गुरुवार, 25 मार्च 2010

कुंभ का दंभ भाग-1

अश्वमेघ सहस्त्राणि वाजपेयशतानि च।
लक्षं प्रदक्षिणा भूमे: कुम्भ स्नानेन तत्फलम्।। (श्रीविष्णु पुराण)
अर्थात सहस्त्रों अश्वमेघ यज्ञ करने से, सैंकड़ों वाजपेय यज्ञ करने से और लाख बार पृथ्वी की प्रदक्षिणा करने से जो फल प्राप्त होता है, वह पुण्य फल केवल कुम्भ स्नान से प्राप्त होता है।
कुंभ महापर्व की परंपरा अत्यन्त प्राचीन है। कुंभ पर्व भारत की प्राचीन गौरवमयी वैदिक संस्कृति एंव सभ्यता का प्रतिनिधित्व करता है। इस महापर्व के अवसर पर सारे भारत से ही नहीं, अपितु विश्व के अनेक देशों से असंख्य धर्मपारायण श्रद्धालुगण एकत्र होकर स्नान, दान, तपादि करते हैं।
हरिद्वार, प्रयाग, उज्जैन और नासिक में बारहवें वर्ष कुंभ पर्व का आयोजन होता है। हरिद्वार और प्रयाग (इलाहाबाद) में दो कुंभ पर्वों के बीच 6 वर्ष के अंतराल में अर्धकुंभ होता है।
पद्मिनी नायके मेषे कुम्भ राशिगते गुरौ।
गंगाद्वारे भवेद्योग: कुम्भनामा तदोत्तम:।। (स्कन्द पुराण)
अर्थात जिस समय बृहस्पति कुम्भ राशि पर स्थित हो और सूर्य मेष राशि पर रहे, उस समय गंगाद्वार (हरिद्वार) में कुंभ योग होता है।
कुंभ पर्व की परम्परा मूल रूप में मनुष्य के द्वारा रत्नों, धन-ऐश्वर्य, सुख-आरोग्य, आत्म-ज्ञान एंव अमरत्व की इच्छाओं से जुड़ी हुई है। वेद-पुराण आदि ग्रन्थों में इन अदम्य इच्छाओं से संबंधित अनेक कथाएं वर्णित हैं। जिसमें भगवान शिव व गंगा जी की कथा, महर्षि दुर्वासा की कथा और समुद्र-मंथन की कथा प्रसिद्ध हैं।
इन सब कथाओं में सबसे प्रचलित आख्यान समुद्र मंथन की कथा है। स्कन्द पुराण में वर्णित कथा के अनुसार देवताओं और दानवों के बीच अमृत-कुंभ प्राप्ति के लिए समुद्र में ‘मन्दराचल पर्वत’ को मथानी एंव ‘वासुकि’ नाग को रस्सी बनाकर समुद्र मंथन किया गया। इस समुद्र मंथन में कालकूट विष, ऐरावत हाथी, पारिजात वृक्ष, श्री लक्ष्मी सहित अनेक दिव्य एंव दुर्लभ वस्तुओं के बाद महाविष्णु धनवन्तरि के हाथों में शोभित अमृत-कलश प्रकट हुआ।
समुद्र से अमृत कलश जैसे ही निकला देवताओं के इशारे पर इंद्र पुत्र जयंत अमृत कलश लेकर आकाश में उड़ गया। दैत्यगण जयंत का पीछा करने लगे। अमृत कलश को पाने के लिए देवताओं और दैत्यों के बीच 12 दिन तक लगातार युद्ध हुआ। इसके बाद भगवान विष्णु ने मोहिनी अवतार लेकर अमृत को देवताओं में बांटा। इस युद्ध के दौरान पृथ्वी के चार स्थान प्रयाग, हरिद्वार, उज्जैन और नासिक में अमृत कलश से अमृत की बूंदें गिरी थीं। इन चारों स्थानों पर कुंभ महापर्व मनाया जाता है।
पुराण के अनुसार अमृत कुंभ की रक्षा में बृहस्पति, सूर्य व चंद्रमा ने विशेष सहायता की थी। चंद्रमा ने अमृत के कुंभ से गिरने से, सूर्य ने कुंभ को फूटने से और बृहस्पति ने असुरों द्वारा अमृत कलश के अपहरण होने से तथा शानि ने देवराज इंद्र के भय से अमृत कुंभ की रक्षा की थी। इसी कारण सूर्य, चंद्र और बृहस्पति तीनों ग्रहों के विशेष योग में ही कुंभ महापर्व मनाया जाता है।

न वेदव्यवहारों यं संश्रव्यं शूद्रजातिषु।
तस्मात्सृजापरं वेदं पंचमं सार्ववर्णिकम्‌।।

अर्थात कुंभ का महत्व सभी वर्णों के लोगों के लिए समान है। किसी वर्ण का गंगा स्नान अथवा कुंभ-स्नान में निषेध नहीं है। वर्णेत्तर लोग भी कुंभ स्नान करते रहे हैं। ऐसी पौराणिक मान्यता है कि भगवान विष्णु के चरणों से चौथे वर्ण की उत्पत्ति हुई है और गंगा भी विष्णु के चरणों से निकली हैं। इस प्रकार कुंभ हर प्रकार के भेदभाव का निषेध करता है। कुंभ में सभी जाति, वर्ण और संप्रदाय के लोग एक साथ एक ही घाट में स्नान करते हैं। देखा जाए तो कुंभ मानव को मानव से प्रेम करने, साथ चलने, साथ रहने, अपने लक्ष्य की साथ मिलकर प्राप्ति करने का संदेश देता है। कुंभ के दौरान देश के कोने-कोने से हर जाति, संप्रदाय के लोग स्नान के लिए आते हैं। कुंभ स्थल में मानव मिलन का अद्भुत दृश्य देखा जा सकता है। सही मायने में मानव का मानव से प्रेम, सदभाव और सेवा किसी अमृत से कम नहीं हैं। शायद इसीलिए सैकड़ों वर्षो से हमारे पूर्वज लगातार देश के कोने-कोने से महीनों पैदल यात्रा करके कुंभ स्थल पर पहुंचे रहे हैं। और कुंभ अनेकता में एकता का अमृत रस भरता रहा है।
शास्त्रम श्रुतेनैव नतु कुंडलेन, दानेन पाणिन नतु कंकणेन।
विभातिकाया करुणापराणांम, परोपकारेण नतु चंदनेन।।
अर्थात हमारे कान शास्त्रों को सुनने के लिए हैं कुंडल पहनने के लिए नहीं। हमारे हाथ दान करने के लिए हैं मोटे-मोटे कड़ा या चूड़ा पहने के लिए नहीं, ये शरीर परमात्मा ने हमें परोपकार करने के लिए दिया है सेंट, चंदन और सुगंधित इत्र से मालिस करने के लिए नहीं। आम जनता से नहीं पर साधु और संत समाज से तो ये अपेक्षा की ही जा सकती हैं कि वो शास्त्र सम्मत जीवन बिताएं और समाज के सामने आदर्श प्रस्तुत करें। कुंभ के पावन मौके पर सबसे से ज्यादा पीड़ा कुछ अखाड़ों के साधु-संतों के व्यवहार, गणवेश और दंभ को देखकर होती है। संतों के बारे में कहा गया है कि
तरुवर फल नहीं खात हैं, सरवर पियत न नीर।
परामार्थ के कारणें संतन धरा शरीर।।
लेकिन कुंभ में कुछ अखाड़े वाले साधुओं की अकड़ देखकर ऐसा लगता है ‘परामार्थ के कारणें संतन धरा शरीर’ की बात छलावा है। घोड़े पर सवार, काला चश्मा लगाए, हाथ में बंदूक लिए ये अखाड़े के साधु किसी फिल्म के डाकू से कम नहीं लगते हैं और जहां उनके मुंह से वेद मंत्र निकलने चाहिए वहां अपने प्रतिद्धंदी अखाड़े वाले दूसरे साधुओं के लिए गालियां निकलती हैं। हथियारों से लैश ये अखाड़ची साधु पवित्र कुंभ स्थल पर ऐसे फायरिंग करते है जैसे भारत-पाकिस्तान के बीच युद्ध हो रहा हो। और इनकी दंभ भरी फायरिंग में कई बार निर्दोष जनता की जान चली जाती है। पर जटा-जुट धारी दैत्यों जैसे दिखाने वाले इन साधुओं के किंचित दुख नहीं होता। पता नहीं ये किस मिट्टी के बने होते हैं इन्हें अखाड़ों में कैसी शिक्षा-दीक्षा दी जाती है कि ये आम जनता का दुख-दर्द समझना तो दूर की बात है उनसे प्रेम से बात तक नहीं करते। इनकी वाणी इतनी कर्कश और अहंकार भरी होती कि कुंभ में स्नान और साधु संतो के दर्शन के लिए देश के कोने-कोने से आई जनता इनसे कोसो दूर भागती है। और भगवान से प्रार्थना करती है कि कुंभ में किसी अहंकारी, दंभी साधु से सामना न हो।
महाकुंभ का मुख्य आकर्षण शाही स्नान होता है । हजारों, लाखों की संख्या में साधु संतों की टोली एक साथ पवित्र नदी में स्नान के लिए निकलती है । इस स्नान में अठारह अखाड़ों के साधु एकत्रित होते हैं । तपोनिधि निरंजनी अखाड़ा, पंचदशनाम जूना अखाडा, उदासीन पंचायती अखाड़ा, निर्मल पंचायती अखाड़ा, पंचायती अखाड़ा, निर्मोही अखाड़ा, निर्वाणी अखाड़ा, दिगंबर अखाड़ा, पंच अटल अखाड़ा, महानिर्वाणी पंचायत अखाड़ा, अग्नि अखाड़ा आदि अखाड़ों के साधुओं का प्रतिनिधित्व वैष्णव अखाड़ा करता है । शाही स्नान के पश्चात इन अखाड़ों की भव्य झांकी आयोजित की जाती है, जिसमें साधुओं की शोभायात्रा को देखने के लिए भारी संख्या में श्रद्धालु जुटते हैं। ये परपंरा अनेक वर्षो से चली आ रही है। सबसे दुख की बात ये हैं कि जिन साधु संतों को जनता देव तुल्य समझती है वही साधु-संत पावन कुंभ में लड़ते-झगड़ते दिखाई देते हैं। शाही स्नान को लेकर अखाड़ों के बीच मारकाट मच जाती है। एक संत दूसरे संत को जान से मार देता है अमृतमयी कुंभ में खून की धारा बह जाती है। जिन साधु-संतों की जनता पूजा करती है उन्हें आपस में लड़ता देखकर जनता को बहुत दुख होता है। और उनका हृदय रो पड़ता है। जब अखाड़ों की भव्य झांकी निकलती है तो कई अखाड़े के साधु शक्ति प्रदर्शन करने के लिए हवा में गोलियां चलाते हैं, सैकड़ों बंदूकें, पिस्तौलों से फायरिंग की जाती है। गोली चलाने वाले साधुओं के हाव-भाव और दंभ देखकर लगता है कि ये दूसरे अखाड़े के साधुओं से खुद को श्रेष्ठ साबित करने के लिए किसी हद तक जा सकते हैं। लेकिन सवाल ये उठता है कि अहंकार दिखाने, गोली चलाने और निर्दोष जनता का खून बहा कर कोई अखाड़ा कभी श्रेष्ठ बन सकता है ? क्या अखाड़ों की झांकी बिना शक्ति प्रदर्शन के शांति और सौम्यता से नहीं निकाली जा सकती ? क्या साधु-संत आम जनता से प्रेमपूर्वक बात नहीं कर सकते ? क्या जरूरी है कि शाही स्नान में पहला हक सिर्फ इन अखाड़ची साधुओं का है ? क्या ये सभी अखाड़े वाले और प्रशासन के कर्ताधर्ता मिल कर देश के कोने-कोने से आई भोली-भाली गृहस्थ जनता को सबसे पहले शाही स्नान का हक नहीं दे सकते ? ऐसे कई सवाल है जो महाकुंभ के साधुओं का दंभ देखकर मन में उठते हैं और हमें सोचने पर मजबूर करते हैं।
वहीं दूसरी तरफ 18 पीठ के शंकराचार्यों ने भले ही अपने कुनबों के सिपहसालार से लेकर सेनापतियों के पाप गंगा में धो दिए होंगे पर क्या इन्होंने खुद सेनापति होने तक का दायित्व निभाया या नहीं ये चर्चा का विषय होना चाहिए। कुंभ स्नान से किसको फायदा होता है ये चर्चा का विषय है हरिद्वार शहर की चकाचौंध से लेकर तबाही तक का नजारा ये सोचने पर मजबूर करता है कि क्या कुंभ सचमुच हिंदू सभ्यता और हिंदू धर्म के संस्कारों के मापदंड की पराकाष्ठा है या फिर वो धर्म के नाम उद्योग की सबसे बड़ी त्रासदी है ?
एक तरफ जहां उत्तराखंड की सरकार कुंभ मेले के पहले हरिद्वार शहर के विकास और चकाचौंध के लिए 600 करोड़ रुपये खर्च करती है वहीं शंकराचार्य और साधु समाज का गिरोह 17 हजार करोड़ रुपये का कारोबार करता है। ऐसे में एक आम आदमी ये सोचने पर मजबूर हो जाता है कि क्या इन अखाड़ों का महत्व सिर्फ हरकी पौड़ी को रक्तरंजित करने के लिए रह जाता है या फिर मानव समाज के कल्याण के लिए ?
इन शंकराचार्यों की आपसी लड़ाई और उसका त्रासदी पूर्ण नजारा इस बात की ओर इंगित करता है कि ‘वसुधैव कुटुंबकम’ का यह ‘धारति सह धर्म:’ का पाठ पढ़ने और पढ़ाने वाले अपनी जिम्मेदारी भूल कर बनिए की तरह श्रद्धालुओं को नए-नए तरीके से लुभाते हैं और कभी-कभार उनका दीन और इमान दोनों लूट कर चले जाते हैं। (जारी है)

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