शुक्रवार, 14 मई 2010

भेड़चाल में भगदड़

मीडिया पर अचानक लगाए जा रहे कई तरह के आरोपों में भले ही अतिश्योक्ति की बू आ रही हो मगर उन आरोपों के कुछ बिंदुओं में सच्चाई की सुई भी शामिल है। कई लब्ध प्रतिष्टित विद्वानों तथा चितंकों ने मीडिया और खास कर इलेक्ट्रानिक मीडिया के आक्रामक तेवर से लेकर छोटी सी खबर को भी तिल का ताड़ बना देने के बड़ती मनोवृति पर ब्रज प्रहार करना शुरू कर दिया है। कुछ एक लेखों में लेखकों की खीझ साफ दिखाई दे जाती है तो कहीं, किसी लेखक के दिल में उस मीडिय का हिस्सा नहीं बन पाने और दोपहर में भी चौदवी का चांद की तरह नहीं चमक पाने की टीस और दर्द भी दिख जाता है।



मगर इसमें कोई दो राय नहीं कि खबरों की होड़ में अपने आप को हमेशा आगे रखने तथा अपने प्रतिद्वंदियों से एक कदम आगे निकल जाने की ललक में कभी कभार मजे हुए पत्रकार और नामचीन चैनल भी गुड़ गोबर कर देते हैं।



अखबारों की तुलना में खबरिया चैनलों का रवैया और रस्मों रिवाज कुछ मुख्तलिफ है। आमतौर पर अखबारों की सुर्खियां अलग-अलग होती है और उन खबरों पर तफ़सरा और तज़करा का मयार भी काफी अलग दिखता है। कुछ एक अखबार खबरों के पीछे की खबर को भी बड़ी शालीनता और समन्वय भाव से पेश करते हैं क्योंकि उनके लिए पाठकों का विश्वास ही मूल मंत्र और महामंत्र होता है।



मगर खबरिया चैनलों के चंडूखाने में अजीबोगरीब आलम देखने को मिलता है। वहां के तहज़ीबो रवायत से लेकर खबरों की समझी-नसामझी, खबरों को सेकने, पकाने और तानने का अंदाज से लेकर परोसने तक की बारीकी के कई पहलुओं पर गर्मागरम बहस होती है और फिर आखिरी रणनीति बनती है। हर चैनल उसी वक्त में उसी खास खबर पर हर तरह से अपनी विश्वसनीयता से लेकर नीयत और नियामत का झंडा गाड़ने पर आमादा हो जाता है और इसी क्रम में जो तिकड़म से लेकर तिलिस्मानी तीरंदाजी की कवायद शुरू होती है वो कहीं बचकानी सी लगती है तो कहीं बेमानी भी। कभी रिपोर्टर का अति उत्साह और ‘सबसे पहले मैं’ के साथ ‘अहम् ब्रह्मस्मि ‘ का दंभ उसे मजाक का पात्र बना देता है तो कभी खबर की चाशनी पूर तरह तैयार होते होते एसाइनमेंट हेड की हेकड़ी की भेट चढ़ जाती है

खबरचियों की टीम अगर खुदा न खास्ता इंडिया गेट के लॉन या विजय चौक पर बैठी हो तो फिर कहना ही क्या? एसएमएस का एक उल्कापात किसी कोने से आया और पल भर में ही जनवरी में बहती सर्द हवा की तरह सब खबरचियों को सून्न करता चला गया। मानो बिजली कौंधी और उसी गति से चैनलों के सेनापतियों की नींद या फिर उनके विवेक को भी झकझोर गई। उसके बाद जो ‘लाइव’ या फोनों का दौर चलता है, युद्ध स्तर पर ओवी मगाई जाती है और जो अन्य कई हैरतअंगेज करतब देखने को मिलते हैं उससे लगता है मानो धरती आज ही फट जाएगी।



खबरिया चैनलों की फौज में सुबह से शाम तक खबरों के समंदर में गोता खाते रिपोर्टर बेचारे क्या करें ? मगर उस फौज में भी कई ऐसे तुक्का वाले तीरंदाज होते हैं जो आए दिन अपने विरादरी के कई साथियों से मानो बदला निकाल रहे होते हैं। मिसाल के तौर पर स्टार न्यूज के एक ऐसे खबर्ची हैं जो अक्सर नार्थ या साउथ ब्लाक में महारत रखने का दावा करते हैं और गाहे-बगाहे खबरों के बावत एक दो ऐसे शगुफे छोड़ देते हैं जिसके चलते कई अन्य चैनलों के रिपोर्टरों को अपने आकाओं की गालियां सुनने को मिल जाती हैं। अक्सर ऐसी खबरें दस मिनट के बाद स्टार न्यूज से तो बाहर निकल जाती है मगर बाकी चैनलों के रिपोर्टरों के लिए मुसिबत का जंजाल बन जाती हैं और भेड़चाल की इस परंपरा में भगदड़ का बदस्तूर निर्वहन होता है। शायद ऐसे चंद ही पत्रकार हैं जो अपने आकाओं से ये कहने की हिम्मत रखते हों कि जब तक खबर की पुष्टि नहीं हो जाती और उसका किसी मंत्री विशेष या पार्टी प्रवक्ता से बाइट नहीं मिल जाती तब तक उसे नहीं चलाना चाहिए।



मगर अधिकांश खबरचियों को अपने आकाओं की हुक्मउदूली करने की हिम्मत नहीं होती और फरमान मिलते ही वो अपना लाव-लश्कर लेकर मैदाने जंग में कूद पड़ते हैं। मज़ेदार बात ये होती है कि जब तक और खबरिया चैनल इस खबर की पुष्टि करे और उसके लिए बाइट ढुढने निकले तब तक कोई और नया शगूफा छुट चुका होता है और फिर सर मुडाते ही ओले पड़ने की नौबत आ जाती है।



मगर कई ऐसे भी खबरिया चैनल हैं जो उसी शगूफे को ब्रह्म वाक्य मानकर उस पर फोनो या ओवी करने लग जाते हैं और जनता को राष्ट्र के नाम संदेश देने लगते हैं।



दरअसल ज्यादातर खबरिया चैनलों में सुबह के बुलेटिनों में पिछली रात अखबारों में छपी खबरों का ही जिक्र होता है और 80 फीसदी खबरे वहीं से टीप ली जाती हैं। उस पर से तुर्रा ये कि अगर किसी अखबार ने कोई ‘एक्सक्लूसिव’ खबर छाप दी तो ये एसाइनमेंट हेड के लिए अपने बीट रिपोर्टर को जलील करने के लिए एक नया अस्त्र मिल जाता है। ऐसा इसलिए होता है कि चैनल के चालकों और सेनापतियों की तिकड़ी का सक्रिय पत्रकारिता से खुद वास्ता ही नहीं रहा। उनका क्या ? उन्होंने 4 अखबार पढ़ लिया और 5 चैनल देख लिया और फिर उसके बाद जिस रिपोर्टर का जी चाहा, उसकी ही क्लास ले ली। कोई अफलातूनी अंदाज में चीखने लगता है तो कोई बंद केबिन में डांट पिलाता है। चैनल के सेनापति एयरकंडिशन केबिन में बैठकर फ्रूटचाट खा रहे होते हैं और बेचारे रिपोर्टर की नियति ये है कि वो दिल्ली की तपती गर्मी में अपने आकाओं की डांट खाए और उसके साथ अपने प्रतिस्पर्धी चैलनों से भी हमेशा दो कदम आगे रहे।



पिछले दिनों ही एक ऐसा वाक्या देखने को आया। एक खबरिया चैनल ने भरी दोपहर में गोला दागा कि चीन मुद्दे पर प्रधानमंत्री ने पर्यावरण मंत्री जयराम रमेश को फोन पर जमकर डांट पिलाई। फिर क्या था? मिनटों में बाकी चैनलों में भी वही राग अलापना चालू हो गया और संवाददाता गण अपनी बुद्धि और अनुभव के हिसाब से राष्ट्र के नाम संदेश देने लगे। भेड़चाल में ही भगदड़ की एक नई मिसाल थी। कुछ संवाददाताओं ने कसीदे कढ़े तो कुछ ने उनके मंत्रीमंडल से विदाई तक की बात भी कर डाली। मगर सच्चाई ये थी कि प्रधानमंत्री ने श्री जयराम रमेश को घर पर बुलाकर खरी खोटी सुनाई थी और फोन पर तो बात ही नहीं की थी।



कभी-कभार खबरों की तेज रफ्तार में ऐसी गलतियां हो जाती हैं और कई संजीदा चैनल मिनटों में ही अपनी भूल सुधार लेतें हैं मगर अति तब होती है जब किसी एक चैनल ने कोई अविस्मयकारी शगूफा छोड़ा और खबर ‘फोड़ा’ और उसके बाद मिनटों में बाकी चैनलों के सिपाही और सेनापति मीलो चले जाने में इजराइली सेना को भी पीछे छोड़ देते हैं।



एक्सक्लूसिव खबर की होड़ में चमत्कार से चूतियापा तक हर किस्म की खट्टी मीठी ताजी पुरानी और आड़ी तिरछी खबरों का बाजार ऐसे फटता है जैसे आईसलैंड की पहाड़ी से निकली ज्वालामुखी के आग और राख ने पूरे यूरोप के आसमान पर कब्जा कर लिया हो।



इसकी सबसे बड़ी मिसाल थी एक खबरिया चैनल के रिपोर्टर द्वारा श्रीलंका में रावण कब्र खोज निकालना। उस खास चैनल का रिपोर्टर श्रीलंका के उस खास गुफा के सामने खड़ा होकर चिल्ला रहा था की गुफा के अंदर रावण की ममी पड़ी हुई है और उसके दर्शक इसका मजा ले रहे थे।



मगर कई प्रतिद्वंदी चैलनों के न्यूजरूम में अलग ही माहौल था। कुछ एक चैनलों ने फौरन एक रिपोर्टर को कोलंबो उड़ाने की बात की तो कुछ एक ने वहां के स्थानीय चैनल से ‘फीड अपलिंक’ कराने की तैयारी की बात की। मगर सबसे हैरतअंगेज बात ये थी की उस खास चैलन के रिपोर्टर महाशय ने गुफा के अंदर जाने की जहमत नहीं उठाई। और उससे भी बड़ी हैरानी की बात ये थी कि बाकी चैनलों के सेनापति ने ये जानने की कभी कोशिश नहीं की कि रावण क्या मुसलमान या ईसाई था जिसकी क्रब उन्हें दिख गई थी?



हमारे ग्रंथों के अनुसार रावण एक ब्राह्मण था वो भी सतयुग में पैदा हुआ था। हमारी परंपराओं के अनुसार हर एक हिंदू का दाह संस्कार होता है तो फिर रावण का कब्र कैसे बन गया ? उन रिपोर्टर महाशय ने ये भी कह दिया कि उस गुफा के अंदर रावण का ममीकृत शरीर रखा था। सोचने की बात ये है कि क्या रावण मिश्र में पैदा हुआ था जहां के राजा फराओं की मृत्यु के बाद उनकी ममी बनाने की प्रथा थी?



काश, हमारे खबरिया चैलनों के चालक ‘कौआ कान ले गया की’ की प्रवृति को छोड़कर 2 मिनट संजीदा से सोचते और अपनी बुद्धि या विवेक से काम लेते। मगर होता ये है कि खबर की एक ‘चिंगारी’ फूटती है और मिनटों में ही पूर खबरिया चैनल समाज को अपनी लपटों में घेर लेती है।



उससे भी अजीबोगरीब नज़ारा तब होता है जब पर्व त्योहार के समय भी भेड़चाल में भगदड़ का मंज़र दरपेश आता है। अभी हाल में अक्षय तृतिया के अवसर पर सुबह-सुबह एक चैनल ने खबर दिखाई कि आज के दिन सोना खरीदना बड़ा शुभ होता है। फिर क्या था? चंद घंटों में ही कई चैनलों के ओवी बड़े-बड़े ज्वैलर्स के दुकानों के सामने लगा दिए गए और रिपोर्टरों से उस पर लाइव करने की हिदायत दी गई। कोई सोने का भाव बता रहा था तो कोई दुकानों की सुंदरता में कसीदे पढ़ रहा था तो कोई ग्राहक की प्रतिक्रिया ले रहा था तो कोई दुकान में आने वाली भीड़ का हाल बता रहा था।



इतफाक से मैं भी उस जगह से गुजर रहा था। जाने पहचाने रिपोर्टर को देखकर मैं रुक गया और पूछा कि ‘भाई किस खबर पर लाइव हो रहा है?’ उसने अपना दुखड़ा सुनाया, बेड़ागर्क हो इस एसएमएस परिपाटी का जो अच्छेखासे दिन को बिगाड़ देता है। कभी ये कमाल करता है तो कभी ये धमाल करता है और हम तो एक फटे ढोल की तरह हैं बजना हमारी मजबूरी है।‘



मैं हैरान था कि रक्षा और गृह मंत्रालय कवर करने वाले इस बेचारे को अक्षय तृतीया के त्रिकोण में कहा घुसेड़ दिया गया। कौतूहलताबश मैंने पूछ लिया ‘इस तिथि के महत्व के बारे में भी कुछ बता रहे हो क्या ‘ तो वो विफर कर बोला ‘अरे बॉस तिथि गई तेल लेने। आसपास कोई और रिपोर्टर नहीं था तो मुझे झोक दिया गया। अब जब यहां आ ही गया हूं तो 4 ग्राहकों की बाइट पेल दूंगा और दोपहर तक एक बढ़िया सा पैकेज रेल दूंगा फिर छुट्टी।‘



मैं हैरान था कि खबरों की दुनिया में क्या भेड़चाल का ऐसा नज़ारा भी देखने को मिल सकता है मगर यही सच था। और वो भी काफी अफसोसनाक।



खबरिया चैनलों में भेड़चाल की भगदड़ का सिलसिला जारी है। जैसे एक भेड़ गड्डे में गिरती है तो झुंड की सारी भेड़ें उसी गड्डे में जा गिरती है। बेचारी भेड़ों ने सपने में भी नहीं सोचा होगा की उनकी ‘भेड़चाल’ की नकल खबरिया चैनल करेंगे और बदले में रायल्टी भी नहीं देंगे। यदि भेड़ों की कोई ‘खाप महापंचायत’ होती तो इस पर जरूर बड़ा हंगामा होता। या फिर शायद भेड़ों ने सोचा होगा की छोड़ो जाने दो यार बेचारे खबरिया चैनलस टीआरपी के मायाजाल में ऐसे फंसे है कि उन्हें नकल करके ही असली बनने के ख्याली पुलाव में जीने दो।



खबरिया चैनल दूसरे न्यूज चैनल में ब्रेकिंग पट्टा पर उछलता देख बिना जांचे परखे ब्रेकिंग की नाच नाचने लगते हैं चाहे आंगन टेड़ा हो या चौकोना। भाई, जब पड़ोसी नाच रहा है तो पांव तो थिरकेंगे ही। फिर अगर ब्रेकिंग न्यूज की नाच में तुरंत नहीं उतरे तो पता चला टीआरपी की सारी ‘निछावर’ दूसरे न्यूज चैनल वाले मार ले जाएंगे। और टीआरपी न आने पर मालिकों के सामने ‘ब्रेक डांस’ करना पड़ेगा।





टीआरपी का डर अच्छे खासे संपादकों को भी भेड़ों का चरवाहा बना देता है। जैसे चरवाहा चाह कर भी गड्डे में गिर रही भेड़ों को नहीं निकाल पाता है, उसी तरह हमारे खबरिया चैनलों के संपादक अच्छा खासा ज्ञान और अनुभव रखते हुए भी भेड़चाल में मची भगदड़ से खुद को बचा नहीं पाते। जैसे धोबी नदी में कपड़े धोते समय प्यासा मरता रहता है पर नदी का पानी नहीं पीता, उसी तरह खबरों की नदी में खबरिया चैनलों के संपादक इस आस में प्यासे बैठे रहते हैं कि शायद भेड़चाल में मची भगदड़ में से ही कुछ टीआरपी लपकने का सामान निकल आए।

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