रविवार, 4 जुलाई 2010

एस.पी.सिंह की याद

हिंदी पत्रकारिता के इतिहास में यूँ तो कई चमकते सितारे अपनी रौशनी बिखेर गए मगर एस.पी.सिंह की बात ही कुछ और थी / वो एक आला सहाफी होने के अलावा उतने ही कद्दावर इंसान और युगद्रष्टा थे. टेलीविजन पत्रकारिता के वे जनक थे. फितरत से राजा मगर हमेशा एक आदमी की सोच को जितनी बारीकी से समझने की क्षमता उनमें थी वो शायद आज के दौर में किसी भी मूर्धन्य पत्रकार में नहीं दिखाई देती.

मैं ये तो नहीं दावा कर सकता की उनके बहुत करीबी लोगों या दोस्तों में से था क्योंकि मेरा उनका संबंध आजतक से ही जुड़ा और वहीँ पर ही खत्म हो गया. आजतक के दौर में हर वरिष्ठ पत्रकार अपने आस-पास चम्पूओं और चाटुकारों की फौज रखना लाजमी समझता है क्योंकि ये किरदार उसके खेल और जुगाड़ की दुकान ही चलाने में ही काम नहीं आते बल्कि उसका अपना तिलस्म सोंच की परिणिति तथा गोल या खास महकमा को बनाकर यथाविधि महिमा मंडन या विलाप को भी अंजाम देने में काफी कारगर हथियार के रूप में इस्तेमाल किया जाता है.

स्वर्गीय सुरेन्द्र प्रताप इन चोंचलों,चमचा, कलछा और बेलचा की फौज की सोच और समझदारी से काफी ऊपर थे. उनकी सबसे बड़ी और अनोखी शख्सियत की पहचान और रंगबत थी - बेदाग़ छवि एवं बड़ा कद. मुलाजमत की मजबूरी और ज्याती रिश्तें के बीच उन्होंने कभी समझौता नहीं किया. इसलिए उनके दर्शक और सहयोगी - दोनों उनके ईमानदारी और बेबाकी के कायल थे. लफ़्ज़ों की लज्जत और ख़बरों में छुपी सच्चाई को परखने की उनमें अदभुत क्षमता थी और उसके लिए वो कभी समझौता नहीं करते थे. इस बात को मैंने खुद कई बार महसूस किया. यहाँ तक कि अगर पीटूसी में भी एक लफ्ज़ गलत चला जाए तो वो पीटूसी काट दिया करते थे. मैंने अपनी पीटूसी में एक बार जानवर के बदले दरिंदा लफ़्ज का इस्तेमाल कर दिया तो वो भड़क उठे और वो खबर तब तक नहीं चलने दी जब तक मैंने सही लफ़्ज़ों का इस्तेमाल नहीं किया. शब्दों की मार या लफ़्ज़ों की सही लज्जत के बारे में असली मुहर लगाने वाला आज कोई नहीं दिखा.

जहां तक खबरों के पीछे की खबर की बात है तो उसमें वो अद्वितीय थे. रिपोर्टर चाहे कितनी भी दिमागी कसरत कर ले. मगर वो किसी खबर को महज दो वाक्यों में समझना चाहते थे. और खबर तभी होती है जब वो दो वाक्यों में समझ आ जाये. उनकी सोच बड़ी ही साफ़ थी. वो कहते थे एक आम आदमी को सीधे साफ़ लफ़्ज़ों में अगर खबर समझा दो तो तुम रिपोर्टर या संवाददाता हो, टेलीविजन इसी का नाम है. इसमें जनता तस्वीर देखना चाहती है. इसमें कोई आडम्बर या भूमिका का उतना महत्व नहीं. आजतक की खबरों का चुनाव और भाषा इसलिए अलग रही क्योंकि उसमें एस.पी की अपनी सोच और किरदार साफ़ दिखाई देता था. शायद इसी वजह से शिवसेना प्रमुख ने सभी शिवसैनिकों को रात के दस बजे आजतक नियमित रूप से देखने का फरमान जारी कर दिया था.

अगर सुबह 6 बजे फोन की घंटी बजी तो अक्सर वो एस पी का ही फोन होता था. सिर्फ दो वाक्य " अरे अजय फलानी खबर पक गयी सी लगती है. दोपहर अपलिंक कर देना।.. और वाकई में उस पकी खबर को वो अपने अंदाज़ में आजतक पर परोसते थे तो दर्शक उनके कायल हो जाते थे. ऐसा ही एक वाक्या था- प्रधानमंत्री देवगौड़ा और रामकृष्ण हेगड़े के बीच की तनातनी. मगर गौड़ा महाशय अपनी जुबान खोलने को तैयार नहीं थे. सारी कोशिशें बेकार होती दिखाई दे रही थी. मैंने अपने हमनाम साथी स्वर्गीय अजय चौधरी से अपनी मुश्किल बताई तो वो हंस कर बोले अरे बाबा बॉस से ही बात कर लो. क्या पता,कोई नया नुस्खा निकल आये.

खैर मैंने उन्हें फोन किया तो वो हंसने लगे और कहा अजीब अहमक हो यार तुम इतना भी नहीं कर सके. तो मैंने उन्हें पूरी बात बताई और कहा की वो हेगड़े के नाम पर तो गौड़ा महाशय माइक तोड़ कर चले जाते हैं और आपको ये खबर हर हाल में चाहिए. फिर क्या करूँ? इसी बीच किसी ने उनके कान में आकर कहा की कश्मीर के अनंतनाग में बवाल हो गया है और कई लोग फायरिंग में मारे गए. एक मिनट बाद उन्होंने वापस फ़ोन कर कहा " कल शाम को जैसे ही गौड़ा बंगलौर हवाई अड्डे पर उतरे तो सीधे उसके पास चले जाना। शुरुआत अनंतनाग से करना और बाद में जोर-शोर से बोलना शुरू कर देना कि हेगड़े बड़ा ही अच्छा नेता है. फिर गौड़ा महाशय कुछ गुल अवश्य खिलाएंगे और सब कुछ रिकॉर्ड कर लेना.

कमाल की सोंच थी ये. मैंने दूसरे दिन वैसा ही किया. आते ही गौड़ा जी के ऊपर अनंतनाग पर सवाल दागा. मगर बात उनके पल्ले नहीं पड़ी. वो कश्मीर के अनंतनाग के बदौलत जे.एच.पटेल मंत्रिमंडल के सदस्य तथा फिल्म अभिनेता श्री अनंतनाग पर बरस पड़े कि नालायक है अनंतनाग. दारु पीकर टुन्न रहता है. काम-काज कुछ नहीं करता. बुलाओ उसको.मैं अभी उसकी वाट लगाता हूँ.

मैंने फौरन राम कृष्ण हेगड़े का स्तुतिगान शुरू कर दिया. फिर क्या था. गौड़ा जी ने ऐसी लच्छेदार गालियों से हेगड़े को नवाजा कि मैं सन्न रह गया. शाम को एस.पी को फोन किया कि सब रिकॉर्ड तो हो गया, मगर जितनी गालियाँ दी है,उसका क्या करूँ, वो तो खबर में नहीं जा सकती. एस.पी बिगड़ गए. बोले यार मैंने तुम्हे उस पर तरस खाने के लिए थोड़े ही कहा है। याद रखो,तुम संजय हो,युद्धिष्ठिर या भीष्म नहीं। सारे बाइट्स का कन्नड़ से हिन्दी में अक्षरशः अनुवाद करके भेजो।

दूसरे दिन जब आजतक पर खबर चली तो हंगामा मच गया। मैंने फिर एस पी को फोन किया कि यहां तो लोग मेरा बुरा हाल कर देंगे। तो उनका जवाब था-"बस डटे रहो। भारत की जनता भी तो अपने गिरेबान में झांककर देखे कि किसके हाथ में सत्ता की बागडोर सौंपी है।"

ऐसा ही एक बार तब हुआ जब कोजेंट्रिक्स परियोजना पर गुस्से में तत्कालीन प्रधानमंत्री ने अपना कुर्ता निकाल फेंका था और श्रीमती मेनका गांधी को खरी-खोटी सुनाई थी। पर एस पी कहां माननेवाले थे। आजतक में वही खबर जस की तस चल गयी। फिर बवाल हुआ। तत्कालीन सूचना मंत्री सी.एम.इब्राहिम ने मुझे बंगलोर से हटाने तक की मांग कर डाली। मगर एस पी ने साफ इनकार करते हुए कहा कि ये संभव नहीं है। ऐसा संपादक आज के दौर में कहां मिलता है जो अपने एक संवाददाता के लिए अपनी कुर्सी तक दांव पर लगा दे। जब तक वो रहे,आजतक में काम करने का अलग ही उमंग और मजा था
एस.पी की एक और खास बात थी बच्चों जैसा भोलापन और सरलता। सन 1997 के आसपास जब उनको लगने लगा कि उनके नाम पर उनके दफ्तर के कुछ लोग अलग खेल करने लगे हैं तो वो बिफर पड़े और कहा कि आगे से सीधे मुझे सेल पर बात कर लिया करो। इसके अलावा कुछ नहीं सुनना।

मैं तमिलनाडु में चुनाव कवर करने गया था जो उनका फरमान था। एसाइनमेंट के आकाओं को ये बात नागवार गुजरी। एक-दो नए पिल्लों ने कुछ खुराफात भी की। मुझसे ये बर्दाश्त नहीं हुआ तो साफ कह दिया कि “मेरे अलावा सिर्फ अजय चौधरी से बात करना।” तमिलनाडु के चुनाव में DMK के द्वारा दो लाख साइकिलें बांटने की ख़बर पर वो मचल पड़े और बोले “मित्र बड़े अच्छे विजुअल्स हैं। मगर क्या ऐसा नहीं हो सकता कि वहां हर दो साल पर चुनाव करवाया जा सके?” मैं और अजय चौधरी दोनों अवाक् रह गए कि ये क्या बोल रहे हैं? फिर हिम्मत करके मैंने पूछा- इसकी कोई खास वजह? तो हंसते हुए बोले-“यार इसी बहाने दो-तीन लाख लोगों को साइकिल तो मिल जाया करेगा। क्या बुराई है इसमें? नेता लोग इसी बहाने अपने खीस से कुछ पैसे तो ढीला करेंगे?”

एस पी का सबसे बड़ा बल और उनकी कमजोरी भी थी साफगोई। उससे आगे वो किसी की भी नहीं सुनते थे। बनावट से वो नफरत करते थे। सलीके के घोर समर्थक थे। यहां तक कि PTC के साथ वीओ में भी किसकी आवाज किससे मिलती है इसका वो पूरा ख्याल रखते थे। इसलिए मेरी रिपोर्ट में वीओ अक्सर मृत्युंजय कुमार झा ही करते थे। सन् 1996 में बैग्लोर में हुए विश्व सुंदरी प्रतियोगिता में मेरी रिपोर्ट काटने तथा वीओ करने का काम दिबांग को सौंपा गया था। इससे काफी लोग नाराज भी हुए। मगर एस पी का निर्णय अटल था और दिबांग ने उन तमाम रिपोर्टों के साथ वाकई न्याय किया।

एस पी अपने सहकर्मियों की भावनाओं तथा संवेदनाओं का काफी ख्याल रखते थे। इसकी सबसे बड़ी मिसाल तब देखने को मिली जब आजतक के एक सहकर्मी के साथ कांशीराम ने दुर्व्यवहार किया था। एस पी और डॉ प्रणय राय को एक साथ राजपथ पर उतरते लोगों ने पहली बार देखा था।

मैंने तो इसे और करीब से जाना जब विश्व सुन्दरी प्रतियोगिता पर रिपोर्ट करने के दौरान आजतक की मालकिन मधु त्रेहन से मेरी कहा-सुनी हो गयी और मैंने तकरीबन सोच लिया था कि अगले दिन से काम पर नहीं आउंगा। वैसे भी मैं थोड़ा गुस्सैल था। ये बात कुछ लोगों ने उनके कान में डाल ही रखी थी। मगर जब एस पी को पूरी बात मालूम पड़ी तो वो बड़े नाराज हुए। पहले तो मुझे डांट लगायी कि उनको ये बात क्यों नहीं बतायी गयी? बाद में जाकर वो मधु त्रेहन से लड़ गए और कहा कि “अजय झा डोबरमैन है। वो एक ही कमांड सुनता है। आज से या तो मधु त्रेहन ही आजतक चलाएंगे या फिर मैं।” और वो शाम को अपना बैग लेकर दफ्तर से निकल गए थे। उस दिन के बाद से मधु त्रेहन ने आजतक में कोई दखल नहीं दिया।

ऐसा ही एक वाक्या था- सारे ब्यूरो चीफ की मीटिंग थी। आजतक के मालिक ने , आस्ट्रेलिया से कुछ एक्सपर्ट बुलाया था जो हमलोगों को टेलीविजन न्यूज की बारीकियां समझाए। मैं,अजय चौधरी,विजय विद्रोही,मृत्युंजय झा,राकेश शुक्ला,मिलिंद खाण्डेकर आगे बैठे हुए थे। दोपहर तक हमलोग उबने लगे थे। मिलिन्द ने एक चिट एस पी को भेज दिया कि हमलोग बाहर भागने के मूड में हैँ। उसी चिट पर उनका जवाब आया “लाला ने लाखों रुपये खर्च कर ये ताम-झाम लगाया है। चूतियापा मत करो। कल सूद समेत वापस चुका लेना।”

दूसरे दिन हमलोगों को कुछ और गुर सिखाए गए। हमलोग पके तो पहले से ही थे। हमलोगों ने अपनी मंशा एस पी जाहिर कर दी। वो मुस्कराकर बोले- “हद से बाहर नहीं जाना।” फिर हमलोगों ने आस्ट्रेलियाई टीम को दिल्ली की नयी सड़क से लेकर गफ्फार मार्केट में न्यूज कवरेज का वो जलवा दिखाया कि सब त्राहि-माम। शाम होते-होते बेचारे हमारे एक्सपर्ट धाराशायी। मालिक ने एस पी से शिकायत की- “तुम्हारे लड़कों ने मेहमानों के साथ बदसलूकी की। सारे बदहवास हैं। कुछ बीमार भी पड़ गये। ये क्या तरीका है?”

एस पी इसी का इन्तजार कर रहे थे। उन्होंने मालिक से दो टूक कह दिया-“हमारे बच्चों को ये सब सिखाने की जरुरत नहीं। वो अपना काम जानते हैं। केनवरा का मॉडल चांदनी चौक में नहीं चलता है। ऐसे निठल्लों को बाहर से बुलाकर भाषण दिलवाने से बेहतर है कि आप इन बच्चों की तनख्वाह बढ़ा दें। बाकी सबकुछ ये खुद ही संभाल लेंगे।”

शाम को जब हमलोग अशोक यात्री निवास वापस आये तो सबका मूड अलग था। बाद में अजय,मृत्युंजय,जे पी दीवान भी चले आये और फिर खाने-पीने की महफिल जम गयी। दूसरे दिन जब हमलोग विदा होने लगे तो कहा गया कि बियर - शराब का पैसा मालिक नहीं देंगे। बात फिर एस पी तक पहुंची। फिर उनका होटल मालिक का फोन आया कि वो सारे पैसे भिजवा दिए जाएंगे। बच्चों को जाने दिया जाए।

ऐसी दिलेरी,ऐसा अंदाज और ऐसे तेवरवाला पत्रकार शायद ही फिर देखने को मिले। एस पी सबसे बड़ी नियामत ये रही कि वो मरने के बाद भी अपनी पहचान और शक्ल एक-दो पत्रकारों को दे गए। एस पी का अंदाज-ए-बयां और वांकपन आज भी दोहराता है कि-

तुझसे बिछड़ा भी मैं तो ऐ दोस्त याद रख
चेहरे पे तेरे अपनी नजर छोड़ जाउंगा

ग़म तो होगा सबको,पर सबका ग़म होगा जुदा

ना जाने कितने दीदये-तर छोड़ जाउंगा.

एस पी की याद से ही आज भी आंखें बेसाख्ता लवरेज हो उठती है।..

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