मालिकों के लिए जैसे अंधे के हाथ बटेर वाली कहावत चरितार्थ हो गई और आज तो लोग लाखों रुपया खर्च कर पेज 3 पर अपनी तस्वीर छपवाने के लिए बेताब रहते हैं।
लब्बोलुआब ये कि आज कल के मीडिया बाजार में उसी मकड़े की कीमत और पूछ है जिसको अपना जाल फैलाना और मालिकों को फसाना आता है। उनके नए-नए फंडे और अखबार या चैनल बेचने की तरकीब चरस के नशे की तरह लाला जी को फौरन अपने बस में कर लेती है और बाकी रास्ता साफ है। ऐसा भी एक दिन आएगा जब चैनल मालिक मार्केटिंग मैनेजर के इशारे पर ये तय करना शुरू कर देंगे कि किसी खास एंकर को एक खास किस्म का बदनचुम्बी लिबास पहन कर कैसे कैमरे के सामने बैठना पड़ेगा या फिर किस सीकिया पहलवान को लक्स-कोज़ी बनियान पहन कर किस खास शो में एंकरिंग करनी पड़ेगी।
वो दिन दूर नहीं जब विज्ञापन का अपना चैनल भी आएगा इसमें टेली मार्केटिंग की तरह हर घंटे एक विशेष तबके के लिए विज्ञापन प्रसारित होंगे ताकि माताएं ये जान लें की उनकी औलाद के लिए सबसे सस्ता पैंपर किस ब्रांड का है और उनकी अपनी पसंद की अंगिया चोली किस दुकान में मिलेगी।
ऐसे में समाचार संपादक तथा संवाददाताओं का वही हाल होगा जैसे किसी औरत को रात में अपने बेडरूम में पति की मार खानी पड़ती हो लेकिन बेवसी की वजह से उसे बेडरूम से बाहर आकर न अपनी सास या ननद का सामना करने की हिम्मत हो और न ही अपने बदन पे लगे चोट के निशान दिखाने का साहस हो। किसी ने ठीक ही कहा कि भीतर की मार बहुरिया जाने...। मगर किसकी हिम्मत है कि मार्केटिंग के ततैइये के छत्ते में अपनी उंगली या गर्दन घुसाए?

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