खबरिया चैनल गिद्ध की तरह ताक लगाए बैठ रहते हैं कि कब किस सीरियल में कोई मोटा बकरा मरे और वो उसे फौरन चट कर जाएं। एक ज़माना था जब खबरिया चैनलों की खबरें एक आम आदमी की जद्दोजहद का थर्मामीटर होती थी। उन चैनलों में देश विदेश की बड़ी ख़बरों के साथ-साथ कसबों और गांव की ख़बरों की भी तवज्जो मिलती थी। आजतक जैसे कार्यक्रम के लिए लोग 10 बजे रात का इंतज़ार करते थे। आज आलम ये है कि कोई भी समझदार और संवदेनशील शख्स इन खबरिया चैनलों को दस मिनट भी नहीं झेल सकता। अक्सर लोग चैनलों की हेडलाइन देख लेते हैं और अपनी निगाहें फेर लेते हैं।
सच मायने में आज भी दूरदर्शन ही ऐसा चैनल है जहां ख़बरें आमतौर पर सूखे और सीधे अंदाज में दिखने को मिल जाती हैं। बाकी खबरिया चैनल वही करते हैं जैसे दूधवाले एक किलो दूध में दो किलो पानी मिलाते हैं। अब ऐसे में हर आदमी हंस तो है नहीं जो नीर छीर विवेक रखता हो। पिछले पांच सालों से चैनलों को एक नई बीमारी ने आ घेरा। इस बीमारी के चलते कभी रमोला की सांप से शादी हो गई, तो कभी स्वर्ग में सीढ़ियां बच्चे के मुंह में निकले दाढ़ की तरह निकल आईं, कभी एक और नई झांसी की रानी पैदा हो गई, तो कभी ओंकारा में ईश्किया हो गया। इतना ही नहीं चैनलों पर सांप अजगर की कहानी जब चली तो देश के सबसे तेज़ चैनल में एक दिन रात के वक्त एक संपेरे का न्यूज़ रुम में फोन आया। उस संपेरे ने कहा कि साहब एक मौका हमको भी अपने चैनल में दीजिए, हम बीन बजाकर स्टूडियों में सांप ला देंगे। यदा कदा बाढ़ की विभीषिका या रेल हादसे जैसे विषयों पर खबरिया चैनलों की फिदायीन सोच और पैरासूटर्स ज़मीन पर उल्का की तरह गिरते हुए ज़रूर दिखाई दिए। मगर आम आदमी की संजीदगी और शंकाओं के बारे में कुछ नहीं दिखाई दिया। इन चैनलों का वजन तभी से घटना शुरू हुआ और वो सहायक से ज्यादा संहारक के रूप में ज़्यादा दिखने लगे।
फिर एक नया दौर आया जिसमें गुनाहों की खेती हर चैनल के खेत में लहलहाती सरसों की तरह फूलती-फलती दिखाई देने लगी और ये दौर करीब 8 से 10 सालों तक चला। अब एक नया दौर आया है जिसमें खबरिया चैनलों में ख़बर से ज़्यादा सीरियलों की तफसील होती है जिसे देखकर सीरिलिया चैनल भी आश्चर्य करने लगे हैं। 24 घंटे के बैंड में 6 से 8 घंटे तक सीरियल की ही कथाओं और गाथाओं पर भंडारा होता है और बड़े-बड़े विशेषज्ञ बुलाए जाते हैं। और लंबे-लंबे व्याख्यान से लेकर बौद्धिक बमबारी तक होती है। सच्चाई से लवरेज ख़बरों का जखीरा तो गया तेल लेने मगर बालिका वधू की आनंदी को गोली लगने की खबर को इस तरह बढ़ा चढ़ाकर पेश किया जाता है और खेला जाता है मानो वो भारत-पाकिस्तान का एक नया युद्ध बन गया हो।
इसकी शुरुआत तो बिग बॉस-1 से हुई थी जहां हर दिन की घटना घटित होने के पहले ही कुछ खबरिया चैनलों ने उसे पूरी तफसील से नमक मिर्च लगाकर दिखाना शुरू किया था और जनता उसे किसी पर्व त्यौहार के अवसर पर प्रयाग के संगम पर गंगा नदी में फेंके पैसे की तरह लूट रही थी। बिग बॉस से कौन अगले हफ्ते आउट होगा इसका रहस्य तिलिस्म की तरह परत दर परत खबरिया चैनल खोलते रहे लेकिन वो अक्सर खोदा पहाड़ निकली चुहिया होती रही। कई लोग इसी गम में खाना भूल जाते थे, तो कई माताएं अपने चूल्हे पर उबलता दूध छोड़कर टीवी के सामने बैठ जाती थीं। कई घरों में इसी खबर को लेकर पति-पत्नी में लड़ाई झगड़ा भी हो जाता था।
उसके बाद आया राखी का स्वयंवर और इसी सीरियल के लटके-झटके और राखी के नखरे ने खबरिया चैनलों को कम से कम सात महीने की संजीवनी दे दी। भले ही ये पूरा सीरियल 2 महीने में निपट गया हो मगर खबरिया चैनल का कुनबा उसे इलास्टिक की तरह 9 महीने तक खींचकर ले गया। राखी का स्वयंवर शुरू होने से पहले ही खबरिया चैनल उसकी बांग देने लगे थे और शुरू से अंत तक सीरियल के एक-एक एपीसोड को तड़का मार कर परोसते रहे और स्वयंवर खत्म होने के बाद भी पीछा नहीं छोड़ा। इनका बस चलता तो ये राखी सावंत और उनके मंगेतर बने इलेश की शादी करा कर ही छोड़ते। राखी सावंत की शादी कराने में भले ही सफल न हुए हो लेकिन अपनी टीआरपी का झोला भरने में कामयाब ज़रूर हो गए।
उसके बाद आया राहुल दुल्हनिया ले जाएगा का बुखार, जिसने तो नाटकीयता और परिहास के सारे तंबू उखाड़ दिये। पैसा और प्रचार के खातिर हजारों कन्याएं ने अपने कुल की मर्यादा को ताक पर रख कर राहुल महाजन से स्वयंवर रचाने के लिए ऐड़ी चोटी का ज़ोर लगा दिया। 50 साल की अम्मा से लेकर 80 साल की दादी ने भी अपने चश्मे का शीशा बदलवा दिया ताकी वो पूरा नज़ारा साफ-साफ देख सकें। टीवी सीरियल ने तो अपने समय पर स्वयंवर के एपीसोड दिखाए पर खबरिया चैनल ने स्वयंवर को दही की तरह मथ कर उसका मख्खन बना कर जनता के सामने बार-बार पेश किया।
उसके बाद बारी आई बालिका वधू की जिसने तो खबरिया चैनलों के दिवालियापन को और भी बेहतर तरीके से उजागर कर दिया। 4 दिन पहले से ही तकरीबन सारे खबरिया चैनलों ने बालिका वधू की पर्दे पर होने वाली मौत इस तरह नमक मिर्च मिला कर पेश करना शुरू किया जैसे कि सैंया बिना घर सूना...
आनंदी बालिका वधू नामक धारावाहिक में एक प्रमुख भूमिका में हैं और ये भारतीय सिनेमा और टेलीविजन धारावाहिकों की परंपरा रही कि ऐसे किरदार की पर्दे पर मौत उनके लिए अक्सर असहनीय हो जाती है। खबरिया चैनलों के चाणक्य इस कमजोरी को भली भांति जानते हैं। इसीलिए उन्होंने तीन दिन पहले से ही इसकी भोंक प्रियता के नए-नए कीर्तिमान स्थापित करने शुरू कर दिए। साथ ही ये भी जताने कि कोशिश की आनंदी की पर्दे पर मौत किसी भयानक राष्ट्रीय क्षति से कम नहीं।
आमतौर पर भारतीय दर्शक किसी भी फिल्म या लोकप्रिय टेलीविजन धारावाहिक में उसका दुखद अंत देखना पसंद नहीं करता। पश्चिमी देशों में बनाए गए फिल्म या धारावाहिक रियलिटी के ज्यादा करीब होते हैं और उनमें दुखद अंत भी दिखाया जाता है। टीवी सीरियल वाले भारतीय जनमानस की भावनाओं से खेलना खूब जानते हैं उन्हें पता है कि कुछ भारतीय महिलाएं सीरियल में नकली आंसू बहा रहे किरदार को देखकर असली आंसू बहाती हैं।
भारतीय दर्शक सीरियल के घटना क्रम को अपने दिलोदिमाग से जोड़कर देखता है। सीरियल में मनाई जाने वाली दीवाली में वह खुश होता और मातम दिखाए जाने पर दुखी होता है। ऐसे जनमानस के बीच खबर दिखाने का लाइसेंस लेकर खबरों के ठेकेदार खबरिया चैनल टीआरपी के लिए विजुअल के भिखारी बनकर सीरियलों के दरवाजे पर खड़े रहते हैं।
जहां सीरियल में इमोशनल ड्रामा की बूंदा बांदी शुरू हुई। उसकी पूंछ पकड़ कर खबरिया चैनल हाथी निकालने की कवायद शुरू कर देते हैं। एक ही घटनाक्रम को उलट-पलट कर घुमाफिरा कर कई बार दिखाते हैं। हमारे शास्त्रों में कहा गया है कि
यौवनं धनसंपत्ति: प्रभुत्वमविवेकिता
एकैकमप्यनर्थाय किंमु यत्र चतुष्टयम्
अर्थात यौवन, धन, ऐश्वर्य और अविचार- इन चारों में से एक-एक भी अति हो तो अनर्थ हो जाता है। फिर जहां चारों इकट्ठे हों, वहां का कहना ही क्या।
मेरी मंशा कतई नहीं कि ख़बरिया चैनल नसीहतों के दफ्तर में तब्दील हो जाए। मगर इसका मतलब ये भी नहीं कि वो निहायत ही नाशाइस्ता और शफ़ाक़ी हो जाएं। उन्हें मलामत और मजामत के बीच का फर्क समझना चाहिए और एक आम शहरी आज भी चैनल के मसीहाओं का ये उज़्र तस्लीम के काबिल नहीं समझता कि हम वही दिखाते हैं जो जनता चाहती है।
चूंकि कई मीडिया ग्रुप में कई चैनलों का एक गुलदस्ता या बाल्टी भर की विविधताएं रहती हैं, इसलिए उनके किसी भी नए उत्पाद को बढ़ा-चढ़ाकर दिखाने की कवायद के पीछे की ज़रुरत समझी जा सकती है। चाहे स्टार या नेटवर्क 18 या फिर ज़ी टेलीविज़न की कोई नई कहानी, नया धारावाहिक या सेलेब्रेटी इंटरव्यू हो तो उन विशेष कार्यक्रमों की धड़ाकेदार या छल्लेदार प्रस्तुति के पीछे की गणित और अर्थशास्त्र को समझना उतना मुश्किल नहीं है। ये सब जानने लगे हैं कि ख़बरिया चैनलों में सिर्फ कुछ एक बड़ी वारदातों या हादसों को ही ख़बर के खांचे में ढालकर पेश किया जाता है। मगर बाकी समय में तो कुछ भी किया जा सकता है।
दूरदराज की ख़बरों तथा विशेष कार्यक्रमों को दिखाने के लिए पैसे खर्च करने की आवश्वयकता होती है। मगर अधिकांश चैनलों के मालिक अपनी जेब ढ़ीली नहीं करना चाहते और प्रसिद्ध फिल्मकार आई एस जौहर की उक्ति में पूर्ण विश्वास रखते हैं। जौहर साहब की सबसे मशहूर लाइन ये थी- जब बाज़ार में पॉली पैकेट का दूध हर जगह मिलता हो तो फिर घर में भैंस बांधकर रखना निहायत ही बेवकूफी है।
उसी तरह कई ख़बरिया चैनलों को इस किस्म के फुटेज और विजुअल्स क्लिप्स एमटीआर या एमडीएच मसाले की तरह हर हफ्ते आसानी से मिल जाते हैं तो फिर वो दूरदराज की ख़बरों के लिए अपना समय और पैसा क्यों जाया करें। वैसे भी सीरियल वाले न्यूज़ में तो- हींग लगे न फिटकरी रंग भी चोखा हो- वाला मामला रहता है तो इसके लिए कोई दिमागी कसरत या बौद्धिक उछल-कूद की ज़हमत क्यों उठाए?
खीज और कोफ्त तब होने लगती है जब सारे ख़बरिया चैनल सीरियल न्यूज़ की बाढ़ में एक साथ बहने लगते हैं। ऐसे में फिर वही शेर जेहन में आता है-
रंग लाकर ही रही मर्दों की सोहबत का असर
शायराते कौम भी दादे-ज़बां देने लगी
मुर्गे की तो ख़ैर, फितरत हैं गुलबांगे-सहर
मुर्गियों को क्या हुआ, ये क्यों अज़ां देने लगी।
जिस दिन बालिका वधू की आनंदी के सिर में गोली लगने की ख़बर एक चैनल ने सिक्के की तरह उछाला, उस दिन से ब्रेकिंग न्यूज़ का बाज़ार और भी गरम होने लगा। 4 से 5 घंटे तक तफ्सरा और तज़करा का दौर चला। इसे क्या कहा जाए? दिमागी दीवालियापन की हद या संजीदा सोच का अकाल? या फिर ब्रेकिंग न्यूज़ शब्द के साथ ही सामूहिक बलात्कार।
अब तक तो हिन्दी चैनलों को ही इस किस्म की फूहड़ता के हमाम में कूदने का इलज़ाम लगाया जाता था और अंग्रेजी चैनलों के आकाओं की हेकड़ी यही होती है कि वो इस किस्म की उल-जुलूल हरकतों से कोसों दूर रहते हैंष मगर बालिका वधू प्रकरण ने इस बार दो नामचीन अंग्रेजी के ख़बरिया चैनलों को भी सस्ती लोकप्रियता के हमाम में नंगे ही कूदते देखा। इन चैनलों के कई रिपोर्टर घरों में पूजा के लिए चंदा मांगने गए लोगों की तरह ये पूछते हुए दिखाई दिए कि क्या बालिका वधू की आनंदी को गोली लगनी चाहिए या फिर क्या आनंदी ज़िंदा बच जाएगी?
और इसका सही जवाब कैमरे पर दिया एक पचास वर्षीय औरत ने। उन्होंने कहा कि “ भगवान से ज़्यादा मैं इस शो के प्रस्तुतकर्ताओं से प्रार्थना करुंगी कि वो आनंदी को ज़िंदा ले आएं ताकि आप लोगों की दुकान बंद न हो।” उस वक्त उस रिपोर्टर की शक्ल देखने लायक थी। उसे ये नहीं समझ में आ रहा था कि इस दलील पर वो हंसे या रोए क्योंकि ये दूध और मछली दोनों एक साथ खाने के बराबर था।
ब्रेकिंग न्यूज़ का इतना फूहड़ नज़ारा तो मैंने पहले कभी नहीं देखा। मगर आज भी ये तमाशा कई ख़बरिया चैनलों पर बदस्तूर जारी है। मानो वो एक आम दर्शक के सब्र का इम्तिहान ले रहा हो। फिर ऐसे में मुझे भी लगा कि
‘’उसे ये फ़िक्र है हरदम, नई तर्ज़े-जफा क्या है
हमें भी शौक हैं देखें, सितम के इन्तहा क्या है?”
सोमवार, 15 मार्च 2010
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