आजकल टीवी चैनलों की भाषा पर खबरें फटाफट और दस सेकेंड में दस बड़ी खबर की रफ्तार और उसकी भाषा सुनने के बाद कभी शंका होती है कि हमारी हिंदी को क्या हुआ?
गौर से देखा तो जा कर मालूम पड़ा कि अंग्रेजी हिंगलिश हो गया और हिंदी इंग्लिंदी हो गई। महमूद मिक्सी हो गया और फौजिया फिक्सी हो गई।
अतीत के पन्ने पलटने पर हम देखते हैं कि 80 के दशक तक टीवी का मतलब केवल दूरदर्शन ही होता था। दूरदर्शन की खबरों का स्तर होता था। तत्सम शब्दों का खूब इस्तेमाल किया जाता था समाचारों में और उनका दर्शकों पर असर भी पड़ता था।
हां यह भी सच है कि उन समाचारों को सुनते समय आम आदमी सिर खुजलाने लगता था। वह अकसर भारी भरकम शब्दों को समझने के फेर में पड़ जाता और खबर क्या है, वह उसकी पहुंच से कोसों दूर हो जाती।
हम अपनी बोलचाल में जिन शब्दों का चयन करते हैं, उससे हमारी पहचान और हमारा व्यक्तित्व परिलक्षित होता है। सामने वाला हमारी भाषाशैली से जान जाता है कि हमारी सोच क्या है।
हम बात कर रहे थे समाचार में उपयोग में लाये जाने वाले शब्दों और भाषा की। 80 के दशक के आखिरी सालों में टीवी में काफी 'चेंज आया। अब दूरदर्शन के अलावा दर्शकों को समाचार दिखाने वाला एक और चैनल टीवी पर अवतरित हुआ। वह था 'आजतक। आजतक को देखकर दर्शक वर्ग समाचारों को समझने लगा। उससे बेशक लगने लगा कि जो समाचार पढ़ रहा है वह तो हमारी ही बोलचाल का हिस्सा है। उसकी भाषा और शब्द हमारे ही जैसे हैं। यह कमाल कर दिखाया था एसपी और कमर वहिद नकवी ने। एसपी सिंह लोगों से बातचीत करते थे, उन्हें जानकारी देते थे कि आज कहां-कहां क्या-क्या घटा। बस लोग उसमें 'दिलचस्पी लेने लगे। और उनके मुंह से निकले हर शब्द का मतलब समझने लगे। लोगों पर खबरें थोपी नहीं जाती थीं, बल्कि उनसे सीधा संवाद किया जाता था। यही एसपी की और आजतक की सफलता का राज था।
बस फिर क्या था? औरों ने सोचा हम भी एसपी हो लें। और अपने-अपने चैनल खोलकर लोगों के बीच 'हिट हो जाएं। लेकिन अफसोस ऐसा नहीं हो सका।
खबरिया चैनलों ने मनमानी शुरू कर दी। जिसके दिल में जो कुछ आया, वह वही कहता रहा। परिणाम यह हुआ कि हिन्दी भाषा न जाने कौन सी 'भाषा बन गई। कोई इसे हिंग्लिश कहता है तो कोई इसे 'इलेक्ट्रॉनिक मीडिया की भाषा कहता है। ।
हम यह कतई नहीं चाहते कि खबरिया चैनलों की भाषा इतनी परिष्कृत हो जाए कि उसे पढ़-सुनकर जयशंकर प्रसाद की 'कामायनी या फिर निराला या पंत की पक्तियों की याद आने लगे।
हम यह भी कामना नहीं करते कि चैनलों की कमसिन 'न्यूजरीडर संस्कृत के भारी भरकम शब्दों जैसे भूस्खलन या पर्यावरण का इस्तेमाल सुर्खियों में करें। मगर इतना जरूर ध्यान रखा जाए कि अंग्रेजी से सीधे अनुवाद किये गये शब्द अजीबो-गरीब न लगे। मसलन रेल को ‘लौह पथ गामिनी’, ट्यूब लाइट को ‘विद्युत दंड’ और स्टडी सर्किल को ‘अध्ययन गोला’ बना दिया जाए।
कभी कभार अंग्रेजी की खबरों का अनुवाद अजीबोगरीब स्थितियां पैदा कर देता है। मसलन एक खबरिया चैनल के अंग्रेजी के पत्रकार को अपनी रिपोर्ट को हिन्दी में भी अनुवाद करने को कहा गया तो उसने 'जनरल बॉडी मीटिंग को 'सामान्य शारीरिक मिलन’ कर दिया। अब क्या था सिर मुंड़ाते ही ओले पड़े। उसकी भी हालत ठीक वैसे हो गई जैसे '3 इडियट्स के चतुर रामलिंगम के साथ 'चमत्कार के साथ 'बलात्कार करने पर हुआ। मगर लगा ऐसे जैसे वो बलत्कार नहीं बलपूर्वक सत्कार था।
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हमारे अधिकांश पत्रकार बंधुओं को शायद इस बात का ख्याल नहीं रहता कि उर्दू के लफ्जों का हिन्दी वाक्यों में समावेश सोने पर सुहागा की तरह होता है। इस तरह की भाषा के कायल थे दिवंगत सुरेन्द्र प्रताप सिंह यानी 'एसपी जिन्होंने टीवी समाचार के आलेख व कहानियों को एक नई दिशा दी। भारी भरकम हिन्दी शब्दों और मुहावरों की जगह उर्दू के लफ्जों का बखूबी इस्तेमाल किया। वे हिमस्खलन की जगह हमेशा बर्फबारी लिखते थे। वे हमेशा कहते थे कि ‘एक पत्रकार के लिए लानत की बात तब होती है जब उसके लिखे या पढ़े गये किसी शब्द को समझने के लिए उसका पाठक या दर्शक शब्दकोष खोलने के लिए मजबूर हो जाए’।
मगर उनके ही सहयोगी कमर वहीद नकवी की अगुवाई में आजतक जैसा नामचीन खबरिया चैनल ‘बाबा बर्फानी’ से लेकर सरमाया, गरमाया तथा उकसाया जैसे शब्दों को सुर्खियों में इस्तेमाल करने की जुर्रत कर बैठा और आज भी करता आ रहा है।
उसके बाद तो बाकी खबरिया चैनलों ने फौरन राह पकड़ ली और आज भी कई ऐसे चैनलों की सुर्खियां यह सोचने पर मजबूर कर देती है कि क्या समाचार के नाम पर हिन्दी भाषा के साथ बलात्कार या फिर बलपूर्वक सत्कार हो रहा है।
आये दिन कई नामचीन संपादक ऐसे भारी भरकम शब्दों पर अपनी चिंता जताते हैं और अखबारों में लंबे-लंबे लेख लिख मारते हैं। तकरीरें होती हैं और चार दिनों बाद फिर वही ढाक के तीन पात। इन संगोष्ठियों में आडम्बर ज्यादा होता है, संजीदगी कम। कुल मिलाकर मामला ऐसा होता है कि कोई आदमी अपने दोस्तों और रिश्तेदारों की मनुहार पर बेमन से मंदिर जाए और भगवान की मूर्ति के सामने हाथ जोड़कर बोले 'त्वमेव माता’ और फौरन उसी मुद्रा में पीछे मुड़कर अपने पांच हजार रुपये मूल्य के जूते की तरफ 'पिता त्वमेव’ बोलकर पहले की मुद्रा में आ जाए। ऐसे में साथ खड़ा व्यक्ति यह सोचने पर मजबूर हो जाए कि यह शख्स भगवान की पूजा करने आया है या अपने जूतों की।
दरअसल हिन्दी-उर्दू के गंगा-जमनी तहजीब को अलग करने में बीबीसी में कार्यरत पत्रकारों ने भी काफी अहम रोल अदा किया। मैंने अपने निजी अनुभव के आधार पर जाना कि अगर बीबीसी रेडियो के प्रस्तुतकर्ता हिन्दी में एक सड़क दुर्घटना की जानकारी ले रहे हों तो वे कहते कि आप ये बोलें कि दिल्ली से पचास मील दूर एक भीषण सड़क दुर्घटना में 10 लोगों की मृत्यु हो गई। मगर उर्दू बुलेटिन के प्रस्तुतकर्ता को ये कतई गवारा नहीं था। उनका आदेश था कि इस खबर को इस तरह पढ़ा जाए कि दिल्ली से 50 मील दूर एक खौफनाक सड़क हादसे में 10 अफरात हलाक हो गये।
अब ऐसे में हिन्दोस्तानी भाषा के साथ और क्या होगा। जहां हम जुगलबंदी, पुख्तागिरी करने की बात करते हैं। जहां हम आम आदमी की जुबान में उसी की बोली बोलने की बात करते हैं, वहीं आज भी कुछ लोग हिन्दोस्तान में चीन की दीवार खड़ी करने की हिमाकत करते दिखाई देते हैं।
यही हाल दूरदर्शन का है। वहां सेंसेक्स को ‘संवेदनशील सूचकांक से लेकर आक्रमण, अतिक्रमण, संक्रमण से लेकर प्रत्यार्पण’ जैसे भारी-भरकम शब्दों का ऐसे प्रयोग करते हैं मानो वे हिन्दी के पितामहों का शाब्दिक तर्पण कर रहे हों।
ऐसे में इस बात की जरूरत है कि हमारे खबरिया चैनलों के संपादक और संवाददाता अपनी खबरों को एक आम आदमी की भाषा में प्रस्तुत करें ताकि उनका पढ़ा या बोला एक-एक लफ्ज उसकी समझ में आये। खबरों में शब्दों का मर्म और उसकी संजीदगी बनी रहे, नहीं तो फिर वही होगा कि पूरी रामायण पढ़ ली मगर सीता किसकी जोरू?
यह बात अब जनता ही समझे या बता दे कि आखिर शिक्षा अमीरों की भौजाई या गरीबों की लुगाई है, जिसके बारे में हर अगुआ-पिछलगुआ दो शब्द बोलकर पत्रकारी तमगों का हकदार हो जाए।
आजकल खबरिया चैनलों में भाषा के साथ बलात्कार एक सामान्य बात हो गई है। खासकर अनुवादित तथ्यों और कहानियों को लेकर अकसर अर्थ का अनर्थ होना सामान्य बात हो गई है। ये त्रासदी उन चैनलों में ज्यादा है, जहां के संवाददाता और संपादक अंग्रेजी से पढ़कर आते हैं और हिन्दी पत्रकारिता का बेड़ा गर्क करने में लगे हैं। मिसाल के तौर पर एक चैनल के संवाददाता ने केंद्र सरकार द्वारा तेलंगाना के टम्र्स ऑफ रेफेरन्स (जांच का दायरा) की बात लिखवाई तो उक्त अंग्रेजी पूत ने उसे ‘तेल लगाने का दायरा’ समझ लिया। बाद में जब हड़कम्प मचा तो उत्क अंग्रेजीदां ने ये कहकर पिंड छुड़ा लिया कि उन्हें फोन पर ठीक से सुनाई नहीं दिया।
शब्दों के चयन तथा संजीदगी के मामले में राजेन्द्र अवस्थी, गोरी शंकर राजहंस जैसे पत्रकारों के बारे में अगर आज की पीढ़ी अवगत नहीं है तो यह हिन्दी भाषा का दुर्भाग्य है। सबसे हैरानी की बात ये है कि यही लोग हिन्दी मीडिया की अर्थी उठाने में अग्रसर हैं। अब उन्हें स्वर्गीय ईश्वर चन्द्र पालीवाल जैसे पत्रकार, जिनके मातहत अज्ञेय तक ने काम किया था, का नाम तो शायद अफलातूनी ही लगेगा।
लफ्जों की लज्जत के मामले में स्वर्गीय सुरेन्द्र प्रताप सिंह जैसा संजीदा पत्रकार और कोई नहीं दिखा। ये बात नवम्बर 1996 की है, जब मैंने बेंगलुरू से 30 किमी दूर एक जगह पर एक महिला द्वारा पांच साल की शीबा नामक शेरनी को घर पर बच्ची की तरह पालने की खबर भेजी थी। आजतक का ये रिवाज था कि पीटीसी बिल्कुल सही और सच्चे अंदाज में हो। काफी हिम्मत जुटाने के बाद मैंने शेरनी शीबा के सिर पर हाथ रखते हुए अपनी पीटीसी में कहा कि 'इस घर के हर कोने में शीबा जैसी शेरनी को बेखौफ घूमते देखकर ये साबित होता है कि अगर प्यार और दुलार मिले तो इन्सान तो क्या 'दरिन्दा भी गुलाम बन जाता है। उसे देखने के बाद फौरन उनका फोन आया कि उनको ‘दरिन्दा’ लफ्ज से ऐतराज है और उसकी जगह मैं जानवर लफ्ज का इस्तेमाल करूं। उन्होंने कहा, 'अरे यार तुम्हारे इस एक शब्द ने पूरी कहानी का कबाड़ा कर दिया। दूसरा पीटीसी भेजो और जानवर शब्द के साथ। ये खबर तभी लूंगा’
और अगले दिन मैंने वही किया और उसके बाद वह कहानी उन्होंने बड़े ही अनोखे अंदाज में आजतक पर चलाई।
मगर अफसोस, चैनलों की बाढ़ के बीच में हर दो मिनट पर मेट्रो ट्रेन की तरह भागते फटाफट खबरों की दौड़ और होड़ में न शब्दों की शालिनता बची रही और न ही उनकी तल्खी।अब दर्शक और जनता सोचे कि अंग्रेजी शब्द गॉड को उलट दिया जाए तो फिर क्या होगा???
गुरुवार, 18 फ़रवरी 2010
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