कुछ साल पहले जब मुझे एक टीवी चैनल द्वारा साक्षात्कार के लिये बुलाया गया था तो वहां के प्रबंध संपादक मेरे सीधे जवाब से काफी उकड़ू से हो गये थे और कह भी दिया कि ‘ पंडितजी, आपका तेवर बवाली लगता है। मैं नहीं समझता कि आप यहां के माहौल में बहुत साल चल पाएंगे‘। मेरा जवाब यही था कि-
हिम्मत से सच कहो तो बुरा मानते हैं लोग
रो रो के बात कहने की मेरी आदत नहीं रही।
इस पर वो और आग बवूला हो गए और आगे जो अपनी कमज़र्फी और कमीनेपन का सबूत पेश किया उसके बाद मैंने उनका नाम तक लेना भी मुनासिब नहीं समझा। बात न तनख्वाह की थी न ही ओहदे की। ये लड़ाई उसूल की थी और मैंने वहां मुलाजमत कर हर दिन अपनी ज़मीर से लड़ाई करना ग़वारा नहीं किया।
एक और जगह भी तकरीबन वही नजारा दर पेश आया। उस इंटरव्यू के मुतजिम ने मुझे पहले ही आगाह किया था कि यहां पर आप को बहुत सारे पापड़ बेलने पड़ेंगे। मैंने कहा मैं तो बेलन लेकर आया हूं। ज़रा देखूं तो सही कि पापड़ का रंग क्या है? उनकी बात सही निकली और नियुक्ति पत्र के साथ-साथ दस फरमाइशों की फेहरिस्त जब सामने आई तो मैंने उन साहब के सामने उन तमाम कागज़ातों को फाड़ते हुए यही कहा कि –
हमने तो एक क़तरे का एहसान ग़ंवारा न किया
लोग ख़ुदा जाने पी गए समंदर कितने।
तब से लेकर अबतक मैंने उन्हीं एहसासों और उसूलों को अपने साथ लेकर चलने की कोशिश की है और आज भी वो सफर बदस्तूर जारी है। ये सही है कि उन ज़रख़ार ज़मीनों और रास्तों पर चलते हुए पांव कई बार लहू लुहान हो गए लेकिन उपर वाले की दुआ से अबतक मेरे जोश, अज़्म और पायेइस्तकलाल में ज़रा सी भी जुम्बिश नहीं आई। कभी उन दिनों को याद करता हूं तो वही शेर बार-बार ज़हन में आता है कि-
हमसे सजदे की उम्मीद करते थे वो
जिनको भूल से हमने ख़ुदा कह दिया
सरफ़रोशी की जब-जब भी की आरजू
दोस्तों ने हमें सिरफिरा कह दिया
पिछले हफ्ते एक नामचीन चैनल के संपादक को लालाजी ने बुलाकर कहा की भले ही उनकी एंकरिंग और बाजार में साख अच्छी हो मगर जब तक टीआरपी नहीं आएगा और विज्ञापन नहीं मिलेंगे तब तक उनके सिर पर नौकरी चले जाने की तलवार लटकती ही रहेगी। संपादक महोदय की खोपड़ी भन्ना गई और वो पांव पटकते अपने केबिन में आए। फौरन अपने मातहतों को बुलाकर चीखना शुरूकर दिया ’भाई लोगों पत्रकारिता तो गई तेल लेने। कल से आप लोग नए किस्म का मुजरा करने के लिए तैयार रहें। मालिकों की तिजोरी अपनी मेहनत का पसीना बहा कर भरने के अलावा एक और जिम्मेदारी कंधे पर डाल दी गई है। अब इनके गंदे कपड़े पर लगे दाग-धब्बे भी हमें साफ करने पड़ेंगे। या यूं कहें आज से हम लोग हाईक्लास धोबी हो गए हैं क्योंकि हमें हर कुछ मैनेज करना पड़ेगा। पर क्या करें? पापी पेट का सवाल जो है ‘।
दरअसल देखा जाए तो 1970 के दशक में रामनाथ गोयनका और आज के युग के विनीत जैन जैसे मालिकों के इरादे तथा विचारों में कोई खास फर्क नहीं है। आज पत्रकार और पत्रकारिता दोनों की छवि काफी बदल चुकी है और ये दोनों मालिक के हाथों की कठपुतली बनकर नाचते हैं, जबकि रामनाथ गोयनका अपने औद्योगिक साम्राज्य के हितों को अखबार तथा उसकी स्वतंत्रता तथा प्रजातांत्रिक अधिकार की पुड़िया तथा बंडल में लपेट कर पेश किया करते थे और जनता उनको सरकारी दमन तंत्र के खिलाप लड़ने वाला हरक्युलिश मानती थी। सच्चाई ये है कि प्रेस की आजादी तथा इंदिरा गांधी सरकार द्वारा आपात काल के हनन की दुहाई देने वाले गोयनका अपनी व्यक्तिगत अहम की लड़ाई को एक राष्ट्रीय मुद्दा बनाने में काफी हद तक सफल रहे थे। तब भी ऐसे मालिक आत्म सम्मान वाले, लिखे पढ़े, अनुभवी तथा विवेकशील संपादकों को निकल दिया करते थे। आज भी कई टीवी चैनलों के संपादक या प्रबंध संपादक निकाल दिये जाते हैं। फर्क इतना है कि उस समय बदनाम सरकारी तंत्र होता था (मसलन उपर से,यानि सरकार का आदेश था ) और आज कल टीआरपी होता है।
पहले लोग संपादक को हमेशा पढ़ते थे। टिप्पणी और लेख के माध्यम से कभी कभार सुनते थे और रेडियो या दूरदर्शन पर साक्षात्कार के जरिये कभी कभार उनकी शक्ल भी देख लेते थे। आज वो पैमाना उल्टा हो गया है। आज हर टीवी एडीटर या मैनेजिंग एडिटर की असली पहचान ये है कि वो अपना खास शो जरूर करेगा भले ही उसके लिए न शक्ल और न ही अक्ल से ही लायक हो। ऐसे कई टीवी चैनल हैं जहां के मैनेजिंग एडिटर ऐसा शो करना जन्मसिद्ध अधिकार समझते हैं क्यों कि उनका मकसद किसी विशेष या सामयिक विषयों पर निरपेक्ष या तटस्थ भाव से चर्चा करना नहीं बल्कि आत्ममान मंडन या आत्म मुग्धता का हउआ खड़ा करना होता है। विषय चाहे कोई भी हो, न्यूज चैनलों के मैनेजिंग एडिटर जब तक प्राइम टाइम के शो में अपने एंकरिंग के जलवे नहीं बिखेरे तब तक उनकी पहचान और टीआरपी नहीं गिनी जाती है। एक दो खबरिया चैनलों के मैनेजिंग एडिटरों को प्राइम टाइम शो में जब एकाध सामरिक विषयों पर धारा प्रवाह बकवास करते देखा तो यकीन हो गया कि लक्ष्मी माता का वाहन उल्लू को छोड़ कर और कोई दूसरी चिड़िया तो हो ही नहीं सकता था।
आज कल के मैनेजिंग एडिटर की फौज में कुछ लोगों ने काफी मेहनत से अपनी जगह बनाई है मिसाल के तौर पर एनडीवी की बरखा दत्त के नाज़ नखरे या नौटंकी नुमा अंदाज़ से कोई इत्तफाक भले ही न करे मगर अंग्रेजी पत्रकारिता के क्षेत्र में उनकी एक विशिष्ठ पहचान तो है। उसी तरह सीएनएन-आईबीएन के राजदीप सरदेसाई का अंदाज भले ही काफी आक्रामक और लट्ठमरा टाइप का हो लेकिन उनकी भी अपनी अलग छवि और नाम तो है। मगर इसका मतलब ये नहीं कि हर प्रबंध संपादक उसी तरह के हों।
हिंदी न्यूज चैनलों के इस किस्म के संपादकों की फौज की अदाएं निराली हैं। मिसाल के तौर पर इंडिया टीवी के रजत शर्मा जब जी न्यूज के प्रबंध संपादक थे तो उनका अलग तेवर और तकिया कलाम था अब वो इंडिया टीवी के मालिक है तो उनकी सोच और समझदारी का स्तर काफी अलग सा दिखता है। टीआरपी का ग्रहण उस चैनल पर भी दिखाई देने लगा है। रात को 11 बजे के बाद वो खबरिया चैनल किसी सेक्स संबंधित क्लीनिक जैसा दिखने लगता है। क्योंकि उसमें समाचार पर कम मगर व्याभिचार के नए तरीके पर ज्यादा बहस होत है। इसी तरह कई और हिंदी न्यूज चैनलों में मैनेजिंग एडिटर का दबदबा तथा रुतबा का मिलाप प्रतिभा तथा अनुभव से ही मिला दिखाई नहीं देता। ये प्रबंध संपादक कुछ खास ऐसा जरूर करते हैं जिससे लोग तथा खासकर उनके मातहत काम करने वाले लोग ये कहें कि ये तरीका फलाने मैनेजिंग एडिटर ने ईजाद किया था।
एक चैनल में एक नए मैनेजिंग एडीटर ने सुबह की मीटिंग लेने के लिए नया तरीका ईजाद किया ताकि सारे लोग यह जान जाएं कि वह किस तरह अपने रिपोर्टर्स की स्टोरी आइडिया देने के साथ-साथ उसको अच्छी डांट भी पिलाते हैं और ये सब उस फोन पर होता था जिस पर आवाज सब लोग सुन सकते थे मगर एक दिन उनके एक वरिष्ठ संवाददाता ने किसी स्टोरी के बावत उनकी ऐसी पतलून उतारी की मैनेजिंग एडिटर साहब का फोन पर मीटिंग लेने का बुखार हमेशा के लिए उतर गया।
कुछ ऐसे ही मैनेजिंग एडिटर होते हैं जिनकी अनोखी हरकत तथा अंदाज पूरे चैनल में परिहास का विषय बनकर रह जाता है। कुछ वर्ष पहले एक प्रतिष्ठित न्यूज चैनल के मैनेजिंग एडिटर ने कहा कि गुजरात में अचानक आई बाढ़ का कवरेज वायुसेना के हेलीकाप्टर में जाकर किया जाए। साथ ही उसके दिमाग में यह भी ख्याल आया कि अगर उनका रिपोर्टर हेलीकाप्टर में बैठकर ‘पीटीसी’ करे तो वह वाकई अनोखा और एक्सक्लूसिव होगा। दरअसल मैनेजिंग एडिटर साहब को ब्रेकिंग न्यूज तथा एक्सक्लूसिव शब्दों से बेइन्तहा प्यार था। बस क्या था उन्होंने फौरन रिपोर्टर को फरमान जारी कर दिया कि हुक्म की तामिल हो। मगर रिपोर्टर को यह सब बात बेतुकी लगी क्योंकि वह चाहता था कि कैमरे की बैटरी खत्म होने से पहले बाढ़ का ‘एरियल शाट’ मिले बिना कार्डलेस माइक या सिगनेट के यह लाइव नहीं हो सकता था।
रिपोर्टर ने अपना काम किया और कैमरे की बैटरी खत्म होने से पहले अपनी स्टोरी पूर कर हेलीकाप्टर के नीचे उतर आया और टेप भिजवा दी। मैनेजिंग एडिटर साहब को जब यह सूचना मिली तो वह लाल-पीला हो गया और जवाब तलब किया कि उनके हुक्म की तामील क्यों नहीं हुई? इस पर चिढ़े रिपोर्टर ने कह दिया की हेलीकाप्टर में पीटीसी करने के लिए उतना लंबा तार नहीं था और न ही उसके पास कॉर्डलेस माइक था। रिपोर्टर की इस छेड़खानी पर बाकी लोग हंस पड़े मगर मैनेजिंग एडिटर साहब का पारा सातमें आसमान पर चढ़ गया। उन्होंने रिपोर्टर पर हरी-पीली गालियों की झड़ी लगाते हुए कहा ‘साले, तार क्यों नहीं ले गए? नौकरी करनी है या नहीं? मैं इस चैनल का मैनेजिंग एडिटर हूं समझे। मैं तुम्हारा करियर खराब कर दूंगा ‘।
अब इस अक्ल के दुश्मन को कौन समझाए कि चार हजार फीट की ऊंचाई पर उड़ रहे हेलीकाप्टर में पीटीसी करने के लिये कार्डलेस माइक के अलावा यूवीई के लिए खास किस्म का उपक्रम और मशीन
चाहिए । नीचे से 4 हजार फीट की उंचाई पर तार जोड़ना उसके बूते की बात नहीं। और वैसे भी कौन रिपोर्टर और कैमरामैन किसी भी स्टोरी को लाइव कवर करने के लिये 4 हजार फीट लंबा तार हमेशा अपने साथ लेकर जाएगा? तकरीबन अधिकांश न्यूज चैनलों में मैनेजिंग एडिटर की नायाब अदाओं तथा तेवर के किस्से सुनने को अक्सर मिलते हैं। मगर तकरीबन हर चैनलों में कुछ ऐसे अनुभवी और विद्वान लोग होते हैं जो बड़ी चतुराई से प्रबंध संपादक महोदय की बेहूदी हरकतों पर पर्दा डाल कर चैनल को मजाक का पात्र बनने से बचा लेते हैं।
आज की स्थिति यह हो गयी है कि रिपोर्टर भी मैनेजमेंट का काम देखने लगे हैं। और वह अपनी बीट की रिपोर्ट भले ही न फाइल करें मगर मैनेजमेंट की औद्योगिक तथा मार्केटिंग से संबंधित हर समस्या का समाधान उनकी पहली जिम्मेदारी होती है। इसीलिए हर बड़े चैनल का रिपोर्टर भले ही किसी खास मंत्री के प्रेस कॉन्फ्रेंस के मौके पर उपस्थित न हो मगर इसका मतलब ये नहीं कि वो रिपोर्ट मिस कर गया या फिर उसके चैनल से कोई खास खबर छुट गई हो।
आजकल तकरीबन हर टीवी न्यूज चैनल का रिपोर्टर अपने पास कलम या कागज़ का पैड अपनी जेब में नहीं रखे मगर वह वीडियो एडाप्टर या कन्वर्टर अपनी जेब में हमेशा लेकर चलेगा क्यों कि यही तो जीवट की आधारशिला और उसकी जुगाड़ टेक्नॉलाजी का महायंत्र है। बाइट किसी भी मंत्री या संत्री का हो कुछ ही मिनटों के अंदर उसे जुगाड़ तकनीक के मार्फत मिल जाता है। उसके बाद वह रिपोर्टर अपने निजी हितों को संभालने में लगाता है या फिर मैनेजिंग एडिटर साहब के फरमान की तामील करने में। उसे पता है कि अगर संपादक महोदय की बेटी का दाखिला किसी प्रतिष्ठित स्कूल में बिना डोनेशन के हो गया तो एक साल तक उसकी नौकरी पक्की। फिर वह बिना वजह लिखने पड़ने की जहमत क्यों उठाए? इससे अच्छा है कि अपने चैनल के लिए विज्ञापन कमाए, अपने एडिटर के लिए विदेश यात्रा का साधन कमाए और अपने लिए बाकी सब कुछ कमाए।
प्रिंट मीडिया की तरह ही टेलीविजन न्यूज रिपोर्टरों का बड़ा गिरोह इसी पद्दति पर चलता है और फलता फूलता है। इसी तरह तकरीबन हर दिन कई बाइट और शॉट्स रिपोर्टरों की फौज तथा गिरोह द्वारा मिनटों में मैनेज होते हैं। और घंटे के अंदर ही एक चैनल को दिया गया बाइट हर चैनल के पास होता है। उसके बाद घटना विशेष को तलने पकाने और खेलने का एजेंडा तैयार होता है। और उसकी आखिरी शक्ल-सूरत मैनेजिंग एडिटर के हाथों में होती है। और यह सिलसिला हर दिन बदस्तूर जारी रहता है।
शायद यही वजह है कि पत्रकारिता का स्तर दिन प्रतिदिन फूहड़ होता जा रहा है। अब तो एक दो चैनलों में मैनेजिंग क्राइम रिपोर्टर भी हो गए हैं और आने वाले दिन में पता नहीं क्या-क्या होगा?
पर पत्रकारिता के बदले परिवेश तथा परिपेक्ष्य में भी कुछ ऐसे लोग हैं जिनको अपना आत्मसम्मान व्यक्तिगत तथा सामाजिक मूल्य आज भी बहुत प्यारा है और उनको इस बात से कोई तकलीफ नहीं कि उनकों किसी बड़े चैनल या अखबार में मैनेजिंग एडिटर की कुर्सी नहीं मिली क्योंकि....
मनसब तो हमें मिल सकते थे लेकिन शर्त हुजूरी थी
ये शर्त हमें मंजूर नहीं बस इतनी ही मजबूरी थी
सोमवार, 8 मार्च 2010
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