पिछले हफ्ते बजट के दिन वित्तमंत्री प्रणब मुखर्जी के पौने 2 घंटे के भाषण के बाद बाद भी जब एक आदमी को मिली छूट और टैक्स संबंधी मसला पूरी तरह समझ में नहीं आया तो मैंने फौरन खबरिया चैलनों की तरफ रुख किया ताकी वो बजट की बारीकी समझा दें। मगर वहां तो सिर मुड़ाते ही ओले पड़े।
मैं आंखें फाड़-फाड़ कर हर टीवी चैनल की तरफ देख रहा था कि कोई भी चैनल एक आम आदमी की भाषा में मुझे ये समझा दे कि सर्राफा बाजार की तरह कौन सी चीज उछली और दब से गिरी। अगले दिन से किस पदार्थ के बावत मेरे बटुआ का मुंह बड़ा हो जाएगा। और किस द्रव या पदार्थ का भाव नीचे आएगा या सोने चांदी की तरह उछलेगा।
मैं अपने इस जुगत में कामयाब तो नहीं हो पाया। मगर टीवी स्क्रीन पर 25 चीजे एक बार उछलने-कूदने और दांए से बांए भागने की अनोखी अदाओं ने सर दर्द और बढ़ा दिया। आंखे जैसे जलने लगीं और लगा की और आधा घंटा मैं ऐसे ही चकोर की तरह अपनी आंखे गड़ाए रहा तो निश्चय ही चश्मा का नंबर बढ़ जाएगा।
सबसे बड़ी चीज जो समझ में आई वो थी खबरिया चैनलों के बैंड की बीमारी। और उससे भी त्रासदीपूर्ण था इन चैनलों पर सीधी बात को टेड़ी करके समझाने की अदा। और उसका अस्त्र था बैंड। जो कभी दाएं से बांए भागे तो कभी उपर से नीचे उल्कापात की तरह गिरे। इसके बीच में अलग-अलग किस्म के बैंड और जैकेट जैसे अर्जुन के गांडीव से निकले बाण की तरह हर दिशा में फैलते दिखाई दिए। तुर्रा ये की जब तक मैं एक की पूछ पकड़ू तो बाकी गायब। और इस पूरे क्रम में बजट की बारीकी समझने का प्रकरण गुड़ गोबर हो गया।
मैं ये समझ नहीं पाया कि इन चैनलों पर बैंड का वर्चस्व था या फिर चैनल संपादकों की अफलातूनी सोच और खबरों को परोसने की नायब अदा। तब एक महा पारखी ने समझाया कि आजकल हर खबरिया चैनल का सबसे बड़ा, तेज और अचूक अस्त्र होता है बैंड और ग्राफिक्स जिसको हर चैनल का अर्जुन खबरों की महाभारत में घुसकर चक्रव्यूह की तरह भेद देता है। ऐसे में ग्राफिक्स का गांजा और बैंड की बाजीगरी आपस में मिलकर अनोखा खेल दिखाते हैं और एक मायाबी तस्वीर पेश करते हैं जो दर्शकों की आंखों को फौरन लुभा लेता है।... और बजट वाले दिन तो जैसे इसकी परणीति होती है। क्यों की इस दिन का इंतजार तो सब लोग बेसबरी से करते हैं। चाहे वो न्यूज रूम के अर्जुन हो या बैंड के भीम या फिर ग्राफिक्स के घटोत्कच। फिर इन तीनों की तकड़ी टीवी स्क्रीन पर कुछ ऐसा अलौकिक और अदभुत दृश्य तैयार कर देती है जिसे देखकर अच्छे-अच्छे के होश उड़ जाते हैं।
शायद यही वजह है कि कई चैलनों के संपादक से ज्यादा तन्खाह ग्राफिक के अली बाबाओं को मिलती है। क्यों कि इनका काम ही होता है तिलिस्म पैदा करना। और किसी भी चीज को बड़े ही नाटकीय और नायाब अंदाज में पेश करना। किसी भी खबरिया चैनल के लिये ये रीढ़ की हड्डी माने जाते हैं। क्यों कि इसमें फिसड्डी होने की कोई गुजाइश नहीं बचती। उसके बाद बारी आती है बैंड के बादशाह की जिसकी असली हालत कीचक की तरह होती है जिसको संपादक के इशारे पे सब कुछ करना पड़ता है। मगर उसकी धौंस और रुबाव तो माशा अल्लाह। अगर टॉप बैंड न हो तो चैनल की शकल किसी बेवा की सूनी मांग की तरह दिखाई पड़ती है। और ये संपादक महोदय को कतई गवारा नहीं होता। उनकी निगाह में टॉप बैंड नहीं होने का मतलब बिना पगड़ी वाला सर होता है। और ये टॉप बैंड हमेशा उनके लिए सिरस्त्राण का काम करता है। जो राणा प्रताप की तरह उनकी रोजमर्रा की खबरिया हल्दीघाटी में काम आता है।
मगर अक्सर मैंने इस बैंड का बैंड भी बजते देखा है। और एक दो अक्षर या शब्द के हेराफेरी से कई नामचीन चैनलों के टीवी स्क्रीन पर अर्थ का अनर्थ भी होते देखा है। कुछ खास शब्दों और नाम जब सिगरेट के धुएं के छल्ले की तरह इस बैंड के मार्फत टीवी स्क्रीन पर उछलते हैं तो कई साल पहले सांध्य टाइम्स के हेड लाइन की याद दिला देते हैं। ये वाक्या उस वक्त का है जब महबूबा फिल्म रिलीज हुई थी। सांध्य टाइम्स की हेडलाइन पर लिखा हुआ था ‘ हेमा का बलत्कार-राजेश गिरफ्तार’ । मैं हैरान था कि फिल्मी हस्तियां भी ये शौक रखती हैं। जब मैंने पूरी कहानी गौर से पढ़ी तो मालूम पड़ा कि हेमा एक मेहतरानी थी और राजेश एक ड्राइवर था। लेकिन सांध्य टाइम्स के अफसाना गिरी का अंदाज ऐसा खौफनाक था कि किसी भी आदमी को हैरत हो।
आजकल येही रिवाज कई खबरिया चैनलों का पहचान बन गया है। और आए दिन टॉप और बॉटम बैंड कई चैनलों के सही किरदार का पोल खोल देते हैं। कुछ चैनलों के संपादक तबतक चुप हो कर अपनी कुर्सी पर नहीं बैठते जब तक खबरों की खींचतान में इन सब अस्त्रों का युद्धस्तर पर प्रयोग न हो। एक कहानी में जब तक 5 या 6 ऐसे बैंड अपना कमाल नहीं दिखाएं तो प्रोड्यूसर और संपादक दोनों तसल्ली नहीं होती। उनका एक ही मकसद होता है कि उस खबर के बावत सबकुछ एक साथ राजस्थानी थाली में रखे कई कटोरियों की तरह हो ताकी पूरा टीवी स्क्रीन किसी मुर्गा मंडी में जैसे सैकड़ों चूजे अपने अस्तित्व की गवाही देने में परेशान हों। एक आम आदमी की हालत यही होती है कि वो बेचारा देखना शुरू करे तो कहां से और समझे तो क्या? या तो वो ग्राफिक्स का गांजा तलाश करे या फिर बैंड की बटलोई और उसके बीच में विजुअल का तड़का। और उसके बाद अचार और मिठाई की तरह बॉटम की तीन लाइन तो रहेंगी ही।
खबरिया चैनलों में पैकेज का प्रचलन जैसे गर्मी में सुंगधित टिसू पेपर की तरह हो गया है जिसको जब चाहे जहां भी इस्तेमाल किया जा सकता है और दस मिनट के बाद कहानी खत्म होते ही स्क्रीन पोछने के लिए किया जाता है।
उस वक्त जनता उस खबर के बारे में क्या सोचती है और समझ पाती है ये तो दिगर बात है। मगर समाचार संपादक से लेकर ग्राफिक्स और बैंड वाले का एक ही गाना होता है। और उसका लबोलोआब ये होता है कि मैं जितना ज्यादा कूड़ा टीवी स्क्रीन में भर सकूं, मेरा बाजार भाव उसी से आंका जाता है। ये बात बहुत ही कड़वी मगर सच है। कमोवेश हर खबरिया चैनल का यही हाल है भले ही उसके रंग और फॉन्ट में फर्क हो मगर मूल मंत्र और मसाला वही रहता है। यही वजह है कि एक आम शहरी ऐसे चैनल को 10 से 15 मिनट के बाद झेल नहीं पाता है। और उसके बाद या तो वो अपने वॉशवेसिन की तरफ रुख करेगा या फिर किसी आंख के डॉक्टर की क्लिनिक में क्यों की आंखो की बदहजमी उसके चिड़चिड़ेपन और सर दर्द का कारण बन जाती है।
बीबीसी को लोग टेलीविजन की मातामही कहते हैं। मगर 84 साल की उम्र में भी इस चैनल के किरदार और खबरों की बारीकी तथा दृश्यों का महत्व समझने में कोई शानी नहीं है। बड़ी से बड़ी खबर बिना किसी तड़कभड़क के या बैंड के दिखाई जाती हैं जो एक आम आदमी समझ सकता है। आज भी उसके स्क्रीन पर एक लाइन का ही बैंड चलता है। और खबर की संजीदगी आसानी से समझ में आती है। मगर हमारे खबरिया चैनल सादगी में यकीन नहीं रखते। जब तक आड़े तिरछे और नीले पीले धब्बे या लाइन या फिर नदी की लहर टीवी स्क्रीन में धमाल नहीं मचाए तो फिर खबर क्या हुआ?
अकसर ऐसा देखा गया कि बैंड तथा ग्राफिक्स की लड़ाई में दृश्यों की अहमियत खो जाती है। खबरों की सही तस्वीर होने के बाद भी कई चैनल बैंड और ग्राफिक्स को दालभात में मूसलचंद की तरह घुसेड़ देते हैं भले ही उसकी जरूरत हो या न हो। इसी बैंड की वर्चस्व की लड़ाई में मंत्रीजी का सर आधा कटा दिखाई दे जाता है या फिर किसी नेता का हाल भीम द्वारा जरासंध के साथ सलूक की तरह हो जाता है।मगर समचार संपादक कभी ये मानने को तैयार नहीं होते कि कोई खबर बिना इन अस्त्रों के इस्तेमाल किए बिना भी पेश की जा सकती है या समझी जा सकती है। मगर बैंड बाजे की इंतहां तब हो जाती है जब फिल्मी सितारों से लेकर रियलिटी शो के रेले में भी इसका इस्तेमाल पुलिस की लाठी की तरह होता है। जिसका मतलब होता है हर तरफ घुमाना और वो लाठी ये नहीं देखती कि किसका सर और किसका पैर है। मलतब तो सिर्फ भांजने से होता है। यही हाल बैंड का है। क्या पता ये बैंड किस वक्त किसके सर पर घूम जाए या फिर किसकी कमर तोड़ दे।
उससे भी बड़ा सरदर्द होता है ब्रेकिंग न्यूज। कई खबरिया चैनल उसका इस तरह प्रयोग करते हैं जैसे कोई अस्सी साल की अंधी बुढ़िया भगवान को पाने की जुगत में सुबह से शाम तक माला जपती रहती हो। हर 2 मिनट के बाद ब्रेकिंग न्यूज होता है। चाहे गली में कुत्ता मर गया हो या फिर नेता जी की गाय। या फिर एसपी साहब की बिल्ली। इस शब्द का इस्तेमाल इतने धड़ल्ले से होता है मानो हर 5 मिनट के बाद आसमान फट गया हो या फिर धऱती औंधी हो गयी हो। ऐसा लगता है कि य़ा तो इन खबरिया चैनलों को इस शब्द का सही अर्थ या वजन नहीं मालूम या फिर ये खबरिया चैनलों के अस्तित्व का ही परिचायक बन गया है।
त्रासदी उस वक्त और बढ़ जाती है जब ब्रेकिंग न्यूज के चक्कर में बैंड का ब्रेक फेल हो जाता है या बैंड मास्टर की उगलियां फिसल जाती हैं। टेंशन के उस लम्हे में एक अक्षर या शब्द की गलती उस चैनल की अस्मत लूट ले जाती है। और लोग उस लम्हे को याद कर ठहाके लगाया करते हैं। ऐसा ही मंजर हाल में देखने को मिला जब एक खबरिया चैनल का बैंड चीख-चीख कर बोल रहा था कि ‘एक मदमस्त सांड ने दो को मारा’। मगर खबर ब्रेक करने की जल्दी में बैंड मास्टर ने शायद बैंड की जगह का सही नाप नहीं लिया और एक जगह अक्षर टाइप करने में भी जल्दी कर दी। अंजाम ये हुआ कि बड़े फॉन्ट में वो बैंड कुछ ऐसा हो गया ‘ मद मस्त रांड ने दे मारा’। मैं हैरान था कि ये कौन सी रांड थी और किसको दे मारा? हैरानी इस बात की थी येही बैंड तकरीबन 10 मिनट तक धड़ल्ले से चलता रहा। और जब तक बैंड मास्टर को ये बात समझ में आती तब तक उनका ही बैंड बज गया था।
यही वजह है कि खबर खोरी की जल्दी में अकसर जरा सी गलती सारे किए कराए पर पानी फेर देती है। मगर खबरिया चैनल के मालिक और समाचार संपादक इसे भी अपनी अदा का एक अंदाज मान लेते हैं। खबरों का ये खस्ता हाल शायद इसी तहजीब का एक हिस्सा बनकर रह गई है।
इस त्रासदी का एक और पहलू भी है। हर खबरिया चैनल कुछ अलग करने के चक्कर में वकई बहुत कुछ अलग कर जाते हैं। उनकी समझ और उनके दर्शकों की समझ में कभी कभार ऐसे में ही बहुत बड़ा अंतर हो जाता है। ये उसी तरह होता है जैसे एक मूर्ख को अचानक ज्ञान मिल गया और उसने अपने ही तरह से एक विद्वान को सांकेतिक भाषा में ही परास्त कर दिया। दरअसल हुआ कि एक व्यक्ति पुस्तकालय में ही काम करते करते अपने आपको पंडित समझ बैठा और सांकेतिक भाषा में ही विद्यार्थियों को नीचा दिखाने लगा। उसका ज्ञान जानने के लिए कुछ लोगों ने एक विद्वान को शास्त्रार्थ के लिए बुलाया। विद्वान ने एक उंगली उठाई तो उसने दो उठा दिया। विद्वान अचंभित हुए और कहा कि ये वाकई अक्लमंद है। मैंने एक उंगली उठा के कहा कि आत्मा एक है तो उसने दोनों उंगलियां उठा दी और ये संकेत दिया कि आत्मा और परमात्मा दो हैं। जब उस मूर्ख से लोगों ने पूछा कि तुमने उस विद्वान को कैसे हरा दिया। तो उसका जवाब था ‘उसने मुझे उंगली उठाकर एक आंख फोड़ने की धमकी दी, तो मैंने दोनों उंगलियां बाता दिया कि मैं उसकी दोनों आंखें फोड़ दूंगा’।
कई खबरिया चैलनों के साथ भी अकसर यही नजारा देखने को मिलता है। छोटी से छोटी खबर को सीधे तरीके से पेश करने के वजाए उसमें इतना नमक मिर्च डालकर कड़वा और तीखा बना दिया जाता है कि कुछ समय के बाद खबर की आत्म ही मर जाती है। दर्शक उसको देखकर कुछ और सोचते हैं और खबरिया चैनलों के बादशाह इसे अपनी अद्भुत और अर्वाचीन इल्मी की उंचाई मान लेते हैं।
और इसी अस्वथामा हता नरो वा कुंजरो वा पाठ में महारत हासिल करने के चक्कर में शाश्वत सच को भी भूल जाते हैं। गूगल इनका माईबाप होता है और जमीनी हकीकत से इन्हें कभी कभार महरूम कर देता है। चैनल के न्यूज रूम में सरकारी नक्शे के वजाए गूगल द्वारा बनाए गए नक्शे पर ज्यादा यकीन करते हैं। क्योंकि वहां से कट एंड पेस्ट करने में आसानी होती है। ये दिगर बात है कि गूगल के उस नक्शे में कश्मीर के एक हिस्से को पाकिस्तान में दिखाया जाता है और अरुणाचल के एक भाग को चीन में दिखाया जाता है। अगर ये मोहतरम जरा सी देर और रुक कर सही खबर और सही नक्शा दिखाते तो क्या तब तक उनका टीवी स्क्रीन फट जाता?
फटफट खबरों कि होड़ में और 24 घंटे वाली दौड़ में शक्ति परीक्षण तो खूब होता है मगर दिमागी हुनर और लियाकत का इस्तेमाल बहुत कम। आज कल के चैनल की फौज में ये बीमारी बहुत तेजी से फैलती जा रही है। हद तो तब होती है जब बिना दोबारा जांचे परखे एक नामचीन खबरिया चैनल पल भर में कानपुर में 7 माओवादी के गिरफ्तार होने की खबर ब्रेकिंग न्यूज की तरह चलाता है और आधे घंटे के बाद तीन और चैनल ‘कौआ कान ले गया‘ वाली प्रवृत्ति के ध्वजवाहक बन जाते हैं।
मगर उनका भी क्या कसूर ? ये तो हमारी परंपरा रही है। एक हिंदी के महाकवि ने लिख दिया ‘मलयानल की भीलनी चंदन देत जराए’। उनके मरे हुए तो 100 वर्ष से उपर हो गए मगर किसी ने ये जानने की किशिश नहीं कि चंदन का पेड़ मयल पर्वत पर नहीं बल्कि दक्षिण के नीलगिरी की पहाड़ियों में होता है। अगर किसी हिंदी प्रेमी से आप कहेंगे तो गाली ही देगा। उसी तरह एक और महाकवि ने लिख दिया कि ‘चंदन विष व्यापत नहीं लिपटे रहत भुजंग’।
मैं ने वीरप्पन प्रकरण के दौरान पूरे नीलगिरी की पहाड़ियों का चप्पा-चप्पा छान मारा मगर किसी भी चंदन के पेड़ पर किसी सांप को लिपटे हुए नहीं देखा। और जहां तक खुशबू की बात है तो चंदन के पेड़ के पास या उसकी छाल खुरचने के बाद भी कोई खुशबू नहीं मिलती। जब तक चंदन का पेड़ 20 साल के आसपास का नहीं हो और जबतक उसे काटा नहीं जाए तबतक खुशबू का एहसास नहीं होता। और कटे हुए पेड़ के पास भी ऐसी कई ठंडक महसूस नहीं होती। कर्नाटक का मैसूर और उसके आसपास का इसका और वहां की सारी कायनात इस बात का गवाह हैं। चंदन के वावत एक और बात है कि वो पेड़ पैरासाइट कहलता है और अमूमन नीम के छांव में ही पैदा होता और परवान चढ़ता है। उसके बाद ही उसकी अपनी अलग पहचान होती है।
यही बात हमारे कुछ खबरिया चैनलों के किरदार में भी घुसते दिखाई देते हैं। वक्त की तंगी, दिमागी उलझन, आला अफसरों की डांट का डर और खबर ब्रेक करने का धकापेल उसको अपना दिमाग लगाने का मौका ही नहीं देते और बेचारा खबर्ची हर दिन कोल्हू के बैल की तरह उसी जमीन की गोलाई में घूमता रह जाता है। खबर के कारोबार की सबसे बड़ी सच्चाई यही है।
बुधवार, 3 मार्च 2010
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Bilkul sahi kaha sir. Breaking news, bands aur jane kya-kya, khabron ko parosne ka news channels ka andaj itna betartib hota ja raha hai ki hum khabron ko anchor ki awaz nahin, balki in pattiyon mein dhoondhne mein phans kar rah jate hain.
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