आजकल अखबारों और टीवी चैनलों में एक नया दौर शुरू हो गया है। पहले संपादक और रिपोर्टर थे, अब प्रबंध संपादक और प्रबंध रिपोर्टर की फौज मैदान में है जिनका काम पत्रकारिता का पेश कम मगर अपने अखबार या न्यूज चैनल के लिए कई सारी चीजें ‘मैनेज’ करना ज्यादा है। ज़ाहिर है कि जब प्रजातंत्र का चौथा खंभा उद्योग की शक्ल ले लेगा तो फिर उस उद्योग के साथ जुड़ी हुई कई ख़ूबियों और ख़राबियों का समिश्रण भी सामने आएगा। एक तो वैसे भी इन अखबारों तथा टीवी चैनलों का काम पैसा कमान ज्यादा और समाज सेवा कम है तो फिर ऐसे में लिखे पढ़े तथा विद्वान संपादकों की जगह छुटभैइयों की फौज ने प्रबंध संपादक से लेकर प्रबंध रिपोर्टर तक का जिम्मा संभाल लिया है। ऐसे में लाजमी है कि सत्य और निष्ठा का तेल होगा और आंकड़ो और अटकलों का खेल होगा। क्योंकि पत्रकारिता एक आदरणीय और विश्वनीय पेशा नहीं बल्कि टीआरपी की रसोई होगी जिसमें हमेशा जुगाड़ की छोंक पड़ेगी।
शायद इसीलिए किसी ने पत्रकारिता तथा पत्रकारों के बदले मापदंड और मानसिकता को देखकर कहा था कि –
साहिल पे जितने आब-ग़ज़ीदा थे सब के सब
दरिया का रुख बदला तो तैराक हो गए।
आम तौर पर मैनेजिंग एडिटर की जिम्मेदारी अखबार या टीवी चैनल की संपादकीय दशा और दिशा, दोनों निर्धारित करना होता है। खबरों का चुनाव उसका स्थान एंव महत्व, चैनल या अखबार की बिक्री या बाजार की स्थिति से लेकर आर्थिक एंव विज्ञापन आदि तक मैनेज करना होता है। मगर सही मायने में आज के दौर में मैनेजिंग एडिटर या प्रबंध संपादक अपने अखबार या न्यूज चैनल के हर क्रियाकलाप का हिस्सा होता है। उसकी एक उंगली हर विभाग में होती है और उसका एक इशारा ही किसी को लाने और निकालने के लिए काफी होता है। संपादकीय से लेकर राजनीतिक और आर्थिक जोड़-तोड़, सत्ता के गलियारों से लेकर संत्री के पिछवाड़े तक, रिपोर्टरों की रपट से लेकर कैमरा मैन और एंकर तक की जन्म कुंडली इनके हाथ में होती है और सही मायने में, किसी भी प्रकाश या न्यूज चैनल के त्रिदेव येही होते हैं।
हाल ही में हुए भारतीय प्रसार संघ की बैठक में सरकार द्वारा निजी चैनलों पर कुछ पाबंदियां लगाने के प्रश्न पर हुई उठा पठक के बाद एक वरिष्ठ पत्रकार के मुंह से ये निकलते सुना कि ’देशहित और सूचना का अधिकार जाए भाड़ में ‘। यह बैठक तो उन लोगों की थी जिनका मूलमंत्र यही था कि उनके चैनलों में आ रहे विज्ञापनों तथा उनके कार्यक्रमों पर कोई रोक नहीं लगे। सरकार भी जानती है कि कई चैनलों के मालिक अपनी दुकान चला रहे हैं। कोई पहलावनी करता था या तेल,चीनी या चावल बेचता था मगर अब वह किसी चैनल ग्रुप का बादशाह है। मगर पैसों का ढेर हो जाने से किसी का किरदार तथा शिक्षा का स्तर तथा सोच तो नहीं बदल जाती’।
उस पत्रकार का कथन भले ही कई महारथियों और चैनल तथा अखबार मालिकों को तीर की तरह लगे मगर इसमें काफी हद तक सच्चाई तो है। अधिकांश मैनेजिंग एडिटर या प्रबंध संपादकों की हालत वाकई ऐसी है। बहुत ही ऐसे कम प्रबंध संपादक हैं जो गुणी, विद्वान तथा संजीदगी से सोचने वाले पत्रकार हैं। अधिकांश प्रबंध संपादकों की पहचान यही है कि वो कितने मंत्रियों को अपनी जेब में रखते हैं, कितनी बार वो राष्ट्रपति या प्रधानमंत्री के साथ विदेश यात्रा में शामिल हुए, कितनी बार उन्होंने अपने लिए किसी संस्था का सम्मान या पुरस्कार ‘मैनेज’ किया या फिर उनके खेल या जुगाड़ की राजनीति से उस अखबार या चैनल को कितना फायदा हुआ’
इन प्रबंध संपादकों को नई बड़ी चमकी गाड़ियों में बड़े-बड़े कार्यक्रमों तथा प्रीति भोज या गेट-टू-गेदर में अवश्य ही शामिल होते देखा होगा, मगर किसी संजीदा किस्म की गोष्ठी या सेमिनार में शिरकत करते बहुत कम ही देखा जा सकता है। जब भी कभी इनके पास किसी प्रतिष्ठित या शिक्षा केंद्र से अमुख विषय पर परिचर्चा में या गोलमेज कॉन्फ्रेंस में शामिल होने का अनुरोध या निवेदन आएगा तो वो फौरन ये कहकर इनकार कर देंगे कि या तो अमुख दिन वो बहुत ही व्यस्त है या फिर वो शहर में नहीं रहेंगे, क्यों कि या तो वो विदेश जा रहे हैं या फिर बहुत बड़ी सभा या राजनीतिक पार्टी के अधिवेशन में विशेष तौर पर सम्मानित अतिथि के तौर पर बुलाए गए हैं।
मगर सच्चाई तो कुछ और ही है दरअसल ऐसे प्रबंध संपादक इन सभाओं तथा विचार गोष्ठियों में जाकर अपनी पोल नहीं खुलवाना चाहते क्यों कि वो वहां अपना मुंह खेलेंगे तो उनकी असलियत और विद्वता तथा सोच के स्तर की पोल खुल जाएगी।
ऐसा ही एक बार श्री अरुण शौरी के साथ एक सेमिनार में हुआ था। श्री शौरी इंडियन एक्सप्रेस के संपादक के रूप में उस सेमिनार में शामिल हुए और गुजरात दंगों पर कुछ ज्यादा ही बोल गये। उसके बाद वहां मौजूद छात्र-छात्राओं ने उनका वो हाल कर दिया कि उन्हें कहना पड़ा कि वो भूल गए थे कि वो कहां आए हैं। ऐसा ही नज़ारा उदयन शर्मा सम्मान समारोह में देखने को मिला जब एक नामचीन संपादक पंडित जवाहरलाल नेहरू की शान में कुछ ज्यादा ही कसीदा पढ़ गए और वहां बैठी जनता ने उन्हें आड़े हाथों ले लिया।
यही हाल चंद और दिग्गज पत्रकारों का और जगहों पर भी हुआ और शायद यही वजह है कि ऐसे पत्रकार आजकल संजीदा किस्म के विषयों पर व्याख्यान देने या लिखने के वजाए किसी चैनल के पटल पर दिखना ज्यादा पसंद करते हैं क्योंकि उन्हें मालूम है कि चैनल के एंकर उन्हें सही तरह से घेर नहीं पाते।
दूसरे किस्म के प्रबंध संपादक ऐसे होते हैं जो हर किस्म के विषय पर लिखते और बोलते है चाहे वह धाराप्रवाह वकवास ही क्यों न हो। दिमागी मैथून या मानसिक स्खलन में उनका विश्वास नहीं। हां, उनकों इस बात की चिंता और जुगत हमेशा रहती है कि उनका नाम और उनकी छवि अखबार के पाठकों तथा टीवी चैनलों के स्मृति पटल पर अवश्य होनी चाहिए क्यों कि सही और सफल संपादक या पत्रकार वही है जो या तो लिखता है या फिर चैलन पर दिखता है भले ही विषय कोई भी हो।
पहले अखबारों के संपादक का अपना अलग किरदार और अपनी अलग पहचान होती थी। किसी अखबार का संपादक सबसे प्रबुद्ध, तार्किक और अनुभवी पत्रकार होता था। उसके द्वारा लिखे गए संपादकीय में हर दिन के महत्वपूर्ण मुद्दों, विषयों तथा वहस और विचार पर विशेष विश्लेषण तथा टिप्पणी होती थी जिसमें समाज के आम आदमी की जिंदगी उसकी ख्वाहिशें, सपने और उसके हित की बात होती थी। जब भी कोई बड़ा क्षेत्रीय, राष्ट्रीय मुद्दा उठता था तो लाखों पाठक अपने प्रिय अखबार के संपादकों की संपादकीय टिप्पणी का बेसब्री से सुबह तक इंतजार करते थे कि फलाने संपादक ने अमुख विषय पर अपने संपादकीय में क्या कहा या क्या टिप्पणी की?
अमुमन यह संपादकीय सरकार के या सल्तनत के किसी खास कार्य या निर्णय के खिलाफ होता था या फिर किसी ऐतिहासिक निर्णय की तारीफ या फिर उसका विश्लेषण करके उसमें महत्वपूर्ण सुझाव दिये जाते थे। चाहे वह इंदिरा गांधी द्वारा आपातकाल की घोषणा हो या फिर ऑपरेशन ब्लू स्टार हो या फिर वो पंजाब में 80 के दशक में बढ़ता आतंकवाद हो, ऐसे हजारों मुद्दे थे जिनपर संपादकों ने जनहित में सरकार को आड़े हाथों लिया। इस किस्म की निर्भीक पत्रकारिता के लिये लाला जगत नारायण जैसे पत्रकारों ने अपनी जान तक कुर्बान कर दी। सन 1980 के दशक तक विभिन्न अखबारों के संपादकों ने हर दिन अपनी संपादकीय में और अपने कॉलम के जरिए जन अभियान चलाया और प्रसासन से दो-दो हाथ किए। ऐसे कई उदाहरण है जब संपादकों ने सत्य और असत्य की लड़ाई में अपनी नौकरी तक गंवा दी मगर अपनी ईमानदारी और किरदार पर आंच नहीं आने दिया।
मगर इसी दशक में संपादक का भी रूप बदला और संपादकीय सत्ता के गुणगान का हथियार भी बनी। इसी दशक में शायद पहली बार बड़े पैमाने पर संपादकों की कलम पर बोली लगने लगी और नब्बे के दशक आते-आते पुराने मूल्यों और आदर्शो वाले संपादक की प्रजाति जैसे लुप्त सी हो गई। अंग्रेजी, हिंदी तथा क्षेत्रीय भाषाओं में भी संपादकों की इस प्रजाति की सोच, समझदारी तथा कार्यकलाप में क्रांतिकारी बदलाव आया। जहां सन 1970 के दशक में हिरण्यमय कारलेकर जैसे पत्रकारों को अपनी नौकरी से हाथ धोना पड़ा वहीं 80 के दशक में उप-प्रधानमंत्री देवीलाल द्वारा एक आदमी को 25 बार बहन की गाली दिए जाने की खबर छापकर इंडियन एक्सप्रेस के संपादक लाखों पाठकों की निगाह में पत्रकारिता के ध्रुव तारा की तरह उभरे। एम जे अकबर से लेकर कई मूर्धन्य पत्रकारों ने इस बदलती स्थिति का फायदा उठाया और खोजी पत्रकारिता के नाम पर कई कीले ठोंक दीं।
एक और नई बात ये हुई कि खास बीट कवर करने वाले संवाददाता की जगह संपादक खुद ही राष्ट्रपति और प्रधानमंत्री की विदेश यात्रा को कवर करने जाने लगे। अंजाम ये हुआ कि खबरों के पीछे की खबर का खुलासा करने के वजाए कई अखबारों ने इन गिने चुने संपादकों की नजर से घटना विशेष का जायजा और रिपोर्ट किसी अखबारी भोंपू से कम नहीं लगने लगी। धीरे-धीरे यही परिपाटी बनने लगी और कुछ ऐसे संपादक महोदयों की फौज बनने लगी। जिसका काम यही होता था कि किस मंत्रालय का शिष्टमंडल या किसी मंत्री का महकमा कहां जा रहा है और यही फौज हर बार हर जगह यात्रा करने लगी।
सरकारी महकमे को पत्रकारिता का ये अंदाज इसीलिए पसंद आया क्योंकि जब इन शिष्टमंडलों तथा ‘जंकेट’ में संपादक महोदय ही ‘माल-ए-मुफ्त दिले-ए-बेरहम’ का सबसे ज्यादा मजा लेने का आदी हो गया हो तो भला वो सरकार के खिलाफ एक लफ्ज भी लिखने की हिमाकत कैसे करेगा?
इसी तरह पत्रकारिता में संपादक के स्तर से ही वैचारिक संशय तथा दीवालियापन की बू आने लगी। जिन एक दो संपादकों ने सरकार के खिलाफ कुछ लिखने की कोशिश की तो पीआईवी में तैनात चाटूकारों और सरकारी दुमछल्लों की फौज ने अगली विदेशयात्रा की सूची से उनका नाम ही नदारत कर दिया। उसके बाद होने ये लगा कि किसी भी अखबार में किसी मंत्रायल के खिलाफ कोई खबर छप गई तो मंत्री जी खुद फोन लाइन पर आकर संपादक महोदय को बड़ी शालीनता से समझा दिया करते थे कि अगली विदेश यात्रा या पत्रकारों के लिए फ्लैट के आबंटन में उनका नाम शायद न रहे। ज़ाहिर था, संपादक महोदय इस बात का ख्याल रखते थे कि कम से कम संपादकीय में सरकार के नीति पर सीधे प्रहार न हो। चाहे इसके लिए संपादकीय ही क्यों न गोल कर दिया जाए।
ऐसा ही देश के एक विशिष्ठ अंग्रेजी अखबार में हुआ था जब राजीव-जयवर्धने संधि के तहत भारत सरकार ने आईपी के एफ श्रीलंका भेजने का फैसला किया था। उस वक्त स्टेट्समैन को छोड़कर सभी अखबारों ने इस फैसले के बारे में कसीदे गढ़े थे और उसे एक ऐतिहासिक कदम बताया था। मगर उस नामचीन अखबार में इसके बावत कोई संपादकीय छपा ही नहीं क्योंकि रात के 12 बजे संपादक महोदय ने वह ब्रोमाईड निकालकर फेंक दिया था जिसमें एक 24 साल के युवा सहायक संपादक ने संपादकीय लिखा था और इस फैसले को भयंकर भूल बताया था। ये अलग बात है कि भारत के लिए श्रीलंका में सेना भेजना एक ऐतिहासिक भूल साबित हुई मगर उस नामचीन अखबार के संपादक को अपनी गद्दी हिलने का इतना भय लगा कि वो नाइट गाउन में ही दफ्तर भागे और श्रीलंका वाले संपादकीय की जगह वहां पर एनसीआर वाला संपादकीय चिपकाने का आदेश दे दिया।
यही समय था जब अखबार मालिकों ने एक सोची समझी नीति के तहत ‘संपादक’ नामक संस्था की ताबूत में कील ठोंकना आरंभ कर दिया और 90 दशक की शुरुआत होते-होते संपादक नामक संस्था लगभग दफन होना शुरू होग गई। अखबार मालिकों को लगने लगा की जब सहायक संपादक ही संपादकीय लिखते हैं और संपादक महोदय को विदेश यात्रा तथा मंत्रियों के फौज से मेल मिलाप से फुर्सत ही नहीं तो फिर क्यों न सरकारी महकमे से सीधे तार जोड़ लिए जाएं।
इससे तीन फायदे थे। एक तो था की संपादक की आवश्यकता ही नहीं रह गई। दूसरा ये की संपादकीय नीतियों तथा सामाजिक संवेदनाओं की दलील का भी खात्मा हो गया। प्रबंध संपादकों की छत्रछाया तथा सीधे प्रबंधन की कमान संभालने के बाद अखबारों की आस्तीन सामाजिक तथा आम आदमी की आकांक्षाओं तथा अपेक्षाओं के लिए छोटी पड़ने लगी। और तब से लेकर अब तक के सफर में जो गुजरा वो सबके सामने है।
तीसरा और सबसे बड़ा फायदा ये था कि प्रबंध संपादक और सरकार के बीच संपर्क के तार सीधे जुड़ जाने से अखबार के नाम पर कई और तरह के व्यवसाय तथा उद्योग खोलने तथा बढ़ाने का लाइसेंस मिल गया। हर अखबार तथा टीवी चैनल का संपादक विज्ञापन तथा बाजार में बिखरे टीआरपी के धन पर कब्जा करने की जुगत में लग गया। 90 के दशक में यही बीमारी टीवी चैनलों को लग गई और आज ये इतनी बुरी तरह फैल गई है कि इसका कोई इलाज दिखाई नहीं देता।
चाहे टीवी चैनल हो या फिर अखबार, एक बात तो साफ है कि आजकल पेशेवर से ज्यादा प्रबंधक होने में शिक्षा और डिग्री का ज्यादा महत्व है क्योंकि पत्रकारिता खुद एक नए उद्योग में तब्दील हो गया है शायद यही वजह है कि एक नामचीन मीडिया ग्रुप के मालिक खुली सभा में बोलते हैं कि उन्हें लिखे-पढ़े लोगों से नफरत है। उनको अपना औद्योगिक साम्राज चलाने के लिए ईमादार तथा अनुभवी कार्यकर्ता चाहिए चाहे वो पढ़ा लिखा हो या न हो। उसी तरह एक और नामचीन मीडिया ग्रुप के मैनेजिंग डायरेक्टर ने कहा कि उनके लिए अखबार के संपादक की जगह एक धोबी से उपर नहीं है।
सोमवार, 8 मार्च 2010
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