रियलिटी शो का रेला
आजकल हमारे देश की जनता एक ऐसे ‘उद-बिलाव’ के हैरतअंगेज नखरे और नज़ारे का मज़ा ले रही है जिसका नाम है रियलिटी शो। आप कोई भी टीवी चैनल खोल ले, ऐसे यर्थाथवादी शो आपको हर होटल में परोसे गए बुफे लंच या डिनर की तरह हर दिन और रात मिलेंगे। मांस का लोथड़ा वही रहता है कोई उसका शोरबा या फिर गोश्तबा या कोई कीमा बनाता है। इसी तरह रियलिटी शो का मूलमंत्र वही रहता है जनता दर्शकों की भावनाओं में रोने हंसाने का छोंक डालकर करोड़ों की सब्जी पकाना इसी रियलिटी शो की मेहरबानी से कोई रातों रात सुपरस्टार बन जाता है तो किसी की मेहनत की आस्तीन तार-तार हो जाती है। इसी शो की वजह से इतिहास के पन्ने की तरह भुला दिए गए। पुराने कलाकारों के वारे-न्यारे हो जाते हैं तो कभी अच्छे नए प्रतिभाशाली अदाकार या फनकार एसएमएस या ऑनलॉइन वोटिंग की विभीषिका में झुलस कर किनारे हो जाते हैं। कभी कोई अपनी अलादीनी प्रसिद्धि पर हंसता है तो कोई निर्थाथ के आत्मीयतापन का रोना रोता है। मगर क्या ये सच नहीं कि रियलिटी शो के नाम पर यही तो सबकुछ होता है।
दरअसल रियलिटी शो की कहानी नई नहीं है, इसकी शुरुआत तो 1940 के दशक में ही हो गई थी। एलेन फंट जैसे प्रस्तुतकर्ताओं ने अपने केडिंड कैमरा कार्यक्रम के ज़रिए समाज के प्रबुद्ध तथा शक्तिशाली लोगों की निजी ज़िंदगी के नखरे और नज़ाकत से लेकर उनकी हर अदा और आदतों की खिड़की खोल दी थी। ऐसे कार्यक्रमों की लोकप्रियता इसलिए ज़्यादा बढ़ गई क्योंकि आम दर्शकों को वो चटकारा भरी चीज़े, वो नायाब बातें और कहानियां देखने और सुनने को नहीं मिलती थी। पूरी दुनिया में इसी तरह के कार्यक्रमों का क्रेज़ है। लोग हर नामचीन हस्ती की ज़िंदगी के उन अनछुए पहलुओं को ऐसे शो के ज़रिए देखना चाहते है जो उन्हें आमतौर पर देखने को नहीं मिलता। इसी शो के ज़रिए नई प्रतिभाओं का चयन होता है। भारतीय टेलिविज़न उद्योग में ये रियलिटी शो एक नया चलन हो गया है। कुछ लोगों ने कहा कि चलो इसी के बहाने कम से कम एकता कपूर की सुबक सुबकवादी कहानियों की अंतहीन पटकथाओं और उलूलजुलूल कारनामों से छूट तो मिली। दरअसल “क” शब्द का कहर इतना भारी पड़ने लगा था कि हर मध्यमवर्गीय परिवार के ड्राइंगरुम में आंसुओं की धार थमने का नाम नहीं ले रही थी। हमारे देश में हर खेल का एक मौसम, मिजाज और महत्व होता है। मगर भारत की जनता की सहनशीलता की पराकाष्ठा का आकलन करना काफी मुश्किल होता है और यही वजह है कि इतने पकाऊ और उबाऊ धारावाहिकों के शो भी कई बरसों तक अपना जलवा बिखरेते रहते है।
भारत में सबसे पहले चैनल वी ने नई प्रतिभाओं का शिकार करने (टैलेंट हंट) का बीड़ा उठाया और वहां से जो कौन बनेगा करोड़पति ने लोकप्रियता का झंडा गाड़ा उसके बाद तो ऐसे शो की बाढ़ सी आ गई। मगर हैरानी वाली बात ये थी कि तकरीबन 90 फीसदी ऐसे रियलिटी शो दरअसल चुराए हुए थे या सीधे नकल का नगीना थे। उसके बाद आया साइरस बरुचा का एमटीवी बकरा जिसका अपना अलग ही माहौल और अंदाज़ था। उसकी हैरतअंगेज अदाएं और बकरा बनाने की तरकीब काफी लोगों को पसंद आई। उसका हिन्दी विकल्प बना सारेगामापा जैसे भारतीय संगीत की मिठास की चाशनी में डूबी और नए नए गायकों की फौज ने जनता का मन मोहा। अब इसी क्रम में आगे चला आया राहुल दुल्हनियां ले जाएगा और वो भी हमारे दर्शक झेल रहे हैं। अब उसे कौन समझाए कि ससुरा अपनी ज़िंदगी में एक दुल्हनिया को संभालने की बजाय उसे दुलत्ती मारकर भगा दिया और फिर वही काम शाही अंदाज़ में करने चला आया। अब तो इस देश की जनता ही बताए कि भैया ये कैसी रियलिटी है। अगर ऐसा होता तो हर गली नुक्कड़ पर ऐसी दुल्हनों की फौज खड़ी नहीं मिलती। और हरियाणा तथा पंजाब जैसी जगहों में मर्द-औरत का अनुपात तो काफी कम हो गया होता। अगर ऐसा होता तो देश के सबसे खूबसूरत कुंआरा नौजवान राहुल गांधी के सामने जनता कई इंद्र की परियों से लेकर गांव या गिरिजनों वाले इलाकों की सबसे कमसिन और कटीली दुल्हैया लाकर न खड़ा कर देते और राहुल भैया शादी भी कर लेते। पर उनको भी पता है कि रियलिटी शो की लौ में जलती, उछलती और हर तरह की हरकत करती अप्सराओं का जलवा असल ज़िंदगी में कितना ज़ोखिम भरा और जी का जंजाल हो सकता है। अगर वास्तविकता ही दिखानी है तो वही सही तरीका अपनाया जाए लेकिन जब काल्पनिकता की शराब वास्तविकता के सोडे में मिलाकर पेश की जाती है तो कई लोग इसकी असल सूरत और पहचान को समझने में धोखा खा जाते हैं। हर चैनल में आए “ये सच है” कि सीरियलों की बाढ़ और इस तरह के रियलिटी शो से कई नई प्रतिभाओं को समाज के सामने आने का मौका भी मिला है। संगीत से जुड़ी नई प्रतिभाओं की खोज काफी हद तक कामयाब भी रही है। यहां तक कि सच का सामना जैसा कार्यक्रम भी अपनी जगह अनोखा है। इन शो के ज़रिए जनता भरपूर मज़ा लेती है। अपने चहेते अदाकारों और फनकारों को उठाने या गिराने में ऑनलाइन या प्रत्यक्ष वोटिंग के अस्त्र का इस्तेमाल भी करती है। मगर ऐसा भी देखा गया है कि कभी-कभी गलत विजेताओं को चुनने के लिए भी ये हथकंडा अपनाया जाता है और सामने बैठी जनता मन मसोस कर रह जाती है। कभी-कभार भयावह स्थिति तब पैदा हो जाती है जब प्रतियोगिता से हटाए जाने के समय प्रतियोगी अपनी प्रतिक्रिया अप्रत्याशित ढंग से व्यक्त कर देते हैं।
कुछ समय से इन शो की खुली तौर पर आलोचना इस आधार पर होने लगी है इसके प्रणेता या प्रस्तुतकर्ता ऐसे औचक और भौचक रियलिटी शो के नाम पर जनता की भावनाओं से खिलवाड़ कर बैठते हैं। मगर अपनी तिज़ोरी नोटो से भर लेते हैं। ये भी कहा जाता है कि इन शो में भाग लेने वाले प्रतियोगियों को अपनी प्रतिभा का सही तरीके से इस्तेमाल का मौका दिए जाने के बदले उनसे एक ख़ास किस्म के करार के कानून में बांध दिया जाता है और इसी प्रक्रिया में कभी-कभार गुड़ गोबर भी हो जाता है। इससे भी बड़ा सवाल इस बात पर उठाया जाता है कि किसी ख़ास प्रतियोगी को प्रतियोगिता से बाहर करने की प्रक्रिया या मापदंड अपनाए जाते हैं वो कितने सही या गलत है। एक और बीमारी जो अक्सर देखने को मिलती है कि ऐसे शो में बुलाए गए कई विशेषज्ञ या जज ऐसे लोग होते हैं जिनकी अपनी विश्वसनीयता भी शक के दायरे में होती है और उस पर उनके मुखारविंद से फूटते कमेंट्स इतने फूहड़ और सतही होते हैं कि उठकर सीधे उनके गाल पर झन्नाटेदार तमाचा रसीद करने का मन करता है। प्रतियोगियों को शालीनता के दायरे में रहकर उनको कभी समझाने के बदले उनके व्याकरण इतने तीखे और तेज़ होते है कि कइयों को रोना आने लगता है और कई हतोत्साहित भी हो जाते हैं। बहुत कम जज या विशेषज्ञ ऐसे दिखे जो अपनी वाणी या विचार में शालीनता और मर्यादा रखते हैं। दरअसल भारतीय समाज काफी भावुक होकर इन शो को देखता और अक्सर उनमें डूब जाता है। रियलिटी शो के रचनाकार उनकी इसी कमज़ोरी को अच्छी तरह जानते हैं और किसी दूसरे देश से चुराए गए शो को हिन्दी का लिबास बनाकर धड़ल्ले से रातों रात करोड़ों का कारोबार कर डालते हैं। मिसाल के तौर पर कौन बनेगा करोड़पति या इंडियन आइडल ब्रिटिश रियलिटी शो से सीधे टीप लिए गए थे। फिर भी लोकप्रियता के आसमान पर काफी समय तक टिके रहे। संगीत से संबंधित ऐसे कार्यक्रमों में श्रेया घोषाल से लेकर कुणाल गांजेवाला, सुनिधि चौहान, अनुष्का से लेकर अभिजीत सावंत जैसो की ज़िंदगी रातों-रात बदल डाली और उन्हें दर्शकों का चहेता बना दिया । एक तरफ राजू श्रीवास्तव, सुनीलपाल से लेकर एहसान कुरैशी तक की लोकप्रियता चंद दिनों में आसमान छू गई तो दूसरी तरफ राखी सावंत से लेकर राहुल राय, अनुपमा वर्मा, इस्माइल दरबार और बाबा सहगल जैसे लोगों के सितारे गर्दिश से वापस आ गए। लेकिन इसका एक पहलू ये भी है कि टीआरपी तथा एसएमएस के खेल के बावजूद कुछ नामी-गिरामी अभिनेत्रियों द्वारा संचालित रियलटी शो पर पानी फिर गया। मिसाल के तौर पर सोनी टीवी पर माधुरी दीक्षित का कही न कहीं कोई है, नीना गुप्ता की कमज़ोर कड़ी कौन(स्टार प्लस) तथा ज़ी टीवी पर जीतो छ्प्पर फाड़ के टूटे तिनके की तरह हर तरफ बिखर गया।
ऐसे शो का सबसे ज़्यादा चर्चित और चमत्कृत पहलू रहा वोटिंग पद्धति जिसके ज़रिए राख को ख़ाक और रंक को राजा बनाने का सिलसला शुरु हुआ। यहां तक कि ऐसे चमत्कारी शीशे से प्रख्यात गायिका लतामंगेशकर भी कुपित होकर बोल पड़ी कि ऐसे शो की चयन प्रक्रिया एक तमाशे के सिवा कुछ नहीं है. उनका कहना काफी हद तक सही भी है क्यों किसी कलाकार की गायन प्रतिभा कम मगर उसके राज्यों के लोगों द्वारा भेजा गया लाखों एसएमएस उसके विजेता होने का तमगा होता है। तो क्या ये मान लिया जाए कि इन संगीत प्रतियोगिताओं में एसएमएस वोटिंग करने वाले सारे तानसेन की औलाद है जिनको ये बखूबी मालूम है कि खरज, पंचम और सप्तक में क्या फर्क है और आरोह-अवरोह क्या बला है तो फिर सबके सब ये भी जानते होंगे कि राग मालकोस मीयां की मल्हार से कितना अलग है। राग विहाग कब प्राती बन जाता है। राग झिंझोटी कब झिंगुर की झांय झांय हो जाती है। कैसे एक दो सुर के भटकाव से गाना रेकने में तब्दील हो जाता है। जब देश की पूरी जनता ही पूरी संगीत विशारद है तो फिर अधपके जजों का क्या काम। अमेरिकी राष्ट्रपति के चुनाव की तरह सीधे प्रतियोगियों की प्रतिभा का आकलन होना चाहिए। मगर इस आकलन के बदले में ये जानने को भी मिले कि किस प्रतिद्वंदी को कहां धकेला और किस चैनल ने दूसरे को कहा रेला। अन्य किस्म के रियलिटी शो में बिग बॉस सीरीज़ ने अपना झंडा तो गाड़ ही लिया है लेकिन इससे पहले नच बलिए और लिटिल चैंप ने भी कमाल कर दिखाया। इसके काफी पूर्व क्लोज़अप अंताक्षरी ने धूम मचाई थी। मगर सबसे ज़्यादा कोफ्त तब होती है जब न्यूज़ में रियलिटी शो घुसेड़ा जाता है और वो भी नाट्य रुपांतरण के तौर पर या फिर उसका अति नाटकीयकरण परोसकर। कभी गुड़िया की पंचायत दिखती है तो कभी किसी बुढ़िया की हिमाकत। मगर क्या ये रियेलिटी शो ज़िंदगी की वास्तविकता से कितनी दूर है इस पर शायद बहुत कम लोगों ने संजीदगी से सोचा होगा। विदेशों से आयातित रियलिटी शो का आगमन तो हो गया मगर उसका अभी तक पूर्ण रुपेण भारतीयकरण नहीं हो पाया है। ये कौन यर्थाथ है जिसमें लाखों की लागत से सेट बनते हैं। लाखों-करोड़ों की लागत से बने खूबसूरत पुरुष और महिलाएं कनफोड़वा संगीत और चकाचौंध की रोशनी में शास्त्रीय राग अलापते हैं या फिर अभिनय प्रतिभा की परीक्षा देते हैं और उस पर तुर्रा ये कि दिनरात कार्यक्रम का प्रचार और एसएमएस वोटिंग की अपील करते हैं। यदि रियलिटी शो दिखाना ही है तो गांव में जाओ, गोबर के ढेर के बगल में या पीली सरसों के बीच में सेट लगाओं और गांवों की बिखरी सच्चाई के बीच से कोई नया हीरा ढूंढकर लाओ। रियलिटी शो में ये भी दिखाओं की देश का असली चेहरा क्या है। यर्थाथ ये भी है कि छत्तीसगढ़ और आंध्र प्रदेश में रहते लोग एक तरफ सरकारी दमनतंत्र और दूसरी और नक्सली आतंक के साए में जीने को मज़बूर है।
महाराष्ट्र के विदर्भ में आत्महत्या करते किसानों के रिश्तेदार किस ह्रदयविदारक विपन्नता में जी रहे हैं ये सब चीज़े रियलिटी शो में क्यों नहीं दिखाई जाती। क्या ये कड़वा सच नहीं है कि हमारे देश में आज भी दो करोड़ से ज़्यादा बच्चों के पढ़ने के लिए स्कूल नहीं है। अब भी तीस करोड़ से ज़्यादा लोगों को भुखमरी, निरक्षरता से निजात नहीं मिली है। क्या ये यर्थाथ नहीं कि अभी भी देश में पच्चीस करोड़ लोगों की पहुंच अस्पताल तक नहीं है और दवा दारू की सुविधा नही मिल पा रही । देश में अब तक 12 करोड़ से ज़्यादा महिलाएं और बच्चे खुली जगह पर शोच करने के लिए मजबूर है। पांच से दस वर्ष की उम्र वाले 51 फीसदी बच्चों को संतुलित आहार नसीब नहीं होता। कम से कम 14 राज्यों में 52 फीसदी प्राइमरी स्कूल में पढ़ रहे बच्चों को प्रति क्लास एक मास्टर भी नहीं मिलता। क्या ये सच्चाई नहीं कि देश में रहने वाले तीन करोड़ लोगों के सिर पर छत तक नहीं है। फिर रियलिटी शो में इन हक़ीक़त को जगह क्यों नहीं दी जाती। दुनिया में सबसे बड़ा लोकतंत्र का दावा करने वाले देश के लिए इससे बड़ी रियलिटी और क्या हो सकती है। फिर इस पर शो क्यों नहीं।
ये शायद इसी देश में हो सकता है कि राष्ट्रपिता महात्मा गांधी के साथ गांधीगीरी शब्द को हास्यास्पद बनाकर जोड़ा जाता है और उसी राष्ट्रपिता को यू-ट्यूब के ज़रिए भौड़े तथा फूहड़ अंदाज़ में तीन टीवी चैनलों पर दिखाया जाता है। किसी और देश में अपने राष्ट्रपिता के साथ ऐसा सुलूक राजद्रोह से कम नहीं माना जाएगा। ये तो ऐसा लगा कि जैसे किसी नालायक औलाद ने अपने ही बाप को अश्लीलता के कठघरे में लाकर खड़ा कर दिया हो। क्या कोई अमेरिकी नौजवान लिंकन या वाशिंगटन के साथ ऐसा सुलूक होते देखकर ताली बजाएगा। क्या पाकिस्तानी लोग मोहम्मद जिन्ना को तवायफखाने में जाते देखकर कसीदा पढ़ेंगे। मगर हम हिंदुस्तानियों का क्या, हम लोगों का दिल बहुत बड़ा है जो अक्सर दिमाग़ बंद कर भावनाओं के समुद्र में बह जाता है। यहां किसी को भी रियलिटी यानि यर्थाथ की बात याद नहीं रहती। कुलमिलाकर भारत की जनता ऐसी गाय है जिसे चारा खिलाने की जगह लात भी मारो तब भी दूध देना बंद नहीं करती और ये गुरुमंत्र रियलिटी शो के रचने वाले अच्छी तरह जानते हैं। तभी तो कहते हैं कि सौ में से नब्बे बेइमान फिर भी मेरा भारत महान और यही है रियलिटी शो का गुणगान।
रविवार, 21 फ़रवरी 2010
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