पिछले हफ्ते सूचना और प्रसारण मंत्री श्रीमती अंबिका सोनी द्वारा मीडिया सम्बधी संसोधन अधिनियम में तब्दिली लाने की कवायत एक अच्छा कदम है। पिछले पांच सालों में मीडिया के आकार में प्रसार तथा नए तत्थों के आविर्भाव के मद्दे नजर ये लाजिमी था कि मीडिया की मर्यादा की मीनार को सही तरह माप कर उनमें कहीं-कहीं कुछ निशान जरूर लगा दिये जाये ताकी सनद रहे।
फिर जमहूरित में सहाफी समाज के सरकारी तंत्र से टकराव के ऐसे कई मौके आए जहां पर ये लगने लगा की सहाफत के सलूक पर शराफत की चादर फट जाएगी। ऐसे हालात में इस बात की जरूरत और महसूस हुई कि कोई बीच का रास्ता निकाला जाए।
सहाफियों की दलील ये थी कि
मेरी ये शिकायत की दी चादरें छोटी
वो कहते तुम्हें पांव फैलाने ही नहीं आते
दूसरी तरफ मरकज़ी हुकूमत के सिपहसालारों की नसीहत ये थी कि
सहाफत राह भी, राही भी, सफर भी लेकिन
जिनकों चलना नहीं आता वो कुचल जाते हैं
दरअसल पिछले सात सालों में खबरों के प्रसारण तथा खबरों की सही छवि से संबंधित एक अधिनियम पर काफी चर्चा और रस्साकशी भी हुई। इसी संदर्भ में एनडीए सरकार ने तत्कालीन सूचना एंव प्रसारण सचिव एस के अरोड़ा की अध्यक्षता में एक तीन सदस्यीय समिति का घठन भी किया था जिसका मूल उद्देश्य था मीडिया के आक्रामक रुख पर लगाम लगाने के लिए नई तरकीब निकालना।
निजी प्रसारकों को एक ही नाव में बिठाने से लेकर जनहित प्रसारण से संबंधित कई मुद्दे पर नियम बनाने का जरिया बना प्रसारण बिल 2006 जिसे राष्ट्रीय प्रसार अधिकरण(एन वी ए) ने नहीं माना। मगर अक्टूबर 2008 में गठित समाचार प्रसारण मानक (विवाद निपटान) प्राधिकरण की बात कोई नहीं करता। ये आश्चर्य की बात है। राष्ट्रीय मानवाधिकार आयोग के अध्यक्ष तथा उच्चतम न्यायालय के मुख्य न्यायाधीश के नेतृत्व में गठित 9 सदस्यीय टीम वाले प्राधिकरण को खबरिया चैनलों पर पैनी नजर रखने की जिम्मेदारी सौंपी गई थी। साथ ही आचार संहिता की मर्यादा का उल्घंन करने वाले चैनलों के खिलाफ उचित कार्यवाई करने का सुझाव देने का अधिकार भी दिया गया था।
य़े भी कहा गया था कि प्राधिकरण के माध्यम से किसी भी टीवी चैनल में प्रसारित खबरों या कार्यक्रम के खिलाफ कोई भी अपनी शिकायत दर्ज कराकर एक सप्ताह के अंदर जवाब तलब कर सकता है। चैनल द्वारा सही और वांछित जवाब नहीं मिलने पर कई भी व्यक्ति प्रति एक हजार रुपये की दर से औपचारिक तौर पर अपनी शिकायत प्राधिकरण के समक्ष दाखिल कर सकता है।
प्राधिकरण को शिकायत की पूरी जांच पड़ताल के बाद आरोपी चैनल पर एक लाख रुपये तक का जुर्माना करने तथा सरकार से ऐसे चैनलों का लाइसेंस रद्द करने का सुझाव देने का भी अधिकार शामिल है।
इसके अनुसार प्राधिकरण की जिम्मेदारी ये सुनिश्चित करना भी होगा कि खबरिया चैनल किसी गलत या भ्रामक खबर प्रसारित होने कि स्थिति में तत्काल उसका खंडन ही नहीं बल्कि सार्वजनिक तौर पर भी माफी मांगे।
शुरु में तो कुछ ऐसी शिकायतें प्राधिकरण के पास आईं मगर उसके बाद की स्थिति पर कोई जानकारी या स्पष्टीकरण मिलने से जाहिर है की इस स्वायत्त शासन की पद्दति पर काम करने की दिशा में इसके द्वारा दिये गए सुझावों, दिशा निर्देश तथा आचार संहिता के तहत कई और संजीदा और पेचीदा मामले भी शामिल हैं जिनको नए सिरे से व्याख्या और स्पष्ट करने की आवश्कता है। कई खबरिया चैनलों ने इन्हीं बिंदुओं का सहारा लेकर अपना पिंड छुड़ा लिया और इसी तरह ये प्राधिकरण भी एक ठंडे बस्ते की तरह धरा रह गया दिखता है।
इस प्राधिकरण द्वारा दिए गए कुछ सुझाव आज भी उतने ही प्रासंगिक और महत्वपूर्ण हैं। इनमें से कुछ का ज़िक्र करना ज़रूरी है
1- प्राधिकरण ने निष्पक्ष और निरपेक्ष भाव से खबरों को दिखाने का प्रस्ताव रखा था जो अपने आप में ही एक बड़ी चुनौती है। इसका मुख्य कारण ये है कि 60 से 70 फीसदी खबरिया चैनलों की फौज अपने निजी एजेंडा के तहत ही काम करती है। और इस किले को तोड़ना कोई आसान काम नहीं है।
2- खबरों के प्रसारण में तटस्थता भी प्राधिकरण की जिम्मेदारियों में शामिल है मगर सच्चाई ये है कि दूरदर्शन, एनडीटीवी तथा जी न्यूज को छोड़कर अन्य चैनलों की फौज इस बात पर संजीदगी से गौर नहीं करती । किसी भी राजनीतिक पार्टी या व्यक्ति ने कोई भी आरोप लगाया तो वो मिनटों में हेड लाइन बन जाता है। मगर कोई चैनल आरोपित व्यक्ति या पार्टी के प्रवक्ता से उसकी प्रतिक्रिया लेने के बाद ही खबर विशेष तक का इतज़ार नहीं करते। अगर ये सवाल पूछ भी ले तो उनका सीधा जवाब रहता है कि ‘ इस खबर को और चैनलों द्वारा पहले चला दिए जाने का अंदेशा होता है’
3-प्राधिकरण के अधिकार क्षेत्र में अपराध जगत से संबंधित खबरे तथा हिंसा, आतंकवाद तथा दंगे पर भी संजीदगी से गौर करने का सुझाव आता है मगर सच्चाई ये है कि आज भी कई चैनल अपराध जगत से जुड़ी खबरें बढ़ा चढ़ा कर ही नहीं दिखाते बल्कि उसे हर दिन खाने में अचार की तरह इस्तेमाल भी करते हैं। सामान्य खबरों में भी नाटकीयता कभीकभार आसमान छू जाती है। मिशाल के तौर पर आंध्र प्रदेश के एक सांसद ने एक बैंक मैनेजर को चांटा मार दिया। फिर क्या था? कई चैनलों ने उसी फ्रेम को 20 बार पेस्ट कर हर बुलेटिन में दिखाकर ऐसा लोम हर्षक हौउआ खड़ा किया मानो वो बेचारा बैंक मैनेजर दिनभर पिटता ही रहा।
शायद हमारे मीडिया के महारथियों को कभी ये दिमाग में नहीं आया कि बार-बार ऐसे लम्हों को नाटकीयता तथा सनसनीखेज बनाने की हरकत का अंजाम क्या होगा? क्या अपराध जगत से संबंधित खबरों को कवर करने वाले पत्रकार उस दिन का इंतजार करेंगे जब उन्हीं के चैलनों पर दिखाए गए कार्यक्रमों से सीख लेकर उनका बेटा अपने स्कूल बैग में कलम किताब की जगह चाकू छुरी ले जाने लगेगा और गुस्से में आकर उसी से क्लास रूम में किसी पर वार कर देगा?
4-प्राधिकरण महिलाओं तथा बच्चों के उपर उत्पीड़न और अत्याचार जैसी खबरों के बारे में संजीदगी बरतने की सलाह तो दे गया मगर क्या लोग लाइव इंडिया के एक अति बेवकूफ पत्रकार द्वारा एक महिला शिक्षक के मान हनन की घटना को इतनी जल्दी भूल गए? अक्सर संजीदा खबरों की वावत महिलाओं तथा बच्चों की पहचान छिपा दिए जाने का रिवाज है। मगर आज भी कई उत्साही चैनल इस आदेश का धड़ल्ले से उल्घंन कर रहे हैं और प्राधिकरण उनको नकेल डालने में अक्सर नाकामयाब होता दिखाई दे रहा है।
5- यही स्थिति सेक्स और नग्नता को बढ़ावा देने के बारे में है। मगर कई खबरिया चैनल बलात्कार पीड़ित महिलाओं की शक्ल तक दिखाकर मिनटों में उसकी जिंदगी में आग लगा देते हैं। सस्ती लोकप्रियता और आगे बढ़ने की होड़ में मानवीय मूल्यों की हत्या तथा सामाजिक आदर्शों और मूल्यों का सर्वनाश करने का अभियोग जो इन चैलनों के उपर है उससे बाहर निकलना आसान नहीं दिखता।प्राधिकरण ने इस पर कोई बड़ा तीर मार लिया हो ऐसा भी तो नहीं दिखाई देता।
6-प्राधिकरण ने गोपनीयता तथा व्यक्तिगत स्वतंत्रता के हनन पर भी सवाल उठाया था।मगर ऐसे सैकड़ों उदाहरण हैं जहां सस्ती लोकप्रियता के लिए कई चैनलों ने इस परिधि को तोड़ा और ये सिलसिला आज भी बदस्तूर जारी है। नेताओं और नामचीन हस्तियों को सरेआम नंगा करना तो खबरिया चैनलों के एजेंडा में हमेशा सर्वोपरि रहा है चाहे वो आर के आनंद प्रकरण हो या अमर सिंह की कहानी।
7- राष्ट्रीय सुरक्षा को भी प्राधिकरण ने आचार संहिता के दायरे में रखा है। मगर क्या ये सच नहीं कि राजदीप सरदेसाई जैसे नामचीन पत्रकार पाकिस्तानी आतंकवादियों को मुजाहिद्दीन बताते रहे और दूसरी तरफ बरखा दत्त हुर्रियत नेतों को राष्ट्रवादी कहती रहीं। प्राधिकरण इन सवालों से कैसे निपट पाया ये आम जनता के जानकारी में नहीं आया हैं।
8-अंधविश्वास तथा जादू-टोने से लवरेज कार्यक्रमों पर भी प्राधिकरण ने उंगुली उठाई थी मगर उल्टा ये हुआ कि अपराध से संबंधित खबरों तथा जादू-टोना वाले कार्यक्रमों की संख्या और भी ज्यादा हो गई।
9- स्टिंग ऑपरेशन की परिभाषा और परिपेक्ष्य भी प्राधिकरण के लिये एक सिर दर्द सा बना हुआ है। उसकी हिदायत थी कि स्टिंग ऑपरेशन हमेश आखिरी विकल्प के रूप में जनता के हित में किया जाना चाहिए। जनहित सर्वोपरि होना चाहिए। मगर ये हथियार भी जनहित की जगह स्वहित के लिए ज्यादा इस्तेमाल किया जाने लगा है। खबरखोरी के भूख से त्रस्त कई चैनल इस हथियार का इस्तेमाल अपवाद के वजाए आमतौर पर करने लगे हैं।
ऐसी सूरते हाल में ये कहा जा रहा था कि अगर ये मानक प्रसार प्राधिकरण आचार संहिता के फेहरिस्त में से दो चार मुद्दों पर भी सफल रहा और कुछ खबरिया चैनलों पर लगाम लगाने में कामयाब रहा तो उसके लिये ये एक बड़ी उपलब्धि होगी। मगर पिछले 18 महीने में ये ऊंट किस करवट बैठा इसे कई लोगों ने नहीं देखा।
अगर ये सरकार खबरिया चैनलों को सही दिशा दिखलाने के साथ उनकों अपनी महत्ता और जिम्मेदारियों का भी एहसास कराना चाहती है तो इस प्राधिकरण को और सक्षम और मजबूत बनाना होगा। दिशा निर्देशों का पालन नहीं करने वाले चैनलों के साथ सख्ती एक नई मिसाल पैदा कर सकती है बशर्ते अपराध प्रमाणित हो। मगर असली मुद्दा ये है कि गलत या सही का अंतिम फैसला कर भी लिया तो उसे मानेगा कौन और मनवायेगा कौन?
रविवार, 21 फ़रवरी 2010
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