शुक्रवार, 5 मार्च 2010

रिपोर्टर या कोवा?

रिपोर्टर या कौवा ?
संसद के सेंट्रल हॉल में एक वयोवृद्ध सांसद के एक वक्तव्य ने हतप्रभ कर दिया। कुछ लम्हे पूर्व उनको मीडिया की फौज ने महिला आरक्षण बिल पर एक 'बाइट' देने को कहा था मगर वो जान छुड़ाकर भाग गए। बाहर आकर कहा कि ये मीडिया वाले कौए की तरह अचानक सीधे उड़ते हुए आते हैं और सर पर बीट कर जाते हैं। पर कोई बात नहीं कपड़े पर चंद मिनटों के लिए गंदगी दिखती है मगर उसके बाद साफ हो जाती है।

उनके साथी ने चुटकी ली कि बिना इनके भी तो आपका काम नहीं चलता है तो सांसद महोदय बोले" ये दिल्ली वाले मीडियाकर्मियों के चीखने और काँव-काँव करने से हमारी जनता पर फर्क थोड़ा ही पड़ता है। मैंने चौथी बार अपनी सीट इनके भरोसे या रिझाने से नहीं जीती। आजकल एक गांव का मतदाता भी जानता है कि मीडिया का महत्व और उनकी औकात क्या है।

सांसद महोदय के वक्तव्य ने मुझे थोड़ा और अचंभित कर दिया। मगर साथ ही ये सोचने पर भी मजबूर कर दिया कि क्या मीडिया वाले इन नेताओं की निगाह में महज कौए बनकर रह गए हैं। क्या मीडिया अपनी असली पहचान खोता जा रहा है? क्या मीडिया की विश्वसनीयता कम होती जा रही है? क्या मीडिया प्रजातंत्र का चौथा खंभा बनने की बजाय आफत का परवाना बनता दिखाई दे रहा है। जिसके कारण सांसद महोदय भी उसको जब चाहे आड़े हाथों ले लेते हैं और अपने मन की भड़ास भी तत्काल से उड़ेल देते हैं। एक तरह से देखें तो मीडिया समाज के कई वर्गों की आंखों की किरकिरी बनने लगा है। अभी हाल ही में एक स्वामी का एक फिल्म अभिनेत्री के साथ चक्कर का मामला सामने आया तो फौरन चिल-पों शुरू हो गई कि अमुख चैनल द्वारा दिखाई गई तस्वीरों को 'मॉर्फ' कर दिया है ताकि संशय का बाज़ार गर्म रहे। एक और स्वामी जी के आश्रम में मची भगदड़ में 63 से ज्यादा लोग मर गए तो उक्त स्वामी ने ये कहते हुए पल्ला झाड़ लिया कि वहाँ भक्तगण खुद पधारे थे। इसमें उनकी क्या गलती? एक और स्वामीजी के आश्रम में 'वैश्यवृति' की ख़बर फूटी तो उनका भी वही पुराना राग था कि मीडिया अपने मन से खबरें गड़कर धार्मिक व्यक्तियों को बेवजह परेशान करता है और उनकी छवि धूमिल करता है। अगर ये सच है तो हजारों और स्वामियों के साथ ऐसा क्यों नहीं होता। क्या इन भगवान के असली पुत्रों और उत्तराधिकरियों को ये नहीं मालूम कि धुआं वहीं उठता है जहाँ आग जलती है। सतयुग में विश्वामित्र से लेकर कई और ऋषि-मुनियों की तपस्या अप्सराओं ने भंग कर दी तो आज कल के स्वयंभू मुनियों तथा महात्माओं की क्या बिसात और चंद उदाहरण तो जनता के सामने है ही। और वैसे भी स्वामी का नाम ही नित्यानंद है जिनके लिए हर दिन ही आनंद के लिए निर्मित है। फिर उन्होंने जो किया इसका आभास तो जनता को पहले से ही होना चाहिए था। फिर जब धर्म के ऐसे ठेकेदारों को श्री नरेन्द्र मोदी से लेकर मदारी तक का वरदान प्राप्त हो और सारी राजनीतिक हस्तियां वहीं जाकर साष्टांग दंडवत करें तो फिर क्या बात है। आजकल ऐसा लगता है जैसे भगवा चोला प्रसिद्दी का सीधा और सरल उपाय है। वही हाल दयालु कृपालु आश्रम का भी था जहाँ प्रेम वर्षा की जगह वीर्य वर्षा का लोम हर्षक वर्णन सुनने में आया।
पुलिसवाले भी मीडिया वालों को इसी तरह लताड़ते हैं और कभी कभार अपनी खीज या भड़ास सरेआम निकाल देते हैं। मगर जब पंडित ही पाखंडी हो जायेगा रक्षक ही भक्षक बन जाये तो मीडिया उनकी शान में कसीदा पड़ेगी और न ही ताली बजाएगी। ये माना जा सकता है कि कभी कभी कुछ चैनल उत्साह में या एक्सक्लूसिव ख़बर को और अद्भुत या सनसनीखेज बनाने के चक्कर में शायद शालीनता और मर्यादा भले ही भूल जाएं मगर जब तक खबरें नहीं होगी तबतक तो खेलेंगे कहाँ से। हवा या आसपास से तो वो खबरें बनायेंगे नहीं। कहीं ना कहीं उसकी जड़ या बुनियाद तो होगी। पर ये सच है कि बड़ी-बड़ी नामचीन चैनलों और अखबारों की फौज को दिल्ली या अन्य महानगरों से बाहर निकालने की फुर्सत नहीं मिलती या फिर मन नहीं करता या फिर ये कहें कि मीडिया मालिक अपनी जेब हल्की नहीं करना चाहते। उनके लिए ग्रामीण इलाके में जाकर ख़बर खोरी करना पैसे की बर्बादी ही है और ये ही परिपाटी लगभग सब चैनलों तथा प्रकाशनों में देखने को मिलती है। उनका एक और तर्क है कि जब तकरीबन हर राज्यों में कई स्थानीय चैनल काम कर रहे हैं और अखबारों ने पहले से ही मोर्चा संभाल रखा है तो फिर ज्यादा दिमाग खपाने की आवश्कता ही नहीं है। जब भी किसी दूर दराज इलाके में कोई बड़ी घटना या विभीषिका नहीं घटी। उसके बाद तो इनकी फौज फिदायी ख़्वार की तरह उस जगह पर धावा बोलते हैं और अपना कमाल ऐसे दिखा जाते हैं मानो किसी मरे जानवार को गिद्धों की टोली ने देखा और फिर सारा गोश्त मिनटों में चट कर गए और सिर्फ़ ख़बर का कंकाल ही बचा रहने दिया।
मगर पश्चिमी देशों के मीडिया के मुकाबले भारतीय मीडिया अभी कई मामले और मायने में उतनी खराब नहीं हुई है जिसकी कई लोग आशंका जता रहे हैं या मुख्तलिस्म किस्म की तज़करा कर रहे हैं। सच्चाई ये भी है कि भारत की प्रिंट और इलेक्ट्रानिक मीडिया कई पश्चिमी देशों के मुकाबले विवेकशील है और वेवजह कई संजीदा मामलों को तिल का ताड़ नहीं बनाती। इसकी सबसे बड़ी मिसाल है ब्रिटेन की डायना स्पेसंर कि पपराजी के हाथों दर्दनाक मौत। अगर वो महिला हिंदुस्तान में होती तो शायद मीडिया उनकी व्यक्तिगत जिंदगी से एक हद के बाद छेड़खानी नहीं करता और वो शायद आज भी जिंदा होतीं।
हमारे देश में इसकी सबसे उत्तम मिसाल है श्रीमति सोनिया गांधी जिनका पूरा देश सम्मान करता है और उनके निजी जीवन में कोई खलल नहीं डालता। सोचने की बात है कि उनके साथ ब्रिटेन या इटनी की मीडिया क्या सलूक करती अगर वो अपनी पति के मौत के बाद उन देशों में बस गईं होतीं। श्रीमति सोनिया गांधी ने सिर्फ यही नहीं साबित किया कि वो एक सम्मानित, आदर्श और आदरणीय महिला तो हैं ही, उन्होंने अपने राजनीतिक जीवन में भी अपना अलग जलाल और इंसानियत दिखाई है।

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