बिहार के ग्रामीण प्रदेश से आए एक अफसर का फोन मेरी नींद हराम कर गया। उनकी परेशानी ये थी कि उनकी इकलौती बेटी एक एनजीओ के साथ जाकर राज्य के सुदूर ग्रामीण क्षेत्र में काम करने के साथ ग्रामीण विषयों पर रिपोर्टिंग भी करना चाहती थी। मगर कुछ दिनों पहले दिल्ली में एक जलसे के मुन्तजिमों के मुंह से ये बात सुनकर कि ग्रामीण रिपोर्टिंग ‘सेक्सी’ हो सकती है, वो थोडा अफसुर्दा से हो रहे थे। वैसे भी हमारे ग्रामीण प्रदेश में रहने वाले लोंगो के लिए इस किस्म का प्रचार बड़ी मुसीबतें खड़ी कर देता है
............. दअरसल उन साहेब की चिन्ता इस बात कि नहीं थी कि उनकी बेटी ग्रामीण इलाकों पर रिपोर्टिंग करें। ....बल्कि उनकी खीज़ इस बात से थी कि इसके चलते लोग उनकी बेटी को ‘सेक्सी रिपोर्टर’ बोलना शुरु कर देंगे और बिरादरी में नाक कट जाएगी।
मैंने उनको काफी समझाने की कोशिश की कि ये पूरा प्रकरण एक सोची समझी राजनीति के तहत था क्योंकि रिपोर्टर शब्द के साथ ‘सेक्सी’ शब्द जोड़ना अपने आप में ही हास्यासपद सा लगता है। मैंने उनको ये भी समझाना चाहा कि दरअसल इस विवाद के पीछे प्रणेताओं कि असली मंशा ये थी कि इस शब्द के आधार पर ही कैसे महानगरों के रिपोर्टरो को रिझाया जाए ताकि वो ग्रामीण क्षेत्रों को भी तरजीह दें। ....
मगर वो मानने को राजी नहीं थे। उनकी राय में तो ये पत्रकारिता पेशे के साथ हिमाकत तो थी ही साथ ही ग्रामीण इलाकों के साथ नाइंसाफी भी।
संजीदगी से सोचने पर मुझे भी लगा की इस हादसे में कोई लोचा जरूर हुआ है। वरना ग्रामीण रिपोर्टिंग किस आधार पर सेक्सी बन सकती है? न तो वहां फिल्मी हस्तियों को जमघट है और न ही टेलीविजन की दुनिया के सितारों का कुनबा। न तो वहां मल्लिका शेरावत दिखेगी और न ही निगार खान का नखरा दिखेगा। न तो गांव के पनघट पर मधुबाला या वहीदा रहमान नाचती दिखाई देगी और न ही तालाब में कैटरीना कैफ या दीपिका पादुकोण के जिस्मों का जादू दिखाई देगा। फिर गांव में किस विषय पर हमारे सहाफी लोग रिपोर्टिंग करेंगे और उसमें सेक्स का तड़का कहां घुसेड़ेंगे?
जहां तक इस शब्द के चयन का सवाल है वहां पर दिमाग कुछ और सोचने पर मजबूर हो गया। अपने कई विदेशी मित्रों के साथ बातचीत में भी लगा कि अंग्रेजी एक अजीबोगरीब भाषा है जिसमें अक्सरहां अर्थ का अनर्थ होता ही रहता है। और उस पर से तुर्रा ये कि अनर्गल शब्द बोलकर लोग कई चीजों का कबाड़ा कर देंते हैं और हम लोग उसी को ब्रह्म वाक्य समझ कर अंधाधुंध नकल करना शुरू कर देते हैं। मिसाल के तौर पर कनाडा में एक मित्र के घर पर ठहरने के दौरान उनके दोस्त के मुंह से ये सुना कि ‘यार तुम्हारा बिल्डिंग तो बड़ा सेक्सी लगता है’। मैं हैरान था कि लकड़ी ईट और सीमेंट से बनी इस बिल्डिंग में कौन सा हिस्सा अचानक सेक्सी हो गया जिसके साथ सहवास किया जा सकता है।
उसी तरह शायद इस ग्रामीण रिपोर्टिंग के साथ भी लफ्ज़ का हादसा हो गया सा लगता है। वरना गली के किनारे गोबर करती भैंस को क्या हम सेक्सी कहेंगे? चापाकल या कुआं के बगल में नहा रही 60 साल की बुढ़िया को क्या हम सेक्सी कहेंगे? क्या दोपहर में खटिया पर पड़े बूढ़े बाप के टांग में तेल लगाती बेटी को हम सेक्सी कहेंगे? या फिर चूल्हे से निकलते हुए धुएं की वजह से आंसुओं से लवरेज औरत की आंखों को सेक्सी कहा जाएगा? या फिर गांव कि पंचायत में किसी व्यक्ति के साथ हो रहे शारीरिक सितम को सेक्सी कहा जाएगा? किसी गांव में फैले हैजा या मलेरिया की वजह से अस्पताल में पड़े लोगों के बीच सेक्स का तड़का या फोरन कहां से आएगा?
पश्चिमी सभ्यता और संस्कृति का सीधा और बेतुका नकल हमारी अपनी संस्कृति को अधोपतन की तरफ ले ही जा रहा है। ये आगे कहां जाकर रुकेगा ये वक्त ही बताएगा। वैसे भी पश्चिमी सभ्यता में लगभग हर चीज फटाफट होता दिखाई देता है जिसमें शादी से तलाक तक शामिल होता है। पहली नजर में प्यार और पहले साल में तलाक इन देशों में लगभग फैशन सा बन गया है और इसके तहत बच्चे भी आते हैं।
हमारे यहां विधि-विधान से पाणिग्रहण संस्कार होता है तो वहां पादरी के सामने और कोर्ट में करार पर हस्ताक्षर होता है। अगर बच्चे की पैदाइश जंगल में हो गई तो उसका नाम ‘वुड्स’ रख दिया। अगर वो घर की सीढ़ियों पे पैदा हुआ तो उसका नाम ‘एलिस्टेयर’ हो गया। और पहाड़ों पर पैदा हो गया तो उसका नाम ‘हिल’ रख दिया गया। वो ही शायद माउंटवैटेन हो गए होंगे।
एक ऑस्ट्रेलियाई दोस्त 12 साल के बाद जब मेरे घर आया तो उसने बड़े ही नाटकीय अंदाज में परिचय कराया कि ‘इनसे मिलों ये मेरी 5वीं बीवी हैं ‘। मैं अवाक था कि क्या शादी और तलाक इतना आसान होता है? क्या भावनाओं और इंसानी ख्यालात की कोई कद्र नहीं होती? वो मेरी उलझन समझ गया और बोला कि उसकी सभ्यता में शादी का सीधा मतलब ये है कि उसकी औरत शारीरिक तौर पर कितना फिट और संभोग करने में कितनी माहिर और अद्भुत है। बाकी चीजों पर लोग उतना ज्यादा ध्यान नहीं देते।
हमारे समाज में तो जन्म से मरण तक का विधि-विधान है। अन्नप्राशन से लेकर मुखाग्नि तक का संस्कार है जिसका एक खास तरीका है और शहर से ज्यादा वो हमारे गांव में ही बेहतर तरीके से निभाया जाता है। तभी उसे दाह संस्कार कहा जाता है। मगर पश्चिमी देशों में लोग मुर्दे को दफनाते हैं। हमारे यहां किसी के जन्मदिन पर उसके परिवार के लोग देवी-देवता की पूजा करने के बाद उसकी भी आरती उतार कर मंगल कामना करते हैं और मिठाई बांटते हैं। मगर पश्चिमी देशों में किसी के जन्मदिन पर लोग केक में गड़ी मोमबत्तियों को फूंक कर बुझा देते हैं और उस पर से तुर्रा ये की हैपी बर्थडे टू यू ! यही बीमारी और उसके तमाम भाई बहन बहुत तेजी के साथ हमारी संस्कृति से भी जुड़ गए हैं और पता नहीं आगे क्या-क्या होगा?
जहां तक सेक्स की बात है तो हमारे समाज में मूलत: सृजन का स्त्रोत माना गया है हमारे लिए शिव लिंग पूजने की वस्तु है जिसे हम मानव सभ्यता के उद्भव का स्त्रोत मानते हैं। पश्चिमी देशों में सेक्स को हवस या जिस्मानी भूख के साथ जोड़ा जाता है।
वैसे भी पारंपरिक तौर पर हमारा देश सेक्स के मामले में काफी उदारवादी रहा है। इसकी मिसाल ये है कि राजा पांडू एक ऋषि के नज़र से ही पैदा हो गये थे। और कुन्ती ने तो पारंपरिक पति प्राप्त करने के पूर्व ही 5 देवताओं के साथ संसर्ग कर पांडव पैदा कर दिए थे। भारत देश में ही तो अजन्ता-एलोरा और खजुराहो की गुफाएं और मंदिर हैं जहां काम कीड़ा के सैकड़ों तरीके पत्थरों की मूर्तियों में सजीव चित्रित हैं। हमारे देश में ही वात्सायन की लिखी हुई कामसूत्र नामक प्रसिद्ध पुस्तक है जिसे कोई भी पढ़ सकता है। आज भी हमारे ग्रामीण इलाके में घर का बड़ा भाई जवानी में मर जाता है तो परिवार वाले विधवा औरत की छोटे भाई से शादी करा देते हैं ताकि वंश वृक्ष बना रहे।
बात यहां तक तो समझ में आती है मगर जब हर किसी चीज को सेक्सी दिखाने या बनाने की जुगत या चुहलपन शुरू होती है तो खीज बढ़ जाती है। मिसाल के तौर पर किसी सरिया या सीमेंट के विज्ञापन में एक अर्धनग्न लड़की का तड़का अजीब लगता है। मिर्च या सेविंग ब्लेड का विज्ञापन हो तो भी यही हालत है। यही हालत मोटरसाइकिल के विज्ञापन की है। कुल मिलाकर मामला ये कि हर विज्ञापन में सेक्सी औरत का तड़का होना लाजमी है।
मार्केटिंग के मकड़ों ने वो जाल बुन दिया कि बिना इस तड़के के कुछ नहीं बिकता और होते-होते बात यहां तक आ पहुंची कि ग्रामीण रिपोर्टिंग को भी इस दलदल में घुसेड़ दिया गया। यह ग्रामीण परिवेश तथा ग्रामीण रिपोर्टिंग की छबि को धूमिल करने की साजिश है या फिर ग्रामीण रिपोर्टिंग को एक भद्दे मजाक का सबब बना दिया गया है। सच्चाई ये है कि ग्रामीम रिपोर्टिंग का अपना अलग ही अंदाज है और वहां की अपनी अलग फिजा है।
सच मायने में जितनी खबरें ग्रामीण इलाके से निकाली जा सकती हैं उतनी महानगरों में मिलनी मुश्किल हैं। मगर दुर्भाग्य ये है कि शहरों की प्रदूषित हवा में पले और बढ़े लोग ग्रामीण इलाके कि रिहाइश, उसका सुख-दुख और उसकी रुहोफजा का मतलब नहीं समझ पाते और जानने के कोशिश करने का अंदाज भी सामने आया तो वो भी सेक्सी बनकर।
कहते है कि जहालत की तिरगी में इल्म और तालीम की कंदील ही रास्ता दिखाती है। मगर सावन के अंधे को कौन रास्ता दिखाए? गांधी जी कहा करते थे की भारत की 70% जनता गांव में रहती है लेकिन आज भी गांव की हालत कमोवेश ज्यों की त्यों है। मीडिया गांव को एक नए बाजार कि तरह देखता है इसीलिए उसको सेक्सी बनाकर पेश किए जाने की कवायत शुऱू हो गई है। अखबारों के मालिक भी इसी ब्याधि से ग्रसित होते हुए दिखाई देते हैं और ग्रामीण पाठकों को लुभाने और ललचाने के लिए टुच्ची से टेड़ी किस्म के प्रलोभनों का इस्तेमाल करने का सिलसिला अब शुरू हो गया है।
जहां तक खबरों का सवाल है तो ग्रामीण इलाकों को अब तक भी अछूत की तरह देखा जाता है। ये दीगर बात है कि ग्रामीण इलाकों में अब भी खबरों की भरमार है बस उसे देखने के लिए जौहरी की आंख चाहिए। ग्रामीण इलाके की चौहद्दी काफी विशाल है और वहां सकारात्मक और नकारात्मक- दोनों तरह की खबरों की खान है। अगर किसी राष्ट्रीय चैनल या अखबार का संपादक इसे नहीं समझ पाता तो फिर उसकी बुद्धि और विवेक पर क्षोभ ही व्यक्त किया जा सकता है।
कुछ ही संपादक ऐसे है जो अपनी सोच को अपने अखबार या चैनल के जरिए जनता तक पहुंचाने में कामयाब हो पाते हैं। उन्हें याद रखना चाहिए की भारत में अखबार या खबरिया चैनल आज भी जनमत संग्रह करने में अहम भूमिका निभाता है क्योंकि पाठक को अखबार उसके घर में मिलता है जिसका वो हर सुबह एक कप चाय की प्याली के साथ बेसर्ब्री से इंतजार करता है ये अमेरिका की तरह नहीं है जहां अखबार खोजने के लिए डिपार्टमेंटल स्टोर जाना पड़ता है और जहां 100 पेज के अखबार में चूहे के दर्बे से लेकर बड़ी-बड़ी इमारतों की खरीद-बिक्री के बारे में 80 पेज की जानकारी होती है मगर समाचार बड़ी मुश्किल से ढुढ़ने पर 10 या 15 पेज में ही मिल पाता है। वैसे भी अमेरिका जैसे देशों में राष्ट्रीय जनमत संग्रह के तौर पर मीडिया का रोल उतना बड़ा नहीं होता। मगर भारत में ये किस्सा काफी अलग है। और अखबार या चैनलों के मालिक इसे सही ढंग से देख या समझ नहीं पाए तो हैरत की बात है।
आखिर में नज़ारा कुछ ऐसा ही होता है कि –
वो पुरशिश-गम को आए है, कुछ कह न सकूं चुप रह न सकूं।
खामोश रहूं तो मुश्किल है, कह दू तो शिकायत होती है।
सोमवार, 8 मार्च 2010
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