गुरुवार, 18 फ़रवरी 2010

टीआरपी की टिटहरी भाग-1

टीआरपी की टिटहरी
भाग-1
एक मीडिया साइट पर अचानक एक न्यूज़ चैनल के संपादक द्वारा टीआरपी नहीं होना चाहिए की दलील ने मुझे अचंभे में डाल दिया जो लोग इसी टीआरपी की साप्ताहिक टांय-टांय को “राग तोरी” में ख्याल जौनपुरी की तरह सुबह से ही पूरी दुनिया को सुनाने लगते थे और अपने चैनल को समाज का सही चेहरा दिखाने का दावा करते थे वही अचानक टीआरपी का मर्सिया पढ़ने लगे? जो लोग इसी टीआरपी को टेलिविजन का ब्रह्मवाक्य मानकर उसे न्यूज़ चैनल की लोकप्रियता का सबसे संवेदनशील सूचकांक मानते थे और रातों रात अपने चैनल की विज्ञापन दर हज़ारों रुपये बढ़ा दिया करते थे उन्हीं लोगों की निगाह में टीआरपी का ढोल अचानक फटा हुआ क्यों दिखने लगा और लोकप्रियता की जगह भोंकप्रियता का भोंपू कैसे बन गया?
मैं टेलिविज़न न्यूज़ की पैदाइश से अब तक का आइनादार रहा हूं और इसे मैंने कई रंग और ढंग में देखा और परखा है। चौबीस घंटे न्यूज़ चैनल की पैदाइश के महज दस से बारह साल ही हुए हैं, मगर इसकी बदकिस्मती ये रही कि ये शुरु से ही आधी हक़ीक़त आधा फ़साना की राह पर चल निकला।इस देश में टेलिविज़न न्यूज़ चैनल की स्थिति ठीक वैसे ही है जैसे कोई बछड़ा दो दिन तक खूंटे से बांधकर रखने के बाद जब खोल दिया जाता है तो वह बाहर आकर उमकने लगता है, चार पांच गमले तोड़ता है, दो-चार दीवारे फांदता है और जब वो थक-मांदकर लौटकर उसी जगह आता है तो उसके जिस्म से बहते कई जगह खून खरोंज के निशान तथा घुटने की हड्डी में चोट इत्यादि भी शामिल होती है।
पिछले चंद बरसों के इतिहास में टेलिविज़न न्यूज़ की परिभाषा ही नहीं बल्कि और भी बहुत कुछ बदला है। आजकल पत्रकार वही है जो या तो धारा प्रवाह लिखता है या हर जगह दिखता है। आप किसी विषय के बारे में कितना और कैसे जानते हैं उसका महत्व नहीं जितना इस बात का आप धारा-प्रवाह बकवास करने में तथा उसको अंदाज़े में बयां करने में कितने माहिर है।
समाचार की जगह रियेलिटी शो ने ली है। सामाजिक संवेदना तथा मानवीय मूल्यों की परिसीमन की प्रथा काफी पहले ही समाप्त हो गई है और इसकी जगह हत्या, बलात्कार तथा विभीषिका जैसे विषयों ने ली है। ख़बरें सेंकी, पकाई और तब परोसी जाती है। सच्चाई ये है कि जनता जो चाहती है हम वही दिखाते हैं या फिर ख़बर हर कीमत पर जैसे तकिया कलाम को बाआवाज़े बुलंद करने वाले संपादकों तथा संवाददाताओं की सोच को दीमक लगता जा रहा है। वो अपना सामाजिक दायित्व ही नहीं बल्कि मानसिक संतुलन भी खोते जा रहे हैं तभी तो प्राइम टाइम में सांप से शादी, एक और झांसी की रानी, स्वर्ग का सीधा रास्ता तथा काल-महाकाल जैसे कार्यक्रमों को क्विंटल भर नमक मिर्च लगाकर दिखाये जाने की कवायद जारी है।
एक सर्वेक्षण के अनुसार आरुषि हत्याकांड पर दिल्ली के न्यूज़ चैनलों ने अस्सी दिनों में करीब 65 से 87 घंटे हर किस्म के तमाशे दिखाए और कई चैनलों ने तो न्यायपालिका की तरह आरोपियों को सज़ा तक भी सुना दी और सीबीआई तक को अपने निशाने पर ले लिया। मगर कुछ ही साल पहले जब मदुरै शहर में तीन कॉलेज छात्राओं को एक बस में ज़िंदा जला दिया गया तो किसी चैनल ने उसको अपने स्क्रोल में एक लाइन की जगह देने की ज़हमत नहीं उठाई।
हैरानी की बात ये है कि टीआरपी जैसे भ्रामक स्कैम द्वारा पूरे माहौल को दूषित करने के बावजूद अबतक इस बीमारी पर गदा प्रहार क्यों नहीं हुआ और टीवी चैनल के विज्ञापन से लेकर समाचार तक की दुनिया के सिपहसालारों की फौज ने अब तक इसके ख़िलाफ़ आवाज़ क्यों नहीं उठाई। वो इसलिए कि ये संपादक लोग ही टीआरपी का तमगा लेकर सारा दिन गेंद की तरह उछलते थे और अपने तथा अपने चैनल को मान और महिमा मंडित करने का कोई भी मौका नहीं गंवाते थे। फिर अब क्या हुआ या अंगूर खट्टे हो गए या फिर दांतों में दरार आ गई।
टीआरपी को पूरी दुनिया में किसी भी कार्यक्रम की लोकप्रियता मापने के सबसे बड़े मानक के रुप में माना जाता रहा है भले ही इसकी सच्चाई कितनी भी भ्रामक क्यों न हो और इसके द्वारा की गई समीक्षा और प्रचार को सारे विज्ञापन तथा वार्षिक योजना बनाने वाले चप्पू से लेकर सरकारी भोंपू भी ब्रह्म वाक्य मानने लगे हैं। हैरानी की बात ये है कि इसी झूठ की बुनियाद पर खड़े आंकड़ों से हज़ारों करोड़ के विज्ञापन का खेल होता है,कई अख़बारों का रेल होता है तो कई नामचीन समाचार चैनलों का तेल होता है।
कुल मिलाकर लब्बोलुआब ये है कि कौआ कान ले गया सुनकर पूरे गांव के लोग घर की मुंडेर से लेकर मोहल्ले तक की छतों और दीवारों को भी फांद गए और इसी क्रम में कई लोगों ने अपना घुटना भी ज़ख्मी कर लिया मगर अपना हाथ उठाकर ये नहीं देखा कि कान अपनी जगह पर है या नहीं। यही हाल इस टीआरपी की टिटहरी का है।
टीआरपी की अदाओं पर हाय-तौबा मचती रहती है। हर हफ्ते, हर महीने टीवी चैनल के संपादक से लेकर प्रबंधक अपनी पीठ ठोकते रहते हैं और न्यूज़ रुम के द्वोणाचार्य से लेकर कर्ण तक अपनी मूंछों पर ताव देते रहते हैं कि उन्होंने ये साप्ताहिक संग्राम फिर से जीत लिया।
मगर किसी ने ये संज़ीदगी से जानने की कोशिश नहीं कि किसके कहने पर ये टीआरपी का हौवा कैसे खड़ा किया। इसके द्वारा हर हफ्ते बनाए जाने वाले आंकड़ों का आधार क्या है। टीआरपी जांचने की प्रणाली क्या है। ये प्रणाली कितनी विश्वसनीय है। इसकी विवेचना के मापदंड क्या है। भारत जैसे 120 करोड़ से ज़्यादा आबादी वाले देश में सिर्फ सात हज़ार ऐसे टैम मीटर क्या पूरे देश के दर्शकों की पसंद या नापसंद की नुमाइंदगी करते हैं। इससे भी बड़ा सवाल ये है कि इन आंकड़ों की व्याख्या तथा आकलन के अलावा समाचारों की हर पल बदलती दुनिया में इस टीआरपी की टिटहरी की टें टें का महत्व क्या है।(..जारी)

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