टीआरपी के खेल में लिप्त महारथियों की दलीलों को पढ़ने के बाद कभी कभार ये शक होने लगता है कि क्या हम अब भी मानसिक रुप से स्वतंत्र सोची बन पाएं है या फिर अभी तक अमेरिकी सोच की बैसाखी के मुंतज़िर है। टीआरपी पद्धति का प्रयोग सन 1980 के दशक में सांता बारबरा तथा बोल्ड एंड ब्यूटीफुल जैसे कार्यक्रमों की लोकप्रियता बढ़ाने के लिए हुआ था तथा इस लोकप्रियता मापक मशीन को प्रयोग के तौर पर कुछ ख़ास घरों में लगाया हुआ था जहां पर टीवी उपलब्ध था। कुछ विशेष शहरों में किसी ख़ास टीवी कार्यक्रम की लोकप्रियता के आकलन का ये सहज रुझान मूल-मंत्र के ध्वजवाहक के रुप में इस्तेमाल हुआ था मगर तीन दशकों के बाद भी उसी मंत्र तथा यंत्र को ऐसे अंदाज़ में पेश किया जा रहा है मानों जैसे कि भारत की जनता को बेवकूफ बनाने के लिए इससे बेहतर साधन उपलब्ध ही नहीं हो।
फिर इसी तंत्र के षडयंत्र से नए सूचना तंत्र का निर्माण कोई बड़ा काम नहीं था। अगर ये मान भी लिया जाए कि ये यंत्र पद्धति कारगर भी है तो भी और कई प्रश्नों के जवाब नहीं मिलते।
1.टीआरपी के प्रणेता कहते हैं कि उन्होंने करीब दस हज़ार घरों में पीपल्स मीटर लगा रखे हैं परंतु आजतक किसा भी शहर में ऐसे मीटर 200 से ज़्यादा नहीं दिखाइ दिए जिनमें इन घरों में नियमित रुप से एक ही कार्यक्रम देखने वाले लोग अपनी पसंद दर्ज करें।
2 ये भी कहा गया कि इन घरों में ये मीटर टीवी सेट के साथ लगाया गया है और वहां के लोग नियमित रुप से समाचार तथा अन्य कार्यक्रमों के बाबत अपनी पसंद का इजहार हर रोज़ करते हैं। मगर
सोचने वाली बात ये है कि कौन आदमी अपने ड्राइंग रुम या बैड रुम में ये तंत्र लगाने देगा और टीआरपी संबंधी आदेशों का नियमित रुप से पालन करेगा और भी बिना किसी प्रलोभन और पारिश्रमिक के।
3. समाचार से संबंधित कई विशेष कार्यक्रम तथा मनोरंजन सीरियल ख़ास दिनों पर प्रस्तुत होते हैं और इनके देखने वाले दर्शकों का तबका काफी नियमित रुप से इन कार्यक्रमों को देखता है। मगर समाचार में तो हर दिन ऐसा नहीं होता फिर भी इस किस्म के खोखले दावें क्यों। कुछेक दुकानों को राष्ट्रीय टकसाल बनाकर क्यों पेश किया जाता है।
4. इन प्रणेताओं ने गला फाड़ फाड़कर ये जताने की कोशिश की है कि उनके द्वारा उगाए गए आंकड़ें राष्ट्रीय परिप्रेक्ष्य को परिलक्षित करते हैं जबकि सच्चाई ये है कि अब तक देश के 37 शहरों में ही टीआरपी मापक यंत्र तथा उससे जुड़े संयंत्र का जाल है जो अमूमन दक्षिण और पश्चिम भाग के कुछ शहरों तक ही सीमित है। उत्तर प्रदेश से लेकर बिहार, उड़ीसा, बंगाल, उत्तराखंड, छत्तीसगढ़ तथा पूर्वोत्तर भारत में टीआरपी नामक चिड़िया को बहुत ही कम लोग जानते हैं। या यूं कहा जाए कि ये इलाके टीआरपी की राडार में कहीं भी नहीं आते। ऐसे में टीआरपी द्वारा उगाहे गए जोड़े और घटाए गए आंकड़े तथा ठीकरों को राष्ट्रीय रुचि का रुझान कैसे मान लिया जाए।
5. हैरानी ये है कि उपरोक्त कई राज्यों में वैसे भी केबल कनेक्शन नहीं है और अगर हैं भी तो आठ से दस घंटे तक बिजली गुल रहती है। तो फिर किस आधार पर इन राज्यों को टीआरपी पद्धति में शामिल कर लिया जाता है। पूरे भारत में सिर्फ दूरदर्शन ही ऐसा चैनल है जिसकी पहुंच 93.57 फीसदी दर्शकों तक है। केबल और डीटीएच द्वारा चालित चैनलों की पहुंच अब भी पचास फीसदी दर्शकों तक ही है। फिर भी ये दावा कैसे किया जा सकता है कि टीआरपी ही विज्ञापन के लिए लोकप्रियता मापक और सूचक यंत्र हैं।
6. अब तक प्रकाशित आंकड़ों के अनुसार केबल टीवी वाले घरों में नब्बे फीसदी लोग मनोरंजन के कार्यक्रम देखते हैं और मुश्किल से 8 से 9 फीसदी लोग सिर्फ समाचार या समाचार से संबंधित कार्यक्रम देखते हैं। यदि ऐसा है तो सिर्फ दस फीसदी लोगों की रुचि रुझान और पसंद को पूरे देश की जनता की पसंद पर कैसे थोपा जा सकता है।
7. टीआरपी से कुछ खास शहरों में कुछ खास चैनल या टीवी कार्यक्रम के प्रति लोगों की पसंद के बारे में आकलन लगाया जा सकता है मगर ये ज़रुरी नहीं कि देहाती इलाकों में भी लोगों की यही राय हो। इसके अलावा हरेक क्षेत्र में लोग अपनी स्थानीय भाषाओं में समाचार से लेकर अन्य कार्यक्रम देखना चाहते हैं। ख़ासकर दक्षिण भारत में स्थानीय भाषाओं में और गुजरात या महाराष्ट्र से लेकर बंगाल तक के लोग अपनी भाषा के ही कार्यक्रम देखना पसंद करते हैं तो फिर वहां किसी हिंदी या अंग्रेजी कार्यक्रम की लोकप्रियता का पता कैसे चलेगा।
वैसे भी सैंपल के तौर पर की गई गणना या सर्वेक्षण को पूरी तरह अकाट्य नहीं माना जा सकता क्योंकि इसमें हेरा-फेरी होने की पूरी गुंजाइश रहती है। इसके अलावा टैम या इनटैम द्वारा प्राप्त किए गए आंकड़े कई तरह के मापदंडों पर आधारित तथा अलग-अलग ढंग के किए गए होते हैं। इस प्रक्रिया में कुल मिलाकर 64 तरीकों से आंकड़ों को इकट्ठा करके पांच या दस समूहों में बांटा जाता है। कई जगह 50 सवालों का पुलिंदा होता है जिसमें कई लच्छेदार पद्धति से कड़ीबद्ध प्रश्न होते हैं और आखिर में इनकों ही जोड़तोड़कर जनता के सामने पेश किया जाता है।
पिछले साल प्राइस वाटर हाऊस कूपर नामक संस्था द्वारा किए गए सर्वेक्षण के अनुसार भारत में प्रिंट मीडिया का व्यापार सन 2013 तक 26 हज़ार करोड़ रुपये तक का हो जाएगा और इसकी वार्षिक विकास दर 7.6 फीसदी की है। इसी तरह टेलिविजन से जुड़े मनोरंजन तथा न्यूज़ उद्योग की विकास दर सन 2008 में 14.2 फीसदी रही है और अगले तीन सालों में इसकी विकास दर 14.5 फीसदी के हिसाब से रहेगी। आज की तारीख में टेलिविजन तथा मनोरंजन मीडिया का बाज़ार 58 हज़ार करोड़ रुपये का है और सन 2013 तक एक लाख करोड़ रुपये से ऊपर का होगा।
असली मुद्दा ये है कि टैम तथा टीआरपी के चोचले इतने बढ़ गए हैं कि विज्ञापन के बादशाह और मार्केटिंग के महारथी इसमें अपना दिमाग़ खर्च करना ही नहीं चाहते। उन्हें पके पकाए आंकड़े मिल जाते हैं और उन्हीं आंकड़ों के हिसाब से 40 हज़ार करोड़ रुपये से ज़्यादा का विज्ञापन सालाना तौर पर दिया जाता है। विज्ञापन विद और चैनलों के मालिक इसे ही शाश्वत सत्य समझने लगे है और कई अख़बार और चैनल अपना कारोबार धड़ल्ले से चलाते रहे हैं। कई बार तो ऐसा भी देखा गया है कि टीआरपी के चक्रव्यूह रचने वाले द्रोण और दुर्योधन किसी ख़ास चैनल के अगले चार हफ्ते तक का भविष्य बता देते हैं और कई रंगों के जाल बुन देते हैं ताकि विज्ञापनदाताओं को आसानी से फंसाया जा सके। मगर आजतक किसी संपादक ने ये पहल करने की कोशिश नहीं की कि टीआरपी की सही स्थिति, ईमानदारी तथा पारदर्शिता हेतु आकलन के लिए एक स्वतंत्र विभाग या एजेंसी बनाई जाए जो इन तमाम मुद्दों पर कड़ी नज़र रखे।
शायद आज से दस साल पहले टीआरपी की टेढ़ी खीर को सही दिशा देकर सही आंकड़े प्राप्त करना उतना मुश्किल नहीं था लेकिन आज आलम ये है कि हर साल कुकरमुत्तों की तरह बढ़ते चैनलों की फौज और उनमें दिखाए जा रहे कार्यक्रमों पर दर्शक की पसंद नापसंद का रुझान मापना और उनको 64 पैमाने पर तोलना लगभग असंभव कार्य हो गया है। अगले 18 महीनों में सौ चैनल जब और जुड़ेंगे तो कुल मिलाकर करीब 700 चैनलों के कार्यक्रमों का पैमाना किस रंग में सामने आएगा?
सच्चाई ये है कि इन तमाम आंकड़ों का हथकंडा अपनाने के बाद भी कोई चैनल दूरदर्शन का मुकाबला नहीं कर पाया। महाभारत, रामायण, टीपू सुल्तान या चंद्रकांता जैसी सीरियलों की पहुंच या फिर सुरभि जैसे कार्यक्रमों की तुलना में आज कोई भी कार्यक्रम फीका है। पांच बरसों से ऊपर तक चले कहानी घर-घर की या फिर सास भी कभी बहु थी जैसे कार्यक्रमों ने अपनी किस्म के कई कीर्तिमान भले ही कायम कर लिए हो लेकिन दूरदर्शन के मुकाबले उनकी पहुंच बहुत कम रही।
समाचार या इससे जुड़े कार्यक्रमों के मामले में आज भी कोई चैनल दूरदर्शन की बराबरी नहीं कर सकता लेकिन अक्सर ये टीआरपी की दौड़ से बाहर ही रहता है। यही हाल लोकसभा टीवी का भी है जिसको दिखाना हर केबल या डीटीएच संचालकों के लिए कानूनन आवश्यक है, मगर ये भी टीआरपी की परिधि में नहीं है। इससे बड़ा मजाक क्या हो सकता है।
इन तमाम दलीलों के बाद भी भारत के विज्ञापनदाताओं की जमात और चैनल मालिकों की फौज टीआरपी को ही ध्रुव तारा मानती है और उसी पर सालाना हज़ारों करोड़ रुपये का जुआं खेलती है। इसी पद्धति को लोग झूठ के सच तथा सच के झूठ के आंकड़ों को टीआरपी की चाशनी में डालकर अपने अपने चैनल का गुड़ पकाते हैं और दर्शकों को लुभाते है। आज भी ये सिलसिला बदस्तूर जारी है चाहे चैनल की लोकप्रियता और समाचार का सच इससे कोसों दूर क्यों न हो।
गुरुवार, 18 फ़रवरी 2010
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