शनिवार, 29 जून 2013

मीडिया मैनेजमेंट श्री मुलायम सिंह वाकई बहुत बड़े नेता हैं/ उनका मीडिया मैनेजमेंट भी उतना ही उम्दा है क्यों कि वो गलत विषय पर भी हमेश सुर्ख़ियों में रहते हैं/ हाल ही में राष्ट्रपति का चुनाव हुआ/ पहले उन्होंने पी ए संगमा के नाम पर ठप्पा लगाया/ जब गलती का एहसास हुआ तो कहा कि मतपत्र फटा हुआ है/ फिर दूसरा मतपत्र लेकर प्रणब मुकर्जी को वोट दिया और आखिर में उनका मतपत्र रद्द भी हो गया/ मगर उनका ये " अहीर झांझरा" वाला दाव कमाल का रहा और वो लगातार तीन दिनों तक मीडिया के मुख पृष्ट पर बदस्तूर बने रहे/" इसे कहते हैं मीडिया मैनेजमेंट/ आज कल यही हाल हमारी सहाफी जमात के कई रह्मुमाओं का है/ खबर को जानना, उसपर तप्सरा या तज्कारा करना, उसकी तारीफ़ या मजम्मत कर दीगर बात है/ वो तो हमोबेश सब भाई लोग करते ही रहते हैं/ मगर वोही चाँद लोग अपने लाला के दिलो-दिमाग पर रचे बसे रहते हैं जिनको ख़बरों को मैनेज करने का गुर और मुरब्बा दोनों आता है/ कई अखबारों और चैनलों में आप की यही कला आपको बाकी लोगों से बहुत ऊपर ले जाती है और ऐसे में खच्चर भी सरपट रेस में दौड़ने वाला इनामी घोडा बन जाता है/ मगर ये कोई नयी बात नहीं है/ मसलन ये सिलसिला महाभारत के ज़माने से ही चला आ रहा है/ लड़ाई भले ही कौरव और पांडव के बीच लड़ी गयी हो मगर इस पूरे खेल के आयोजक और मीडिया मैनेजमेंट के प्रणेता भगवन कृष्ण ही तो थे/ उनके जैसा मीडिया मैनेजर आज तक कोई इस धरती पर पैदा ही नहीं हुआ/ महाभारत के अंत में इसका खुलासा युधिस्ठिर ने तब किया जब उनके बाकी चारो भाई स्वर्ग की यात्रा नहीं कर पाए थे/ आखिर तक ये बात भीम भी नहीं समझ पाए और स्वर्ग के इतने करीब होने के बाद भी वो स्वर्ग तक नहीं पहुँच पाए और पके बेल की तरह धम्म से गिर पड़े/ महाभारत की लड़ाई जीत लेने के बाद जब पांडवों ने द्रौपदी के साथ स्वर्ग की यात्रा आरम्भ की तो सबसे पहले द्रौपदी ही गिरी/ भीम बहुत निराश हुवे और युधिष्ठिर से कहाँ कि वो बिना द्रौपदी को लिए एक कदम आगे नहीं जायेंगे/ धर्मराज को गुस्सा आया और उन्होंने भीम से कहा कि भीम अपने कर्तव्य पर ध्यान दें/ बाकी सब माया है और मोह में फंसा हुआ आदमी आने मार्ग से अक्सर विचलित हो जाता है/ किसी तरह भीम मान गए और आगे चलते रहे. कुछ समय के बाद सहदेव और नकुल की भी बारी आई और वो भी गिर गए/ जब अर्जुन के गिरने की बारी आई तो भीम को रहा नहीं गया और उन्होंने युधिष्ठिर से साफ़ कह दिया कि" चाहे कुछ भी हो जाये मैं अर्जुन को नहीं छोड़ सकता /उसको कंधे पर ही सही मगर बिठाकर ले कर जायूँगा ही/ अर्जुन मेरा सबसे प्रिय भाई है/ पूरे महाभारत का यही तो हीरो है/" धर्मराज क्रोध में आ गए और भीम से कहा" अब तक तुमने जितने सवाल किये मैंने सब का उत्तर दिया/ अब तुमको मेरे कुछ प्रश्नों का उत्तर देना होगा/ " भीम ने कहा कि ठीक है/ धर्मराज का पहला सवाल था कि " उनके किस भाई तो दुर्योधन ने बचपन में ही ज़हर देकर नदी में फेंकवा दिया था? भीम ने कहा " मुझे"/ दूसरा सवाल था : लाक्षागृह में आग लगने के बाद बहार निकले के लिए बंद सुरंग का दरवाजा किसने तोडा था? भीम ने कहा: मैंने"/ तीसरा सवाल था: अज्ञात वास के समय कुंती और द्रौपदी को अपने कंधे पर बिठाकर कोसों दूर कौन ले गया था? भीम ने कहा: मैंने चौथा सवाल था: बकासुर से लड़ने के लिए माता कुंती ने अपने पांच पुत्रों में से किसको भेजा था? भीम ने कहा: मुझे/ पांचवां सवाल था; द्रौपदी के ऊपर बुरी निगाह डालने वाले कीचक का वध किसने किया था? भीम ने कहा: मैंने/ छठा सवाल था: महाभारत की लड़ाई में पांडवों का सेनापति किसको बनाया गया था? भीम ने कहा: मुझे/ सातवाँ सवाल था: जरासंध को चीर कर किसने मारा था? भीम ने कहा: मैंने/ आठवां सवाल था: दुर्योधन के बाकी ९८ भाइयों को एक एक कर किसने मारा था? भीम ने कहा: : मैंने/ नौवां सवाल था; दुशाश्सन को मार कर उनकी छाती से रक्त निकाल कर द्रौपदी को किसने दिया था? भीम का उत्तर था: मैंने/ दसवां सवाल: दुर्योधन को गदा युद्ध में हराकर किसने मारा था? भीम ने कहा: मैंने/ इसी प्रकार युधिस्ठिर से कई और प्रश्न भीम से किया और हर बार भीम के मुंह के यही उत्तर निकलता था कि: मुझे या मैंने? तब युधिष्ठिर ने भीम से कहा कि; इतने स्सरे कार्य तुमने अकेले कर दिखाया फिर भी महाभारत की जब भी चर्चा होती है तो सबसे पहले अर्जुन का ही नाम आता है और तुम और तुम्हारे रोल को कोई याद भी नहीं करता/ जानते हो क्यों? भीम निरुत्तर थे/ धर्मराज बोले : मैं जानता हूँ कि अर्जुन ने एक मछली की आँख में तीर क्या मार दिया बस सबसे बड़ा तीरंदाज़ हो गया जब कि एकलव्य तो उससे कहीं आगे था/ अर्जुन ने सबसे बुद्धे भीष्म पितामह पर बाण क्या चला दिया, वो सबसे बड़ा योद्धा कहलाने लगा/ उसकी तुलना में तुम्हारा रोल कई गुना ज़यादे था मगर फिर भी आने वाली पीढ़ी तुमको बहुत कम ही याद करेगी/ जानते हो क्यों? फिर भी तुम अर्जुन के लिए बैचेन हो रहे है और इतना बड़ा हंगामा कर रहे हो/ भीम अव्वाक रह गए/ तब युधिष्ठिर ने कहा; अर्जुन की वाहवाही की वजह थी कृष्ण जी की शानदार मीडिया मैनेजमेंट/ वो पूरे महाभारत में जहाँ जिस रोल में रहते संजय से लेकर पूरी दुनिया के लोगों की नज़र उनपर ही रहती थी और उसी फ्रेम में हमेश अर्जुन पीछे दीखता था और पब्लिक के दिमाग में बैठ गया/ यही कारन था कि अर्जुन हमेशा " फ्रेम के बीच" में रहा और तुम हमेशा " आउट आफ फोकस" रहे और इतना सब कुछ करने के बाद भी तुम को कोई नहीं तवज्जो दे पाया/ अब भीम और हैरान हुए/ फिर धर्मराज युधिष्ठिर बोले: लेकिन इसके बाद भी तुम्हारा अर्जुन मोह टूटा नहीं/ लिहाज़ा अब तुम भी गिरोगे और मैं अकेला ही स्वर्ग जायूँगा... और वो चले गए !! आज के संधर्भ में भी कुल मिलकर यही मंज़र हमारे सहाफी जमात में दिखाई देता है/ जो मोह में , अपने आत्म सम्मान की सुरक्षा और अपनी ऐठ या हेंकड़ी में फँस गए उनका हाल भीम की तरह हो गया और जो इन सब को त्याग कर अपने मालिक का दामन थाम लिया, बाकी हर अलहदा चीज़ को अपने"सिस्टम" से बहार निकाल कर फेंक दिया, वोही सिकंदर हो गए/ पूरी कहानी का लब्बो-लुबाब ये है कि आज कल के सहाफत के दौर में आप कितने काबिल है, कितना ज़मीर याफ्ता और कितने वक़ार और वसूक वाले हैं, ये सब गयी तेल लेने/ इसकी कोई कीमत नहीं है/ आप किसी बड़े ओहदे पर तभी काबिज़ हो सकते हैं अजब तक आप अर्जुन नहीं बने और आप का कोई मीडिया मनेजर न हो/ बात भले की बहुत कडवी है मगर सोलह आने सच है.. और ये सच है तो यही असली खबर है वरना सब बे-असर है/
चुनौतियाँ राहुल गाँधी की : ऊसर-बंज़र ज़मीन की टुकड़ियों में सूरजमुखी के फूल खिलने का सपना 20 जनवरी को जयपुर में हुयी अखिल भारतीय कांग्रेस कमेटी की बैठक में श्री राहुल गाँधी को उपाध्यक्ष पद की ताजपोशी के बाद जैसे एक नयी बयार बह चली है कांग्रेसी कार्यकर्ता अपने राहुल भैया की तारीफ करते नहीं थकते हैं और उनके अभूतपूर्व, ओजस्वी भावनात्मक भाषण को पार्टी में एक नए युग का आगाज़ मानते हैं। कांग्रेस पार्टी मुख्यालय में भी मीडिया से अपने पहले साक्षात्कार में उन्होंने “सकारात्मक राजनीति” का पाठ पढ़कर कुछ नेताओं को चित्त और बाकी को आश्चर्यचकित कर दिया। ये अलग बात है कि अब से उनके हर बोल हरकत और अदा पर होगी और वहीँ से पार्टी की दशा और दिशा – दोनों का पता चल जायेगा। विगत चार दिनों में तकरीबन हर राजनीतक पंडितों और मठाधीशों ने राहुल गाँधी की तारीफ़ में पुल बांधे और उनकी संवेदनशीलता और भावनात्मक गंगा के बहाव में स्नान किया अगर बीच में गृह मंत्री शिंदे जी भगवा आतंकवाद वाला नमक नहीं परोस देते तो शायद ये स्तुतिगान का सिलसिला नवरात्र की तरह बदस्तूर चलता रहता। मगर सवाल ये है कि राहुल गाँधी का भाषण वाकई भावुकता और संवेदनशीलता से ओतप्रोत था या फिर वो बहुत ही सोची समझी रणनीति का नतीजा था ? दरअसल उनका भाषण हर तरह से राजनीतिक था जिसके ज़रिये उन्होंने एक ही तीर से कई निशाने साधे। पहला ये कि उन्होंने सब को ये याद दिला दिया कि आज भी इस देश में गाँधी-नेहरु परिवार की विरासत का कोई विकल्प नहीं है। जहाँ तक त्याग और बलिदान का प्रश्न है तो गाँधी परिवार की दो पीढ़ियों ने बलिदान दिया है और जो कांग्रेसी नेता आज भी रात की नींद में देश के प्रधानमंत्री का सपना देखते हैं उनको एक चेतावनी भी थी कि नेहरु-गाँधी परिवार है तो वो हैं वरना उनकी क्या विसात और औकात है? उनका दूसरा संकेत ये था कि बदलते ज़माने और राजनीतिक परिवेश में पार्टी का नेतृत्व बदलना बहुत ज़रूरी है और अब कांग्रेस पार्टी को उनकी मातहत स्वीकार करने के अलावा और कोई चारा नहीं है। मगर कई कांग्रेसी क्षत्रप अभी से ही अपनी विधवा विलाप में जुट गए हैं और उनको लगने लगने लगा है कि राहुल भैया के कई फैसले तुगलकी फरमान की तरह हैं जिसकी तामील करने से बहुत नुकसान होगा। उनके मुताबिक़ श्री गांघी का बयान कि “वो हर गाँव को कांग्रेस मुख्यालय से जोड़ देंगे’ सुनने में बड़ा ही बढ़िया लगता है मगर दर हकीकत वो क्या ऐसा कर पाएंगे वो और अगर ऐसा हुआ तो भी पार्टी का क्या हश्र होगा, इसका उनको अंदाजा भी है क्या? उनका सवाल ये भी है की विगत आठ सालों में श्री गांधी ने कौन सा तीर मारा जिसके आधार पर उनको कांग्रेस पार्टी की कमान दी गयी? वो क्यों हमेशा देश के बड़े और संजीदा मुद्दों पर चुप रहते हैं? क्या आठ सालों की असफ़लता को 15 मिनट के भाषण से भरा जा सकता है? अगर सिर्फ वो ही देश के युवा नेता हैं तो क्या वो लोग युवा नहीं थे जो इंडिया गेट और जंतर मंतर पर बलात्कार के खिलाफ आन्दोलन कर रहे थे? क्या चन्द मिनटों के लिखे लिखाये भाषण के आधार पर पूरे देश का भविष्य भावी प्रधान मंत्री के तौर पर श्री गाँधी के हाथ में सौंप दिया जाये? ऐसे कई सवाल हैं जिनका जवाब राहुल गाँधी को आने वाले दिनों में देना पड़ेगा। अजय नाथ झा जाने-माने पत्रकार व मीडिया आलोचक हैं. 1980 के दशक से पत्रकारिता के क्षेत्र में सक्रिय हैं. इन्होने हिंदुस्तान टाइम्स के सहायक संपादक के तौर पर पत्रकारिता की दुनिया में कदम रखा। इन्होने जी टीवी, बी बी सी, आज तक, बीबीसी, दूरदर्शन,एनडीटीवी और लोकसभा टीवी में में वरिष्ट पदों पर काम किया है, वो भारत की विदेश निति के विशेषग्य और टीकाकार भी हैं. यह सही है कि उनकी नीयत या उनके इरादे में कोई खोट नहीं है। मगर असली मुद्दा ये है कि उनकी पार्टी की जड़ अब पूरे देश में कहाँ-कहाँ महफूज़ बची है। श्री गाँधी को विगत चन्द सालों में जितनी कवायद करनी थी, वो कर चुके मगर पार्टी के लिए जनाधार को बढ़ाने में सफल नहीं हुए। दरअसल ऐसे कई सवाल हैं जिस पर कांग्रेस पार्टी ने संजीदगी से सोचा ही नहीं। दिल्ली में बैठे लोग अब भी यही सोचते हैं कि कांग्रेस पार्टी की अस्मत बचाने का जिम्मा गाँधी परिवार के हाथ मे है। बाकी लोग मौज करें। ये चारण और भाट की पद्धति कमाल की है। कांग्रेस पार्टी में अक्सर ऐसा होता है कि “थोर करें काली माई और ढेर करें कीर्तनिया’ कांग्रेस पार्टी इसी मुगालते में पिछले बिहार विधान सभा चुनाव में अपनी इज्ज़त गंवा बैठी। सोनिया गाँधी और राहुल गाँधी के साथ मनमोहन सिंह भी ताल ठोंक कर चुनावी मैदान में कूद पड़े। मगर अंजाम क्या हुआ। 243 सीटों में से कांग्रेस को सिर्फ चार सीटें ही मिल पाईं जो बिहार में आजादी से लेकर अब तक का सबसे ख़राब रिकॉर्ड है। सन 2012 के उत्तर प्रदेश विधान सभा चुनाव का तो और ही बुरा हाल रहा। कांग्रेस पार्टी की फौज ने राहुल को अपना सेनापति मानकर उनके हर बयान, उनकी हर अदा पर तालियाँ बजाईं और पूरे प्रदेश में उनको खुशबूदार हवा का नये झोंके के तौर पर पेश किया गया। मीडिया वालों में भी एक तबका ऐसा है, जिसमें राहुल गाँधी हमेशा देश की संजीवनी के तौर पर देखे और लिखे जाते हैं.. मगर उनकी मुश्किल ये थी कि विगत २२ सालों में प्रदेश में गैर कांग्रेसी सरकार रही और प्रदेश के कांग्रेसी नेताओं ने कभी अपने निजी स्वार्थ के लिए पार्टी का ज़मीर बेच डाला तो कभी अंतर्कलह और गुटबाज़ी ने काम तमाम कर दिया। गुजरात के चुनाव में तो जैसे पूरा मैदान नरेन्द्र मोदी के हवाले कर दिया गया मानो कांग्रेस यही चाहती थी। शायद आला कमान को अब भी यकीन है कि राहुल गाँधी का करिश्मा ही पार्टी के लिए राम बाण बन जायेगा और पार्टी की नैया पार हो जायेगी और इसलिए उनको पार्टी का उपाध्यक्ष बना कर उतारा गया है और 2014 लोक सभा चुनाव की कमान भी उनके हाथ में दी गयी है। मगर अभी से ही एक बार फिर मुगालता और मुखबिरी का बाज़ार गर्म हो गया और ईमानदरी से बात कहने वालों की जगह एक बार फिर चम्पुयों, चम्‍मचों और चाटुकारों की फौज अपनी बिसात बिछाने लगी है या फिर पार्टी ने इतिहास से कोई सबक नहीं सीखा है। गौरतलब है कि सन 2007 के चुनाव में लगता था कि उत्तर प्रदेश राहुल गाँधी की आंधी में बह जाएगा और कांग्रेस सत्ता में वापस लौट आएगी। मगर कई नेता और सलाहकार शायद ये भूल जाते हैं कि औचक और चौचक के खेल में जनता कुछ पल के लिए भौंचक भले ही हो जाए मगर आखिर में वो अपना फैसला अपने विवेक से ही लेती है। दरअसल कांग्रेस पार्टी की ऐसी फजीहत का सबसे बड़ा कारण है पुराने और युवा वर्ग के नेताओं के बीच सोच समन्वय का अभाव। देश की ज़मीनी हकीकत, जातीय समीकरण और ज्वलंत मुद्दों और मसलों पर पार्टी में एक सोच और एकता का अभाव दिखता है। नयी पीढ़ी के नेता लोग और राहुल गाँधी के सलाहकारों की टीम में प्रदेश राजनीति की बारीकियों और स्थानीय मुद्दों और बातों का ज्यादा इल्म नहीं है। विदेशों से शिक्षा प्राप्त कर बाद वातानुकूलित कमरों में लैपटॉप पर दिखे नक्शों और आंकड़ों के बलबूते पर चुनाव में जीत हासिल करना बड़ा आसान दिखता है। मुश्किल यह है कि भारत जैसे देश में जब बाज़ार और कारपोरेट पद्धति से जब चुनाव प्रबंधन किया जाने लगता है तो जीत की संभावना अक्सर कठिन को जाती है और गुड़ का गोबर हो जाता है। संत तुलसीदास ने लिखा था कि :- सचिव, वैद्य गुरु तीन जो प्रिय बोंले भयास / राज, धर्म, तन तीन का होई वेग ही नाश/ कांग्रेस पार्टी में अभी जश्न का माहौल है? मगर आने वाला हर दिन उनके लिए एक नयी चुनौती पेश करेगा। पहले तो पार्टी का खिसकता जनाधार माथापच्ची का सबब बनेगा। उनकी मंशा हर जिले में 40-45 युवा नेता और हर राज्य में 4/5 मुख्यमंत्री की फसल तैयार करने की है। मगर पहले ज़मीन का रकबा तो माप लें। ये तो देख लें कि ऊसर-बंज़र ज़मीन की टुकड़ियों में सूरजमुखी के फूल खिलने का सपना महज़ कागज़ पर ही तो नहीं रह जायेगा। इस साल 9 राज्यों में विधान सभा के चुनाव होने वाले हैं। उनकी लोकप्रियता और करिश्मा का असली मुज़ाहरा तब देखने को मिलेगा। हिंदी बहुल राज्यों में काफिला और कारवाँ हुजूम से ही बनता है। बिहार और उत्तर प्रदेश जैसे जगहों पर एक कहावत है कि “जूते में दम तो नेता हैं हम”। अब श्री गाँधी को वातानुकूलित कमरे से बाहर निकल कर कर्णाटक, राजस्थान, मध्य प्रदेश, छत्तीसगढ़ और कई राज्यों की संकरीली -पथरीली सड़कों पर उतर अपना जलवा और जलाल दिखाना होगा। पार्टी और जनता तभी उनका लोहा मानेगी। वरना इतिहास गवाह है कि अमीरों ने नाकारा और निकम्मी हुकूमत इसलिए चलायी कि वो मुग़लिया खानदान के वारिस थे और जैसे ही मौका मिला,उसकी नीव तक उखाड़ कर फेंक डाली। राहुल गाँधी की एक अहम् चुनौती होगी उनकी रणनीति और उनके सलाहकार और सिपहसालारों की फ़ौज। योजना बंद कमरे में बनती है मगर वो कितनी कारगर होती है इसका अंदाज़ा सिपहसालारों की कूवत और लियाकत से पता चलता है। शिवाजी और राणा प्रताप की लड़ाई में यही फर्क था। शिवाजी किले पर किले जीत ले गए मगर राणा प्रताप को अरावली की पहाड़ियों में घास की रोटी खा कर जीने को मजबूर होना पड़ा। अब तक श्री राहुल गाँधी अपनी तरह से ज़िन्दगी जीते रहे मगर अब से उनको अपना सारा वक्त पार्टी को देना पड़ेगा और दिन रात उसी के साये में सोना-जागना पड़ेगा। पार्टी के हित में उनको बहुत से कठोर निर्णय लेने पड़ेंगे। उनको ये भी समझना पड़ेगा कि चुनाव संचालन और पार्टी का खर्च कैसे चलता है और कांग्रेस मुख्यालय में कई महारथी और मठाधीश इतने अरसे से कैसे जमे हैं और क्या चला रहे हैं? उनको इस बात का भी एहसास होने लगेगा कि किराये का इंजन नहीं लगाना चाहिए और कांग्रेस पार्टी में कभी भगवान् नहीं बदला जाता। वरना उसका हाल भी कृपा शंकर सिंह जैसा हो जाता है। देखना ये है कि राहुल गाँधी अपनी पार्टी और देश की जनता की कसौटी पर कितना खरा उतरते हैं या फिर वोही शेर याद दिलाते हैं कि :- ये नहीं थी बात कि मेरा कद घट गया। छोटी थी चादर और मैं सिमट गया।।

बुधवार, 20 अप्रैल 2011

Anna the Android !!!

Anna the Android !!!!!
Perhaps no other event in the recent past drew as many eye balls and consumed so much of space in media as Shri Anna Hazare’s fast at Jantar Mantar against corruption and for Jan Lokpal Bill did. The otherwise dull and drab Square of Jantar Mantar which gets some people off an on only for eating Dosas and idlis on normal days, suddenly turned into yet another Tehrir Square of Cairo like theatre.
And Anna Hazare literally turned out to the” Android tool” for many social activists and conscience keepers of the civic society who had been ruing on their fluctuating fortune because of one reason or the other. He became the engine to galvanize the entire nation in its manifestation of disgust and distrust against the government on the question of tackling corruption.
I was also one of the witnesses of that high voltage drama for at least five days at Jantar Mantar jamboree which became the “epicenter” of the fight against corruption. But I felt more appalled than amused at the whole exercise which looked more like a well- orchestrated and well- coordinated event management event than otherwise.
While I never doubted the personal integrity and honesty of Anna Hazare and no conscientious citizen of this country would ever dispute that either.. At this age, his fierce sense of determination and sincerity of purpose is indeed commendable. There is no doubt that corruption has become almost a part fof our daily life and the people by and large have started losing faith in every public institution and this disease has spread all over, be that the government, bureaucracy, academia and even our own media. In the midst of these, Anna Hazare’s struggle came as a whip of fresh breeze and engulfed the whole nation in no time.
With due apology to Annaa Hazare however, I am not able to convince my own conscience if he has belittled himself with his reckless statements on the whole issue of Lok Pal Bill in just one week. At the same, I am trying to console myself if it was indeed justified to compare this Janatar Mantar spectacle with mahatma Gandhi’s satyagraha. In addition, I was searching for credible answers to a few questions about the points of comparison between Anna Hazare, Mahatma Gandhi and Jayprakash Narayan and their crusade against the system as most of the media persons beaming’ breaking news LIVE “ made sustained and strenuous efforts to make me believe them. An endless stream of SMS campaign and comments and expression of support on sites like facebook and Twitter all these days made me feel all the more cheated when I tried to look into the “ News behind the news”.
I am still wondering if the majority of people actually still know the true Anna Hazare and his sage of struggle and crusade against corruption. But those people who know Anna Hazare personally paint an entirely different picture. Anna studied till class 7th and then started selling flowers in Dadar. Later he joined Indian Army as a driver and came back to his home town Ralegaon Sidhi in 1975 after taking voluntary retirement.
He started working on water-shed management projects in his village with success and after that, became instrumental in fighting against social evils like prohibition, corruption and community marriage at young age. He became immensely popular and emerged as a key figure in the fight against the system. He began his fight in 1991 against 40 corrupt forest officials and succeeded. Since then Anna has waged many” stayagraha in Maharashtra” against the corrupt government and the establishment . Till now, at least six ministers and more than 400 officials had to loose their jobs because of Anna’s fight.
However, Anna’s success rate in these’ Satyagraha” has not been less than 25 per cent whereas Mahatma Gandhi won every Satyagraha right from Champaran to Dandi March and eventually the independence of the country.
There was no SMS campaign, no” I am Anna Hazare” caps no Candle light brigade and not even posters in Anna’s fight in Maharashtra against the state government when he started his movement in 1991. But the amount of money spent on the Janatar Manatar campaign was perhaps more than the total amount of money spent on his satyagrah since 1991.
Anna was indeed a pioneer in water shed management projects not only in his village but in his district also and he could have done wonders for the state of Maharashtra during the last 26 years as the State has been facing recurring droughts and starvation deaths and more than 2000 farmers have committed suicide. The people of Maharashtra must ask Anna as to why his attention never got directed towards those issues and instead., he diverted his attention towards the fight against corruption at public places.
Or is it that many unscrupulous politicians in Maharashtra started using Anna and clean image as a rouge to settle political scores against each other? Has the same thing continued at Jantar Mantar as well those shenanigans of Civic Society have made good use of his image to serve their own personal ends and agenda? Have a few of his lieutenants quietly assured themselves at least a Rajya sabha seat or some other slice of power in the coming days at the cost of Anna?
In any case, many social workers and high profile crusaders have sat on “dharna “ at Jantar Mantar in the past.? Why was it that media never took notice of their cause and struggle however genuine they may have been.? How is that Anna Suddenly became the” Second Mahatma Gandhi’ in the eyes of the whole country as a star reporter of a respected TV news channel was flaunting a Rs 500 note in front of camera and blaring that the future generation would perhaps see the photo of this” second Gandhi’ on this currency note and a motley crowd of 300 odd people started clapping at this hyperbole.. What a chutzpah !!!
But all those hype and hoopla have come crashing on the question of Lok Pal Bill because of Anna’s own changing stance during last one week. The first was his statement on the videography of the meeting which the government flatly refused. This was followed by the controversy on the names father-son duo , Shanti Bhushan and Prashant Bhushan and the CD episode which brought out the “alleged doctored and spliced conversation of Mr Shanti Bhushan with Mulayam Singh Yadav and Amar Singh. Then came his statement on keeping Ministers and Judges out of the purview of the Lok Pal Bill. Now the moot question is if the Lok Pal Bill does not cover these two sections then would the whole exercise be meant only for clerks and sub-Inspectors?
Still bigger question is whether the people of India who swore by Anna just a fortnight ago on the question of corruption and against the perfidy of the government, would continue to believe him now in the same way ?
It appears that Anna Hazare has once again become an object of use and throw by those high profile social activists of Delhi who wanted to achieve their own ends at his cost. In the process, Anna has fast started losing his credibility. I sincerely hope, I am wrong in my assessment of the situation but the indications on board are clear that the menace of corruption would not end even with this Bill.
Did Anna Hazare realize that his one word of praise for Gujarat Chief Minister Narendra Modi would have put paid to all his sacrifice and the image of a mahatma in the eyes of many people overnight?
Does that mean, Anna Hazare was coned by his own people as well as the government which just wanted to bid time and make him break his fast unto death as the State elections were at the head. Or was that Anna could just not under understand the game of the UPA government which was playing double game at the same time.?
How is that while the Prime Minister was lavishing his praise on Anna Hazare for his impeccable credibility and honesty on the one hand and HRD Minister Kapil Sibal and AICC General Secretary Digvijaya Singh were leaving no stone unturned to tatter his image and credibility through their volley of allegations.?
What is the guarantee that the Central government which has been dithering for the last 42 years on this issue would keep its word in letter and spirit and introduce the bill in the next session of parliament? Or is that the government is waiting to see some more fissures erupting within the team members of Anna Hazare on one point or the other and use that excuse to throw the whole thing into back burner all over again?
Or it was just that Anna Hazare just could not understand the schemes and game plans of those sharing the dais with him at Jantar Manatar not he could gauge the real motive of the UPA government which had tried all tricks in the book to make” Mahatma Anna Hazare a muckraker and eventually succeeded?
Even more bizarre and bewildering was the attitude of the media at this whole tamasha which started looking more like the extended and enlarged version of Amir Khan’s Peeli Live. In this case, just a few examples would suffice.
One was that most of the star reporters of televisions news Channels” termed this event as “ historic ‘ where lakhs of people had converged in Support of Anna Hazare. Well, historic it may be in the sense that the Mahatma of Ralegaon Sidhi has sat at this place for the first time in full media glare and became more famous than IPL matches on those days and nights but where was the crowd of Lakhs of people ? To the best of my knowledge and sense of geography, that particular junction at Jantar Mantra would hardly be 40X 45 feet. Then where on earth would more than a lakh people converge ?
Secondly, some star anchors compared this to the movement of jayaprakash Narayan. I wonder if anyone of these would have seen actually seen that. I also wonder if they would have even see the rally of Chaudharu Charan Singh or Mahendra Singh Tikait which had taken the city of Delhi to random in 1990 for five days and those agitators didn’t leave the place even after 90 persons had died in the biting cold.
In this case almost 90 percent of Anchors doing One hour LIVE show or those hallowed correspondents hurling or inflicting “ Breaking News” at every hour were either totally ignorant and just too stupid in their comments and analysis as they had little sense of proportion or the understanding of the basic part of the whole issue. No wonder then that we are always accused o turning trivia into titanic and this was one such example.
Equally hilarious and sometime besmirching was the caricature and graphics designs and templates made on these days of news cast by a bevy of channels which tried to be different in their approach and treatment of this event coverage.
This event should serve as a good lesson to media to do a serious soul searching and correct itself in the best interest of its survival and credibility. Otherwise, media would start getting laughed at as a joke and politicians would have a field day biting and bullying on the camera on such issues all over again. !!

रविवार, 20 मार्च 2011

CVC Appointment and Susma Swaraj: Look who is talking ??

12 Jan, 2011
The controversy surrounding the appointment of Central Vigilance Commissioner Mr Polayil Joseph Thomas a Kerala cadre IAS officer of 1973 batch has come to symbolize the deliberate attempt of the government to appoint a tainted CVC so that all the corrupt acts of the government can be covered up. Nothing could be worse for the credibility of any government. Unlike the 2G scam, the onus of the appointment cannot be shifted to some other party on the grounds of coalition politics as the appointment has been made by the big two of the Congress of the Congress Party.
It is also strange that though the BJP and its leader Sushma Swaraj did make it a big issue, for reasons best known it did not go to Court inspite of having a galaxy of senior lawyers as its members and MPS. The matter was challenged in the Supreme Court of India by none other than Prashant Bhushan. Mr Thomas too was made a party and has opened a Pandora’s box by stating that a huge number of criminal cases were pending against many politicians and some inspite of being charge-sheeted and convicted in lower court were members of Parliament . The budget session of parliament is may or may not debate the matter depending on the timing of the verdict of the Supreme Court which has reserved its judgment in the matter.
However, one person who hogged the maximum limelight on this controversial issue is the leader of opposition in Lok Sabha Ms Sushma Swaraj. She not only made her dissent letter public but also threatened to file an affidavit in the Supreme Court saying that she had opposed the appointment of Mr Thomas in writing as the CVC because he had been charge sheeted in Palmolein purchase case in 1993 in Kerala. ( For some strange reason as to why her noting of dissent was not made available to Prashant Bhushan is not known).
As Central Vigilance Commission is a constitutional body, the head of this institution wields tremendous powers including the recall of any file and reopening of any cases which in its wisdom it deems fit, the person heading this body should always be of impeccable credentials and that is what two petitioners also filed PIL on these grounds. The petitioners pointed out that at the time of the selection, a charge sheet was pending against Mr. Thomas and the Kerala government had granted initial sanction for his prosecution in the palmolein import case. In 1991-92, Thomas, as the Food Secretary in Kerala, had allegedly allowed the import of Palmolein or edible oil from Malaysia at prices higher than the market rate that led to loss of Rs 2.8-crore revenue for the Kerala exchequer.
Impeccable integrity should indeed be mandatory for the top man heading such a sensitive post as his powers are immense. CVC is a constitutional post and his power and functions include a)
to exercise superintendence over the functioning of the Delhi Special Police Establishment (DSPE) with respect to investigation under the Prevention of Corruption Act, 1988; or offence under CRPC for certain categories of public servants and to give directions to the DSPE for purpose of discharging this responsibility;
b)to review the progress of investigations conducted by the DSPE into offences alleged to have been committed under the PC Act;
c)to undertake an inquiry or cause an inquiry or investigation to be made into any transaction in which a public servant working in any organisation, to which the executive control of the Government of India extends, is suspected or alleged to have acted for an improper purpose or in a corrupt manner;
d)to tender independent and impartial advice to the disciplinary and other authorities in disciplinary cases, involving vigilance angle at different stages i.e. investigation, inquiry, appeal, review etc.;
e)to exercise a general check and supervision over vigilance and anti-corruption work in Ministries or Departments of the Govt. of India and other organizations to which the executive power of the Union extends; and
f)to chair the Committee for selection of Director (CBI), Director (Enforcement Directorate) and officers of the level of SP and above in DSPE.
g)to undertake or cause an inquiry into complaints received under the Public Interest Disclosure and Protection of Informer and recommend appropriate action.
In the case of appointment of Mr Thomas, it is indeed true that both the PM and FM were a party to the decision and the Attorney General complicated the matter further by stating that the ”Charge-sheet matter” was not brought to the notice of either of them. This is too simplistic an explanation. In today’s political milieu, being a pliable or “yes man” is an additional quality for a bureaucrat for appointment at top posts and Mr Thomas is only a example of that. The UPA government could have found a better person to head this Organization !
One of the main reasons on why the opposition found enough ammunition to pillory the government on this count was that Mr Thomas had also served as Telecom Secretary and he was also alleged to have played a role in covering up the 2g spectrum allocations. Given the tremendous powers of the CVC, the opposition decided to raise the bogey of ”taint and charge-sheet on Mr Thomas to sully the image of the UPA government on the impeccable integrity”.
Ironically however, it was the same Ms Susma Swaraj as Information and Broadcasting minister during the NDA regime who was guilty of the same omission when she appointed Mr K S Sarma as the CEO of Prasar Bharti even as there were more serious charges against him. Prasar Bharti may not be as sensitive a body as the office of CVC but it too is an autonomous body and is an important statutory body of the country. The appointment of CEO of Prasar Bharti is done by a three member committee which includes the Vice President, Chairman of the Press Council of India and one nominee of the President of India. The actual work is however done by the Ministry of Information and Broadcasting.
One does not hold any brief either for Mr Thomas or Mr K S Sarma in any way. However, it is pertinent to know the facts in the appointment of both high profile post and the players involved in the exercise as a neutral observer. What is more interesting is that Ms Susma Swaraj was guilty of the same kind of manipulation or acts of omission and commission during the NDA regime as I&B Minister in the appointment of CEO Prasar Bharti as she is blaming the UPA II government being guilty of with regard to the appointment of Mr Thomas.
On closer examination one finds a few similarities in the appointment of Mr Thomas and Mr K S Sarma even as the odds against Sarma were heavier and point to the culpability and role of Mr Swaraj was greater.
1. There was one charge-sheet against Mr P J Thomas in 1993 related to purchase of Palmolein oil while there were at least three charges under investigation by CBI against former Prasar Bharti CEO Mr K S Sarma, an IAS officer of Andhra Cadre as per government records. In at least four cases, PE was registered and followed by regular cases as well.
2. The charge against Mr P J Thomas was related to Kerala government during his stint as officer and there was no charge against him related to any Central Ministry. In case of Mr K S Sarma, all the charges were related to the time he was serving as Director General Doordarshan under the I&B Ministry, yet he was made the CEO of Prasar Bharti on 14 March 2002 .
3. In case of Mr Thomas, the case is as old as 18 years and even there the Vigilance Department had give clearance and NOC for his promotion way back in 1996 whereas in case of Mr K S Sarma, at least three cases were about one year old and yet he was made the CEO. What is all the more shocking is that the closure report all the cases was not filed even after six months from the date he took over as the CEO and no one could believe that Ms Susma Swaraj as the then I&B minister was not aware of that.
4. In case of Mr Thomas, there is nothing to suggest that the then CVC Mr Pratyush Sinha had any role to play in diluting the case but in case of Mr Sarma, there were clear indications of pressure having been brought from influential quarters by a fellow State cadre IAS officer Mr N Vittal who was the CVC then.
5. In this case it is pertinent to recall that within weeks of the CBI filing the closure report, Arun Agrawal, Doordarshan’s former consultant, filed a protest petition in the CBI court challenging the closure report of the CBI alleging that the agency was acting in an ‘‘arbitrary and biased’’ manner. Even as it had been issued notices to explain the status of the cases against Sharma.. Mr Agrarwal in his plea had said that five chapters from his report on the functioning of Doordarshan’s sports consortium were almost converted into five FIRs by the CBI and massive raids carried out. The CAG not only corroborated all the charges but showed hoe the losses incurred by Doordarshan in the telecast scandal were to the tun of Rs200 crores. And yet the CBI suddenly closed the investigations and gave Sarma, who headed the list of accused, a clean chit in at least two cases’’
6. One could also refer to a similar protest note sent by R K Anand, senior advocate and then Congress MP, to the Prime Minister on 3rd march 2003 demanding that all documents pertaining to Sarma’s selection and exoneration by the CBI and CVC be made public. Anand wrote: ‘‘The I&B Ministry has manipulated the entire system and has misled the Vice President who happens to be the Chairman of the Appointing Committee in recommending the name of K S Sarma as CEO of Prasar Bharti.’’
7. In case of Mr Thomas, the charge is that his involvement in the palmolein case caused a loss of Rs 28 crore to the Government of Kerala. But in case of Mr. K S Sarama, the CBI FIRs alleged that DD lost Rs 55 crore. Besides Sarma, who was then Doordarshan’s Director General, three Deputy Directors General and Doordarshan’s Sales Controller and two private TV companies were implicated in the CBI cases. In 2003, , the CAG filed an exhaustive report on the deals of the sports consortiums alleging financial impropriety and bungling on the part of the former Doordarshan bosses, including the DG. It was Mr Sarma who made Mr Thawani of Nimbus sports what he is today in giving him undue favour and bringing the revenue sharing ratio from 70-30 to 85-15 in favour of Nimbus for telecast of international one day cricket matches on the national channel.
Ms Sushma Swaraj may have passed on the charge of I&B Ministry to Mr Ravi Shankar Prasad at the fag end of the NDA regime but she would certainly have been aware of the blatant misuse of power by her appointee in the following years. In this context a 13 April 2003 report published in Indian express is an eye opener.
The report says “Nimubs, the firm which owns the marketing rights for the World Cup in India, offered Prasar Bharati CEO K.S. Sarma and five DD officials an all expenses paid trip to South Africa to watch the World Cup finals. Minister for Information and Broadcasting Ravi Shankar Prasad scuttled the proposal, noting on the file that it would be highly improper for Prasar Bharati employees to enjoy the hospitality of a private firm.
Since Prime Minister A.B. Vajpayee had already issued orders that officials cannot go abroad without prior permission, Sarma should have cancelled his trip. But the CEO defiantly went ahead with his travel plans, claiming that Prasar Bharati was an autonomous body and dipping into the corporation’s internal revenue account to pay his bills. He left behind the other five scheduled to go with him.”
Not only that, when Mr Sharma incurred the wrath of Information and Broadcasting Ministry’s for his frequent visits abroad , he went to the extent of seeking clarification from the Law ministry on the extent of Prasar Bharti’s autonomy. He retired in June 2006 but by then he had done enough to break the back of Prasar Bharti in many ways.
As the leader of Opposition In Lok Sabha Ms Susma Swaraj would like to make the whole nation believe that that the UPA government had a vested interest in appointing Thomas as CVC. But then what was her vested interest in appointing a corrupt Sarma to the post of DG Prasar Bharati? She is equally as guilty and culpable in her role as the former I&B Minister in getting people like Mr K S Sarma appointed on equally high profile and sensitive post like the CEO of Prasar Bharti

Helpless or Hopeless Prime Minister ??

17 Febryary 2011

Is Indian Prime Minister Dr Manmohan Singh the proverbial proto-type of Plato’s Philosopher king? Is he really so helpless as a Prime Minister of the world’s largest democracy as he admitted on camera in his televised interaction with selected journalists from the electronic media on February 16,2011.? Or is it that he has turned out to be a hopeless Prime Minister in UPA II regime which has been more known for a series of scams and a spiraling hike in the price of essential commodities that is making the life a common citizen miserable ?

I have been one of the biggest fans of Dr Singh as he was not only the most educated and learned Prime Minister in the world (going by his CV) but also one of the politicians with impeccable personal integrity. But after seeing his two televised interactions with media including one during the last year, one was convinced that either he was really “ school student” bring guided and goaded continuously by too many Masters and Headmaster or he was just not able to handle the office he had been entrusted with by the people of India in UPA II.

Not only he has failed miserably in communicating with people of India on what went wrong where during his tenure and why he was still shying away from explaining as to how he intended to arrest and reverse the rot set in and the continuing decline in the credibility and image of India as a result of the stories of these scams surfacing with alarming regularity almost every month. .
A comparison between the two televised media interaction of the Prime Minister makes a disturbing impression. Last year, in his interaction with the media he gave the impression of being a fighter who would tackle things and make sure that the institutions of governance worked and that accountability was fixed. But in last week’s media interaction, he looked so frail, distraught and actually admitted that he was helpless . !!

Helpless Mr Prime Minister ??? It was simply bizarre to hear this word as perhaps no Prime minister of Independent India ever expressed his helplessness in full public about the challenges faced by his government and took refuge in compulsions in dealing with crucial national issues in the name of “Coalition”.

Even as it was a desperate attempt to correct and polish his image as Mr Clean., the Prime Minister did not live up to his reputation as “ Singh is King “as the tune was being continually played all over during UPA I regime on the basis of success of 123 Nuke deal. It was not the same Prime Minister Mamnohan Singh who had once boasted that “his cabinet was more cohesive than that of Pandit Jawahar Lal Nehru and Indira Gandhi” even as it had started earning the sobriquet of” collective connivance and complicity” on a series of issues facing the nation.

What was all the more shocking was that instead of accepting his accountability, ineptitude and incompetence of the Government, the poor supervision which seems to prevail in many Ministries and offices, including the Prime Minister's Office, and the insensitivity of many senior members of his Cabinet to public concerns over these alleged scams, the Prime Minister indirectly blamed his own party for all the mess created so far.. Perhaps he forgot that he would never have been the Prime Minister if there was no coalition government at the centre he would had been relaxing in his Chandigarh University’s Professor’s quarter what he had initially planned. If Singh became King in UPA II, it was mainly because Sonia Gandhi passed on that coveted post to him exactly under the same set of compulsions of Coalition.

There is no doubt that UPA II is perhaps the worst scam ridden government in the history of independent India and the Prime Minister too has to take a major share of blame for what a retired senior bureaucrat said” is new is the ineptitude, the incompetence and the lack of supervision which seem to prevail since you came to power--- the like of which one had not seen under any other Prime Minister”.

How ironical that party which came to power on the plank of “ Aam Aadmi “for the second time in 2009 has its Prime Minister so “Majboor(helpless) in serving them and rising up to their expectations in terms of curbing the rampant corruption, checking prices of essential commodities and containing the ever growing clout and influence of a few corporate giants in the corridors of power right up to the PMO to the extent that they decide as to utility of which Minister in a particular ministry remains till what time and when he needs to be shifted next.

How bizarre that the Prime Minister has the officers of his choice ensconced on sensitive seats for over 7 years in a row even after retirement and they have been given extension for another three to four years to carry the PMO’s responsibilities even at the cost of aspirations of those officials who too wanted to serve as Cabinet Secretary and Principal Secretary and serve as the eyes and ears of the PM. And yet he feels helpless because either he has no control over them in running the bureaucracy as he wants or he is just an indirect approver. But in the same vein he also declares that he has no plans to quit his post.. !! Incredible !!

In any case coalition politics has not been new to India and Dr Singh is not the only Prime Minister to have run into this morass. Before him, Morarji Desai, Charan Singh, VP Singh, Chandrashekhar,, Deve Gowda, Inder Gujral and Atal Behari Vajpayee headed coalitions too and all of them ruled a government which worked as a team and which did not pull in different directions. But to the best of public knowledge ,there was no

instance under any previous coalitions where a Minister repeatedly circumvented the instructions of the Prime Minister, without fearing the consequences of his action as Telecom Minister A Raja did. The Minister kept making a hash of 2G spectrum allocation and the Prime Minister kept watching like a hapless bystander. !!

Even more shocking was the case of S band spectrum scam where the entire cabinet and the PMO was ware of the terms of contract given to Devas multimedia before signing the contract way back in January 2005 and it woke up to annul the same only after a TV news channel broke the story in February 2011. This was a clear case of the entire Cabinet becoming a party to this decision and yet the Prime Minister blamed coalition politics as the bane. !!


None of the previous Prime Ministers blamed their difficulties and embarrassments to collation politics as not only they told their political associates in clear terms about the “ Rubicon” as well as the bottom line and they never allowed their politics allies to dictate terms in matters of national importance. Least of all, none of these Prime Ministers made a public show of their “helplessness’ ,however weak and short-lived their term would have remained.

That Dr Manmohan Singh is not a great communicator is well known. But then he had three Media Advisors in the PMO coming from print, electronic media as well as information service. They would have been entrusted with the responsibility to inform and educate the people about the government’s messages and corrective and remedial measures on many issues of national importance. Instead of that, the PM’s media Advisor behaved more like a policemen by reminding them that: the PM was for interaction and not for interrogation” and in the process, lost a bit of goodwill of even those journalists who had gone with an open mind.

As the budget session of the Parliament had started, the opposition parties are going to launch more scathing and stringent attack on the government and the Prime Minister himself in particular and it would be quite difficult for Dr Singh to maintain his” sheen as Mr. Clean”

The one department which is going to breath down the neck of the Executive now is the Judiciary in the coming days and the government would have tough time explaining its conduct in a series of scams which have already broken. The UPA II government would find it all the more difficult to deal with the trio of CJI Mr Kapadia, IB Chief Nehchal Sandhu and CBI Director AP Singh as compared to the previous batch of CJI like K G Balakarishna, Sabharwal, former CBI directors Vijay Shankar Tiwari and Ashwini Kumar as well as former IB chief Rajiv Mathur.

The government would be put on the bigger scanner for its various acts of omissions and commission in a series of scams of huge proportions by the judiciary and investigative agencies and the growing public anger and angst against the UPA II government would make the life miserable for Dr Singh. The general public is already feeling terribly let down by this government and one hopes that the Prime Minister would someday listen to the call of his conscience and make an honorable exit from the top post than keep getting pilloried by the public and even his own colleagues in a daily basis.

रविवार, 4 जुलाई 2010

एस.पी.सिंह की याद

हिंदी पत्रकारिता के इतिहास में यूँ तो कई चमकते सितारे अपनी रौशनी बिखेर गए मगर एस.पी.सिंह की बात ही कुछ और थी / वो एक आला सहाफी होने के अलावा उतने ही कद्दावर इंसान और युगद्रष्टा थे. टेलीविजन पत्रकारिता के वे जनक थे. फितरत से राजा मगर हमेशा एक आदमी की सोच को जितनी बारीकी से समझने की क्षमता उनमें थी वो शायद आज के दौर में किसी भी मूर्धन्य पत्रकार में नहीं दिखाई देती.

मैं ये तो नहीं दावा कर सकता की उनके बहुत करीबी लोगों या दोस्तों में से था क्योंकि मेरा उनका संबंध आजतक से ही जुड़ा और वहीँ पर ही खत्म हो गया. आजतक के दौर में हर वरिष्ठ पत्रकार अपने आस-पास चम्पूओं और चाटुकारों की फौज रखना लाजमी समझता है क्योंकि ये किरदार उसके खेल और जुगाड़ की दुकान ही चलाने में ही काम नहीं आते बल्कि उसका अपना तिलस्म सोंच की परिणिति तथा गोल या खास महकमा को बनाकर यथाविधि महिमा मंडन या विलाप को भी अंजाम देने में काफी कारगर हथियार के रूप में इस्तेमाल किया जाता है.

स्वर्गीय सुरेन्द्र प्रताप इन चोंचलों,चमचा, कलछा और बेलचा की फौज की सोच और समझदारी से काफी ऊपर थे. उनकी सबसे बड़ी और अनोखी शख्सियत की पहचान और रंगबत थी - बेदाग़ छवि एवं बड़ा कद. मुलाजमत की मजबूरी और ज्याती रिश्तें के बीच उन्होंने कभी समझौता नहीं किया. इसलिए उनके दर्शक और सहयोगी - दोनों उनके ईमानदारी और बेबाकी के कायल थे. लफ़्ज़ों की लज्जत और ख़बरों में छुपी सच्चाई को परखने की उनमें अदभुत क्षमता थी और उसके लिए वो कभी समझौता नहीं करते थे. इस बात को मैंने खुद कई बार महसूस किया. यहाँ तक कि अगर पीटूसी में भी एक लफ्ज़ गलत चला जाए तो वो पीटूसी काट दिया करते थे. मैंने अपनी पीटूसी में एक बार जानवर के बदले दरिंदा लफ़्ज का इस्तेमाल कर दिया तो वो भड़क उठे और वो खबर तब तक नहीं चलने दी जब तक मैंने सही लफ़्ज़ों का इस्तेमाल नहीं किया. शब्दों की मार या लफ़्ज़ों की सही लज्जत के बारे में असली मुहर लगाने वाला आज कोई नहीं दिखा.

जहां तक खबरों के पीछे की खबर की बात है तो उसमें वो अद्वितीय थे. रिपोर्टर चाहे कितनी भी दिमागी कसरत कर ले. मगर वो किसी खबर को महज दो वाक्यों में समझना चाहते थे. और खबर तभी होती है जब वो दो वाक्यों में समझ आ जाये. उनकी सोच बड़ी ही साफ़ थी. वो कहते थे एक आम आदमी को सीधे साफ़ लफ़्ज़ों में अगर खबर समझा दो तो तुम रिपोर्टर या संवाददाता हो, टेलीविजन इसी का नाम है. इसमें जनता तस्वीर देखना चाहती है. इसमें कोई आडम्बर या भूमिका का उतना महत्व नहीं. आजतक की खबरों का चुनाव और भाषा इसलिए अलग रही क्योंकि उसमें एस.पी की अपनी सोच और किरदार साफ़ दिखाई देता था. शायद इसी वजह से शिवसेना प्रमुख ने सभी शिवसैनिकों को रात के दस बजे आजतक नियमित रूप से देखने का फरमान जारी कर दिया था.

अगर सुबह 6 बजे फोन की घंटी बजी तो अक्सर वो एस पी का ही फोन होता था. सिर्फ दो वाक्य " अरे अजय फलानी खबर पक गयी सी लगती है. दोपहर अपलिंक कर देना।.. और वाकई में उस पकी खबर को वो अपने अंदाज़ में आजतक पर परोसते थे तो दर्शक उनके कायल हो जाते थे. ऐसा ही एक वाक्या था- प्रधानमंत्री देवगौड़ा और रामकृष्ण हेगड़े के बीच की तनातनी. मगर गौड़ा महाशय अपनी जुबान खोलने को तैयार नहीं थे. सारी कोशिशें बेकार होती दिखाई दे रही थी. मैंने अपने हमनाम साथी स्वर्गीय अजय चौधरी से अपनी मुश्किल बताई तो वो हंस कर बोले अरे बाबा बॉस से ही बात कर लो. क्या पता,कोई नया नुस्खा निकल आये.

खैर मैंने उन्हें फोन किया तो वो हंसने लगे और कहा अजीब अहमक हो यार तुम इतना भी नहीं कर सके. तो मैंने उन्हें पूरी बात बताई और कहा की वो हेगड़े के नाम पर तो गौड़ा महाशय माइक तोड़ कर चले जाते हैं और आपको ये खबर हर हाल में चाहिए. फिर क्या करूँ? इसी बीच किसी ने उनके कान में आकर कहा की कश्मीर के अनंतनाग में बवाल हो गया है और कई लोग फायरिंग में मारे गए. एक मिनट बाद उन्होंने वापस फ़ोन कर कहा " कल शाम को जैसे ही गौड़ा बंगलौर हवाई अड्डे पर उतरे तो सीधे उसके पास चले जाना। शुरुआत अनंतनाग से करना और बाद में जोर-शोर से बोलना शुरू कर देना कि हेगड़े बड़ा ही अच्छा नेता है. फिर गौड़ा महाशय कुछ गुल अवश्य खिलाएंगे और सब कुछ रिकॉर्ड कर लेना.

कमाल की सोंच थी ये. मैंने दूसरे दिन वैसा ही किया. आते ही गौड़ा जी के ऊपर अनंतनाग पर सवाल दागा. मगर बात उनके पल्ले नहीं पड़ी. वो कश्मीर के अनंतनाग के बदौलत जे.एच.पटेल मंत्रिमंडल के सदस्य तथा फिल्म अभिनेता श्री अनंतनाग पर बरस पड़े कि नालायक है अनंतनाग. दारु पीकर टुन्न रहता है. काम-काज कुछ नहीं करता. बुलाओ उसको.मैं अभी उसकी वाट लगाता हूँ.

मैंने फौरन राम कृष्ण हेगड़े का स्तुतिगान शुरू कर दिया. फिर क्या था. गौड़ा जी ने ऐसी लच्छेदार गालियों से हेगड़े को नवाजा कि मैं सन्न रह गया. शाम को एस.पी को फोन किया कि सब रिकॉर्ड तो हो गया, मगर जितनी गालियाँ दी है,उसका क्या करूँ, वो तो खबर में नहीं जा सकती. एस.पी बिगड़ गए. बोले यार मैंने तुम्हे उस पर तरस खाने के लिए थोड़े ही कहा है। याद रखो,तुम संजय हो,युद्धिष्ठिर या भीष्म नहीं। सारे बाइट्स का कन्नड़ से हिन्दी में अक्षरशः अनुवाद करके भेजो।

दूसरे दिन जब आजतक पर खबर चली तो हंगामा मच गया। मैंने फिर एस पी को फोन किया कि यहां तो लोग मेरा बुरा हाल कर देंगे। तो उनका जवाब था-"बस डटे रहो। भारत की जनता भी तो अपने गिरेबान में झांककर देखे कि किसके हाथ में सत्ता की बागडोर सौंपी है।"

ऐसा ही एक बार तब हुआ जब कोजेंट्रिक्स परियोजना पर गुस्से में तत्कालीन प्रधानमंत्री ने अपना कुर्ता निकाल फेंका था और श्रीमती मेनका गांधी को खरी-खोटी सुनाई थी। पर एस पी कहां माननेवाले थे। आजतक में वही खबर जस की तस चल गयी। फिर बवाल हुआ। तत्कालीन सूचना मंत्री सी.एम.इब्राहिम ने मुझे बंगलोर से हटाने तक की मांग कर डाली। मगर एस पी ने साफ इनकार करते हुए कहा कि ये संभव नहीं है। ऐसा संपादक आज के दौर में कहां मिलता है जो अपने एक संवाददाता के लिए अपनी कुर्सी तक दांव पर लगा दे। जब तक वो रहे,आजतक में काम करने का अलग ही उमंग और मजा था
एस.पी की एक और खास बात थी बच्चों जैसा भोलापन और सरलता। सन 1997 के आसपास जब उनको लगने लगा कि उनके नाम पर उनके दफ्तर के कुछ लोग अलग खेल करने लगे हैं तो वो बिफर पड़े और कहा कि आगे से सीधे मुझे सेल पर बात कर लिया करो। इसके अलावा कुछ नहीं सुनना।

मैं तमिलनाडु में चुनाव कवर करने गया था जो उनका फरमान था। एसाइनमेंट के आकाओं को ये बात नागवार गुजरी। एक-दो नए पिल्लों ने कुछ खुराफात भी की। मुझसे ये बर्दाश्त नहीं हुआ तो साफ कह दिया कि “मेरे अलावा सिर्फ अजय चौधरी से बात करना।” तमिलनाडु के चुनाव में DMK के द्वारा दो लाख साइकिलें बांटने की ख़बर पर वो मचल पड़े और बोले “मित्र बड़े अच्छे विजुअल्स हैं। मगर क्या ऐसा नहीं हो सकता कि वहां हर दो साल पर चुनाव करवाया जा सके?” मैं और अजय चौधरी दोनों अवाक् रह गए कि ये क्या बोल रहे हैं? फिर हिम्मत करके मैंने पूछा- इसकी कोई खास वजह? तो हंसते हुए बोले-“यार इसी बहाने दो-तीन लाख लोगों को साइकिल तो मिल जाया करेगा। क्या बुराई है इसमें? नेता लोग इसी बहाने अपने खीस से कुछ पैसे तो ढीला करेंगे?”

एस पी का सबसे बड़ा बल और उनकी कमजोरी भी थी साफगोई। उससे आगे वो किसी की भी नहीं सुनते थे। बनावट से वो नफरत करते थे। सलीके के घोर समर्थक थे। यहां तक कि PTC के साथ वीओ में भी किसकी आवाज किससे मिलती है इसका वो पूरा ख्याल रखते थे। इसलिए मेरी रिपोर्ट में वीओ अक्सर मृत्युंजय कुमार झा ही करते थे। सन् 1996 में बैग्लोर में हुए विश्व सुंदरी प्रतियोगिता में मेरी रिपोर्ट काटने तथा वीओ करने का काम दिबांग को सौंपा गया था। इससे काफी लोग नाराज भी हुए। मगर एस पी का निर्णय अटल था और दिबांग ने उन तमाम रिपोर्टों के साथ वाकई न्याय किया।

एस पी अपने सहकर्मियों की भावनाओं तथा संवेदनाओं का काफी ख्याल रखते थे। इसकी सबसे बड़ी मिसाल तब देखने को मिली जब आजतक के एक सहकर्मी के साथ कांशीराम ने दुर्व्यवहार किया था। एस पी और डॉ प्रणय राय को एक साथ राजपथ पर उतरते लोगों ने पहली बार देखा था।

मैंने तो इसे और करीब से जाना जब विश्व सुन्दरी प्रतियोगिता पर रिपोर्ट करने के दौरान आजतक की मालकिन मधु त्रेहन से मेरी कहा-सुनी हो गयी और मैंने तकरीबन सोच लिया था कि अगले दिन से काम पर नहीं आउंगा। वैसे भी मैं थोड़ा गुस्सैल था। ये बात कुछ लोगों ने उनके कान में डाल ही रखी थी। मगर जब एस पी को पूरी बात मालूम पड़ी तो वो बड़े नाराज हुए। पहले तो मुझे डांट लगायी कि उनको ये बात क्यों नहीं बतायी गयी? बाद में जाकर वो मधु त्रेहन से लड़ गए और कहा कि “अजय झा डोबरमैन है। वो एक ही कमांड सुनता है। आज से या तो मधु त्रेहन ही आजतक चलाएंगे या फिर मैं।” और वो शाम को अपना बैग लेकर दफ्तर से निकल गए थे। उस दिन के बाद से मधु त्रेहन ने आजतक में कोई दखल नहीं दिया।

ऐसा ही एक वाक्या था- सारे ब्यूरो चीफ की मीटिंग थी। आजतक के मालिक ने , आस्ट्रेलिया से कुछ एक्सपर्ट बुलाया था जो हमलोगों को टेलीविजन न्यूज की बारीकियां समझाए। मैं,अजय चौधरी,विजय विद्रोही,मृत्युंजय झा,राकेश शुक्ला,मिलिंद खाण्डेकर आगे बैठे हुए थे। दोपहर तक हमलोग उबने लगे थे। मिलिन्द ने एक चिट एस पी को भेज दिया कि हमलोग बाहर भागने के मूड में हैँ। उसी चिट पर उनका जवाब आया “लाला ने लाखों रुपये खर्च कर ये ताम-झाम लगाया है। चूतियापा मत करो। कल सूद समेत वापस चुका लेना।”

दूसरे दिन हमलोगों को कुछ और गुर सिखाए गए। हमलोग पके तो पहले से ही थे। हमलोगों ने अपनी मंशा एस पी जाहिर कर दी। वो मुस्कराकर बोले- “हद से बाहर नहीं जाना।” फिर हमलोगों ने आस्ट्रेलियाई टीम को दिल्ली की नयी सड़क से लेकर गफ्फार मार्केट में न्यूज कवरेज का वो जलवा दिखाया कि सब त्राहि-माम। शाम होते-होते बेचारे हमारे एक्सपर्ट धाराशायी। मालिक ने एस पी से शिकायत की- “तुम्हारे लड़कों ने मेहमानों के साथ बदसलूकी की। सारे बदहवास हैं। कुछ बीमार भी पड़ गये। ये क्या तरीका है?”

एस पी इसी का इन्तजार कर रहे थे। उन्होंने मालिक से दो टूक कह दिया-“हमारे बच्चों को ये सब सिखाने की जरुरत नहीं। वो अपना काम जानते हैं। केनवरा का मॉडल चांदनी चौक में नहीं चलता है। ऐसे निठल्लों को बाहर से बुलाकर भाषण दिलवाने से बेहतर है कि आप इन बच्चों की तनख्वाह बढ़ा दें। बाकी सबकुछ ये खुद ही संभाल लेंगे।”

शाम को जब हमलोग अशोक यात्री निवास वापस आये तो सबका मूड अलग था। बाद में अजय,मृत्युंजय,जे पी दीवान भी चले आये और फिर खाने-पीने की महफिल जम गयी। दूसरे दिन जब हमलोग विदा होने लगे तो कहा गया कि बियर - शराब का पैसा मालिक नहीं देंगे। बात फिर एस पी तक पहुंची। फिर उनका होटल मालिक का फोन आया कि वो सारे पैसे भिजवा दिए जाएंगे। बच्चों को जाने दिया जाए।

ऐसी दिलेरी,ऐसा अंदाज और ऐसे तेवरवाला पत्रकार शायद ही फिर देखने को मिले। एस पी सबसे बड़ी नियामत ये रही कि वो मरने के बाद भी अपनी पहचान और शक्ल एक-दो पत्रकारों को दे गए। एस पी का अंदाज-ए-बयां और वांकपन आज भी दोहराता है कि-

तुझसे बिछड़ा भी मैं तो ऐ दोस्त याद रख
चेहरे पे तेरे अपनी नजर छोड़ जाउंगा

ग़म तो होगा सबको,पर सबका ग़म होगा जुदा

ना जाने कितने दीदये-तर छोड़ जाउंगा.

एस पी की याद से ही आज भी आंखें बेसाख्ता लवरेज हो उठती है।..

एस.पी.सिंह की याद

हिंदी पत्रकारिता के इतिहास में यूँ तो कई चमकते सितारे अपनी रौशनी बिखेर गए मगर एस.पी.सिंह की बात ही कुछ और थी / वो एक आला सहाफी होने के अलावा उतने ही कद्दावर इंसान और युगद्रष्टा थे. टेलीविजन पत्रकारिता के वे जनक थे. फितरत से राजा मगर हमेशा एक आदमी की सोच को जितनी बारीकी से समझने की क्षमता उनमें थी वो शायद आज के दौर में किसी भी मूर्धन्य पत्रकार में नहीं दिखाई देती.

मैं ये तो नहीं दावा कर सकता की उनके बहुत करीबी लोगों या दोस्तों में से था क्योंकि मेरा उनका संबंध आजतक से ही जुड़ा और वहीँ पर ही खत्म हो गया. आजतक के दौर में हर वरिष्ठ पत्रकार अपने आस-पास चम्पूओं और चाटुकारों की फौज रखना लाजमी समझता है क्योंकि ये किरदार उसके खेल और जुगाड़ की दुकान ही चलाने में ही काम नहीं आते बल्कि उसका अपना तिलस्म सोंच की परिणिति तथा गोल या खास महकमा को बनाकर यथाविधि महिमा मंडन या विलाप को भी अंजाम देने में काफी कारगर हथियार के रूप में इस्तेमाल किया जाता है.

स्वर्गीय सुरेन्द्र प्रताप इन चोंचलों,चमचा, कलछा और बेलचा की फौज की सोच और समझदारी से काफी ऊपर थे. उनकी सबसे बड़ी और अनोखी शख्सियत की पहचान और रंगबत थी - बेदाग़ छवि एवं बड़ा कद. मुलाजमत की मजबूरी और ज्याती रिश्तें के बीच उन्होंने कभी समझौता नहीं किया. इसलिए उनके दर्शक और सहयोगी - दोनों उनके ईमानदारी और बेबाकी के कायल थे. लफ़्ज़ों की लज्जत और ख़बरों में छुपी सच्चाई को परखने की उनमें अदभुत क्षमता थी और उसके लिए वो कभी समझौता नहीं करते थे. इस बात को मैंने खुद कई बार महसूस किया. यहाँ तक कि अगर पीटूसी में भी एक लफ्ज़ गलत चला जाए तो वो पीटूसी काट दिया करते थे. मैंने अपनी पीटूसी में एक बार जानवर के बदले दरिंदा लफ़्ज का इस्तेमाल कर दिया तो वो भड़क उठे और वो खबर तब तक नहीं चलने दी जब तक मैंने सही लफ़्ज़ों का इस्तेमाल नहीं किया. शब्दों की मार या लफ़्ज़ों की सही लज्जत के बारे में असली मुहर लगाने वाला आज कोई नहीं दिखा.

जहां तक खबरों के पीछे की खबर की बात है तो उसमें वो अद्वितीय थे. रिपोर्टर चाहे कितनी भी दिमागी कसरत कर ले. मगर वो किसी खबर को महज दो वाक्यों में समझना चाहते थे. और खबर तभी होती है जब वो दो वाक्यों में समझ आ जाये. उनकी सोच बड़ी ही साफ़ थी. वो कहते थे एक आम आदमी को सीधे साफ़ लफ़्ज़ों में अगर खबर समझा दो तो तुम रिपोर्टर या संवाददाता हो, टेलीविजन इसी का नाम है. इसमें जनता तस्वीर देखना चाहती है. इसमें कोई आडम्बर या भूमिका का उतना महत्व नहीं. आजतक की खबरों का चुनाव और भाषा इसलिए अलग रही क्योंकि उसमें एस.पी की अपनी सोच और किरदार साफ़ दिखाई देता था. शायद इसी वजह से शिवसेना प्रमुख ने सभी शिवसैनिकों को रात के दस बजे आजतक नियमित रूप से देखने का फरमान जारी कर दिया था.

अगर सुबह 6 बजे फोन की घंटी बजी तो अक्सर वो एस पी का ही फोन होता था. सिर्फ दो वाक्य " अरे अजय फलानी खबर पक गयी सी लगती है. दोपहर अपलिंक कर देना।.. और वाकई में उस पकी खबर को वो अपने अंदाज़ में आजतक पर परोसते थे तो दर्शक उनके कायल हो जाते थे. ऐसा ही एक वाक्या था- प्रधानमंत्री देवगौड़ा और रामकृष्ण हेगड़े के बीच की तनातनी. मगर गौड़ा महाशय अपनी जुबान खोलने को तैयार नहीं थे. सारी कोशिशें बेकार होती दिखाई दे रही थी. मैंने अपने हमनाम साथी स्वर्गीय अजय चौधरी से अपनी मुश्किल बताई तो वो हंस कर बोले अरे बाबा बॉस से ही बात कर लो. क्या पता,कोई नया नुस्खा निकल आये.

खैर मैंने उन्हें फोन किया तो वो हंसने लगे और कहा अजीब अहमक हो यार तुम इतना भी नहीं कर सके. तो मैंने उन्हें पूरी बात बताई और कहा की वो हेगड़े के नाम पर तो गौड़ा महाशय माइक तोड़ कर चले जाते हैं और आपको ये खबर हर हाल में चाहिए. फिर क्या करूँ? इसी बीच किसी ने उनके कान में आकर कहा की कश्मीर के अनंतनाग में बवाल हो गया है और कई लोग फायरिंग में मारे गए. एक मिनट बाद उन्होंने वापस फ़ोन कर कहा " कल शाम को जैसे ही गौड़ा बंगलौर हवाई अड्डे पर उतरे तो सीधे उसके पास चले जाना। शुरुआत अनंतनाग से करना और बाद में जोर-शोर से बोलना शुरू कर देना कि हेगड़े बड़ा ही अच्छा नेता है. फिर गौड़ा महाशय कुछ गुल अवश्य खिलाएंगे और सब कुछ रिकॉर्ड कर लेना.

कमाल की सोंच थी ये. मैंने दूसरे दिन वैसा ही किया. आते ही गौड़ा जी के ऊपर अनंतनाग पर सवाल दागा. मगर बात उनके पल्ले नहीं पड़ी. वो कश्मीर के अनंतनाग के बदौलत जे.एच.पटेल मंत्रिमंडल के सदस्य तथा फिल्म अभिनेता श्री अनंतनाग पर बरस पड़े कि नालायक है अनंतनाग. दारु पीकर टुन्न रहता है. काम-काज कुछ नहीं करता. बुलाओ उसको.मैं अभी उसकी वाट लगाता हूँ.

मैंने फौरन राम कृष्ण हेगड़े का स्तुतिगान शुरू कर दिया. फिर क्या था. गौड़ा जी ने ऐसी लच्छेदार गालियों से हेगड़े को नवाजा कि मैं सन्न रह गया. शाम को एस.पी को फोन किया कि सब रिकॉर्ड तो हो गया, मगर जितनी गालियाँ दी है,उसका क्या करूँ, वो तो खबर में नहीं जा सकती. एस.पी बिगड़ गए. बोले यार मैंने तुम्हे उस पर तरस खाने के लिए थोड़े ही कहा है। याद रखो,तुम संजय हो,युद्धिष्ठिर या भीष्म नहीं। सारे बाइट्स का कन्नड़ से हिन्दी में अक्षरशः अनुवाद करके भेजो।

दूसरे दिन जब आजतक पर खबर चली तो हंगामा मच गया। मैंने फिर एस पी को फोन किया कि यहां तो लोग मेरा बुरा हाल कर देंगे। तो उनका जवाब था-"बस डटे रहो। भारत की जनता भी तो अपने गिरेबान में झांककर देखे कि किसके हाथ में सत्ता की बागडोर सौंपी है।"

ऐसा ही एक बार तब हुआ जब कोजेंट्रिक्स परियोजना पर गुस्से में तत्कालीन प्रधानमंत्री ने अपना कुर्ता निकाल फेंका था और श्रीमती मेनका गांधी को खरी-खोटी सुनाई थी। पर एस पी कहां माननेवाले थे। आजतक में वही खबर जस की तस चल गयी। फिर बवाल हुआ। तत्कालीन सूचना मंत्री सी.एम.इब्राहिम ने मुझे बंगलोर से हटाने तक की मांग कर डाली। मगर एस पी ने साफ इनकार करते हुए कहा कि ये संभव नहीं है। ऐसा संपादक आज के दौर में कहां मिलता है जो अपने एक संवाददाता के लिए अपनी कुर्सी तक दांव पर लगा दे। जब तक वो रहे,आजतक में काम करने का अलग ही उमंग और मजा था
एस.पी की एक और खास बात थी बच्चों जैसा भोलापन और सरलता। सन 1997 के आसपास जब उनको लगने लगा कि उनके नाम पर उनके दफ्तर के कुछ लोग अलग खेल करने लगे हैं तो वो बिफर पड़े और कहा कि आगे से सीधे मुझे सेल पर बात कर लिया करो। इसके अलावा कुछ नहीं सुनना।

मैं तमिलनाडु में चुनाव कवर करने गया था जो उनका फरमान था। एसाइनमेंट के आकाओं को ये बात नागवार गुजरी। एक-दो नए पिल्लों ने कुछ खुराफात भी की। मुझसे ये बर्दाश्त नहीं हुआ तो साफ कह दिया कि “मेरे अलावा सिर्फ अजय चौधरी से बात करना।” तमिलनाडु के चुनाव में DMK के द्वारा दो लाख साइकिलें बांटने की ख़बर पर वो मचल पड़े और बोले “मित्र बड़े अच्छे विजुअल्स हैं। मगर क्या ऐसा नहीं हो सकता कि वहां हर दो साल पर चुनाव करवाया जा सके?” मैं और अजय चौधरी दोनों अवाक् रह गए कि ये क्या बोल रहे हैं? फिर हिम्मत करके मैंने पूछा- इसकी कोई खास वजह? तो हंसते हुए बोले-“यार इसी बहाने दो-तीन लाख लोगों को साइकिल तो मिल जाया करेगा। क्या बुराई है इसमें? नेता लोग इसी बहाने अपने खीस से कुछ पैसे तो ढीला करेंगे?”

एस पी का सबसे बड़ा बल और उनकी कमजोरी भी थी साफगोई। उससे आगे वो किसी की भी नहीं सुनते थे। बनावट से वो नफरत करते थे। सलीके के घोर समर्थक थे। यहां तक कि PTC के साथ वीओ में भी किसकी आवाज किससे मिलती है इसका वो पूरा ख्याल रखते थे। इसलिए मेरी रिपोर्ट में वीओ अक्सर मृत्युंजय कुमार झा ही करते थे। सन् 1996 में बैग्लोर में हुए विश्व सुंदरी प्रतियोगिता में मेरी रिपोर्ट काटने तथा वीओ करने का काम दिबांग को सौंपा गया था। इससे काफी लोग नाराज भी हुए। मगर एस पी का निर्णय अटल था और दिबांग ने उन तमाम रिपोर्टों के साथ वाकई न्याय किया।

एस पी अपने सहकर्मियों की भावनाओं तथा संवेदनाओं का काफी ख्याल रखते थे। इसकी सबसे बड़ी मिसाल तब देखने को मिली जब आजतक के एक सहकर्मी के साथ कांशीराम ने दुर्व्यवहार किया था। एस पी और डॉ प्रणय राय को एक साथ राजपथ पर उतरते लोगों ने पहली बार देखा था।

मैंने तो इसे और करीब से जाना जब विश्व सुन्दरी प्रतियोगिता पर रिपोर्ट करने के दौरान आजतक की मालकिन मधु त्रेहन से मेरी कहा-सुनी हो गयी और मैंने तकरीबन सोच लिया था कि अगले दिन से काम पर नहीं आउंगा। वैसे भी मैं थोड़ा गुस्सैल था। ये बात कुछ लोगों ने उनके कान में डाल ही रखी थी। मगर जब एस पी को पूरी बात मालूम पड़ी तो वो बड़े नाराज हुए। पहले तो मुझे डांट लगायी कि उनको ये बात क्यों नहीं बतायी गयी? बाद में जाकर वो मधु त्रेहन से लड़ गए और कहा कि “अजय झा डोबरमैन है। वो एक ही कमांड सुनता है। आज से या तो मधु त्रेहन ही आजतक चलाएंगे या फिर मैं।” और वो शाम को अपना बैग लेकर दफ्तर से निकल गए थे। उस दिन के बाद से मधु त्रेहन ने आजतक में कोई दखल नहीं दिया।

ऐसा ही एक वाक्या था- सारे ब्यूरो चीफ की मीटिंग थी। आजतक के मालिक ने , आस्ट्रेलिया से कुछ एक्सपर्ट बुलाया था जो हमलोगों को टेलीविजन न्यूज की बारीकियां समझाए। मैं,अजय चौधरी,विजय विद्रोही,मृत्युंजय झा,राकेश शुक्ला,मिलिंद खाण्डेकर आगे बैठे हुए थे। दोपहर तक हमलोग उबने लगे थे। मिलिन्द ने एक चिट एस पी को भेज दिया कि हमलोग बाहर भागने के मूड में हैँ। उसी चिट पर उनका जवाब आया “लाला ने लाखों रुपये खर्च कर ये ताम-झाम लगाया है। चूतियापा मत करो। कल सूद समेत वापस चुका लेना।”

दूसरे दिन हमलोगों को कुछ और गुर सिखाए गए। हमलोग पके तो पहले से ही थे। हमलोगों ने अपनी मंशा एस पी जाहिर कर दी। वो मुस्कराकर बोले- “हद से बाहर नहीं जाना।” फिर हमलोगों ने आस्ट्रेलियाई टीम को दिल्ली की नयी सड़क से लेकर गफ्फार मार्केट में न्यूज कवरेज का वो जलवा दिखाया कि सब त्राहि-माम। शाम होते-होते बेचारे हमारे एक्सपर्ट धाराशायी। मालिक ने एस पी से शिकायत की- “तुम्हारे लड़कों ने मेहमानों के साथ बदसलूकी की। सारे बदहवास हैं। कुछ बीमार भी पड़ गये। ये क्या तरीका है?”

एस पी इसी का इन्तजार कर रहे थे। उन्होंने मालिक से दो टूक कह दिया-“हमारे बच्चों को ये सब सिखाने की जरुरत नहीं। वो अपना काम जानते हैं। केनवरा का मॉडल चांदनी चौक में नहीं चलता है। ऐसे निठल्लों को बाहर से बुलाकर भाषण दिलवाने से बेहतर है कि आप इन बच्चों की तनख्वाह बढ़ा दें। बाकी सबकुछ ये खुद ही संभाल लेंगे।”

शाम को जब हमलोग अशोक यात्री निवास वापस आये तो सबका मूड अलग था। बाद में अजय,मृत्युंजय,जे पी दीवान भी चले आये और फिर खाने-पीने की महफिल जम गयी। दूसरे दिन जब हमलोग विदा होने लगे तो कहा गया कि बियर - शराब का पैसा मालिक नहीं देंगे। बात फिर एस पी तक पहुंची। फिर उनका होटल मालिक का फोन आया कि वो सारे पैसे भिजवा दिए जाएंगे। बच्चों को जाने दिया जाए।

ऐसी दिलेरी,ऐसा अंदाज और ऐसे तेवरवाला पत्रकार शायद ही फिर देखने को मिले। एस पी सबसे बड़ी नियामत ये रही कि वो मरने के बाद भी अपनी पहचान और शक्ल एक-दो पत्रकारों को दे गए। एस पी का अंदाज-ए-बयां और वांकपन आज भी दोहराता है कि-

तुझसे बिछड़ा भी मैं तो ऐ दोस्त याद रख
चेहरे पे तेरे अपनी नजर छोड़ जाउंगा

ग़म तो होगा सबको,पर सबका ग़म होगा जुदा

ना जाने कितने दीदये-तर छोड़ जाउंगा.

एस पी की याद से ही आज भी आंखें बेसाख्ता लवरेज हो उठती है।..