शनिवार, 29 जून 2013
मीडिया मैनेजमेंट
श्री मुलायम सिंह वाकई बहुत बड़े नेता हैं/ उनका मीडिया मैनेजमेंट भी उतना ही उम्दा है क्यों कि वो गलत विषय पर भी हमेश सुर्ख़ियों में रहते हैं/ हाल ही में राष्ट्रपति का चुनाव हुआ/ पहले उन्होंने पी ए संगमा के नाम पर ठप्पा लगाया/ जब गलती का एहसास हुआ तो कहा कि मतपत्र फटा हुआ है/ फिर दूसरा मतपत्र लेकर प्रणब मुकर्जी को वोट दिया और आखिर में उनका मतपत्र रद्द भी हो गया/ मगर उनका ये " अहीर झांझरा" वाला दाव कमाल का रहा और वो लगातार तीन दिनों तक
मीडिया के मुख पृष्ट पर बदस्तूर बने रहे/"
इसे कहते हैं मीडिया मैनेजमेंट/ आज कल यही हाल हमारी सहाफी जमात के कई रह्मुमाओं का है/ खबर को जानना, उसपर तप्सरा या तज्कारा करना, उसकी तारीफ़ या मजम्मत कर दीगर बात है/ वो तो हमोबेश सब भाई लोग करते ही रहते हैं/ मगर वोही चाँद लोग अपने लाला के दिलो-दिमाग पर रचे बसे रहते हैं जिनको ख़बरों को मैनेज करने का गुर और मुरब्बा दोनों आता है/ कई अखबारों और चैनलों में आप की यही कला आपको बाकी लोगों से बहुत ऊपर ले जाती है और ऐसे में खच्चर
भी सरपट रेस में दौड़ने वाला इनामी घोडा बन जाता है/
मगर ये कोई नयी बात नहीं है/ मसलन ये सिलसिला महाभारत के ज़माने से ही चला आ रहा है/ लड़ाई भले ही कौरव और पांडव के बीच लड़ी गयी हो मगर इस पूरे खेल के आयोजक और मीडिया मैनेजमेंट के प्रणेता भगवन कृष्ण ही तो थे/ उनके जैसा मीडिया मैनेजर आज तक कोई इस धरती पर पैदा ही नहीं हुआ/ महाभारत के अंत में इसका खुलासा युधिस्ठिर ने तब किया जब उनके बाकी चारो भाई स्वर्ग की यात्रा नहीं कर पाए थे/ आखिर तक ये बात भीम भी नहीं समझ पाए और स्वर्ग के इतने करीब होने के बाद भी वो स्वर्ग तक नहीं पहुँच पाए और पके बेल की तरह धम्म से गिर पड़े/
महाभारत की लड़ाई जीत लेने के बाद जब पांडवों ने द्रौपदी के साथ स्वर्ग की यात्रा आरम्भ की तो सबसे पहले द्रौपदी ही गिरी/ भीम बहुत निराश हुवे और युधिष्ठिर से कहाँ कि वो बिना द्रौपदी को लिए एक कदम आगे नहीं जायेंगे/ धर्मराज को गुस्सा आया और उन्होंने भीम से कहा कि भीम अपने कर्तव्य पर ध्यान दें/ बाकी सब माया है और मोह में फंसा हुआ आदमी आने मार्ग से अक्सर विचलित हो जाता है/ किसी तरह भीम मान गए और आगे चलते रहे. कुछ समय के बाद सहदेव और नकुल की भी बारी आई और वो भी गिर गए/ जब अर्जुन के गिरने की बारी आई तो भीम को रहा नहीं गया और उन्होंने युधिष्ठिर से साफ़ कह दिया कि" चाहे कुछ भी हो जाये मैं अर्जुन को नहीं छोड़ सकता /उसको कंधे पर ही सही मगर बिठाकर ले कर जायूँगा ही/ अर्जुन मेरा सबसे प्रिय भाई है/ पूरे महाभारत का यही तो हीरो है/"
धर्मराज क्रोध में आ गए और भीम से कहा" अब तक तुमने जितने सवाल किये मैंने सब का उत्तर दिया/ अब तुमको मेरे कुछ प्रश्नों का उत्तर देना होगा/ "
भीम ने कहा कि ठीक है/
धर्मराज का पहला सवाल था कि " उनके किस भाई तो दुर्योधन ने बचपन में ही ज़हर देकर नदी में फेंकवा दिया था?
भीम ने कहा " मुझे"/
दूसरा सवाल था : लाक्षागृह में आग लगने के बाद बहार निकले के लिए बंद सुरंग का दरवाजा किसने तोडा था?
भीम ने कहा: मैंने"/
तीसरा सवाल था: अज्ञात वास के समय कुंती और द्रौपदी को अपने कंधे पर बिठाकर कोसों दूर कौन ले गया था?
भीम ने कहा: मैंने
चौथा सवाल था: बकासुर से लड़ने के लिए माता कुंती ने अपने पांच पुत्रों में से किसको भेजा था?
भीम ने कहा: मुझे/
पांचवां सवाल था; द्रौपदी के ऊपर बुरी निगाह डालने वाले कीचक का वध किसने किया था?
भीम ने कहा: मैंने/
छठा सवाल था: महाभारत की लड़ाई में पांडवों का सेनापति किसको बनाया गया था?
भीम ने कहा: मुझे/
सातवाँ सवाल था: जरासंध को चीर कर किसने मारा था?
भीम ने कहा: मैंने/
आठवां सवाल था: दुर्योधन के बाकी ९८ भाइयों को एक एक कर किसने मारा था?
भीम ने कहा: : मैंने/
नौवां सवाल था; दुशाश्सन को मार कर उनकी छाती से रक्त निकाल कर द्रौपदी को किसने दिया था?
भीम का उत्तर था: मैंने/
दसवां सवाल: दुर्योधन को गदा युद्ध में हराकर किसने मारा था?
भीम ने कहा: मैंने/
इसी प्रकार युधिस्ठिर से कई और प्रश्न भीम से किया और हर बार भीम के मुंह के यही उत्तर निकलता था कि: मुझे या मैंने?
तब युधिष्ठिर ने भीम से कहा कि; इतने स्सरे कार्य तुमने अकेले कर दिखाया फिर भी महाभारत की जब भी चर्चा होती है तो सबसे पहले अर्जुन का ही नाम आता है और तुम और तुम्हारे रोल को कोई याद भी नहीं करता/ जानते हो क्यों?
भीम निरुत्तर थे/
धर्मराज बोले : मैं जानता हूँ कि अर्जुन ने एक मछली की आँख में तीर क्या मार दिया बस सबसे बड़ा तीरंदाज़ हो गया जब कि एकलव्य तो उससे कहीं आगे था/ अर्जुन ने सबसे बुद्धे भीष्म पितामह पर बाण क्या चला दिया, वो सबसे बड़ा योद्धा कहलाने लगा/ उसकी तुलना में तुम्हारा रोल कई गुना ज़यादे था मगर फिर भी आने वाली पीढ़ी तुमको बहुत कम ही याद करेगी/ जानते हो क्यों? फिर भी तुम अर्जुन के लिए बैचेन हो रहे है और इतना बड़ा हंगामा कर रहे हो/
भीम अव्वाक रह गए/
तब युधिष्ठिर ने कहा; अर्जुन की वाहवाही की वजह थी कृष्ण जी की शानदार मीडिया मैनेजमेंट/ वो पूरे महाभारत में जहाँ जिस रोल में रहते संजय से लेकर पूरी दुनिया के लोगों की नज़र उनपर ही रहती थी और उसी फ्रेम में हमेश अर्जुन पीछे दीखता था और पब्लिक के दिमाग में बैठ गया/ यही कारन था कि अर्जुन हमेशा " फ्रेम के बीच" में रहा और तुम हमेशा " आउट आफ फोकस" रहे और इतना सब कुछ करने के बाद भी तुम को कोई नहीं तवज्जो दे पाया/
अब भीम और हैरान हुए/
फिर धर्मराज युधिष्ठिर बोले: लेकिन इसके बाद भी तुम्हारा अर्जुन मोह टूटा नहीं/ लिहाज़ा अब तुम भी गिरोगे और मैं अकेला ही स्वर्ग जायूँगा... और वो चले गए !!
आज के संधर्भ में भी कुल मिलकर यही मंज़र हमारे सहाफी जमात में दिखाई देता है/ जो मोह में , अपने आत्म सम्मान की सुरक्षा और अपनी ऐठ या हेंकड़ी में फँस गए उनका हाल भीम की तरह हो गया और जो इन सब को त्याग कर अपने मालिक का दामन थाम लिया, बाकी हर अलहदा चीज़ को अपने"सिस्टम" से बहार निकाल कर फेंक दिया, वोही सिकंदर हो गए/
पूरी कहानी का लब्बो-लुबाब ये है कि आज कल के सहाफत के दौर में आप कितने काबिल है, कितना ज़मीर याफ्ता और कितने वक़ार और वसूक वाले हैं, ये सब गयी
तेल लेने/ इसकी कोई कीमत नहीं है/ आप किसी बड़े ओहदे पर तभी काबिज़ हो सकते हैं अजब तक आप अर्जुन नहीं बने और आप का कोई मीडिया मनेजर
न हो/ बात भले की बहुत कडवी है मगर सोलह आने सच है.. और ये सच है तो यही असली खबर है वरना सब बे-असर है/
चुनौतियाँ राहुल गाँधी की : ऊसर-बंज़र ज़मीन की टुकड़ियों में सूरजमुखी के फूल खिलने का सपना
20 जनवरी को जयपुर में हुयी अखिल भारतीय कांग्रेस कमेटी की बैठक में श्री राहुल गाँधी को उपाध्यक्ष पद की ताजपोशी के बाद जैसे एक नयी बयार बह चली है कांग्रेसी कार्यकर्ता अपने राहुल भैया की तारीफ करते नहीं थकते हैं और उनके अभूतपूर्व, ओजस्वी भावनात्मक भाषण को पार्टी में एक नए युग का आगाज़ मानते हैं। कांग्रेस पार्टी मुख्यालय में भी मीडिया से अपने पहले साक्षात्कार में उन्होंने “सकारात्मक राजनीति” का पाठ पढ़कर कुछ नेताओं को चित्त और बाकी को आश्चर्यचकित कर दिया। ये अलग बात है कि अब से उनके हर बोल हरकत और अदा पर होगी और वहीँ से पार्टी की दशा और दिशा – दोनों का पता चल जायेगा।
विगत चार दिनों में तकरीबन हर राजनीतक पंडितों और मठाधीशों ने राहुल गाँधी की तारीफ़ में पुल बांधे और उनकी संवेदनशीलता और भावनात्मक गंगा के बहाव में स्नान किया अगर बीच में गृह मंत्री शिंदे जी भगवा आतंकवाद वाला नमक नहीं परोस देते तो शायद ये स्तुतिगान का सिलसिला नवरात्र की तरह बदस्तूर चलता रहता। मगर सवाल ये है कि राहुल गाँधी का भाषण वाकई भावुकता और संवेदनशीलता से ओतप्रोत था या फिर वो बहुत ही सोची समझी रणनीति का नतीजा था ? दरअसल उनका भाषण हर तरह से राजनीतिक था जिसके ज़रिये उन्होंने एक ही तीर से कई निशाने साधे। पहला ये कि उन्होंने सब को ये याद दिला दिया कि आज भी इस देश में गाँधी-नेहरु परिवार की विरासत का कोई विकल्प नहीं है।
जहाँ तक त्याग और बलिदान का प्रश्न है तो गाँधी परिवार की दो पीढ़ियों ने बलिदान दिया है और जो कांग्रेसी नेता आज भी रात की नींद में देश के प्रधानमंत्री का सपना देखते हैं उनको एक चेतावनी भी थी कि नेहरु-गाँधी परिवार है तो वो हैं वरना उनकी क्या विसात और औकात है?
उनका दूसरा संकेत ये था कि बदलते ज़माने और राजनीतिक परिवेश में पार्टी का नेतृत्व बदलना बहुत ज़रूरी है और अब कांग्रेस पार्टी को उनकी मातहत स्वीकार करने के अलावा और कोई चारा नहीं है। मगर कई कांग्रेसी क्षत्रप अभी से ही अपनी विधवा विलाप में जुट गए हैं और उनको लगने लगने लगा है कि राहुल भैया के कई फैसले तुगलकी फरमान की तरह हैं जिसकी तामील करने से बहुत नुकसान होगा। उनके मुताबिक़ श्री गांघी का बयान कि “वो हर गाँव को कांग्रेस मुख्यालय से जोड़ देंगे’ सुनने में बड़ा ही बढ़िया लगता है मगर दर हकीकत वो क्या ऐसा कर पाएंगे वो और अगर ऐसा हुआ तो भी पार्टी का क्या हश्र होगा, इसका उनको अंदाजा भी है क्या?
उनका सवाल ये भी है की विगत आठ सालों में श्री गांधी ने कौन सा तीर मारा जिसके आधार पर उनको कांग्रेस पार्टी की कमान दी गयी? वो क्यों हमेशा देश के बड़े और संजीदा मुद्दों पर चुप रहते हैं? क्या आठ सालों की असफ़लता को 15 मिनट के भाषण से भरा जा सकता है? अगर सिर्फ वो ही देश के युवा नेता हैं तो क्या वो लोग युवा नहीं थे जो इंडिया गेट और जंतर मंतर पर बलात्कार के खिलाफ आन्दोलन कर रहे थे? क्या चन्द मिनटों के लिखे लिखाये भाषण के आधार पर पूरे देश का भविष्य भावी प्रधान मंत्री के तौर पर श्री गाँधी के हाथ में सौंप दिया जाये? ऐसे कई सवाल हैं जिनका जवाब राहुल गाँधी को आने वाले दिनों में देना पड़ेगा।
अजय नाथ झा जाने-माने पत्रकार व मीडिया आलोचक हैं. 1980 के दशक से पत्रकारिता के क्षेत्र में सक्रिय हैं. इन्होने हिंदुस्तान टाइम्स के सहायक संपादक के तौर पर पत्रकारिता की दुनिया में कदम रखा। इन्होने जी टीवी, बी बी सी, आज तक, बीबीसी, दूरदर्शन,एनडीटीवी और लोकसभा टीवी में में वरिष्ट पदों पर काम किया है, वो भारत की विदेश निति के विशेषग्य और टीकाकार भी हैं.
यह सही है कि उनकी नीयत या उनके इरादे में कोई खोट नहीं है। मगर असली मुद्दा ये है कि उनकी पार्टी की जड़ अब पूरे देश में कहाँ-कहाँ महफूज़ बची है। श्री गाँधी को विगत चन्द सालों में जितनी कवायद करनी थी, वो कर चुके मगर पार्टी के लिए जनाधार को बढ़ाने में सफल नहीं हुए। दरअसल ऐसे कई सवाल हैं जिस पर कांग्रेस पार्टी ने संजीदगी से सोचा ही नहीं। दिल्ली में बैठे लोग अब भी यही सोचते हैं कि कांग्रेस पार्टी की अस्मत बचाने का जिम्मा गाँधी परिवार के हाथ मे है। बाकी लोग मौज करें। ये चारण और भाट की पद्धति कमाल की है। कांग्रेस पार्टी में अक्सर ऐसा होता है कि “थोर करें काली माई और ढेर करें कीर्तनिया’
कांग्रेस पार्टी इसी मुगालते में पिछले बिहार विधान सभा चुनाव में अपनी इज्ज़त गंवा बैठी। सोनिया गाँधी और राहुल गाँधी के साथ मनमोहन सिंह भी ताल ठोंक कर चुनावी मैदान में कूद पड़े। मगर अंजाम क्या हुआ। 243 सीटों में से कांग्रेस को सिर्फ चार सीटें ही मिल पाईं जो बिहार में आजादी से लेकर अब तक का सबसे ख़राब रिकॉर्ड है।
सन 2012 के उत्तर प्रदेश विधान सभा चुनाव का तो और ही बुरा हाल रहा। कांग्रेस पार्टी की फौज ने राहुल को अपना सेनापति मानकर उनके हर बयान, उनकी हर अदा पर तालियाँ बजाईं और पूरे प्रदेश में उनको खुशबूदार हवा का नये झोंके के तौर पर पेश किया गया। मीडिया वालों में भी एक तबका ऐसा है, जिसमें राहुल गाँधी हमेशा देश की संजीवनी के तौर पर देखे और लिखे जाते हैं.. मगर उनकी मुश्किल ये थी कि विगत २२ सालों में प्रदेश में गैर कांग्रेसी सरकार रही और प्रदेश के कांग्रेसी नेताओं ने कभी अपने निजी स्वार्थ के लिए पार्टी का ज़मीर बेच डाला तो कभी अंतर्कलह और गुटबाज़ी ने काम तमाम कर दिया। गुजरात के चुनाव में तो जैसे पूरा मैदान नरेन्द्र मोदी के हवाले कर दिया गया मानो कांग्रेस यही चाहती थी।
शायद आला कमान को अब भी यकीन है कि राहुल गाँधी का करिश्मा ही पार्टी के लिए राम बाण बन जायेगा और पार्टी की नैया पार हो जायेगी और इसलिए उनको पार्टी का उपाध्यक्ष बना कर उतारा गया है और 2014 लोक सभा चुनाव की कमान भी उनके हाथ में दी गयी है। मगर अभी से ही एक बार फिर मुगालता और मुखबिरी का बाज़ार गर्म हो गया और ईमानदरी से बात कहने वालों की जगह एक बार फिर चम्पुयों, चम्मचों और चाटुकारों की फौज अपनी बिसात बिछाने लगी है या फिर पार्टी ने इतिहास से कोई सबक नहीं सीखा है। गौरतलब है कि सन 2007 के चुनाव में लगता था कि उत्तर प्रदेश राहुल गाँधी की आंधी में बह जाएगा और कांग्रेस सत्ता में वापस लौट आएगी। मगर कई नेता और सलाहकार शायद ये भूल जाते हैं कि औचक और चौचक के खेल में जनता कुछ पल के लिए भौंचक भले ही हो जाए मगर आखिर में वो अपना फैसला अपने विवेक से ही लेती है।
दरअसल कांग्रेस पार्टी की ऐसी फजीहत का सबसे बड़ा कारण है पुराने और युवा वर्ग के नेताओं के बीच सोच समन्वय का अभाव। देश की ज़मीनी हकीकत, जातीय समीकरण और ज्वलंत मुद्दों और मसलों पर पार्टी में एक सोच और एकता का अभाव दिखता है। नयी पीढ़ी के नेता लोग और राहुल गाँधी के सलाहकारों की टीम में प्रदेश राजनीति की बारीकियों और स्थानीय मुद्दों और बातों का ज्यादा इल्म नहीं है। विदेशों से शिक्षा प्राप्त कर बाद वातानुकूलित कमरों में लैपटॉप पर दिखे नक्शों और आंकड़ों के बलबूते पर चुनाव में जीत हासिल करना बड़ा आसान दिखता है।
मुश्किल यह है कि भारत जैसे देश में जब बाज़ार और कारपोरेट पद्धति से जब चुनाव प्रबंधन किया जाने लगता है तो जीत की संभावना अक्सर कठिन को जाती है और गुड़ का गोबर हो जाता है। संत तुलसीदास ने लिखा था कि :-
सचिव, वैद्य गुरु तीन जो प्रिय बोंले भयास /
राज, धर्म, तन तीन का होई वेग ही नाश/
कांग्रेस पार्टी में अभी जश्न का माहौल है? मगर आने वाला हर दिन उनके लिए एक नयी चुनौती पेश करेगा। पहले तो पार्टी का खिसकता जनाधार माथापच्ची का सबब बनेगा। उनकी मंशा हर जिले में 40-45 युवा नेता और हर राज्य में 4/5 मुख्यमंत्री की फसल तैयार करने की है। मगर पहले ज़मीन का रकबा तो माप लें।
ये तो देख लें कि ऊसर-बंज़र ज़मीन की टुकड़ियों में सूरजमुखी के फूल खिलने का सपना महज़ कागज़ पर ही तो नहीं रह जायेगा। इस साल 9 राज्यों में विधान सभा के चुनाव होने वाले हैं। उनकी लोकप्रियता और करिश्मा का असली मुज़ाहरा तब देखने को मिलेगा। हिंदी बहुल राज्यों में काफिला और कारवाँ हुजूम से ही बनता है। बिहार और उत्तर प्रदेश जैसे जगहों पर एक कहावत है कि “जूते में दम तो नेता हैं हम”। अब श्री गाँधी को वातानुकूलित कमरे से बाहर निकल कर कर्णाटक, राजस्थान, मध्य प्रदेश, छत्तीसगढ़ और कई राज्यों की संकरीली -पथरीली सड़कों पर उतर अपना जलवा और जलाल दिखाना होगा। पार्टी और जनता तभी उनका लोहा मानेगी। वरना इतिहास गवाह है कि अमीरों ने नाकारा और निकम्मी हुकूमत इसलिए चलायी कि वो मुग़लिया खानदान के वारिस थे और जैसे ही मौका मिला,उसकी नीव तक उखाड़ कर फेंक डाली।
राहुल गाँधी की एक अहम् चुनौती होगी उनकी रणनीति और उनके सलाहकार और सिपहसालारों की फ़ौज। योजना बंद कमरे में बनती है मगर वो कितनी कारगर होती है इसका अंदाज़ा सिपहसालारों की कूवत और लियाकत से पता चलता है। शिवाजी और राणा प्रताप की लड़ाई में यही फर्क था। शिवाजी किले पर किले जीत ले गए मगर राणा प्रताप को अरावली की पहाड़ियों में घास की रोटी खा कर जीने को मजबूर होना पड़ा।
अब तक श्री राहुल गाँधी अपनी तरह से ज़िन्दगी जीते रहे मगर अब से उनको अपना सारा वक्त पार्टी को देना पड़ेगा और दिन रात उसी के साये में सोना-जागना पड़ेगा। पार्टी के हित में उनको बहुत से कठोर निर्णय लेने पड़ेंगे। उनको ये भी समझना पड़ेगा कि चुनाव संचालन और पार्टी का खर्च कैसे चलता है और कांग्रेस मुख्यालय में कई महारथी और मठाधीश इतने अरसे से कैसे जमे हैं और क्या चला रहे हैं? उनको इस बात का भी एहसास होने लगेगा कि किराये का इंजन नहीं लगाना चाहिए और कांग्रेस पार्टी में कभी भगवान् नहीं बदला जाता। वरना उसका हाल भी कृपा शंकर सिंह जैसा हो जाता है।
देखना ये है कि राहुल गाँधी अपनी पार्टी और देश की जनता की कसौटी पर कितना खरा उतरते हैं या फिर वोही शेर याद दिलाते हैं कि :-
ये नहीं थी बात कि मेरा कद घट गया।
छोटी थी चादर और मैं सिमट गया।।
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