यूनान, मिश्र, रोमयां सब मिट गए जहां से,
बाकि मगर है अब तक नामोनिशा हमारा।
कुछ बात है कि हस्ती मिटती नहीं हमारी,
सदियों रहा है दुश्मन, दौरे जहां हमारा।
सच्चे अर्थो में वो हस्ती ब्राह्मण शक्ति ही है जिसने भारत की संस्कृति को अक्षुण बनाए रखा। हमारे संस्कृति और संस्कार की नीव इतनी मजबूत है कि इतिहास के हजारों थपेड़ों को बर्दाश्त करते हुए वो आज भी कायम है। और इसमें ब्राह्मणों के योगदान महत्वपूर्ण है।
ब्राह्मण समाज का इतिहास प्राचीन भारत के वैदिक धर्म से आरंभ होता है। मनु स्मॄति के अनुसार आर्यवर्त वैदिक लोगों की भूमि है ब्राह्मण व्यवहार का मुख्य स्रोत वेद हैं। ब्राह्मणों के सभी सम्प्रदाय वेदों से प्रेरणा लेते हैं। पारंपरिक तौर पे यह विश्वास है कि वेद अपौरुषेय ( किसी मानव या देवता ने नहीं लिखे ) तथा अनादि हैं, बल्कि अनादि सत्य का प्राकट्य है जिनकी वैधता शाश्वत है। वेदों को श्रुति माना जाता है ( श्रवण हेतु , जो मौखिक परंपरा का द्योतक है )।
ब्राह्मण शास्त्रों में प्रमुख हैं अग्निरस , अपस्तम्भ , अत्रि , बॄहस्पति , बौधायन , दक्ष , गौतम , हरित , कात्यायन , लिखित , मनु , पाराशर , समवर्त , शंख , शत्तप , ऊषानस , वशिष्ठ , विष्णु , व्यास , यज्ञवल्क्य तथा यम।
अनेक वर्षो से ब्रह्मण का निर्धारण माता-पिता की जाती के आधार पे ही होने लगा है। वैदिक शास्त्रों मैं साफ़-साफ़ बताया है
जन्मना जायते शुद्रः
संस्कारात भवेत् द्विजः |
वेद-पठत भवेत् विप्र
ब्रह्म जनातति ब्राह्मणः |
अर्थात जन्म से मनुष्य शुद्र, संस्कार से द्विज (ब्रह्मण), वेद के पाठन-पाठन से विप्र और जो ब्रह्म को जनता है वो ब्राह्मण कहलाता है।
समोदमस्तपः शौचम् क्षांतिरार्जवमेव च |
ज्ञानम् विज्ञानमास्तिक्यम् ब्रह्मकर्म स्वभावजम् ||
अर्थात ब्राह्मण का स्वभाव चित्त पर नियन्त्रण, इन्द्रियों पर नियन्त्रण, शुचिता, धैर्य, सरलता, एकाग्रता तथा ज्ञान-विज्ञान में विश्वास है। वस्तुतः ब्राह्मण को जन्म से शुद्र कहा है। ब्राह्मण को ब्रह्म का ज्ञान जरुरी है। केवल ब्राह्मण के घर पैदा होने से ब्राह्मण नहीं होता ।
अध्यापनम् अध्ययनम् यज्ञम् यज्ञानम् तथा |
दानम् प्रतिग्रहम् चैव ब्राह्मणानामकल्पयात ||
इस श्लोक में ब्राह्मण के छह कर्त्तव्य बताए गए हैं शिक्षण, अध्ययन, यज्ञ करना , यज्ञ कराना , दान लेना तथा दान देना।
शास्त्रों में ब्राह्मणों के सोलह प्रमुख संस्कार बताए गए हैं। जन्म से पूर्व गर्भधारण , पुन्सवन (गर्भ में जीव को ईश्वर को समर्पित करना ) , सिमन्तोणणयन । बाल्यकाल में जातकर्म ( जन्मानुष्ठान ) , नामकरण , निष्क्रमण , अन्नप्रसन , चूडकर्ण , कर्णवेध। बालक के शिक्षण-काल में विद्यारम्भ , उपनयन , वेदारम्भ , केशान्त अथवा गोदान , तथा समवर्तनम् या स्नान ( शिक्षा-काल का अन्त )। वयस्क होने पर विवाह तथा अन्त्येष्टि प्रमुख संस्कार हैं।
दक्षिण भारत में ब्राह्मणों के तीन सम्प्रदाय हैं - स्मर्त सम्प्रदाय , श्रीवैष्णव सम्प्रदाय तथा माधव सम्प्रदाय।
आधुनिक भारत के निर्माण के विभिन्न क्षेत्रों , जैसे साहित्य , विज्ञान एवम् प्रौद्यौगिकी , राजनीति , संस्कॄति , पाण्डित्य , धर्म में ब्राह्मणों का अपरिमित योगदान है | प्रमुख क्रांतिकारी और स्वतंत्रता-सेनानियों में बाल गंगाधर तिलक, चंद्रशेखर आजाद इत्यादि हैं। लेखकों और विद्वन में कालिदास, रविन्द्रनाथ टैगोर ब्राह्मण ही थे।
लेकिन समय के साथ-साथ ब्राह्मण पथ भ्रष्ट होते जा रहे हैं। अपनी विशिष्ता खोते जा रहे हैं। और आज हालत ये हो गई है कि समाज में ब्राह्मणों की हालत दयनीय हो गई है। उसका जिम्मेदार खुद ब्राह्मण ही है कहा जाता है कि नदी की पहचान तभी तक रहती है जब वो अपनी विशिष्टता को कायम रखते हुए, निस्वार्थ भाव से बहती है लेकिन जैसे हि नदी सागर में जाकर मिलती है उसकी पहचान को जाती है। उसका अस्तित्व विलीन हो जाता है। वही हाल ब्राह्मणों का है मॉर्डन बनने के चक्कर में आज ब्राह्मण अपनी खान-पान, मान-मर्यादा सभी को छोड़ कर समाज में विलीन हो गया है। ब्राह्मण सिर्फ नाम के ब्राह्मण रह गये है।
सन 2002 में दिल्ली में अखिल भारतीय ब्राह्मण सम्मेलन के दौरान देखा गया की ब्राह्मणों के खुद अपने ही हित में विचार एक नहीं हो पाए। वहां कुछ ब्राह्मणों ने ब्राह्मणों के लिए आरक्षण का मुद्दा उठाया लेकिन देश के कोने-कोने से सम्मेलन में आए ब्राह्मणों के बीच आरक्षण के मुद्दे पर आम राय नहीं बन पायी। कई और मामलों पर सिर्फ हो हल्ला हुआ और बिना किसी नतीजे के ब्राह्मण सम्मेलन समाप्त हो गया।
सिंहों के लेहड़े नहीं, हंसों की नहीं पात।
लालन की नहीं बोरियां, साधु ना चले जमात।।
अर्थात शेरों का झुंड नहीं होता, हंसों कभी पंक्ति बना कर नहीं उड़ते, हीरे, मोतियों को बोरियों में नहीं रखा जाता, और साधु अर्थात ब्राह्मण कभी भीड़ में नहीं चलते।
लेकिन आज ब्राह्मण भीड़ में खो गया है। समाज के बाकी लोगों की नकल करते-करते अपनी अक्ल खो बैठा है। एक जमाने में राजा के दरबार में जब ऋषि पहुंचते थे तो राजा खुद सिंहासन छोड़कर उनके स्वागत में द्वार तक आता था। कहते है कि यदि ब्राह्मण क्रोध में किसी के दरवाजे पर अपना जनेऊ तोड़कर फेंक देता था तो उसके कुल का नाश हो जाता था। खुश होकर किसी को आशीर्वाद दे देता तो उसकी सभी मनोकामनाएं पूरी हो जातीं थीं। कहा जाता है कि...
ऐसाम न विद्या, न तपो न ज्ञानम्।
धनम् न शीलम, न गुणों न धर्म:।
ते मृत्यु लोके भूमि भारभूता:।
मनुष्य रूपेण मृगाश्चरन्ति।।
अर्थात जिन लोगों के पास न विद्या है, न तप, न ज्ञान है, न धन है, न शील है, न गुण है, न धर्म है ऐसे लोग धरती में भार के समान हैं और मनुष्य के रूप में हिरण के समान विचरण कर रहे हैं। आज ब्राह्मणों की यही हालत है इन ऋषि कुमारों को पता नहीं आज किसकी नज़र लग गई है। कि उनके पास न विद्या है, न तप है, ज्ञान है, न सत्य है, न आचरण है, न शील है ब्राह्मण के कोई गुण नहीं है सिर्फ नाम के ब्राह्मण रह गए।
यही वजह की वर्तमान समाज में सबसे ज्यादा दुखी, परेशान ब्राह्मण समाज के लोग है। और समय के साथ-साथ पिछड़ते जा रहे हैं। एक ब्राह्मण दूसरे ब्राह्मण को आगे बढ़ते हुए नहीं देख सकता। हर क्षेत्र में चाहे वो साधु समाज हो, शंकराचार्य हो, अखाड़े वाले हो नौकरी-पेशा या राजनीति हर क्षेत्र में एक ब्राह्मण दूसरे ब्राह्मण की जड़ काटने में सबसे आगे है।
दरअसल ब्राह्मण ने अपना असली चोला छोड़ दिया है। धर्म के नाम पर ढोंग, धोखा, साधुता के नाम पर दंभ और मिथ्या अहंकार, संन्यास (समन्वय+न्यास) की जगह छल-कपट आज के साधु-संतों और पाखंडी ब्राह्मणों की असली पहचान है।
धर्म का तेजी से बाजारीकरण हो रहा है। कुंभ का पवित्र स्थल बाबाओं और तथाकथित साधु-संतों ने बड़े-बड़े पोस्टरों पटा पड़ा है। हर संत इतना असंत हो गया है कि उसको अपना पहचान के लिए बड़े-बड़े पोस्टरों का सहारा लेना पड़ता है। कुंभ के पवित्र स्थल में अपनी-अपनी दूकान लगा कर भगवा वेषधारी असली बनिए बैठे है जिनका एक ही उद्देश्य लगता है- देश-विदेश से आने वाली जनता को जिनता लूट सके तो लूट लें। दान के नाम पर मिले धन से ये महा तपस्वी दिखने वाले साधु-संत महंगी-महंगी कारें, हथियार, गांजा इत्यादि खरीदते हैं और मौका मिलते ही अय्याशी की सारी हदे पार करने में देर नहीं करते।
कुंभ में बाबाओं की दादागीरी और लाठी का वर्चस्व साफ देखा जा सकता है। इन अखाड़ों की स्थापना का उद्देश्य भारत पर आक्रमण करने वाले आक्रमणकारियों से देश की रक्षा करना था। भारत की संस्कृति और संस्कारों की आदर्श प्रस्तुत करते हुए उसे अक्षुण बनाए रखना था। लेकिन समय के साथ-साथ इन धर्म के कई अखाड़े अब अधर्म के अड्डों में दबदील हो गए हैं। इनका दंभ धर्म की छाती को छलनी कर देता है। उनके ऐशोआरम को देख कर धर्मपरायण हिंदू समाज की बोली भाली जनता का मन पीड़ा से भर जाता है। हर सच्चे इंसान का मन साधु-संतों के द्वारा हिंदू संस्कृति और संस्कारों का पतन देखकर आत्मग्लानि से भर जाता है। और पावन कुंभ से साधु-संतों के दंभ की छाप की पीड़ा समेटे आम जनमानस अपने गांव और शहर लौट जाते हैं। अंत में यह स्पष्ट करना जरूर है की हर साधु-संत और अखाड़े ऐसे नहीं। पर एक मछली सारे तालब को गंदा कर देती है। इसलिए तालाब को साफ रखने के लिए ऐसी मछली को उसकी सही जगह बता दी जाए ?
गुरुवार, 25 मार्च 2010
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बहुत ही ज्ञानवर्धक लगा आपको पढ़ना
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